देवेंद्र फड़णवीस कोरोना से निपटने में उद्धव ठाकरे से बेहतर सीएम होते

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कोरोना वाइरस संपूर्ण विश्व के साथ-साथ भारत पर बुरी तरह कहर बरपा रहा है। भारत जल्दी ही दुनिया में कोरोना का दूसरा सबसे बड़ा हब बन गया है। हमारे भारत में इस वैश्विक महामारी का प्रकोप महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है। आर्थिक राजधानी मुंबई में हालात और भयावह है। लेकिन उद्धव ठाकरे सरकार और बृहन्मुंबई महानगर पालिका कोरोना से लड़ने की बजाय नीरो की तरह बंसी बजा रही रही है। पूरे देश में सबसे ज़्यादा कोरोना संक्रमित इसी शहर में हैं और मौते भी सबसे अधिक यहीं हो रही हैं। मुंबई भारत का न्यूयॉर्क बन गई है। बीएमसी अपने नागरिकों लोगों को कोरोना से मरते असहाय देखने के अलावा कुछ भी नहीं कर रही है।

ऐसे समय जब महाराष्ट्र अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है, तब इस राज्य को युवा और तेज तर्रार मुख्यमंत्री की ज़रूरत थी, जो हर जगह पहुंच कर मुस्तैदी से राज्य के प्रशासन तंत्र का संचालन करता। हर जगह इन दिनों यही चर्चा है कि यह सरकार कोरोना से लड़ने में बिल्कुल नकारा साबित हुई हैं। संकट के इस समय मुंबई ही नहीं बल्कि पूरे राज्य को लोग पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस को शिद्दत से याद कर रहे हैं।

इसी बीच कोरोना से लड़ने के लिए सबसे सक्षम मुख्यमंत्री के बारे में एक ट्विटर सर्वेक्षण किया गया। जिसमें बहुत बड़ी तादाद में लोगों ने शिरकत की। सर्वे में शामिल केवल 5 फ़ीसदी लोगों ने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री के रूप में पसंद किया है। इस सर्वे में शामिल 91 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि कोरोना जैसी भयावह बीमारी से लड़ने के लिए इस समय राज्य को देवेंद्र फडणवीस जैसा 24 घंटे काम करने वाला युवा, अनुभवी और तेज़तर्रार मुख्यमंत्री चाहिए था। सर्वे में शामिल 1 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि इस समय मुख्यमंत्री आदित्य ठाकरे को होना चाहिए, जबकि 3 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि कोरोना को कांग्रेस के पृथ्वीराज चव्हाण बेहतर ढंग से हैंडल कर सकते थे।

सर्वे में शामिल लोगों का कहना था कि कोरोना के चलते राज्य अपने साठ साल के इतिहास में सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा है। लिहाज़ा, राज्य को युवा, अनुभवी और ऊर्जावान मुख्यमंत्री की ज़रूरत थी। लेकिन राज्य के पास इस समय वैश्विक महामारी से लड़ने के लिए वैसा मुख्यमंत्री ही नहीं है। राज्य को 24 घंटे काम करने वाले सीएम की कमी बुरी तरह खल रही है। सीएम आवास होने के नाते जिस वर्षा बंगले को कोरोना से निपटने का मुख्य नियंत्रण केंद्र होना चाहिए था। जिस बंगले से राज्य के सभी 36 ज़िलों, 27 महानगर पालिकाओं, 3 महानगर परिषदों और 34 जिला परिषदों के साथ प्रशासन का संचालन होना चाहिए था, उस वर्षा बंगले को अनुभवहीन, असुरक्षित, अदूरदर्शी और अपरिपक्व नेतृत्व ने पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया है और कोरोना वायरस राज्य में शिव तांडव कर रहा है।

फिलहाल, चीफ़ मिनिस्टर उद्धव ठाकरे कोरोना संक्रमण काल में जिस तरह से काम कर रहे हैं, उससे कुछ लोग कहने लगे हैं कि सीएम साहब ख़ुद सोशल डिस्टेंसिंग और वर्क फ्रॉम होम की पॉलिसी का बड़ी शिद्दत से पालन कर रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र की जनता से अपनी सोशल डिस्टेंसिंग शुरू से बरक़रार रखी है। राज्य का प्रशासन भी वह वर्क फ्रॉम होम चीफ़ मिनिस्टर के रूप में चला रहे हैं। इसीलिए उन्हें वर्क फ्रॉम होम चीफ़ मिनिस्टर कहा जा रहा है। वर्क फ्रॉम होम का नतीजा ‘नो वर्क’ के रूप में सामने आ रहा है। मज़ेदार बात यह है कि कोरोना संक्रमण को रोकने का उनका सारा कामकाज सोशल मीडिया से ही हैंडल हो रहा है। इसका नतीजा यह हो रहा है, कि कोरोना संक्रमण और उससे होने वाली मौतों का डेटा राज्य में बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है।

मुख्यमंत्री अमूमन पूरे राज्य का होता है, लेकिन उद्धव ठाकरे ने बड़ी ईमानदारी से बता दिया कि वह राज्य में सभी लोगों के चीफ़ मिनिस्टर नहीं हैं। उनको पता है, उन्हें केवल शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने चीफ़ मिनिस्टर बनाया है। इसलिए वह केवल शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए काम कर रहे हैं। वह जानते हैं, उन्हें कौन-कौन लोग वोट देते हैं, इसलिए वोट देने वालों के लिए ही काम कर रहे हैं। उद्धव सोशल मीडिया पर सबको जवाब नहीं देते, भाजपा नोताओं को तो कतई नहीं। इसीलिए भाजपा नेताओं ने सीएम रिलीफ फंड में जो योगदान किया, उसका उद्धव ठाकरे ने नोटिस ही नहीं लिया। जबकि उनके अपने लोगों ने कहीं कुछ भी योगदान दिया तो सोशल मीडिया पर उन्होंने आभार व्यक्त किया।

पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस बराबर कोरोना संक्रमण से लड़ने में सरकार को मदद करने का आश्वासन देते रहे हैं, लेकिन उद्धव ठाकरे ने उनके किसी पहल का जवाब देना भी उचित नहीं समझा। कोई राज्य सरकार के ख़िलाफ़ एक शब्द बोल दे तो फौरन कार्रवाई हो जाती है। उद्धव की कार्यशैली में जातिवाद, भाषावाद और धर्मवाद का मिश्रण है। जिन प्रवासी मज़दूरों ने राज्य के विकास के लिए अपना ख़ून-पसीना बहाया। उन प्रवासी मज़दूरों को भोजन तक इस सरकार ने नहीं दिया। उनके बारे में किसी मुद्दे पर बातचीत भी केवल मराठी में बोलते रहे। हिंदी बोलने की जहमत नहीं उठाई। यहां तक कि सरकार जो भी प्रेस रिलीज जारी करती है, वह भी मराठी में ही होता है। इसीलिए, कोरोना का मारा रोता-बिलखता मजदूर निराश होकर अपने गांव-घर लौट रहा है। प्रवासी मज़दूरों को रोकना और उन्हें राशन या दूसरी आर्थिक मदद देना सरकार के एजेंडे में ही नहीं है। राशन या दूसरी आर्थिक मदद तो दूर राज्य सरकार प्रवासी मज़दूरों को अपनापन तक नहीं दे पाई। उनकी तकलीफ़ को समझने का प्रयास ही नहीं किया। लिहाज़ा, यहां अपना ख़ून बहाने वाला मज़दूर गांव चला जा रहा है। मज़दूर को लगता है कि यह राज्य न तो कोई राशन देगी और न ही कोई आर्थिक मदद। ऐसे में जान बचाकर भागना ही बेहतर होगा। इसीलिए जिसे जो भी साधन मिल रहा है, उसी से भाग रहा है। जिन्हें कोई साधन नहीं मिल रहा है, वे पैदल ही अपने गांव जा रहे हैं।

प्रवासी मज़दूरों की बात छोड़िए, उद्धव सरकार राज्य के किसानों को भी किसी तरह की सहायता करने में पूरी तरह विफल रही है। राज्य की जनता को खाद्यान्न और अन्य कृषि उपज देने वाले इन धरती पुत्रों की कोरोना संक्रमण काल में बहुत अधिक उपेक्षा हो रही है। जहां दूसरे राज्यों की सरकारें अपने राज्य के किसानों को आर्थिक मदद पहुंचाने के लिए घोषणाएं कर रही हैं। वहीं महाराष्ट्र सरकार राज्य के किसानों का भी कल्याण केवल सोशल नेटवर्किंग पर कर रही है।

सरकारी तंत्र और राज्य मंत्रिमंडल में कोऑर्डिनेशन या आपसी तालमेल नहीं दिख रहा है। संपूर्ण मंत्रिमंडल कोरोना से डरा है। दो मंत्री कोरोना संक्रमित पाए गए हैं। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ख़ुद वर्षा की बजाय मातोश्री में रहते हैं और वह बाहर ही नहीं निकल रहे हैं। यही हाल महाराष्ट्र के सारे मंत्रियों का है। पालकमंत्री तक अपने जिले में नहीं जा रहे हैं। जब से मातोश्री के पास पहले चायवाला और बाद में सीएम सुरक्षा में तैनात कई पुलिस वाले संक्रमित मिले, तब से उद्धव बमुश्किल ही घर से बाहर निकलते हैं। वह कोरोना से इतने भयभीत हैं कि अपनी कार ख़ुद ड्राइव करते हैं। तालमेल के अभाव में राज्य में अफरा-तफरी का माहौल है। इससे कोरोना से निपटने भारी मुश्किलात आ रही हैं। बांद्रा के एमएआरडीए ग्राउंड और गोरेगांव के एग्ज़िबिशन सेंटर में भारी-भरकम अस्थाई अस्पताल बनाए गए हैं, लेकिन वहां कोरोना मरीज़ों का इलाज करने के लिए डॉक्टर और अन्य मेडिकल स्टॉफ़ ही नहीं है।

राजनीतिक टीकाकारों का भी मानना है कि कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए वर्षा बंगले को इस समय हर तरह की प्रशासनिक गतिविधि का केंद्र होना चाहिए था। दक्षिण मुंबई में राजभवन ही नहीं, मंत्रालय भवन और बीएमसी मुख्यालय, मुंबई एवं महाराष्ट्र पुलिस मुख्यालय और भारतीय नौसेना मुख्यालय और दूसरे अन्य प्रमुख संस्थान वर्षा के आसपास चार से पांच किलोमीटर के ही दायरे में हैं। वहां से प्रशासनिक संचालन और दिशा-निर्देश जारी करने में आसानी होती लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए अनुभवहीन उद्धव ठाकरे यहीं ग़लती कर बैठे। वह अपने निजी आवास मातोश्री में बैठकर टेलिफोन और विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए कोरोना के संक्रमण को रोकने की कोशिश कर रहे हैं और कामयाब नहीं हो रहे हैं। उनके निर्णयों के चलते राज्य में कोई कोरोना से जान गंवा रहा है, तो कोई जान बचाने के लिए राज्य से बाहर भाग रहा है।

यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा, कि राज्य का लचर प्रशासन कोरोना को यहां फलने-फूलने का अवसर ही नहीं दे रही है, बल्कि राजनीति करके उसे खाद पानी भी दे रही है। मार्च के दूसरे पखवारे से जहां देश में कोरोना के खिलाफ मोर्चा प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ख़ुद संभाले हुए थे और हर राज्य का मुख्यमंत्री व्यक्तिगत रूप से अपने राज्य में कोरोना की मॉनिटरिंग कर रहा था, वहीं महाराष्ट्र इकलौता राज्य में जहां कोरोना से जंग की कमान मुख्यमंत्री ने अपने हाथ में रखने की बजाय हेल्थ मिनिस्टर को दे रखा था। ज़ाहिर है, हेल्थ मिनिस्टर की अपनी सीमा होती है। वह हर विभाग को दिशा-निर्देश जारी नहीं कर सकता। यही वजह है कि राज्य के प्रशासन में तालमेल का अभाव है। सब लोग अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं और कोरोना फैलता जा रहा है।

अगर प्रवासी मज़दूरों के महाराष्ट्र से पलायन की बात करें, तो इस मोर्चे पर भी उद्धव ठाकरे सरकार बुरी तरह से असफल रही। प्रवासी मज़दूरों को महाराष्ट्र की सरकार रोक नहीं पाई। उन्हें राशन या दूसरी आर्थिक मदद तो दूर अपनापन तक नहीं दे पाई। उनकी तकलीफ़ को समझने का प्रयास ही नहीं किया। उद्धव ठाकरे ने ख़ास मकसद से जानबूझकर वोट की राजनीति की और लोगों को बांटने का काम किया। यही वजह है कि राज्य के विकास के लिए अपना ख़ून-पसीना बहाने वाला मज़दूर यहां से गांव चला गया। मज़दूर को लगा कि यह राज्य न तो कोई राशन देगी और न ही कोई आर्थिक मदद। ऐसे में जान बचाकर भागना ही बेहतर था। इसीलिए जिसे जो भी साधन मिला, उसी से भागा। जिन्हें कोई साधन नहीं मिल रहा है, वे पैदल ही अपने गांव चले गए।

मुंबई में संक्रमित मरीज़ों के संपर्क में आए लोगों की तादाद इतनी अधिक है कि सबको अलग-अलग क्वारंटीन सेंटर में रखना संभव नहीं है। इसीलिए बीएमसी ने दिशा निर्देश जारी किया कि जिन इमारत में कोरोना पॉज़िटव मरीज़ मिलेगा, वहां अब पूरी बिल्डिंग को नहीं बल्कि उस मंज़िल विशेष को ही सील किया जाएगा। मुंबई में संक्रमित मरीज़ों की बढ़ती संख्या से अस्पतालों में बेड कम पड़ रहे हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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