हरिगोविंद विश्वकर्मा
पठान गिरोह और दाऊद गिरोह के बीच दुश्मनी ख़त्म होने की बजाय बढ़ती ही जा रही थी। इससे शहर में तो ख़ून-खराबा हो ही रहा था, दोनों ओर के अनगिनत गुंडे बेमौत मारे जा रहे थे। ऐसे में डॉन मिर्ज़ा हाजी मस्तान ने शांति पहल करने का फैसला किया। वह सामने आकर दोनों गिरोह के लोगों को आमने सामने बिठाकर सुलह-समझौता करवाया। दोनों पक्ष के लोगों ने कुरान की कसम खाकर मौजूदा दुश्मनी को भूल जाने की शपथ ली। इस तरह हाजी मस्तान मिर्ज़ा की पहल से दाऊद गैंग और पठान गैंग के बीच समझौता हो गया। इसके बाद मुंबई में ख़ून-खराबे का सिलसिला कुछ दिनों के लिए थम गया। इससे साबिर और दाऊद थोड़े लापरवाह हो गए। उन्हें लगा, पठानों ने कुरान की कसम ली है सो, धोखा देने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
खैर, बहुत बाद में दाऊद को अहसास हुआ कि वह समझौता नहीं, बल्कि दरअसल, उसके गिरोह को ख़त्म करने की एक बड़ी साज़िश थी। उसके गिरोह की कमर तोड़ने और खुद उसे कमज़ोर करने की रणनीति के तहत समझौते का पाशा फेंका गया था। दरअसल, दिनों-दिन अंडरवर्ल्ड में साबिर-दाऊद का बढ़ता क़द पठान गिरोह को रास नहीं आ रहा था। ख़ासकर पठान गिरोह के आमिरज़ादा और आलमज़ेब को तो बहुत अखर रहा था। उन्हें लगा कि यदि दाऊद गैंग को शिकस्त देनी है तो दाऊद-साबिर की यह जोड़ी तोड़नी होगी। दोनों में से किसी एक को ख़ुदा के पास भेजना होगा। उन्होंने अपने पंटर इस मकसद से छोड़ दिए ताकि साबिर या दाऊद में से किसी एक की कमज़ोर कड़ी का पता लग सके। जल्द ही एक पंटर ने सूचना दी कि साबिर अहमद अकसर कांग्रेस हाऊस के पास मुजरा करने वाली एक नामचीन तवायफ़ के यहां अक्सर जाता रहता है।
बड़े अपराधी उन दिनों रईसों के साथ-साथ अक्सर टाइम पास करने के लिए हुस्नवालों के कोठे पर पहुंच जाया करते थे। ग्रैंटरोड रेलवे स्टेशन से आधा मील पूरब का पूरा इलाक़ा हुस्न की मलिकाओं से हरदम गुलज़ार रहता था। जिस्म के कारोबार को ध्वस्त करने वाली एड्स जैसी ख़तरनाक बीमारी ने, तब तक इस जरायम पेशे में दस्तक ही नहीं दी थी, इसलिए मुंबई में जिस्म-फ़रोशी का धंधा ख़ूब फल-फूल रहा था। शहर का बहुत बड़ा वर्ग, ख़ासकर अकेले रहने वाले लोग, मुज़रा सुनने और मौज़-मस्ती के लिए अकसर हुस्नवालों की गलियों का चक्कर लगाते देखे जाते थे। जिनकी हैसियत कम होती वे कमाठीपुरा, फॉकलैंड रोड के ब्रोथल्स में चले जाते थे जबकि जेब में ज़्यादा माल रखने वाले अमीरज़ादे कांग्रेस हाऊस के आसपास चलने वाले तवायफ घरों और कोठों का रुख किया करते थे। या कई लोग लड़की को लेकर किसी होटल में चले जाया करते थे, या उसे ही अपने होटल में बुला लिया करते थे।
बताया जाता है कि उन दिनों कांग्रेस हाऊस इलाक़े में चित्रा और नंदा नाम की दो तवायफें बहुत मशहूर हुआ करती थीं। दोनों बला की ख़ूबसूरत थीं। उनके हुस्न और हुनर की चर्चा शहर ही नहीं, शहर के बाहर भी थी। वे तशरीफ़ लाने वाले दिलजलों का दिल बहलाने के लिए मुज़रे भी पेश किया करती थीं। जेब में पैसे रखने वाला हर शख्स उनकी महफ़िल में आकर उनके पैरों की घुंघरू और सुरीले गले की आवाज़ सुनने को तत्पर रहता था। लेकिन मौक़ा बहुत ही कम लोगों को मिल पाता था। एक दिन साबिर को भी चित्रा की महफ़िल में तशरीफ़ लाने का मौक़ा मिल गया। चित्रा ने अपने नए आशिक़ का दिल खोलकर इस्तक़बाल किया। साबिर का वक़्त उस दिन इतना अच्छा गुज़रा कि वह अकसर चित्रा की महफिल में तशरीफ़ लाने लगा। उसने महसूस किया कि चित्रा को लेकर उसमें अजीब तरह की बैचैनी होने लगी है। दरअसल, उसे चित्रा से इश्क हो गया था।
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उधर दाऊद को पता चल गया कि उसके भाई को ग्रांटरोड की सबसे ख़ूबसूरत तवायफ़ चित्रा से मोहब्बत हो गई है। दाऊद दिलजला था। वह जानता था कि उसका भाई दिलफेंक टाइप इंसान है। दाऊद को तो इश्क-विश्क ही नहीं, बल्कि लड़कियों के नाम तक से चिढ़ थी। लिहाज़ा, वह अपने भाई को लेकर परेशान होने लगा, क्योंकि किसी तवायफ के चक्कर में उसकी बसी-बसाई गिरस्ती के बिगड़ने का ख़तरा था। परंतु साबिर अपने मन का राजा था, वह कहां मानने वाला था।
दरअसल, साबिर से पहले तवायफ़ चित्रा के दिल में करीम लाला का एक ख़तरनाक शूटर बसा था। परंतु दिल के दरवाज़े पर साबिर की दस्तक होने के बाद चित्रा ने करीम लाला के शूटर के लिए अपने दिल का दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद कर दिया और वह पूरी तरह से साबिर की होकर रह गई। वस्तुतः वह साबिर की शरीक़-ए-हयात बनने की ख़्वाहिशमंद थी। उसने अपने मुजरे का पेशा भी बंद कर दिया क्योंकि उसके तमाम ख़र्च साबिर ही वहन करने लगा था। साबिर अपनी महबूबा के लिए अकसर ही महंगी साड़ियां, गहने या दूसरे उपहार लाता रहता था।
साबिर यूं तो शादीशुदा और एक बच्चे का बाप था। उसकी शादी हुस्न की मलिका पठान कन्या शाहनाज़ से हुई थी। दरअसल, शाहनाज़ एक पठान युवक से प्रेम करती थी। लेकिन जब साबिर ने उसे देखा तो देखता ही रह गया। पहली नज़र में ही उसका होकर रहा गया। उसने इजहार-ए-मोहब्बत भी कर दी और उससे निकाह करने की तरकीब खोजने लगा। किसी तरह बहला-फुसलाकर नहीं, बल्कि डरा-धमका कर उसे निकाह के लिए राजी भी कर लिया। दाऊद को बड़े भाई की यह हरकत हिलकुल पसंद नहीं आई लेकिन उसकी इच्छा के चलते उसने शाहनाज़ को भाभी के रूप में क़बूल कर लिया। शादी के साल भर के भीतर साबिर बाप बन गया। बेटा सिराज़ एक साल का था, कि शाहनाज़ फिर गर्भवती हो गई। ऐसे में साबिर का ध्यान पूरी तरह चित्रा पर केंद्रित हो गया। उसके पास आना-जाना बहुत ज़्यादा बढ़ गया। अकसर उसे लेकर बांद्रा चला जाता था, जहां एक परिचित का फ़्लैट खाली रहता था। चित्रा भी साबिर जैसा दबंग डॉन प्रेमी के रूप में पाकर फूली न समाती थी। हर वक़्त प्रियतम से मिलने को तत्पर रहती थी।
उधर, साबिर के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए आमिरज़ादा ने नंदा से दोस्ती बढ़ा ली थी। उसके पास अकसर जाने लगा था। नंदा की बड़ी हसरत थी कि उसे भी साबिर जैसा ख़ूब प्यार करने वाला दबंग और रौबवाला आशिक़ मिले। वह उसे टूटकर चाहे। दबंग आशिक तो मिला, लेकिन वह उस पर उतना फ़िदा नहीं था, जितना चित्रा का आशिक़। आमिर को नंदा के ज़रिए साबिर के मूवमेंट की तमाम जानकारी मिलने लगी। उस पर वह नज़र रखने लगा। आमिर की कुटिल मुस्कान के रहस्य का पता जब नंदा को लगा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब कुछ नहीं हो सकता था। लिहाज़ा, नंदा शेष जीवन अपनी बेवकूफ़ी पर आंसू बहाती रही, जो उसने चित्रा और साबिर के बाहर जाने की इत्तिला आमिर को देकर करती रही। आख़िर उसकी वही जानकारी उसकी सबसे क़रीबी सहेली की गुलज़ार दुनिया के वीरान होने और साबिर की मौत की वजह बनी, लेकिन तीर हाथ से निकलने के बाद पछताने से कुछ नहीं होता है।
(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)
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