कपिल पाटील
मरकज़ के नाम पर न जाने कितना शोर मचाया गया, कितनी नफरत फैलाई गई। एक बार शक का कीड़ा तो हमारे मन में भी पनपने लगा था। अहमदाबाद की ट्रम्प यात्रा देश को कोरोना देकर गई, लेकिन इस बात को दबा दिया गया। दाढ़ी वालों के नाम पर आग लगाने में तो वो लोग हमेशा ही आगे रहते हैं। लेकिन जब कोविड ग्रस्त हिन्दू लाशों का अंतिम क्रियाकर्म करने की परिवार वालों की हिम्मत नहीं थी, तब मुंबई के प्रसिद्ध बड़े कब्रिस्तान से मुसलमान आगे आए। एक-दो नहीं, बल्कि 300 से ज़्यादा हिंदू लाशों का अंतिम संस्कार उन मुस्लिम कार्यकर्ताओं ने किया। बिल्कुल हिन्दू रीति रिवाज़ों से। गले में तुलसी की माला पहनकर। अर्थी सजाकर, चिता रचकर। छेद वाले मटके से पानी की धार बहाकर… प्रदक्षिणा लगाकर। इसके बाद महानगर पालिका की प्रोटोकॉल के अनुसार विद्युत शवदाह गृह में मुखाग्नि दिया। मंत्रोच्चार किया। मोबाइल पर Whatsapp Video Call पर उनके परिवार को अंतिम क्रियाकर्म दिखाया। अगर किसी ने विनती की तो अस्थि विसर्जन भी कर दिया। जिन्होंने मांगा, उनके घर अस्थि भी पहुंचाई। और इन सबके लिए उन्होंने एक भी पैसा नहीं लिया। उल्टे पंडित जी को दान दक्षिणा भी दिया। सुरक्षित अंतर रखकर पंडित जी निर्देश देते रहे और नमाजी टोपीधारी मुसलमान मंत्रोच्चारण करके अंतिम संस्कार करते रहे।
कूपर हॉस्पिटल से हिन्दू लाश लेकर टिपिकल मुसलमानी पहनावे में जब 6 लोग ओशिवरा श्मशान भूमि में पहली बार पहुंचे, तो श्मशान के कर्मचारी डर गए। पर उनके पास बाक़ायदा मृत्यु प्रमाण पत्र था। हॉस्पिटल का पत्र था और परिवार का वीडियो मैसेज भी था। श्मशान के कर्मचारी तैयार हो गए। पहले दिन उन मुसलमान कर्मचारियों को सब कुछ नया होने के कारण अड़चन ज़रूर आई, लेकिन सब पूछ-पूछ कर उन्होंने अंतिम संस्कार किया। हिन्दुओं में भी, एक नहीं, अनेक मान्यताएं, प्रथाएं हैं। उन्होंने परिवार द्वारा बताई गई हर प्रथा हर संस्कार का पालन किया। एक परिवार में तो केवल एक बेटी थी। कोई भी रिश्तेदार आने को तैयार नहीं था। इक़बाल ममदानी उस लड़की को लेकर बाणगंगा गए। श्रीराम द्वारा वनवास के समय यहां आने की कथा प्रचलित है। उनके तीर से ही यहां गंगा अवतरित हुई थी, ऐसी दन्तकथा है। उस बाणगंगा पर इक़बाल भाई ने लड़की के पिता का विधिवत अस्थि विसर्जन किया।
एक महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के कानपुर के पास एक गाँव में एक हिन्दू वृद्ध की मृत्यु हो गई। उनकी लाश को अपने कंधों पर उठा कर, हाथ में अग्नि का घड़ा लेकर और ‘राम नाम सत्य है’ का जाप करते हुए मुसलमानों ने उनकी अंतिम यात्रा निकाली। लॉकडाउन के कारण अंतिम संस्कार में उनका कोई भी रिश्तेदार नहीं पहुंच सकता था। गाँव में सभी मुसलमान थे, केवल एक घर हिन्दू का था। उस घर में सभी लोग शहर में नौकरी करते थे। बूढ़े आदमी की देखभाल मुसलमान पड़ोसी ही करते थे। लेकिन प्रश्न ये था कि अंतिम संस्कार कैसे किया जाए। रिश्तेदारों ने कह दिया था कि आप लोग ही उनका अंतिम संस्कार कर दीजिए। आख़िर मुस्लिम युवक इकट्ठा हुए और उनका अंतिम संस्कार किया। उस वीडियो में आपने राम नाम सत्य है की ध्वनि सुनी होगी। लेकिन मुंबई में 300 लाशों के अंतिम संस्कार में राम नाम सत्य है की वही ध्वनि सुनी जा सकती थी। क्योंकि पास होकर भी कोरोनाग्रस्त लाश को कौन छूने को कोई भी तैयार नहीं था।
जलगाँव के एक शिक्षक की कोरोना से मौत हो गयी। उनका अंतिम संस्कार करने, उनकी अर्थी को कंधा देने कोई नहीं आया। सब लोग दूर से देख रहे थे। उनके बेटे ने अपने पिता के शव को अकेले अपने कंधों पर उठाया। उसने सब अकेले कैसे किया होगा, ये वही जानता होगा। लेकिन इक़बाल ममदानी और उनके सहयोगियों का साथ दिया बड़े कब्रिस्तान के चेयरमैन शोएब ख़तीब ने। कई लोगों के लिए तो उन्होंने कब्रिस्तान में जगह भी उपलब्ध कराई। हिंदुओं का अंतिम संस्कार करते समय अपना धर्म भ्रष्ट होगा, ऐसा विचार भी उनके मन में नहीं आया। उन्होंने न केवल हिंदुओं की लाशों का, बल्कि कुछ पारसियों और ईसाइयों की लाशों का भी उनके धार्मिक संस्कारों के अनुसार निस्तारण किया। पारसी भाइयों के रिवाज़ अलग हैं। ईसाई भाइयों के रिवाज़ अलग हैं। पर सारे संस्कार उनके धर्म के अनुसार ख़तीब और ममदानी की टीम ने निभाए।
इक़बाल ममदानी ने बताया, हम मुस्लिम लाशों को दफ़ना रहे थे। उन्हें विधिवत दफ़नाया जा रहा था। तभी हमारा ध्यान गया कि मुर्दाघर में कई लाशें पड़ी थीं। हमने डॉक्टर से पूछा। तो उन्होंने कहा, ये हिन्दुओं की लाशें हैं। कोई इन्हें ले जाने को तैयार नहीं है। महानगर पालिका के कर्मचारी भी अब कम पड़ रहे हैं। ममदानी ने उनसे पूछा, “अगर हम इनका अंतिम संस्कार करें तो चलेगा क्या?” हम इनका अंतिम संस्कार इनके रीति रिवाज़ के अनुसार ही करेंगे। डॉक्टर ने कहा, इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है, बस आवश्यक अनुमतियाँ ले लें, तब आप ये कार्य कर सकते हैं।
उन सभी अनुमतियों को प्राप्त करने के बाद, अप्रैल, मई, जून और अब जुलाई में चार महीनों से लगातार ये टीम काम कर रही है। इस टीम में दो सौ युवा हैं। लेकिन जिन सात लोगों ने इस कार्य की शुरुआत की थी, उनके नामों का उल्लेख तो मुझे ज़रूर करना चाहिए। बड़ा कब्रिस्तान के चेयरमैन शोहेब ख़तीब, वरिष्ठ पत्रकार इक़बाल ममदानी, उद्यमी शाबिर निर्बन, एडवोकेट इरफ़ान शेख़, उद्यमी सलीम पारेख, उद्यमी सोहेल शेख़, सामाजिक कार्यकर्ता रफ़ीक सुरतीया। आज भी ये लोग ये कार्य कर रहे हैं। शुरूआत में परेशानी हुई, एंबुलेंस की, शववाहिनियों की।
कोविड ग्रस्तों के रिश्तेदार ही नहीं आ रहे थे, तो उन्हें एंबुलेंस कहाँ मिलेगा? ममदानी और ख़तीब ने तब एक तरीक़ा खोजा। उन्होंने बेकार और खराब पड़े एंबुलेंस का पता लगाया। उन्हें ठीक कराया। अब वे लगातार काम कर रहे हैं। ख़तीब भाई, इक़बाल भाई और उनकी पूरी टीम इस काम के लिए एक भी रुपया नहीं लेते। सभी ख़र्च वे स्वयं उठाते हैं। कुछ परोपकारी लोगों ने उनकी मदद की है। लेकिन वे रिश्तेदारों से एक भी पैसे नहीं लेते हैं। इक़बाल भाई का कहना है कि लॉकडाऊन के कारण लोग पहले ही आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। ऐसे में उनसे अंतिम संस्कार के पैसे कैसे मांगें? ऐसा इक़बाल भाई का सवाल था। इक़बाल भाई, उनके सहयोगी और इस काम में शामिल 200 मुस्लिम युवा अपने परिवारों की परवाह किए बिना लगातार काम कर रहे हैं। इन लोगों को प्यार से गले लगाने की इच्छा आपकी भी हो रही होगी न।
देश में नफ़रत फैलाने वाले, हिंदू-मुस्लिम, हिंदू-मुस्लिम करनेवाले, व्हाट्सएप पर गंदी भाषा इस्तेमाल करनेवाले तारणहारों की कमी नहीं है। क्या वे कभी अपनी आंखों पर बंधी काली पट्टी हटाएंगे? क्या द्वेष और घृणा से भरे पित्त की उल्टी करके बाहर निकाल देंगे? क्या ममदानी, ख़तीब और उनके साथी से प्यार से गले मिलेंगे? इस सवाल का जवाब हां होगा, ऐसी आशा है। आख़िर उम्मीद क्यों छोड़ें?
(लेखक महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य, राष्ट्र सेवा दल के कार्यकारी विश्वासपात्र और लोक भारती पक्ष के अध्यक्ष हैं।)
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