सरोज कुमार
कोरोना वायरस महामारी की रफ्तार भले ही मंद पड़ गई है, लेकिन महंगाई का मन लगता है अभी भरा नहीं है। महंगाई लगातार बनी हुई है, बल्कि बढ़ रही है। भूराजनैतिक परिस्थितियां इसमें खाद का काम कर रही हैं। कमाई के अभाव में महंगाई की ऊर्ध्व दिशा आम आदमी को किस दशा में पहुंचाएगी, कह पाना कठिन है। अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में महंगाई और कमाई को केंद्र में नहीं रखा गया तो देश की दशा भी दयनीय होगी। महंगाई दर के ताजा आंकड़े फिलहाल कुछ ऐसा ही संकेत दे रहे हैं।
महंगाई दर हद से फिर बेहद हो गई है। आठ महीने के उच्चस्तर पर। लगातार दूसरे महीने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की लक्षित अधिकतम सीमा के पार। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) पर आधारित खुदरा महंगाई दर फरवरी में बढ़कर छह दशमलव सात फीसद हो गई। जनवरी में यह छह दशमलव एक फीसद थी। इसी तरह थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) पर आधारित थोक महंगाई दर फरवरी में बढ़कर तेरह दशमलव एक एक फीसद हो गई, जो जनवरी में बारह दशमलव नौ छह फीसद थी। चिंता की बात यह कि थोक महंगाई दर लगातार ग्यारह महीने से दो अंकों में बनी हुई है। नवंबर 2021 में यह चौदह दशमलव नौ फीसद के ऐतिहासिक उच्चस्तर पर पहुंच गई थी। दिसंबर में थोड़ा नीचे आई, फिर भी तेरह दशमलव पांच छह फीसद पर। फरवरी 2021 में थोक महंगाई दर चार दशमलव आठ तीन फीसद थी।
थोक महंगाई दर बढ़ने से विनिर्माण लागत बढ़ती है, और अंत में उसकी कीमत आम उपभोक्ताओं को चुकानी पड़ती है। खुदरा महंगाई दर में मौजूदा वृद्धि इसी अभिक्रिया का परिणाम है। थोक महंगाई दर में वृद्धि का मूल कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि है। महामारी के कारण लंबे समय तक ठप आर्थिक गतिविधियों के शुरू होने से कच्चे माल की मांग तेजी से बढ़ी है। जबकि आपूर्ति महामारी से पहले की स्थिति में नहीं पहुंच पाई है। इसके पीछे निर्यातक देशों की कुछ लालच, तो कुछ बाहरी परस्थितियां जिम्मेदार हैं। अब इसमें रूस-यूक्रेन युद्ध की नई परिस्थिति जुड़ गई है। युद्ध के कारण आपूर्ति श्रृंखला बुरी तरह बाधित हुई है, परिणामस्वरूप पूरी दुनिया ऊंची कीमतों की तपिश से झुलसने लगी है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत सौ डॉलर प्रति बैरल को पार कर गई है। इसके और ऊपर जाने की आशंका है। भारत अपनी जरूरत का अस्सी फीसद से अधिक कच्चा तेल आयात करता है।
एक अनुमान के मुताबिक, कच्चे तेल की कीमत दस फीसद बढ़ने से महंगाई दर शून्य दशमलव तीन फीसद से शून्य दशमलव चार फीसद तक बढ़ जाती है, और जीडीपी विकास दर को लगभग शून्य दशमलव बीस फीसद का नुकसान होता है। यूक्रेन संकट के बाद से कच्चे तेल की कीमत में पच्चीस फीसद से अधिक की वृद्धि हो चुकी है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व ने चालीस साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंची महंगाई से निपटने के लिए ब्याज दर में पच्चीस आधार अंकों की वृद्धि की योजना बनाई है। इस वृद्धि के बाद कच्चा तेल और महंगा हो जाएगा। भारत का आयात बिल बढ़ जाएगा। आम आदमी के साथ ही अर्थव्यवस्था के लिए यह मुश्किल भरी परिस्थिति होगी।
खुदरा महंगाई दर का ताजा आंकड़ा एक विचित्र चित्र प्रस्तुत करता है, जो खासतौर से देश की ग्रामीण आबादी के लिए चिंताजनक है। फरवरी में ग्रामीण महंगाई दर छह दशमलव तीन आठ फीसद, और शहरी महंगाई दर पांच दशमलव सात पांच फीसद रही है। जबकि फरवरी 2021 में तस्वीर बिल्कुल उलट थी -ग्रामीण महंगाई दर चार दशमलव एक नौ फीसद और शहरी महंगाई दर पांच दशमलव नौ छह फीसद। शहरों की तुलना में गांवों में महंगाई दर का ऊंचा होना नए नकारात्मक आर्थिक रुझान का संकेत है, वह भी खाद्य पदार्थों की महंगाई के कारण। गांवों में खाद्य महंगाई दर पांच दशमलव आठ सात फीसद रही है, तो शहरों में पांच दशमलव सात छह फीसद। महंगाई की यह दर तब है, जब मांग महामारी से पहले के स्तर पर नहीं पहुंच पाई है। यह महंगाई मांग के कारण नहीं है। आरबीआइ ने फरवरी 2022 में अपनी द्विमासिक मौद्रिक नीति समीक्षा में कहा था कि घरेलू मांग का आधार निजी उपभोग अभी भी महामारी से पूर्व के स्तर पर नहीं पहुंच पाया है।
आरबीआइ ने अपनी नीतिगत दर यानी रेपो रेट चार फीसद पर यथावत रखी थी। बाजार में मांग बढ़ाने के मकसद से आरबीआइ ने पिछले बीस महीनों से नीतिगत दर में कोई वृद्धि नहीं की है। अंतिम बार 22 मई, 2020 को रेपो रेट घटाकर चार फीसद कर दिया गया था, जो अप्रैल 2001 से अबतक की सबसे कम दर है। लेकिन कर्ज बांटने पर केंद्रित आरबीआइ का यह कदम, महामारी के बीच बने अस्थिर वित्तीय वातावरण के कारण बहुत कारगर साबित नहीं हो पाया है। अलबत्ता इसका उलटा असर दिखा है। बैंकांे ने जमा पर ब्याज दर घटाई तो बुजुर्गों, विधवाओं, पेंशनधारकों, सामाजिक संस्थाओं से जुड़े लोगों का जीवन कठिन हो गया। ब्याज से होने वाली आय घटी तो बजट बिगड़ गया, और खर्च में कटौती करनी पड़ी। इससे जहां एक तरफ बाजार में मांग घटी, तो वहीं दूसरी तरफ संबंधित लोगों की सामाजिक सुरक्षा को भी चोट पहुंची है।
आरबीआइ का अनुमान था कि वित्त वर्ष 2021-22 की चौथी तिमाही में यानी जनवरी से मार्च की अवधि के दौरान खुदरा महंगाई दर पांच दशमलव सात फीसद रहेगी। लेकिन जनवरी, फरवरी के आंकड़े और मार्च के रुझान इस अनुमान को असंभव बना रहे हैं। फिर भी महंगाई पर नियंत्रण के जो उपाय आरबीआइ के पास हैं, उसे आजमाने को लेकर उसके हाथ बंधे हुए हैं। मांग बढ़ाने के जिस मकसद से बैंक ने नीतिगत दर को चार फीसद के निम्न स्तर पर अबतक बनाए रखा है, वह अभी पूरा नहीं हुआ है। अर्थव्यवस्था महामारी से पूर्व की स्थिति में नहीं आ पाई है। वैसे भी महंगाई की यह बीमारी अलग किस्म की है। और यह आरबीआइ की नीतिगत दवाई से नियंत्रण में नहीं आने वाली।
महंगाई जब बाजार में मांग बढ़ने के कारण बढ़ती है, तब आरबीआइ ब्याज दर बढ़ा कर मांग घटाने की कोशिश करता है। कमाई न होने से यहां तो मांग पहले से घटी हुई है। कमाई का आधार, रोजगार बाजार में हाहाकार मचा हुआ है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआइई) के आंकड़े कहते हैं कि फरवरी में बेरोजगारी दर आठ दशमलव एक शून्य फीसद पर पहुंच गई, जो जनवरी में छह दशमलव पांच सात फीसद थी। मार्च में भी अभी यह लगभग साढ़े सात फीसद पर बनी हुई है। यानी जो रोजगार से कमाई कर सकते हैं, उनके पास रोजगार नहीं है, और जो ब्याज की कमाई पर आश्रित हैं, उनका यह आधार खिसक गया है। लेकिन महंगाई बढ़ रही है।
महंगाई बढ़ने से मांग के और नीचे जाने की आशंका है। इससे रोजगार घटेंगे। अर्थव्यवस्था डांवाडोल होगी। आरबीआइ ने मौजूदा वित्त वर्ष के लिए नौ दशमलव दो फीसद और अगले वित्त वर्ष के लिए सात दशमलव आठ फीसद विकास दर का अनुमान लगाया है। लेकिन मौजूदा परिस्थिति में यह लक्ष्य दूर की कौड़ी लगता है। आरबीआइ के डिप्टी गवर्नर माइकल पात्रा ने अप्रैल में होने वाली द्विमासिक मौद्रिक नीति समीक्षा में इस अनुमान की समीक्षा करने का संकेत दिया है।
महंगाई पर नियंत्रण का दूसरा रास्ता आपूर्ति को बढ़ाना और कर को घटाना है। लेकिन सरकारी खजाना पहले से खाली है, और कर्ज का बोझ जीडीपी के 90 फीसद से ऊपर पहुंच चुका है। विनिवेश के जरिए राजस्व जुटाने का रास्ता भी बहुत फलदायी नहीं दिख रहा है। ऐसे में सरकार के पास अधिक गुंजाइश नहीं बच रही। न कर घटा कर राहत देने की, और न महंगाई के बढ़ते दबाव को पहले से दबी-कुचली जनता के ऊपर डालने की ही। एक तरफ कुंआ है, तो दूसरी तरफ खाई। महंगाई की आर्थिक मार तो पीड़ादायक है ही, सामाजिक मार अधिक दर्दनाक है। यह भावनाओं की नमी सोख लेती है, संबंधों के धागे छिन्न-भिन्न कर देती है। समाज पतन की ओर बढ़ता है, तो मानवीय अपराध को बढ़ावा मिलता है। कुल मिलाकर आगे की राह कठिन है। और इस कठिन राह को पार पाने जिस कौशल की जरूरत है, उसका नाम है -बाजार से मुक्ति। यही है महंगाई का मुक्ति मार्ग, जिसकी वकालत महात्मा गांधी ने की थी।
(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)
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