देश ने कारगिल घुसपैठ से कोई सीख ली होती तो गलवान विवाद न होता

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इसे ख़ूबसूरत संयोग कहेंगे। 26 जुलाई 1999 को भी रविवार था, जब सेना ने कारगिल को पाकिस्तानी घुसपैठियों से खाली करा लेने की घोषणा की थी और 26 जुलाई 2020 को भी रविवार है, जब देश में कारगिल विजय का उत्सव चल रहा है। 1999 में भी भाजपा नीत एनडीए सरकार थी। 2020 में भी भाजपा के ही नेतृत्व वाली एनडीए सरकार है। अंतर केवल इतना है, कि तब भाजपा के पास लोकसभा में केवल 182 सांसद थे, सो सरकार गठबंधन वाली थी, ख़ासकर छोटे दलों पर बुरी तरह निर्भर थी। आज भाजपा के पास 303 लोकसभा सदस्य के रूप में प्रचंड बहुमत है। यह बहुमत से 31 सीट अधिक है। यानी पार्टी को गठबंधन की ज़रूरत नहीं। गठबंधन करके भाजपा राजधर्म निभाकर छोटे दलों पर एहसान कर रही है। यह कार्य कोई बहुत बड़े दिल वाली राजनीतिक पार्टी ही कर सकती है। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में वही कार्य कर रही है।

यह भी संयोग है कि 1999 में भी भारतीय सीमा के अंदर दुश्मन घुस आया था और 2020 में भी दुश्मन भारतीय सीमा के अंदर घुस आया है। उस समय भी देश कारगिल पहाड़ी को मुक्त कराने के लिए हाथ पैर मार रहा था और आज भी देश गलवान घाटी के कुछ हिस्से को मुक्त कराने के लिए हाथ-पैर मार रहा है। तब और अब में केवल एक अंतर है। उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मान लिया था, कि दुश्मन हमारे क्षेत्र में घुस आया है, और भारत ने सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी थी। लेकिन इस बार प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी मानते ही नहीं कि दुश्मन हमारी सीमा में घुस आया है। लिहाज़ा, कोई सैन्य कार्रवाई नहीं हो रही है।

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मोदी औपचारिक रूप से बयान दे भी चुके हैं, “हमारी सीमा में न तो कोई घुसा है, न ही कोई घुस आया है।” मोदी के अनुसार चाइनीज पीपल लिबरेशन आर्मी भारतीय सीमा के अंदर नहीं घुसी है। हालांकि कुछ सेटेलाइट चित्र में बताया जा रहा है कि चीनी सेना अपनी पोजिशन से आगे बढ़कर भारत की तरफ़ आ गई है। किसी के भारतीय सीमा में न घुसने के बावजूद भारत और चीन के सैन्य कमांडर एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे हैं। गतिरोध को दूर करने की कोशिश की जा रही है। रिपोर्ट है कि भारत कह रहा है कि चीन की सेना अप्रैल वाली स्थिति में वापस चली जाए। किसी सरकार और उस सरकार के मुखिया के बीच तथ्यों में विरोधाभास की यह नज़ीर किसी देश के इतिहास में देखने को नहीं मिलेगी।

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बहरहाल, आज गलवान घाटी की विजय तो नहीं, बल्कि कारगिल विजय की 21वीं सालगिरह जरूर मनाई जा रही है। कह सकते हैं, देश में उत्सव का माहौल है। राफेल फाइटर प्लेन के आने की ख़बर ने इस उत्सव को बहुत व्यापक बना दिया है। यह उत्सव सरकार और टीवी चैनल्स पर थोक के भाव में दिख रहा है। टीवी समाचार सुनकर लग रहा है कि युद्ध शुरू हुआ नहीं कि भारतीय सेना केवल अक्साई चीन को हासिल नहीं करेगी, बल्कि तिब्बत को मुक्त कराती हुई बीजिंग तक पहुंच जाएंगी। मुमकिन है कि चीन के विघटन के लिए भारतीय सेना के साथ भारतीय टीवी चैनल्स ही ज़िम्मेदार होंगे।

कहना न होगा कि अगर भारत ने टीवी न्यूज़ का ईज़ाद 1960 के दशक में कर लिया होता तो शर्तिया भारतीय सैनिक चीन के साथ और जोश से युद्ध करते। तब युद्ध का परिणाम उलटा ही होता, लेकिन टीवी न्यूज का कल्चर तब शुरू नहीं हुआ था, लिहाज़ा भारत चीन से हार गया और चीन ने अरुणाचल प्रदेश के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया। लगे हाथ भाजपा एक एक्सक्यूज दे रही है कि कम से कम राहुल गांधी गलवान पर सवाल पूछने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि उनके नाना के शासन में देश के बड़े भूभाग पर चीन ने क़ब्ज़ा कर लिया था। इसी तर्क के साथ सरकार के मंत्री और भाजपा संगठन के लोग राहुल गांधी के सवालों का मुक़ाबला कर रहे हैं। लगे हाथ वे यह भी भ्रम पैदा कर रहे हैं कि इस समय कांग्रेस सत्ता में नहीं है, इसलिए राहुल गांधी को सवाल पूछने का अधिकार नहीं है। इसी बिना पर भाजपा वाले राहुल गांधी से नेहरू की गलती का हिसाब देने की मांग कर रहे हैं।

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वस्तुतः उत्सव के समय किसी मुद्दे पर सवाल करने वाले को नकारात्मक सोच यानी निगेटिव एट्टिट्यूट वाला कहा जाता है। इसलिए मौक़ापरस्त लोग उत्सव के समय सवाल नहीं करते है। चुपचाप उत्सव का हिस्सा बन जाते हैं। यह कांग्रेस के शासन में भी होता था और भाजपा के शासन में भी हो रहा है। जहां कांग्रेस विरोध करने वाले या सवाल पूछने वाले को किसी न किसी तरीक़े से दबा देती थी, वहीं भाजपा तो सवाल पूछने वाले को सीधे देशद्रोही कह देती है। इसके बावजूद यहां कुछ सवाल उठाए जा रहे हैं, जिनका जवाब मिलना चाहिए था लेकिन न तो मिला और न ही भविष्य में मिलेगा।

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यह बदसूरत संयोग है कि अपने को सबसे अधिक देशभक्त कहने वाली भाजपा का सीमा पर ट्रैक रिकॉर्ड 1999 और 2020 में ख़राब रहा। तब कारगिल में पाकिस्तानी घुस आए थे और आज गलवान घाटी में चीन घुस आया है। गलवान में चीनी घुसपैठ से यही लग रहा है कि इस देश ने कारगिल प्रकरण से कोई भी सीख नहीं ली। केवल कारगिल ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह को सेना से बर्खास्त करके कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई। यह गौर करने वाली बात है कि कारगिल घुसपैठ से पहले तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस अकसर सेना का यूनीफॉर्म पहन कर सीमा पर पहुंच जाते थे और चीन को भारत का नंबर एक दुश्मन करार देते थे।

मगर उनकी ही नाक के नीचे पाकिस्तान घुसा ही नहीं बल्कि अपनी स्थिति इतनी मज़बूत कर ली कि उसे हटाने में तीन महीने का वक्त लग गया। अगर हमारी सीमा में कोई घुस आया है तो सीधे तौर पर वहां के कमांडर, सेना प्रमुख, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। यह पूछा जाना चाहिए कि घुसपैठ और बंकर निर्माण की कार्रवाई रातोंरात तो हुई नहीं, जब यह हो रहा था, तब आप क्या कर रहे थे? आपको सीमा पर पिकनिक मनाने के लिए या सरहद की हिफ़ाज़त के लिए भेजा गया था? लेकिन ऐसा सवाल न तो जनरल वेद प्रकाश मलिक से हुआ न ही फर्नांडिस अथवा वाजपेयी से। यह ऐतिहासिक असफलता थी, जिसके लिए सरकार से कोई सवाल नहीं किया गया, जिसमें देश को कैप्टन सौरभ कालिया और कैप्टन विक्रम बत्रा समेत 527 जांबाज सैनिकों को खोना पड़ा था।

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दरअसल, कारगिल एपिसोड को विजय श्री के रूप में प्रचारित करके उन कारणों पर परदा डाल दिया गया, जिनके कारण कारगिल में घुसने की हिमाकत पाकिस्तानी सेना ने की थी। देशभक्ति का ऐसा सैलाब आया कि लोग भूल गए कि दुश्मन हमारी सीमा में घुसा और उसे निकालने में हमें अपने 527 जांबाज सैनिकों का बलिदान देना पड़ा। इसीलिए 1999 के चुनाव में कारगिल की असफलता नहीं बल्कि सोनिया गांधी का विदेशी मूल चुनावी मुद्दा था। यानी भाजपा आक्रामक मुद्रा में थी जबकि कांग्रेस अपना बचाव कर रही थी। चुनाव में भाजपा की सीटों में न तो कोई इजाफा हुआ न ही कमी। वह 182 पर बनी रही। हां कांग्रेस की सीटें 141 से घटकर 114 ज़रूर हो गई थीं। केंद्र में भाजपा सरकार बनी और पूरा देश विजय-विजय चिल्लाने लगा। यह लापरवाही अमेरिका में हुई होती तो वहां की जनता सरकार को उखाड़ फेंकती, लेकिन यहां तो वाजपेयी सरकार को जनता ने दोबारा सत्ता सौंप दी।

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कारगिल युद्ध कवर करने वाली पत्रकार हरिंदर बवेजा अपनी किताब “अ सोल्डर्स डायरीः कारगिल द इनसाइड स्टोरी” में लिखती हैं, कारगिल; 1999 पाकिस्तानी सैनिकों की पूरी की पूरी दो ब्रिगेड भारतीय क्षेत्र में घुस आई और अपनी मोर्चेबंदी कर ली थी। इसकी भारतीय सेना को ख़बर भी नहीं थी। मतलब आला सैन्य अफसर मानने के लिए भी तैयार नहीं थे कि घुसपैठ हुई है। लिहाज़ा, वे चेतावनियों की अनदेखी ही नहीं करते रहे, बल्कि घुसपैठियों की संख्या को कम बताते रहे और बहुत देर हो गई। पैदल सैनिकों को आधे-अधूरे नक्शों, साजो-सामान और हथियारों के साथ आगे ढकेल दिया गया। उन्हें यह भी जानकारी नहीं थी कि दुश्मनों की संख्या कितनी है या उनके हथियार कैसे हैं। वरिष्ठ पत्रकार मधु त्रेहान के साथ बातचीत में हरिंदर कहती हैं, “बटालिक क्षेत्र के पास घरकॉन नाम के गांव के गड़रिया ताशी नामग्याल ने जब सेना को कारगिल में घुसपैठ की सूचना दी थी, तो ब्रिगेडियर सुरेंदर सिंह ने उसे एक झापड़ मारकर भगा दिया।”

कमोबेश यही पुनरावृत्ति गलवान में हुई। आला सैन्य अफसरों को चीनी सेना की घुसपैठ की जानकारी तब हुई जब चायनीज पीपल्स लिबरेशन आर्मी फिंगर 8 से 8-9 किलोमीटर आगे बढ़कर फिंगर 4 तक पहुंच गई और वहां सड़क और स्थाई निर्माण बना लिया। यह एक-दो दिन का काम तो था नहीं। पहले भारतीय सैनिक फिंगर 8 तक गश्त लगाते थे। कहने का मतलब मौसम ख़राब होने का हवाला देकर सेना ने फिंगर 8 तक गश्त करना ही छोड़ दिया था। यानी सेना ने भारतीय सीमा की हिफ़ाज़त को राम भरोसे छोड़ दिया था, जिसके कारण देश को 20 सैनिकों की शहादत देनी पड़ी।

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दरअसल, सही मायने में नेता वह होता है, जो दूरदर्शी हो। दूरदर्शी नेता की नज़र आने वाले समय पर भी होती है। वह किसी व्यक्ति या देश पर यक़ीन उसके अतीत का अध्ययन करने के बाद ही करता है। लेकिन भारत के तीन प्रधानमंत्री ऐसे रहे जो अपनी शानदार कामयाबियों के बावजूद दूरदर्शी नहीं निकले। कह सकते हैं कि भारत के 73 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में इन तीन नेताओं ने ब्लंडर किया। तीनों नेता हैं, नेहरू, वाजपेयी और मोदी। तीनों ने चीन और पाकिस्तान पर भरोसा किया और इन दोनों देशों से संबंध बेहतर बनाने की ग़लतफ़हमी में वह ब्लंडर किया, जो इन तीनों नेताओं के शानदार करियर में बदनुमा दाग़ की तरह है।

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इतिहास या राजनीति शास्त्र का नौसिखिया छात्र भी जानता है कि चीन और पाकिस्तान का अस्तित्व मानवता ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता के लिए ख़तरा है। यह न तो अतिरंजनापूर्ण है, न ही किसी तरह की ग़लत बयानबाज़ी है। चीन ऐसा देश है, जिसका लोकतंत्र में भरोसा ही नहीं। इसीलिए इस देश ने अपने नागरिकों को मौलिक अधिकारों से वंचित कर रखा है। चीन एक ऐसा देश है, जो नागरिक अधिकारों की मांग करने वाले अपने ही नागरिकों पर तोप से हमला करवा करके उन्हें कुचल चुका है। कमोबेश यही स्थिति पाकिस्तान की भी है। इन दोनों देशों में सरकार किसी भी दल की हो या राष्ट्राध्यक्ष चाहे जो हो, उनकी मूल नीति में कोई बदलाव नहीं होता है।

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दरअसल, चीन का स्वभाव ही ऐसा है कि उसकी किसी से नहीं जमी। साउथ चाइना सी के बारे में तो बींजिंग ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला ही मानने से इन्कार कर दिया। आज चीन जहां है, वहां विवाद से उसका नाता है। वह दूसरे की जगह को अपना बताने और उसे क़ब्ज़ियाने की फिराक में रहता है। कहना न होगा कि इन तमाम समस्याओं के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सरकार की विस्तारवादी सोच ही ज़िम्मेदार है। इस तरह की सोच देशों में मध्यकाल में देखी जाती थी, लेकिन चीन में दूसरे की ज़मीन हड़पने की लालसा अब भी पहले जैसी है।

पहला ब्लंडर इतिहास के जानकार और डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया के लेखक जवाहरलाल नेहरू ने किया। तिब्बत पर दिन दहाड़े क़ब्जा करने वाले विस्तारवादी चीन के साथ दोस्ताना संबंध बनाने की परिकल्पना की। किसी जंगली देश से सभ्यता एवं मानवीय व्यवहार की उम्मीद करना और उसके साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाना अज्ञानता नहीं, ब्लंडर है, ब्लंडर। नतीजा, भारत की 1962 में पराजय हुई। दूसरा ब्लंडर अटलबिहारी वाजपेयी ने किया। पाकिस्तान जैसे देश से संबंध सुधारने की परिकल्पना की और बस में बैठकर राग शांति आलापते हुए बस से लाहौर गए। इसका नतीजा कारगिल के रूप में सामने आया।

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नरेंद्र मोदी का ट्रैक रिकॉर्ड ख़ासकर दूसरे कार्यकाल में शानदार रहा। जम्मू कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 ए से मुक्ति देकर उन्होंने ऐसा कार्य किया जिसके लिए यह देश लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को याद करता है। उन्होंने उस गलती को दुरुस्त कर दिया जो जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देकर राज्य को कामचोर बनाकर नेहरू ने की थी। मोदी के ही कार्यकाल में सदियों पुराना अयोध्या विवाद हल हुआ और राम मदिर के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हुई। मोदी ने ही देश की मुस्लिम महिलाओं को सदियों पुरानी तलाक-तलाक-तलाक़ और हलाला परंपरा से आज़ादी दिलाई। मोदी के कार्यकाल में पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों को भारत में शरण पाने और यहां का नागरिक बनने का अधिकार मिला।

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लेकिन मोदी ने चीन को लेकर कमोबेश नेहरू जैसी भूल की, तो पाकिस्तान को लेकर वाजपेयी जैसी अदूरदर्शिता दिखाई। दो ऐसे देशों से संबंध सुधारने की ग़लतफ़हमी पाल ली जो नैसर्गिक रूप से बेईमान हैं और समस्त मानवता के लिए ख़तरा हैं। चीन पर तो मोदी जैसे आशिक़ थे। चार बार प्रधानमंत्री बनने वाली आयरन लेडी इंदिरा गांधी ने चीन पर कभी भरोसा नहीं किया। इसीलिए उन्होंने कभी इस देश की यात्रा नहीं की। वहीं मोदी तो प्रधानमंत्री बनने से पहले ही चार बार चीन जा चुके थे और प्रधानमंत्री बनने के बाद पांच बार मध्यकाल की विस्तारवादी मानसिकता वाले इस देश का दौरा किया। इससे पहले डॉ. मनमोहन सिंह केवल दो बार चीन गए थे। जबकि पंडित जवाहर लाल नेहरू, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और नरसिंह राव ने सिर्फ एक बार चीन की यात्रा की। इतना ही नहीं भारतीय परंपरा के अनुसार शानदार मेहमान नवाज़ी दिखाते हुए मोदी ने जिनपिंग और उनकी पत्नी को साबरमती के तट पर झूला भी झुलाया। दुश्मन पर आंख मूंद कर भरोसा करना कमज़ोर कूटनीति की निशानी मानी जाती है। मोदी की कमज़ोर कूटनीति का नतीजा गेलवान घाटी में चीनी सेना की घुसपैठ के रूप में सामने आया।

यह भी संयोग है कि कोरोना वायरस संक्रमण के चलते अमेरिका चीन से बुरी तरह चिढ़ा हुआ है। शायद इसीलिए चीन उतना आक्रामक नहीं है, जितना हो सकता था। लिहाज़ा, मौके का फ़ायदा उठाकर यथाशीघ्र चीनी सैनिकों को फिंगर 8 तक वापस भेजा जाए। भविष्य में कारगिल या गलवान एपिसोड न हो, इसके लिए मौजूदा विदेश मंत्री एस जयशंकर के पिता और देश के रणनीतिक विचार के जनक डॉ. के सुब्रमण्यम की अगुआई में चार सदस्यीय कारगिल कमेटी की रिपोर्ट को लागू किया जाए। सीमावर्ती क्षेत्र में इंटेलिजेंस बढ़ाने के साथ साथ वहां ऐसे सैन्य अफसरों की तैनाती की जाए, जो सही मायने में घुसपैठ रोक सकें। कम से कम पनिश्मेंट पोस्टिंग के तहत किसी जवान या अधिकारी को सीमा पर कतई न भेजा जाए। जैसी की अब तक परंपरा रही है। जिसे पनिश्ड करना हो, उसे कश्मीर भेज दो। जिसकी पोस्टिंग कश्मीर में सीमा पर होती है, उसे लगता है कि उसे पनिश्ड किया गया है। उसका लगना कई कारणों से स्वाभाविक भी होता है। अगर कश्मीर घाटी में सेना के अधिकारियों और जवानों की पनिश्डमेंट पोस्टिंग होती रहेगी तो कारगिल और गलवान घुसपैठ की पुनरावृत्ति भी होती रहेगी।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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