महात्मा गांधी और नरेंद्र मोदी में क्या है कॉमन?

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भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मोहनदास करमचंद गांधी ऐसा नाम है जिसने बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, कवियों, लेखकों और कारोबारियों समेत आम जन-मानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। भारत में लोग गांधी को राष्ट्रपिता के अलावा प्यार से बापू भी कहते हैं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और अपने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों की बदौलत गांधी अपने समकालीन लोगों पर गहरा असर छोड़ने में सफल रहे है। यहां महात्मा गांधी की एक खास विशेषता या स्वभाव की चर्चा की जा रही है, जो कमोबेश उतनी ही हद तक जुनूनी तौर पर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में भी देखने को मिलती है। वस्तुतः दोनों गुजरात में गुजराती परिवार में पैदा हुए थे, लेकिन दोनों एक बात बहुत ही ज़्यादा कॉमन थी। संभवतः बड़ी संख्या में लोग उस खासियत को नहीं जानते हैं।

नरेंद्र मोदी सूचना प्रौद्योगिकी के चरम यानी लाइव टेलीकास्ट के दौर में प्रधानमंत्री हैं, जहां संचार संबंधी कोई समस्या ही नहीं है। जो दूरी या डिस्टेंस आदिकाल से मानव के लिए गंभीर चुनौती थी, उसकी इस दौर में एक तरह से डेथ हो चुकी है। मतलब दुनिया में दूरी यानी डिस्टेंस का अस्तित्व ही नहीं रह गया है। पूरी दुनिया एक छोटे से गांव में तब्दील हो गई है। दूसरी ओर महात्मा गांधी उस दौर में थे, जब दूरी एक बड़ा फैक्टर थी। गांधी के दौर में न तो कंप्यूटर नहीं था और न ही लैपटॉप। बापू के समय मीडिया भी आज जैसी उन्नत नहीं थी। सोशल मीडिया के बारे में तो उस समय तब कोई कल्पना भी नहीं करता था। महात्मा गांधी के उस दौर में दूरी पर रहने वाले व्यक्ति के साथ संवाद बहुत मुश्किल था। संचार मीडिया की हालत यह थी कि दूर-दराज के किसी व्यक्ति से बातचीत करने के लिए ट्रंक कॉल बुक करना पड़ता था।

आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी हर छोटी-बड़ी बात, विचार, कार्यक्रम सोशल मीडिया पर शेयर करते रहते हैं। अपने हर कार्यक्रम को सोशल मीडिया पर लाइव कर देते हैं। इसीलिए लोग प्रधानमंत्री को सेल्फ-मार्केटिंग का बादशाह कहते हैं, क्योंकि उनसे जूड़ी हर छोटी-बड़ी बात के बार में उनके प्रशंसकों साथ साथ उनके आलोचक भी वेल-इनफॉर्म्ड रहते हैं। नरेंद्र मोदी जानते कि कौन सा मुद्दा या कौन सी घटना ज्यादा मीडिया अटेंशन देगी या किस तरह का कार्यक्रम उन्हें चर्चा में रखेगी। वह कही जाते हैं तो वहां की भौगोलिक या ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र करके वहां के लोगों से अपनापन का रिश्ता बना लेते हैं। सेल्फ मार्केटिंग की अपनी इसी खूबी के चलते लोग उनके मुरीद हो गए हैं। एक तरह से नरेंद्र मोदी की यही असली ताकत है, जो उन्हें देश के महानायकों के फेहरिस्त में ला दिया है। लेकिन अगर भारतीय राजनीति के इतिहास में सौ साल पीछे जाएं तो पता चलता है कि भारतीय राजनीति के पुरोधा गांधी सेल्फ मार्केटिंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी बहुत आगे थे।

जी हां, जैसे मोदी जानते हैं कि मीडिया या सोशल मीडिया का इंपैक्ट किस तरह का और कितना होता है, उसी तरह गांधी भली भांति जानते थे कि मीडिया की ताकत क्या होती है। दरअसल, महात्मा गांधी के दौर में न तो कंप्यूटर नहीं था और न ही लैपटॉप। बापू के समय मीडिया भी आज जैसी उन्नत नहीं थी। सोशल मीडिया के बारे में तो तब कोई कल्पना भी नहीं करता था। महात्मा गांधी के दौर में संचार मीडिया की हालत यह थी कि दूर-दराज के किसी व्यक्ति से बातचीत करने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ता था। इतने सीमित संसाधनों के बावजूद गांधी अपनी जमकर सेल्फ-मार्केटिंग करते थे। गांधी बड़ी संख्या में लोगों को पत्र लिखा करते थे। पत्र के आदान प्रदान में लंबा वक़्त लगता था और आज उन्हें देश के राष्ट्रपिता का दर्जा मिला हुआ है।

1992 का दौर गांधी के लिए कठिन संघर्ष का दौर था। बॉम्बे हाईकोर्ट में वरिष्ठ कांग्रेसी फिरोजशाह मेहता द्वारा दिए गए तीन मुकदमे बतौर वकील वह हार चुके थे और मुकदमा हारने के बाद गुजरात वापस चले गए थे और रोजगार के लिए कोई दूसरा काम करने की सोच रहे थे। उसी दौरान उनके किसी परिचित से दक्षिण अफ्रीकी कारोबारी सेठ अब्‍दुल्‍ला मिले। उन्हों ने कहा कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो गुजरातीभाषी हो और कानून की बारीकियां समझता हो और उसे गुजराती से अंग्रज़ी में अनुवाद करना जानता हो। वकालत की डिग्री रखने वाले गांधी उनके लिए बहुत सुपात्र थे। लिहाज़ा, दक्षिण अफ्रीका में अपने वकील की मदद के लिए अब्दुल्ला ने गांधी को चुन लिया। इस तरह गांधी का दक्षिण अफ्रीका जाने की योजना बनी और वह नटाल रवाना हो गए। अगस्त करने के लिए महात्मा गांधी नटाल रवाना हो गए और मई 1893 में नटाल के जरबन शहर में पहुंच गए।

वस्तुतः मई में दो ऐसी घचटनाएं हुईं, जो महात्मा गांधी के जीवन के प्रवाह को ही बदल कर रख दिया।
26 मई 1893 जज ने उनसे अदालत में पगड़ी उतारने को कहा, जिसे गांधी ने मना कर दिया। पांच दिन बाद 31 मई 1893 को पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन पर में रेल के प्रथम श्रेणी कोच से अंग्रेजों ने उन्हें बाहर कर दिया। ये दोनों खबरें जब भारत पहुंची और यहां से गांधी को अप्रत्याशित समर्थन मिला। गांधी रातोंरात चर्चा में आ गए। उसी समय गांधी के समझ में आ गया कि संचार माध्यम कितना शक्तिशाली होता है। इसके बाद तो गांधी जी अपनी हर छोटी बड़ी बात को अखबारों में शेयर करने लगे। उस समय के अखबार गांधी के हर समाचार और हर लेख को सहर्ष छाप रहे थे, इसके बावजूद गांधी उतने से संतुष्ट नहीं हुए। लिहाज़ा, उन्होंने अपना खुद का अखबार निकालने का फैसला किया। 4 जून 1903 को इंडियन ओपीनियन का प्रकाशन ओपीनियन शुरू भी हो गया। इसके बाद हरिजन, यंग इंडिया, दैनिक नवजीवन और हरिजनसेवक जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से वह पाठकों से जुड़े रहे।

दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटने के बाद एक बार वह इलाहाबाद के दौरे पर आए। उस समय पायोनियर देश का जाना पहचाना अखबार था। पायोनियर विंस्टन चर्चिल और रुडयार्ड किप्लिंग महान हस्तियां पत्राकारिता कर चुकी थीं। गांधी जानते थे कि अगर उनके दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए किए गए आंदोलन की खबर पायोनियर में छप जाए और यहा भी पता चल जाए कि वह इलाहाबाद में हैं तो लोगों पर अच्छा इंपैक्ट होगा। इसके बाद वह पायोनियर दफ्तर पहुंच गए और संपादक को अपने बारे में बताया और कहा कि वह अपने दक्षिण अफ्रीका के आंदेलन पर एक लेख लिखना चाहते हैं। तो संपादक सहर्ष तैयार हो गए और गांधी का लेख संपादकीय पेज पर छप गया। साथ में एक समाचार भी छप गया कि गांधी इलाहाबाद प्रवास पर है। इस लेख और समाचार के चलते अचानक से गांधी इलाहाबाद में सुर्खियों में आ गए।

इसीलिए 9 जनवरी 1915 को जब वह स्वदेश लौटे, तब कांग्रेस में एक से एक धाकड़ नेता थे। दो-तीन साल तो गांधी इधर से ऊधर घूमते रहे। इस दौरान वह जब भई समय मिलता अपनी मार्केटिंग करते रहते थे। 1918 में गांधी कुंभ मेले में पहुंच गए। संगम में डुबकी लगाने के बाद देश के कोने-कोने से आए लोगों से मिले और उनसे बातचीत की। गांधी जब स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्र में आए तब वह अपने साथ हमेशा किसी न किसी पत्रकार को रखते थे। वह अपने जीवन की छोटी-छोटी बातें बताते थे और उसकी पब्लिसिटी करवाते थे। इस तरह कह सकते हैं कि आजकल नरेंद्र मोदी भी गांधी के नक्शे कदम पर चलते हुए प्रचार पाने के कोई भी मौका नहीं गंवाते। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। हर आदमी प्रचार का भूखा होता है। कोई अपनी खबरें, अपने बारें छपवाना चाहता है तो कोई अपनी लिखी हुई सामग्री को प्रकाशित होने देखना चाहता है। यह मानव स्वभाव है। लिहाज़ा, इस बिना पर न तो गांधी और न ही मोदी को ग़लत ठहराया जा सकता है।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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