नुपूर शर्मा प्रकरणः जजों को भी उनके फैसले के लिए जवाबदेह ठहराने की जरूरत (Nupur Sharma Episode: Judges also need to be held accountable for their decisions)

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

राजस्थान के उदयपुर में एक दुकानदार की कट्टरपंथी और वहशियों द्वारा दिन दहाड़े गला रेत कर दी गई वीभत्स और दिल दहला देने वाली हत्या की वारदात और देश भर में हिंसा और दंगे के लिए सीधे-सीधे भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता रही नुपूर शर्मा को ज़िम्मेदार ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों की विवादास्पद टिप्पणी के बाद देश में लोगों के मन में यह विचाक कौंधने लगा है कि जैसे आम भारतीय नागरिक को उसके कार्य, उसकी टिप्पणी या उसके फैसले के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है ठीक उसी तरह जजों को भी उनके कार्य, उनकी टिप्पणी और उनके फैसले के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

नुपूर शर्मा को टीवी पर पूरे देश से माफ़ी मांगने की सलाह देते हुए न्यायाधीश द्वय जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने मौखिक टिप्पणी की थी कि उनके बयान से देश के लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं। जज द्वय के इस विवादास्पद कमेंट से कई रिटायर्ड जज, नौकरशाह और बुद्धिजीवी तो हैरान रह गए कि सुप्रीम कोर्ट के जज यह किस तरह का कमेंट कर रहे हैं। इसके बाद सोशल एवं डिजिटल मीडिया पर दोनों जजों के कमेंट पर प्रतिकूल टिप्पणी की गई, जिससे आहत होकर जस्टिस पारदीवाला ने सोशल एवं डिजिटल मीडिया पर जजों की टिप्पणी या फ़ैसले की आलोचना को रोकने के लिए क़ानून बनाने की पैरवी की है।

आरंभ से भारत में न्यायाधीशों के फ़ैसले पर किसी भी तरह की टिप्पणी करना अदालत की अवमानना की कैटेगरी में आता है। इसलिए अमूमन लोग न्यायाधीशों के फ़ैसले पर बिल्कुल भी टिप्पणी नहीं करते हैं। यहां तक कि अदालत के कथित तौर पर अनुचित एवं ग़लत प्रतीत होने वाले फ़ैसले भी लोग भारी मन से स्वीकार कर लेते हैं। अक्सर एक ही मुकदमें का अलग-अलग फैसला आ जाता है। मतलब निचली अदालत कुछ फैसला देती है, हाई कोर्ट कुछ फैसला देता है और सुप्रीम कोर्ट कुछ और कहता है। मतलब मुजरिम, मुकदमा और सबूत वही, लेकिन फैसले जितने जज उतने तरह के आते हैं। इससे दुविधा की स्थिति पैदा होती है कि किसका फैसला न्याय है।

बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करने वाली तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता का केस इसकी जीती-जागती मिसाल है। सितंबर 2014 में बेंगलुरु की निचली अदालत के जज जॉन माइकल डिकुन्हा ने जयललिता को चार साल की सजा सुनाई। उन्हें जेल भेजा और 10 साल चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दिया। जय ललिता को सीएम पद छोड़ना पड़ा। मई 2015 कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस सीआर कुमारसामी ने जयललिता को बरी कर दिया। वह पुनः मुख्यमंत्री बन गई। 14 फरवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों जस्टिस पीसी घोष और जस्टिस अमिताव रॉय की बेंच ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। लेकिन तब तक जयललिता का निधन हो चुका था। उसी मामले में उनकी सहेली शशिकला जेल में हैं।

कहने का मतलब जस्टिस कुमारसामी के पक्षपातपूर्ण फैसले के चलते सत्ता का दुरुपयोग और भ्रष्टाचार करने वाली जयललिता सजा पूरा करने से पहले ही जेल से बाहर आ गई और मुख्यमंत्री बन गई। मुख्यमंत्री के रूप में उसका निधन हुआ तो पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार किया गया। एमसी रामचंद्रन की समाधि के बग़ल में उनकी समाधि बनवाई गई। जबकि वह सम्मान की नहीं जेल में जीवन गुजारने की पात्र थी। इसके लिए क्या जस्टिस कुमारसामी को ग़लत एवं पक्षपातपूर्ण फैसला देने के लिए जवाबदेह ठहराकर दंडित नहीं किया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

छह मई 2015 को दोपहर मुंबई सेशन कोर्ट के जज डब्ल्यू डी देशपांडे ने हिट एंड रन केस में सलमान को पांच साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई, पर फैसला सुनाने के दो घंटे के भीतर ही बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस अभय थिप्से ने उन्हें ज़मानत देकर जेल जाने से बचा लिया। बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस एआर जोशी ने 10 दिसंबर को सबको हैरान करते हुए निचली अदालत का फैसला ही पलट दिया और सलमान को रिहा कर दिया। नौ दिन बाद वह रिटायर भी हो गए। महाराष्ट्र सरकार के फैसले के खिलाफ अपील पर सात साल से सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चल रहा है। अगर सुप्रीम कोर्ट सलमान को दोषी ठहरा दे तो क्या होगा?

इस तरह इतिहास को टटोलेंगे तो भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में कई जजों ने हज़ारों की संख्या में इस तरह के विरोधाभासी और ग़लत फैसले दिए हैं, लेकिन किसी के फैसले पर न तो कभी कोई टिप्पणी हुई और न ही किसी जज को ज़िम्मेदार ठहराया गया। कहने का तात्पर्य जज भी हाड़-मांस का बना इंसान होता है। उसका परिवार होता है। वह सामाजिक प्राणी होता है। लिहाज़ा, उसके भी कुछ वेस्टेड इंटरेस्ट हो सकते हैं। यानी कहीं न कहीं उसके भी मैनेज्ड हो जाने की संभावना रहती है। इसलिए भारतीय संविधान में जवाबदेही का प्रावधान होना चाहिए ताकि जिस न्य़ायाधीश का फैसला पलटा जाए, या जिसकी टिप्पणी वापस लेनी पड़े, उसके खिलाफ़ कार्रवाई की जा सके।

नुपूर शर्मा पर टिप्पणी के इतर कई बार तो कई जजों ने ग़लत आचरण किया लेकिन उसके लिए उन्हें दंडित नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस एके गांगुली पर तो 2013 में एक लॉ इन्टर्न ने 24 दिसंबर को होटल के कमरे में यौन-शोषण का सनसनीखेज़ आरोप लगाया। इसी तरह अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मचारी ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई पर ही यौन उत्पीड़न का आरोप लगा दिया। लंबे समय तक वह प्रकरण सुर्खियों में रहा। यौन-उत्पीड़न जैसा गंभीर आरोप लगने के बावजूद दोनों में से किसी जज के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।

न्यायाधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करना इसलिए भी ज़रूरी है कि समय समय पर न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। 1989-91 में देश के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस रंगनाथ मिश्रा (पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र के चाचा) ने 1984 के सिख दंगों के केस में कांग्रेस के नेताओं को क्लीन चिट दी थी। सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज के रूप में उन्होंने सिख की हत्या की जांच करने वाले आयोग की अध्यक्षता की। आरोप लगा था कि पूछताछ और जांच की कार्यवाही पक्षपातपूर्ण तरीक़े से निपटायी गई थी, जबकि आधिकारिक जांच रिपोर्ट और सीबीआई जांच में कांग्रेस के नेताओं के ख़िलाफ़ गंभीर साक्ष्य मिले थे। बहरहाल, कांग्रेस ने रंगनाथ मिश्रा को पुरस्कृत करते हुए राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिया।

1991 में 18 दिनों के लिए मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति कमल नारायण सिंह पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। आरोप लगा था कि जैन एक्सपोर्ट्स और उसकी सिस्टर कन्सर्न जैन शुद्ध वनस्पति के पक्ष में फ़ैसला देते समय जज साहब अप्रत्याशित रूप से बेहद उदार हो गए। उनके आदेश से कंपनी ने औद्योगिक नारियल का तेल आयात किया था, जबकि उस पर प्रतिबंध लगा था। कंपनी पर कस्टम विभाग के लगाए 5 करोड़ रुपए के ज़ुर्माने को भी जस्टिस केएन सिंह ने अपने आदेश में घटाकर 35 फ़ीसदी कम कर दिया। हालांकि बाद में न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया ने उस आदेश को रद्द कर दिया और टिप्पणी भी की, “मैं वर्तमान हलफ़नामे पर टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं लेकिन मैं न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बारे में चिंतित हूं।”

सन् 1994-1997 के दौरान मुख्य न्यायाधीश रहे एएम अहमदी पर पक्षपात और भ्रष्टाचार का सनसनीखेज़ आरोप लगा था। जस्टिस अहमदी ने भोपाल गैस त्रासदी में हज़ारों नागरिकों को इंसाफ़ से वंचित किया था। उन्होंने हत्या के लिए ज़िम्मेदार यूनियन कार्बाइड कंपनी के ख़िलाफ़ अपराधी हत्या के आरोप को ही खारिज कर दिया। उनके फ़ैसले पर भी गंभीर टिप्पणी हुई कि न्याय के साथ विश्वासघात हुआ। सबसे मज़ेदार बात यह रही अहमदी ने बाद में यूनियन कार्बाइड अस्पताल ट्रस्ट मंडल का अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं अहमदी ने पर्यावरण संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अंगूठा दिखाते हुए बड़खल और सूरजकुंड झील के पांच किलोमीटर के दायरे में कांत एनक्लेव, फरीदाबाद में अपना शानदार घर बनवाया। 1998 में मुख्य न्यायाधीश रहे एमएम पुंछी का एक फ़ैसला पक्षपातपूर्ण एवं भ्रष्टाचार वाला लगा था। उन्होंने शिकायतकर्ता से समझौता करने के आरोप में जेल की सज़ा भुगत रहे एक प्रभावशाली व्यक्ति को अपने मन से बरी करने का फैसला सुनाया दिया। जबकि यह नॉर्म का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन था।

मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर तो फ़र्ज़ी हलफ़नामे से ज़मीन हथियाने के एक नहीं तीन-तीन गंभीर आरोप लगे। जस्टिस आनंद पर आरोप था कि उन्होंने जम्मू कश्मीर के होटल व्यापारी के पक्ष में फ़ैसला दिया, बदले में व्यापारी ने उनकी बेटी को औने-पौने दाम पर भूखंड दे दिया। जस्टिस सेन ने तो अपने ख़िलाफ़ घोटाले को प्रकाशित करने वाले पत्रकार विनीत नारायण को बहुत टॉर्चर किया था। उनको अब तक का सबसे भ्रष्ट मुख्य न्यायाधीश कहें तो हैरानी नहीं। वह कितने ताक़तवर थे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भ्रष्टाचार के बारे में जज से क़ानून मंत्री राम जेठमलानी ने स्पष्टीकरण मांगा तो जस्टिस ने उनको क़ानून मंत्री पद से ही हटवा दिया।

न्यायमूर्ति वाईके सभरवाल भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे। उन्होंने कुछ बिल्डरों और न्यायाधीश के बेटों को फायदा पहुंचाने के लिए दिल्ली में कॉमर्शियल गालों को सील करने का आदेश दिया। इसके बाद उनका बेटा भी रियल इस्टेट के कारोबार में उतर गया और एक लाभ पाने वाले बिल्डर का पार्टनर बन गया। सबसे हैरानी वाली बात यह रही कि उनके बेटे की कंपनी का पंजीकृत ऑफिस न्यायाधीश का सरकारी घर था। विनीत नारायण की किताब ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ के मुताबिक में कहा गया कि हवाला कांड के मुख्य न्यायाधीश रहे जगदीश शरण वर्मा ने एक साज़िश के तहत बिना सघन जांच के ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसके अलावा समय समय पर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज ऐसे फ़ैसले देते रहे हैं, जिनसे फेवर और भ्रष्टाचार की बू आती है।

जैसा कि जस्टिस पादरीवाला ने कहा है कि सोशल एवं डिजिटल मीडिया पर जजों की टिप्पणी या फ़ैसले की आलोचना को रोकने के लिए क़ानून बनाया जाना चाहिए। उनकी बात सही है, लेकिन रोक अनावश्यक कमेंट पर होना चाहिए। वैसे यही बात जजों पर भी लागू होनी चाहिए। ऊपर दिए गए तमाम उदाहरण यह इंगित करते हैं कि न्यायपालिका पर भी चेक एंड बैलेंस फॉर्मूला लागू होना चाहिए। लिहाज़ा, जजों को निरंकुश नहीं छोड़ा जाना चाहिए। मतलब जिस जज का कोई फ़ैसला क़ानून की प्रचलित परंपराओं के विपरीत जाता दिखे, उन्हें प्रमोशन या बड़ी ज़िम्मेदारी देने से परहेज़ करना चाहिए। इतना ही नहीं यह भी ग़ौर करना कि किसी न्यायाधीश ने अपने कार्यकाल में कितने मुक़दमे का ईमानदारी से निपटारा किया। क्या उसने अनावश्यक मुक़दमे एक दो सुनवाई में निपटाया। इसके अलावा असंवेदनशील मुक़दमों को कुछ सीमित सुनवाई के बाद निपटाने की भी प्रावधान होना चाहिए। इससे मुक़दमों की बढ़ती संख्या पर रोक लगेगी। इतना ही नहीं, जजों की संख्या में बढ़ोतरी भी की जानी चाहिए और हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति कोलेजियम की बजाय संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा के द्वारा होना चाहिए। इससे बड़ी अदालते परिवार वाद से मुक्त होंगी।

जो भी हो, स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को जवाबदेह और ज़िम्मेदार बनाया जाए ताकि इन संस्थानों की मर्यादा और विश्वसनीयता बरकरार रहे। पूरे विश्व की तरह भारतीय समाज में भी न्यायपालिका को बहुत सम्मान की नज़र से देखा जाता रहा है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो जनता का यह विश्वास अब तक कायम रहा, क्योंकि शीर्ष अदालतों में बैठे न्यायाधीश किसी पर भी कोई टिप्पणी सोच-समझ कर करते थे। वे न्यायायल की सत्ता स्वायत्ता और स्वतंत्रता के रक्षक रहे। ऐसे में ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट में उन्हीं जजों की नियुक्ति की जाए, जो किसी पर भी संतुलित टिप्पणी करें। अन्यथा न्यायपालिका का सम्मान घट जाएगा, जैसा कि नुपूर शर्मा के केस में हुआ है। न्यायपालिका का सम्मान घटने से जम्हूरियत की बुनियाद कमज़ोर होगी, जो कि नहीं होनी चाहिए।

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