शिवसेना में बगावत की नौबत क्यों आई?

0
1196
सुजीत महामुलकर

शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे के विद्रोह ने न केवल महाराष्ट्र बल्कि दिल्ली, उस पर भी प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दल भाजपा, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सभी को भी हिलाकर रख दिया है। शिवसेना को न केवल एक बड़ा झटका लगा है, बल्कि शिवसेना का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। जैसा कि शिंदे ने आज (बुधवार, 22 जून) दावा किया कि उनके पास शिवसेना में 55 में से 40 से अधिक विधायक हैं। मीडिया में चर्चा है कि उन्होंने ‘ठाकरे सेना’ को ‘शिंदे सेना’ में बदल दिया है। वैसे भी शिवसेना में यह सबसे बड़ी बगावत है। इससे पहले चाहे वह छगन भुजबल हों, नारायण राणे हो या फिर राज ठाकरे, शिवसेना को ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा। लेकिन एकनाथ शिंदे की बग़ावत से पार्टी पर ठाकरे परिवार का वर्चस्व कम हो जाएगा।

शिवसेना: मुंबई बनाम शेष महाराष्ट्र संघर्ष

शिवसेना का जन्म मुंबई में हुआ था। शुरू से ही शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के सहयोगी ज्यादातर मुंबई से थे, इसलिए पार्टी का चेहरा ‘शहरी’ बन गया। लेकिन ठाणे के शेर आनंद दिघे अपवाद रहे, जिन्होंने शिवसेना को ठाणे के ग्रामीण बस्तियों, आदिवासी पाड़ा तक शिवसेना का पहुंचाया। उसके बाद वर्ष-दर-वर्ष शिवसेना की जड़ें महाराष्ट्र के बाकी हिस्सों खसाकर ग्रामीण इलाकों में भी जमती गईं। 1985 के बाद पिछले साढ़े तीन दशक में पूरे राज्य में शिवसेना का विस्तार हुआ, और 1995 में भाजपा के सत्ता में आने के साथ, से तेजी से पार्टी शीर्ष तक पहुंच गई।

कहा जाता है कि दुनिया गोल है, मतलब शिवसेना के सफ़र की चर्चा राजनीतिक गलियारे में खूब हो रही है कि शिवसेना जहां से चली थी फिर वहीं पहुंच गई। दूसरे शब्दों में, जो शिवसेना पूरे महाराष्ट्र में मुंबई से उड़ रही थी, आज फिर मुंबई में बैकफुट पर आ गई है। ऐसा कैसे? आज पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे का साथ देने वाले 80-90% विधायक मुंबई से हैं, जबकि शिंदे के साथ जाने वाले 90% से अधिक विधायक मुंबई के बाहर ग्रामीण इलाके ठाणे, कल्याण, पालघर से विदर्भ, मराठवाड़ा, कोंकण, खानदेश और पश्चिम महाराष्ट्र के हैं। इसका मतलब यह है कि जैसा कि कहा जाता है कि शिवसेना का जीवन और आत्मा ‘मुंबई’ है। शिवड़ी के विधायक अजय चौधरी की शिवसेना के गट नेता के रूप में नियुक्ति इस विचार पर मुहर लगा रही है।।

शिवसेना के लिए यह नौबत क्यों आई?

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, पिछले दस-पंद्रह वर्षों में, विशेष रूप से बालासाहेब ठाकरे की मृत्यु के बाद, शिवसेना ने हमेशा मुंबई के जन प्रतिनिधियों के लिए दरवाज़े खुले रखे। पार्टी में हमेशा अफवाहें थीं कि ठाकरे के आसपास मुंबई, ख़ासकर कोंकण बेल्ट के विधायकों और नेताओं की मंडली कुंडली मार कर बैठी रहती है और महाराष्ट्र के बाकी नेताओं को ठाकरे से संपर्क करने या मिलने भी नहीं दिया जाता। ऐसा ही एकनाथ शिंदे के साथ भी हुआ। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, उनके काम और विभाग में हस्तक्षेकरने प के आरोप लगते रहे हैं, उन्हें दरकिनार और दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था।

ऐसा कहा जाता है कि यद्यपि उन्हें शहरी विकास, लोक निर्माण विभाग जैसे महत्वपूर्ण विभाग दिए गए थे, लेकिन उनके जनाधार और कद को देखकर किया गया था। इसका कारण यह है कि यदि उन्हें एक महत्वपूर्ण विभाग नहीं दिया गया होता, तो लोगों के बीच सीधा, खुला संदेश जाता कि उन्हें पार्टी में साइडलाइन किया जा रहा है। महत्वपूर्ण विभाग और जनादेश का नेता होने के बावजूद, उनके करीबी सहयोगियों को लगता है कि उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं किया जा रहा था जैसा उन्हें पार्टी में होना चाहिए था। शिंदे द्वारा व्यक्त विचारों को हमेशा दबा दियाया जाता रहा है, महत्वपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रिया में अविश्वास, उनके विचारों का अनादर, शेष महाराष्ट्र में अन्य विधायकों के बीच पड़ी दरार और उनकी भावनाओं का विस्फोट आज की परिणति है।

अब आगे क्या होगा?

क्या मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे इस्तीफा देंगे और शिंदे को महा विकास अघाड़ी का मुख्यमंत्री बनाएंगे? क्या शिंदे भाजपा का समर्थन करेंगे और मुख्यमंत्री फडणवीस के नेतृत्व में उपमुख्यमंत्री बनेंगे? क्या भाजपा के समर्थन से सरकार बनाकर शिंदे खुद मुख्यमंत्री बनेंगे? या भाजपा शिंदे के समर्थन से सरकार बनाएगी और नितिन गडकरी को मुख्यमंत्री और शिंदे को उपमुख्यमंत्री बनाएगी?

दुनिया का कोई भी राजनीतिक विश्लेषक इस समय इन सवालों का सटीक जवाब नहीं दे सकता है, बल्कि परिस्थितिजन्य आकलन के आधार पर भविष्यवाणियां कर सकता है और आज की स्थिति में भाजपा एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री की बागडोर सौंप सकती है, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो भाजपा की अपेक्षा शिवसेना का ‘राजनीतिक नुकसान’ ज्यादा हो सकता है, वहीं भाजपा की छवि ‘खलनायक’ के रूप में लोगों के बीच बच सकती है।

(सुजीत महामुलकर वरिष्ठ पत्रकार है और लंबे समय तक बतौर सहायक संपादक टाइम्स ऑफ इंडिया से जुड़े रहे हैं)

इस लेख को मराठी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें