आश्रम और आस्था के सवाल

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इसे महज संयोग या इत्तिफ़ाक ही कहेंगे कि पैगंबर मोहम्मद साहब के बारे में कथित अपमानजनक टिप्पणी का मामला ठीक उसी समय सुर्ख़ियों में आया, जब नामचीन फिल्मकार प्रकाश झा (Film-maker Prakash Jha) की वेब सीरीज़ ‘आश्रम’ की तीसरा सीज़न रिलीज़ हुआ। वस्तुतः यह वेब सीरीज़ अपराधी से हिंदू संत बनने वाले भगवान निराला की कहानी है, जो अपने साथी भोपू स्वामी के साथ दुराचार में आकंठ डूबा है। भगवान निराला धर्म की आड़ में आश्रम में आने वाले भक्तों की बहू-बेटियों समेत अनगिनत स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है। वह इतना अत्याचारी और निरंकुश है कि एक युवा भक्त की नवविवाहिता बीवी को अपनी रखैल बनाने के लिए शुद्धिकरण के नाम पर उस भक्त का लिंग कटवा कर उसे नामर्द बना देता है। बाद में उसकी बीवी के साथ बिंदास सोता है। बाद में मादक द्रव्य खिलाकर उस भक्त की बहन पम्मी पहलवान के साथ भी रेप कर देता है।

निःसंदेह ‘आश्रम’ वेब सीरीज यही संदेश देती है कि धर्म की आड़ में सभी बाबा या संत हवसी, दरिंदे और औरत के भूखे होते हैं। ये संत अपने छल-कपट से पूरे के पूरे सिस्टम को अपना ग़ुलाम बना लेते हैं। कभी-कभी, क्या अक्सर ये संत इतने ताक़तवर हो जाते हैं कि सभी लोग उनकी जी हुजूरी और चाटुकारिता करने लगते हैं। देश के सिस्टम पर बाबाओं का इस तरह क़ब्ज़ा हो जाता है कि इनके अत्याचार और यौनाचार के ख़िलाफ़ मुंह खोलने वाले हर शख़्स को भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। शिकायतकर्ता और उसके परिजनों को ये ढोंगी बाबा किसी न किसी तरह की साज़िश करके मरवा देते हैं और इनका बाल भी बाँका नहीं होता, क्योंकि सभी अधिकारी, पुलिस और जज सब मैवेज़्ड होते है और बाबाओं के इशारे पर काम करते हैं।

‘आश्रम’ बेव सीरीज़ देश में मौजूदा सिस्टम चाहे वह कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका हो अथवा नौकरशाही या पुलिस तंत्र या फिर स्वास्थ विभाग हो, सब जगह होने वाले अनाचार-भ्रष्टाचार को बेपरदा करती है। इन्तहां तो तब हो जाती है, जब डॉक्टरों का पूरा का पूरा पैनल अंधभक्ति का शिकार हो जाता है। अनगिनत लड़कियों के साथ उनकी इच्छा के विरुद्ध जबरन या धोखे से सहवास करने वाले भगवान निराला को डॉक्टरों का पैनल ग़लत जांच करके नपुंसक घोषित करता है। अपनी रिपोर्ट में कहता है कि बाबा तो सेक्स कर ही नहीं सकता, जबकि ऐय्याश बाबा की कमज़ोरी लड़कियां ही है। उसकी कुदृष्टि आश्रम में आने वाली हर युवा स्त्री पर होती है। वह जिस भी स्त्री के साथ सोना चाहता है, ऐन-केन-प्रकारेण सो ही जाता है। उसके इस अनैतिक कार्य में आश्रम में उसके हवस की शिकार हो चुकी स्त्रियाँ ही स्वेच्छा या मजबूरी में उसकी मदद करती हैं।

प्रकाश झा ने गाहे-बगाहे ‘आश्रम 3 (Aashram 3)’ में देश में मीडिया, ख़ासकर टीवी मीडिया को उसका उसली चेहरा दिखाने का प्रयास किया है। बाबा की हवस की शिकार बनी उनकी भक्त पम्मी पहलवान अपनी आप बीती रिकॉर्ड करके चैनल-चैनल भटकती है, लेकिन बाबा के सहयोगी भोपी स्वामी पैसे के बल संपूर्ण मीडिया को ख़रीद लेता है और पम्मी की कहानी दबा लेता है। इसलिए अपनी आप-बीती लोगों तक पहुंचाने के लिए पम्मी का दोस्त हैकिंग सिस्टम अपनाता है और एक चैनल की पीसीआर में घुस कर वीडियो लाइव कर देता है। इस चर्चित बेव सीरीज़ में देश की मीडिया बिकाऊ और दलाल के किरदार में है। इस वेब सीरीज़ ने साबित कर दिया है देश की मीडिया का लोगों के दुख-तकलीफ़ से कोई मतलब नहीं है। उन्हें तो केवल और केवल सनसनीख़ेज़ स्टोरी चाहिए, जिससे उनकी टीआरपी बढ़े और उन्हें बेहतर रेवेन्यू मिले।

एमएक्स प्लेयर की सबसे अधिक लोकप्रिय वेब सीरीज बने ‘आश्रम’ के तीसरे सीजन ने साबित कर दिया कि क्राइम और सस्पेंस के साथ अगर बोल्डनेस का तड़का किसी स्क्रिप्ट में लगा दिया जाए तो वह बेशक कमाल कर सकती है। पहले दो सीजन से सबको लुभाने वाले ‘आश्रम’ के इस सीजन में भी बॉबी देओल (Bobby Deol) की दमदार एक्टिंग और ईशा गुप्ता की एंट्री ने कहानी को और ज़ोरदार बना दिया है। दिलचस्प बात यह है कि ईशा गुप्ता बहुत बोल्ड अदाकारी के लिए जानी जाती हैं। ‘आश्रम’ 3 में भी वह अपना वही जलवा दिखाती हैं। बॉबी देओल और उनके इंटिमेट सीन्स दर्शकों को रोमांचित कर रहे हैं। वैसे दर्शन बोल्ड सीन्स की वजह से खूब सुर्खियां बटोरने वाली फिल्म या वेब सीरीज़ को बार-बार देखना पसंद करते हैं। कुल मिलाकर यह बेव सीरीज़ उच्च श्रेणी की मनोरंजन करने वाली बेव सीरीज़ है। इसका ब्रम्हवाक्य जपनाम तो जन-जन लोकप्रिय हो गया है। यही वजह है कि यह वेब सीरीज़ सफलता के नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है।

इस बेव सीरीज़ का एक और पहलू है, जिस पर किसी की नज़र नहीं गई। इसलिए उस पर कुछ लिखा भी नहीं गया। जी हाँ, निःसंदेह यह वेब सीरीज आदरणीय रहे हिंदू संतों के आचरण को मटियामेट करती है। उन्हें दुराचारी साबित करती है। इसके बावजूद इस वेब सीरीज़ को लेकर पूरे देश में एक भी जगह विरोध का स्वर नहीं उठा। किसी हिंदू ने नहीं कहा कि इस बेव सीरीज़ से उसकी धर्मिक भावनाएं आहत हुई हैं। यही हिंदू धर्म की ख़ूबसूरती है। जो केवल और केवल ‘जियो और जीने दो’ की फिलॉसफी में यक़ीन करती है। इस तरह की प्रस्तुतियों, चाहे वे वेब सीरीज़ हों या फिल्म, को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानती है। इसीलिए आश्रम को हिंदुओं ने ईश निंदा यानी ब्लासफेमी का मुद्दा नहीं बनाया और इसे विशुद्ध रूप से मनोरंजन की दृष्टि से लिया। यही वजह है कि महज दो दिन में इस वेब सीरीज़ को 10 करोड़ लोगों ने देख डाला। इससे वेब सीरीज़ के निर्माता प्रकाश झा को करोड़ों रुपए का आमदनी हुई।

अब कल्पना करिए, क्या देश में आश्रम की वेब सीरीज़ का इस्लामी संस्करण बनाना संभव है? क्या प्रकाश झा इस्लामी पृष्ठिभूमि पर यानी किसी मौलवी या इस्लामिक धर्म गुरु के परिपेक्ष्य में इस तरह की वेब सीरीज़ के निर्माण का दुस्साहस कर सकते हैं। और अगर आश्रम का इस्लामी संस्करण बना तो क्या मुसलमान आश्रम की तर्ज पर मदरसा या मस्जिद जैसी वेब सीरीज़ का स्वागत उसी तरह करेंगे जैसे हिंदुओं ने अपने धर्म गुरु की अवमानना करने वाली वेब सीरीज़ आश्रम का स्वागत किया। कई प्रबुद्ध लोग इस सवाल के जवाब में केवल और केवल नहीं कहते है। उनका कहना हा कि जहाँ मजहब के विरुद्ध एक शब्द बोलने पर गला काटने, महज कार्टून बना देने से पूरे स्टॉफ को गोली मारने या उपन्यास लिख देने से मौत का फ़तवा जारी करने की संस्कृति का बोलबाला हो, वहाँ क्या प्रकाश झा तो क्या हॉलीवुड के लोग भी कोई वेब सीरीज, फिल्म या शो बनाने की हिम्मत नहीं कर सकते।

बेशक आसाराम बापू और डेरा सच्चा सौदा के राम-रहीम के कुकृत्यों के कारण हिंदू संतों की छवि तार-तार हो गई और इन दोनों संतों ने धर्म की आड़ में जो कुछ भी किया वह निंदनीय है। ये दोनों संत अपने किए की सज़ा भुगत रहे हैं। लेकिन आसाराम और राम-रहीम जैसे तथाकथित आचरण के लोग मदरसे और मस्जिदों से भी पाए जाते हैं। आए दिन मदरसे, मस्जिदों और दूसरी मजहबी तंज़ीमों से इसी तरह की व्यभिचार की ख़बरें आती रहती हैं। जहां मौलाना और मौलवी मजहब की आड़ में ऐय्याशी करते हैं और पूरा का पूरा सिस्टम कार्रवाई करने की बजाय मूक दर्शक बना रहता है। लेकिन उनके व्यभिचार के बारे में बोलने से सभी घबराते हैं। डरते हैं कि उनका गला रेत दिया जाएगा। देखिए न, कथित तौर ईश निंदा करने वाली भाजपा प्रवक्ता नुपूर शर्मा की जीभ काटने की क़ीमत एक करोड़ लगाई गई है। इस तरह का इनाम किसी और धर्म के समर्थन में लोग नहीं घोषित करते।

कई जानकार कहते हैं कि टीवी डिबेट में नुपूर शर्मा ने कोई भी नई बात नहीं कही। उन्होंने तो एक सवाल का जवाब देते हुए अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में वही बात दोहराई, जो क़ुरआन की आयतों में लिखी हुई है और जिसे भगोड़े ज़ाकिर नाईक समेत अनेक इस्लामी धर्म गुरु बार-बार दोहराते रहे हैं। लेकिन जैसे ही वह बात नुपूर शर्मा की ज़बान से निकली अनर्थ हो गया। बवाल मच गया। हर धर्म में विसंगति होती है, लोग उसकी चर्चा करते हैं। मसलन, हिंदू धर्म में सती प्रथा का ज़िक्र करते हुए उसकी भर्त्सना करते हैं। लेकिन बात जब भी इस्लाम की विसंगतियों की होती है तो दुनिया भर में सभी कट्टरपंथी एकजुट हो जाते हैं। कई इस्लामिक राष्ट्रों ने वही कट्टर प्रतिक्रिया दी है। इन लोगों को खुद नुपूर शर्मा से तर्क करना चाहिए और नुपूर ने जो कुछ भी कहा उसे उससे साबित करने के लिए कहना चाहिए। अगर नुपूर शर्मा साबित न कर सकें तो खुद इस्लाम के जानकारों को क़ुरआन की आयतों का हवाला देकर साबित करना चाहिए कि नुपूर शर्मा ग़लत बयानी की है।

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है। बस विरोध प्रदर्शन और पत्थरबाज़ी हो रही है। दंगा करने की कोशिश की जा रही है। यहाँ यह कहना भी समीचीन होगा कि कोई धर धर्म अंदर से इतना खोखला नहीं हो सकता है। कोई धर्म या मजहब इतना कमज़ोर नहीं हो सकता है कि उसके अनुयायी किसी के एक बयान से इतने भयभीत हो जाएँ और मरने-मारने पर उतारूँ हो जाएँ। अगर किसी धर्म के अनुयायी मामूली सी बात पर भी हिंसक हो जाते हैं तो उस धर्म में व्यापक रिफॉर्म की ज़रूरत है। उस धर्म में मौजूद उस खोट या कमी को दूर करने की ज़रूरत है, जो समूची मानवता के लिए गंभीर ख़तरा बन गई है। अब बस केवल कल्पना कीजिए, हिंदू समुदाय के लोग भी अपने धर्म को लेकर इतने ही संवोदनशील होते तो क्या कोई फिल्मकार आश्रम जैसी वेब सीरीज या पीके या ओएमजी जैसी फिल्म बनाने की ज़ुर्रत कर पाता?

वस्तुतः इंसान ने जब धर्म की परिकल्पना की होगी तो उसके जेहन में एक ऐसी जीवन शैली का विचार आया होगा, जहाँ इंसान का बौद्धिक विकास हो, उसके स्वभाव सहिष्णुता को स्थान मिले। वह बेहतर नागरिक बने। जियो औहर जीने दो के मानवीय अवधारणा का समर्थन करे और उसे अपनी जीवन शैली में उतारे। यानी हर धर्म की अवधरणा मानव को बेहतर जीवन शैली देने की है। इसलिए जाता है कि धर्म मानव के लिए है। मानव को धर्म के लिए नहीं है। इसीलिए मानव धर्म को माने या न माने उसकी मर्जी। लेकिन ज़बरदस्ती मानव को धर्म के लिए बनाना पागलपन है। धर्म के लिए मानव की हत्या उससे भी बड़ा पागलपन है। यह पागलपन इंसान को इंसान से शैतान बना देता है। इस पागलपन के कारण इंसान धरती पर अपनी श्रेष्ठता को गंवा देता है, क्योंकि मानव पशुओं की तरह मानव को मार डालती है।

अमेरिकी ख़ुफिया एजेंसी सीआईए के नेशनल इंटेलिजेंस काउंसिल के पूर्व वाइस चेयरमैन और मुस्लिम मामलों के अमेरिकी विशेषज्ञ ग्राहम ई फुलर ने कुछ साल पहले लिखे अपने एक फीचर लेख ‘अ वर्ल्ड विदाऊट इस्लाम (A World Without Islam)’ में इस्लाम के बिना दुनिया की परिकल्पना की थी। उन्होंने सवाल उठाया था कि मान लीजिए अगर इस्लाम का उदय नहीं हुआ होता तो दुनिया कैसी होती? फिर उन्होंने खुद जवाब दिया था कि अगर इस्लाम न होता तो जिहाद नहीं होता और जिहाद नहीं होता तो दुनिया भर में मुसलमान शांति पूर्वक रहते। कहीं भी सभ्यता का झगड़ा नहीं होता और सबसे अहम इस धरती पर कहीं आतंकवाद नहीं होता। आतंकवाद नहीं होता तो लाखों की तादाद में लोग बेमौत न मारे जाते। अंत में फुलर फिर कहते कि अगर धरती पर केवल इस्लाम न होता तो सब कुछ ठीक रहता। धरती के हर कोने में लोग चैन-अमन से रहते, क्योंकि कहीं धर्म के नाम पर कहीं कोई झगड़ा नहीं होता।

दरअसल, कुछ समय से कहा जा रहा है कि इस्लाम की कट्टरता और जन्नत जैसे अंधविश्वास के चलते उदार एवं भाईचारे में यक़ीन करने वाले मुसलमानों का दम सा घुटने लगा है। इसीलिए लोग इस्माल डिनाउंस यानी छोड़ने की बात करने लगे हैं। अभी कुछ साल पहले अमेरिका में मुसलमानों के इस्लाम छोड़ने की ख़बर लंबे समय तक सुर्ख़ियों में थी। #AwesomeWithoutAllah ट्रेन्ड हो रहा था। अभी इसी साल जनवरी में केरल से एक्स-मुस्लिम्स ऑफ केरल जैसे संगठन के बनाने की ख़बर आई थी और 9 जनवरी को केरल एक्स-मुस्लिम्स डे के रूप में मनाने का संकल्प लिया गया था। कहना न होगा, कि इस्लाम के लिए असली ख़तरा लोगों का इस्लाम से मोहभंग होना ही है, न कि नुपूर शर्मा या सलमान रूश्दी। इसलिए इस्लामिक बुद्धिजीवियों को इस बात पर मंथन करना चाहिए कि इस्लाम में ऐसा क्या है, जो युवाओं को जिहाद के नाम पर मानव हत्या करने के लिए प्रेरित करता है। वस्तुतः ऐसा लग रहा है कि नुपूर शर्मा के विरोध के पीछे जिहाद की यही भावना ही काम करती दिख रही है। वरना नुपूर के बयान को मुसलमान उसी तरह लेते जिस तरह हिंदुओं ने आश्रम बेव सीरीज़ को लिया है।
हरिगोविंद विश्वकर्मा

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