हिंदू-विरोधी नेता की बन गई थी उद्धव ठाकरे की छवि
हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिवसेना (Shiv Sena) में बग़ावत से हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। यह अवश्यसंभावी था। वस्तुतः मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे सत्ता में आने के बाद जिस तरह से हिंदुत्व की बात करने वाले लोगों को एक-एक करके निशाना बना रहे थे, उससे राज्य में शिवसेना का असली आधार ही खिसक गया था। हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे के एक आदेश पर सड़क पर निकलने वाले शिवसैनिक पिछले ढाई साल से देख रहे थे कि उनकी अपनी सरकार हिंदुत्ववादियों को ही उत्पीड़ित कर रही है। इसका असर शिवसेना विधायकों पर सबसे अधिक हुआ, उन्हें लग गया कि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में वे अगला चुनाव नहीं जीत पाएंगे।
हर नेता पहले जन प्रतिनिधि यानी विधायक या सांसद बनना चाहता है। उसके बाद उसकी इच्छा सरकार में शामिल होने की होती है। जिस तरह से पहले राज्यसभा चुनाव और फिर विधान परिषद चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) को उम्मीद से अधिक सफलता मिली, उससे शिवसेना विधायकों का यह अंदेशा विश्वास में बदल गया कि निश्चित रूप से अगर वे उद्धव ठाकरे के साथ रहे तो अगली बार विधान सभा में पहुंचने से वंचित रह जाएंगे। इससे उनके राजनीतिक भविष्य के ही ख़त्म होने का डर उन्हें सताने लगा था। इसी डरी हुई मानसिकता के चलते शिवसेना विधायकों में मन में बग़ावत का बीज पड़ा।
यही वजह है कि विधान परिषद के चुनाव ख़त्म होते ही जैसे ही वरिष्ठ शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) की ओर से संकेत मिला कि कोई बड़ा फ़ैसला लेना है, बस शिवसेना के 26 विधायक सोमवार-मंगलवार की देर रात गुपचुप तरीक़े से उनके साथ सूरत के एक होटल में पहुंच गए। वस्तुतः शरद पवार के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंस चुके शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे खुद अपने विधायकों का मन भाप नहीं पाए, इसीलिए विधायकों पर से उनका नियंत्रण ख़त्म हो गया। नतीजतन उनके 26 विधायकों ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बगावत का झंडा उठा लिया।
सूत्रों का कहना है कि एकनाथ शिंदे सोमवार से शिवसेना नेताओ के संपर्क में नहीं थे। वह महाराष्ट्र में शिवसेना के वरिष्ठतम नेता हैं और उद्ध ठाकरे सरकार में शहरी विकास मंत्री हैं। यह बताया गया है कि उनकी ठाकरे परिवार से अनबन चल रही है। वह पार्टी प्रमुख व सीएम उद्धव ठाकरे के भी फोन नहीं उठा रहे हैं। बागी विधायकों ने उद्धव ठाकरे को तीन बड़ा प्रस्ताव भेजा है। जिसमें कहा है कि राज्य में भाजपा के साथ सरकार का गठन करे और देवेंद्र फड़णवीस को मुख्यमंत्री और खुद शिंदे को उपमुख्यमंत्री के रूप में स्वीकर कर लें।
दरअसल, नवंबर 2019 में जब शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद पाने के लिए भाजपा के साथ तीन दशक पुराना भगवा गठबंधन तोड़कर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ महाविकास अघाड़ी का गठन कर राज्य में सरकार बनाई थी, तब यह आशंका जताई गई थी कि कभी कट्टर हिदुत्व की प्रबल पैरोकार रही यह पार्टी आने वाले समय में कांग्रेस और एनसीपी को भी हिंदुत्व का पाठ पढ़ा देगी, लेकिन हुआ इसके एकदम उलटा। इसे कांग्रेस-एनसीपी की स्मार्टनेस ही कहा जाएगा कि इन दोनों दलों ने मिलकर हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने वाले बाल ठाकरे की शिवसेना को पूरी तरह ट्रांसफॉर्म करके उसे एक सेक्यूलर राजनीतिक पार्टी बना दिया।
जिस सेक्युलरिज़्म शब्द को बाल ठाकरे जीवन भर ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ यानी ‘स्यूडो सेक्युलरिज़्म’ कहते रहे, वही शब्द उनके दल का प्रमुख एजेंडा बना गया। शिवसेना का सत्ता के लिए कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़कर ‘सेक्यूलर शिवसेना’ में ट्रांसफॉर्म होना, महाराष्ट्र के छह दशक के राजनीतिक इतिहास में ऐसा परिवर्तन था, जिसे शिवसेना कार्यकर्ता ही नहीं, शिवसेना के विधायक और सांसद हज़म नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि उद्धव ने बतौर मुख्यमंत्री जो भी फ़ैसले लिए उससे मुसलमान बिल्कुल प्रभावित नहीं हुए, बल्कि उनके हर फ़ैसले से सबसे ज़्यादा प्रभावित हिंदू का झंडा उठाने वाले या हिंदुत्व का समर्थन करने वाले लोग ही हुए।
उद्धव ठाकरे के कार्यकाल की चर्चा करें तो सरकार ने जनहित या विकास का कोई कार्य नहीं किया, उल्टे सरकार ने जो भी फ़ैसले लिए उनसे यही लगा कि शिवसेना ने हिंदुत्व की राजनीति को सदा के लिए अलविदा कह दिया। शिवसेना भगवा दल से धर्मनिरपेक्षता यानी सेक्युलरिज़्म सांचे में ढल गई। शुरू से ही महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देश भर के मुसलमानों के लिए सिरदर्द रही शिवसेना मुसलमानों का माई डियर दल बन गई।
उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में जो सबसे पहली हिंदू विरोधी घटना हुई, वह थी पालघर में दो हिंदू साधुओं की हत्या। साधुओं को भीड़ ने पुलिस के सामने बड़ी पीट-पीटकर मार डाला था। उद्धव सरकार ने साधुओं को भीड़ के हवाले करने वाले पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की गई। इसका असर यह हुआ कि पूरे देश में हिंदुओं, ख़ासकर संत समाज में शिवसेना के प्रति बहुत ग़लत संदेश गया। देश-विदेश में भी पालघर की घटना उस तरह सुर्खियों में नहीं आई, जिस तरह मॉब लिंचिंग में गैर-हिंदुओं की हत्या की घटनाएं सुर्खियों में आती रही हैं।
उद्धव सरकार ने दूसरा जो सबसे बड़ा हिंदू विरोधी फ़ैसला लिया, वह था हिंदू आतंकवाद की थ्यौरी गढ़ने वाले हेमंत करकरे की टीम परमबीर सिंह को मुंबई का पुलिस कमिश्नर बनाना। परमबीर ने ही दुनिया को हिंदू आतंकवाद के बारे में बताया था और कहा था कि आतंकवादी केवल मुसलमान नहीं होते, बल्कि हिंदू भी होते हैं। एटीएस ने मालेगांव बमकांड में साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर और कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित समेत कई में लोगों को आतंकवादी करार देकर गिरफ़्तार किया था। सभी लोगों को परमबीर ने भयानक टॉर्चर किया औरलंबे समय तक जेल में भी रखा था। यह भी अजीब संयोग था कि साध्वी प्रज्ञा को पीटने और उनसे बदतमीज़ी करने के आरोपी परमबीर बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में ही मुंबई के पुलिस कमिश्नर बनाए गए।
तीसरी बार उद्धव ठाकरे हिंदू विरोधी कार्य तब करते नज़र आए जब उनकी पुलिस ने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के 66 दिन बाद भी कोई एफआईआर ही दर्ज नहीं की और उनके पार्थिव शरीर का आनन-फानन में अंतिम संस्कार करवा कर सबूत ही नष्ट कर दिया। उद्धव सरकार सुशांत की रहस्यमय मौत की सीबीआई जांच का अंतिम समय विरोध करती रही। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के दख़ल से मामला जब तक सीबीआई को सौंपा जाता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लिहाज़ा, लाख कोशिश के बाद भी उस घटना की बाद में जांच करने वाली सीबीआई के हाथ भी कुछ नहीं लगा और मामला टांय-टांय फिस्स हो गया। सुशांत के लिए जस्टिस की बात वहीं लोग कर रहे थे, जिन्हें सेक्यूलर लोग कट्टर हिंदू कहते हैं। इस दौरान पूरे समय शिवसेना हिंदू विरोधी खेमे में खड़ी नज़र आई।
चौथी बार उद्धव की छवि हिंदू विरोधी तब दिखती नज़र आई, जब हिंदूवादी इमैज वाली अभिनेत्री कंगना राणावत के दफ़्तर को बीएमसी ने बुलडोज़र चला दिया। जिसे बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी गैरक़ानूनी और पूर्वाग्रहित कार्रवाई माना और बीएमसी को नुक़सान की भरपाई का निर्देश दिया। यहां भी एक महिला के ख़ून-पसीने से बनाए गए दफ़्तर को तोड़ने का कार्रवाई सेक्यूलर खेमे के किसी व्यक्ति को अनुचित नहीं दिखी और राग सेक्युलिरिज़्म आलापने वाले लोग डटकर शिवसेना के साथ खड़े रहे। इस मामले को लेकर भी देश में हिंदू-सेक्यूलर होता रहा और शिवसेना गैर-हिंदू खेमे की प्रतिनिधि बनकर उभरी।
पांचवी बार शिवसेना सेक्यूलर दल की भूमिका में तब नज़र आई, जब सरकार हिंदुत्व और हिंदूवादियों के ख़िलाफ़ अक्सर ज़हर उगलने वाले फिल्मकार अनुराग कश्यप पर नवोदित अभिनेत्री पायल घोष के साथ रेप करने का आरोप लगने पर भी अनुराग के ख़िलाफ़ कोई भी कार्रवाई नहीं की। उल्टे पुलिस पायल को ही बार बार वर्सोवा थाने में बुलाती रही। जबकि सुप्रीम कोर्ट 1983 के एक ऐतिहासिक फ़ैसले में कह चुका है कि कोई भी स्त्री किसी पुरुष पर कम से कम बलात्कार का झूठा आरोप कभी लगा ही नहीं सकती, क्योंकि बलात्कार जैसा शब्द उसके जीवन से जुड़ने उसकी पुरुष से ज़्यादा मानहानि होती है। पायल घोष-अनुराग कश्यप के प्रकरण के दौरान भी शिवसेना अनुराग के पक्ष में खड़ी दिखी।
छठवीं बार शिवसेना तब हिंदू विरोधी पार्टी नज़र आई जब उसने खुले तौर पर हिंदुत्व विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले पत्रकार अर्नब गोस्वामी और उनके चैनल रिपब्लिक टीवी को ख़त्म करने का मास्टर प्लान पर काम करना शुरू किया और टीआरपी जैसे छोटे से मामले में मुंबई के पुलिस कमिश्नर को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए हाज़िर किया, जबकि ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च कॉउंसिल यानी प्रसारण दर्शक अनुसंधान परिषद (बार्क) के बार-ओ-मीटर यानी टीआरपी बॉक्स का रख-रखाव करने वाली हंसा रिसर्च ग्रुप प्राइवेट लिमिटेड की ओर से दर्ज कराई गई एफ़आईआर में रिपब्लिक टीवी का नाम नहीं था।
सातवीं बार शिवसेना तब हिंदूविरोधी भूमिका में नज़र आई जब उसने मस्जिदों में लाउडस्पीकर का विरोध करने और देश भर के मंदिरों को लाउडस्पीकर देने की घोषणा करने वाले भाजपा नेता मोहित कंबोज भारतीय के ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई शुरू की। मोहित को गिरफ़्तारी से बचने के लिए अग्रिम ज़मानत लेनी पड़ी। इसी तरह मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा का पाठ करने वाली सांसद नवनीत राणा और उसके विधायक पति रवि राणा को उद्धव ठाकरे के इशारे पर मुंबई पुलिस ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। दोनों पर इतनी कठोर धारा लगाई गई थी कि बेल लेने में कई दिन लगे गए।
इन घटनाओं पर ग़ौर करें तो यही लगता है कि शिवसेना प्रवक्ता और उद्धव ठाकरे के लेफ़्टिनेंट संजय राऊत ने शिवसेना का कट्टर सेक्यूलर दल के रूप में ट्रांसफॉर्म कर दिया। अब सेक्यूलर शिवसेना को उसके परंपरागत हिंदूवादी मतदाता स्वीकार करेंगे, यह नहीं यह तो बहस और भविष्य का विषय है। शिवसेना नेताओं को भी लगने ही लगा है कि उसके ढेर सारे मतदाता उसके दूर होते जा रहे हैं। जब मतदाता खिसक जाएँगे तो विधायक चुनाव नहीं जीत पाएंगे। इसी डर की वजह से 26 विधायकों ने बग़ावत की
अब ऐसा लग रहा है कि उद्धव ठाकरे सरकार गिर सकती है। 288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा में बहुमत के लिए 145 विधायक चाहिए। कुछ सीटें रिक्त हैं तो कुछ विधायक जेल में हैं, इसलिए विधायकों की प्रभावी संख्या 285 है। ऐसे में बहुमत के लिए 143 सदस्यों का समर्थन चाहिए। उद्धव सरकार के पास 153 विधायकों का समर्थन है। यदि शिवसेना में फूट पड़ती है तो कांग्रेस के भी कुछ विधायक टूट कर भाजपा का दामन थाम सकते हैं। भाजपा पहले से सबसे बड़ी पार्टी है। भाजपा के 106 विधायक हैं तो राजग के मिलाकर 113 विधायक हैं। इसलिए वह दावा पेश कर इनका समर्थन हासिल कर सकती है।
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