मुंबई में कई समाज का नेतृत्व वायरसग्रस्त

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मोहित भारतीय

प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक जॉन कैल्विन मैक्सवेल ने लीडरशिप के पांच लेवल की व्याख्या करते हुए बताया है कि पद यानी पोजिशन से लीडरशिप स्थापित करना तो बहुत आसान है लेकिन असली लीडर वह होता है जिसे लोग उसके पद के कारण नहीं, बल्कि उसके व्यक्तित्व के कारण जानें और स्वेच्छा से उसे फॉलो करें। जनता उसी को फॉलो करती है जो जनता के जीवन में कुछ बदलाव लाता है, जो जनता को संरक्षण का अहसास कराता है और जो सदैव जनता की बेहतरी के लिए कार्य करता रहता है। डिजिटल और सोशल मीडिया के चलते लीडर्स का अपनी जनता के साथ उठना, बैठना, उनके दर्द, तकलीफ़ समझना उनके साथ व्यक्तिगत तौर पर कनेक्ट बनाने की प्रकिया घटती जा रही है। यही कारण है कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में उत्तर भारतीय नेताओं का अपने मतदाताओं पर प्रभुत्व घटता जा रहा है जो बहुत ही चिंताजनक विषय है, क्योंकि कहीं न कहीं मतदाताओं का विश्वास और मज़बूत वोट बैंक,  विधान सभा और लोकसभा सीट के टिकट वितरण के दौरान एक अहम् भूमिका निभाते हैं।

कोरोना के संक्रमण काल में मुंबई को अपने ख़ून-पसीने से सींचने वाले उत्तर भारतीय समाज को धाकड़ नेतृत्व के अचानक पड़े अकाल की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। इस वैश्विक महामारी के चलते अभी कुछ दिन पहले रोज़गार खोने वाले उत्तर भारतीय समाज के लोग ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में बदहवाश से जब अपने मुलुक भाग रहे थे, तब मुंबई में उनकी खोज-ख़बर लेने वाला लीडरशिप उनके साथ था ही नहीं। प्रवासी मज़दूरों का अपने आप टैंकर, ट्रक, ऑटो और यहां तक कि पैदल ही अपने घरों की तरफ निकल जाने का निर्भीक कदम, यही बताता है कि उत्तर भारतीय लोगों का न तो यहां की सरकार पर विश्वास था और न ही यहां पर उन्हें अपना ऐसा कोई लीडर या नेता नज़र आया जिससे लोग मदद की गुहार लगा सकते थे या जो उन्हें उनकी सुरक्षा का विश्वास दिला सकता था।

इसकी सबसे बड़ी वजह 2009 से 2019 के बीच मुंबई के राजनीतिक दृश्य से उत्तर भारतीय समाज के नेताओं का धीरे-धीरे ग़ायब हो जाना और मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ जाना है। उत्तर भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले नेताओं की सार्वजनिक जीवन में मौजूदगी का आकलन करें, तो स्थिति एकदम से साफ़ हो जाती है। फिलहाल, मुंबई में उत्तर भारतीय समाज की आवाज़ बुलंद करने वाली आवाज़ ही नहीं है। इसी वजह से शहर में एक बड़ी जनसंख्या के बावजूद राजनीतिक पटल पर उत्तर भारतीयों की उपस्थिति नहीं के बराबर हो गई है।

मुंबई की पिछले दस साल की चुनावी राजनीति पर नज़र दौड़ाएं तो सबसे अधिक घाटा केवल और केवल उत्तर भारतीय समाज का हुआ है। इस दौरान बड़े से बड़े उत्तर भारतीय नेता एक-एक करके अप्रासंगिकऔर महत्वहीन होते गए और अब उनका अकाल साफ़ नज़र आता है। 2009 में जहां मुंबई के 36 विधायकों में से 19 गैर-मराठी थे। उनमें छह मुसलमान, चार दक्षिण भारतीय, तीन उत्तर भारतीय, तीन गुजराती/मारवाड़ी, दो पंजाबी और एक ईसाई विधायक थे। इसी तरह मुंबई के छह सांसदों में संजय निरुपम के रूप में एक हिंदीभाषी, प्रिया दत्त के रूप में एक पंजाबी, मिलिंद देवड़ा के रूप में एक मारवाड़ी, गुरदास कामत के रूप में एक दक्षिण भारतीय और एकनाथ गायकवाड़ और संजय पाटिल के रूप में दो मराठी थे।

2019 के आते-आते राजनीतिक परिदृश्य एकदम ही बदल गया। मुंबई के गैर-मराठी विधायकों की संख्या 19 से घटकर 11 रह गई। इस दौरान गुजराती/मारवाड़ी का प्रतिनिधित्व बढ़ा और उनके विधायक तीन से बढ़कर चार हो गए। इसी तरह मुसलमानों के छह विधायकों में से पांच अब भी अपनी जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। मुसलमानों के छठे विधायक नसीम खान केवल कुछ सौ वोट से चांदिवली सीट हार गए। वहीं, उत्तर भारतीय विधायकों की संख्या तीन से घटकर केवल एक रह गई। 2009 में कृपाशंकर सिंह, राजहंस सिंह और रमेश सिंह ठाकुर के रूप में धाकड़ उत्तर भारतीय नेता विधायक थे, वहीं आज विधान सभा में विद्या ठाकुर के रूप में एक मात्र उत्तर भारतीय प्रतिनिधित्व है। इसी तरह शहर में दक्षिण भारतीय विधायकों की संख्या चार से गिरकर केवल एक रह गई, जबकि पंजाबी और ईसाई नेतृत्व क्रमशः दो विधायकों (सरदार तारा सिंह और बलदेव खोसा) और एक विधायक (एनी शेखर) से अब शून्य हो गया।

यही वजह है कि कोरोना के संक्रमण काल में जब उत्तर भारतीय समाज के नेतृत्व की सबसे अधिक ज़रूरत थी, तब उनके नेता कहीं परिदृश्य में ही थे ही नहीं। मुंबई में उत्तर भारतीय समाज को नेतृत्व का अकाल इस हद तक झेलना पड़ा कि सोनू सूद जैसे बॉलीवुड अभिनेता को उत्तर भारतीयों की मदद करने और उनको घर पहुंचाने के लिए पहल करनी पड़ा और मैदान में उतरना पड़ा। उत्तर भारतीय समाज के भूखे-प्यासे लोग जब अपने गांव जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब उनका साथ देने के लिए कोई नहीं आया। यही वजह है कि मदद का हाथ बढ़ाने वाले सोनू सूद रातोंरात उत्तर भारतीयों के आंखों के तारे बन गए।

बहरहाल, इस मुद्दे में उत्तर भारतीय नेताओं को आत्म मंथन की ज़रूरत है। क्या उत्तर भारतीय नेताओं का हिंदी भाषी जनता से जुड़ाव घट रहा है? मुंबई में हिंदी और मराठी के संबंध सगी बहनों का सा रहा है। इसीलिए हिंदीभाषी लोग हिंदी को मां और मराठी को मौसी कहते रहे हैं। इसलिए आज उत्तर भारतीय समाज को ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है, जो इस समाज के लोगों के अधिकारों की बात तो करे ही, उन अधिकारों की रक्षा के लिए ज़रूरत पड़ने पर सरकार से लड़ने का माद्दा रखता हो। ताकि समाज को नई दिशा दी जा सके। इसके लिए ख़ुद उत्तर भारतीय समाज को पहल करनी पड़ेगी।

विधानसभा में प्रतिनिधित्व

 क्रम संख्या  समाज 2009 2019
1  मुसलमान 6 5
2  गुजराती/मारवाड़ी 3 4
3  दक्षिण भारतीय 4 1
4  उत्तर भारतीय 3 1
5  पंजाबी 2 0
6  ईसाई 1 0
7  मराठी 17 25

लोकसभा में प्रतिनिधित्व

 क्रम संख्या  समाज 2009 2019
1  उत्तर भारतीय 1 0
2  पंजाबी 1 0
3  मारवाड़ी 1 0
4  दक्षिण भारतीय 1 1
5  मराठी 2 4
6  गुजराती 0 1

 

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