ठाकरे परिवार की छाया से मुक्त होने की राह पर शिवसेना

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
कबीरदास का दोहा है- संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम… दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम… इन दिनों महाराष्ट्र के सबसे बड़े राजनीतिक चेहरे शिवसेना के अध्यक्ष, राज्य के सीएम उद्धव ठाकरे की नियति कुछ ऐसी ही बन गई है। सियासी दुविधा में ना उन्हें माया मिल पाई है ना राम। ना हिंदुत्व साथ रहा ना धर्मनिरपेक्षता। हालात यह हैं कि कभी भारतीय जनता पार्टी को नीचा दिखाने के लिए शिवसेना का सेक्युलर शिवसेना बनाने की उनकी रणनीति का घातक परिणाम दिख रहा है। उनकी सरकार तो खतरे में है ही, अपने पिता हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे की विरासत को भी वह बचा पाएंगे इसमें भारी संदेह है। उन्होंने अपने विधायक तो गंवाए ही हैं, अपने समर्पित कार्यकर्ता भी गंवा रहे हैं।

राजनीतिक टीकाकार इस बात पर हैरान हैं कि शिवसेना में अब तक की सबसे बड़ी बग़ावत हुई है लेकिन शिवसेना कार्यकर्ता ख़ामोश हैं। शिवसैनिकों का ऐसा स्वभाव कभी नहीं देखा गया, जैसा इस बार दो दिन से देखा जा रहा है। आम शिवसैनिक सड़क पर आकर एकनाथ शिंदे का विरोध करने की बजाय टीवी पर राजनीतिक घटनाक्रम देख रहे हैं। शिवसैनिकों का यह रवैया लोगों की समझ से परे है।

याद करिए, वर्ष 1991 में जब छगन भुजबल ने बाल ठाकरे के खिलाफ विरोध का बिगुल बजाया था और कांग्रेस में जाने का फ़ैसाल लिया था, तब शिवसैनिकों ने उनके आवास पर हमला बोल दिया था। भुजबल के घर को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया था और उन पर हमला भी कर दिया था। इसी तरह 2005 में जब नारायण राणे ने बग़ावत की तो शिवसेना कार्यकर्ता उनके खिलाफ भी सड़क पर आ गए थे।

यहां तक कि शक्तिशाली नेता कहे जाने वाले राज ठाकरे के जब बाल ठाकरे से नाराज होकर पार्टी छोड़ने की ख़बर आई तो शिवसैनिको ने उनके ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोल दिया था। लिहाज़ा, राज को भूमिगत होने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन एकनाथ शिंदे के ख़िलाफ़ शिवसेना नेता तो दूर आम शिवसेना कार्यकर्ता भी कोई बयान नहीं दे रहा है और न कोई आंदोलन हो रहा है। कहा जा रहा है कि उद्धव के मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवसेना की कोंकण लॉबी ठाकरे परिवार के चारों ओर घेरा बना दिया। शिवसेना का कोई नेता उनसे मिल ही नहीं पाता था। यहां तक कि एकनाथ शिंदे भी दरकिनार कर दिए गए थे।

बहरहाल, कार्यकर्ताओं का सड़क पर न उतरना एक अगर संकेत की ओर इशारा कर रहा है कि उद्धव ठाकरे का 2019 विधान सभा चुनाव के नतीजे आने के बाद तीन दशक की सहयोगी भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर शरद पवार और कांग्रेस के साथ जाना शिवसैनिकों को रास नहीं आया। उससे भी बड़ी बात बतौर मुख्यमंत्री ढाई साल के कार्यकाल में उद्दव ने जो कुछ किया उससे शिवसेना के कार्यकर्ता ख़ुश नहीं थे।

कहा जाता है कि उद्धव ठाकरे मंत्रालय जाते ही नहीं थे और सत्ता का केंद्र रहने वाला वर्षा बंगला उनके कार्यकाल में सूना रहता था। कुल मिलाकर उद्धव ठाकरे की उदासीनता से शिवसेना कार्यकर्ताओं भी उदासीन हो गए। उन्हें लगने लगा था कि बालासाहेब ने जिस पौधे को सींच कर वटवृक्ष बनाया था, उद्ध ठाकरे उसे खौलता पानी दे रहे हैं। इसके बाद नेताओ-कार्यकर्ताओं का उद्धव-आदित्य से मोहभंग होने लगा। शिवसेना में बग़ावत के स्वर उभरते रहे और उद्धव को भनक तक नहीं लगी।

वस्तुतः महाराष्ट्र में 1987 में शिवसेना-भाजपा भगवा गठबंधन में शिवसेना हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रही, लेकिन 2014 में भाजपा से चुनावी तालमेल न होने से उसके विधायकों की संख्या कम हो गई। भाजपा का छोटा भाई बनना उद्धव को मंजूर नहीं हुआ। फिर भी चुनाव के बाद बने भगवा गठबंधन में विधायकों की संभावित बग़ावत को रोकने के लिए उन्हें न चाहते हुए भी छोटे भाई की भूमिका में आना पड़ा। इससे उद्धव के अहं को ज़बरदस्त चोट लगी थी। इसे वह भूल ही नहीं सके।

2019 के विधान सभा चुनाव के नतीजे में जब भाजपा की सीट 122 से घटकर 106 होने के बाद उन्हें अपमान का बदला लेने का मौक़ा मिल गया। भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था, इसके बावजूद उन्होंने भाजपा के सामने ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री के कार्यकाल की शर्त रख दी। देवेंद्र फडणवीस को दोबारा पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर चुकी भाजपा ने उनकी नामंजूर कर दी और गठबंधन टूट गया।

बहरहाल, इसके बाद भाजपा को सबक सिखाने के चक्कर में उद्धव ठाकरे मराठा क्षत्रप शरद पवार के चक्रव्यूह में फंस गए और कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ महाविकास अघाड़ी का गठन कर राज्य में सरकार बनाई और खुद मुख्यमंत्री बन गए। कांग्रेस-एनसीपी ने मिलकर हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की शिवसेना को पूरी तरह ट्रांसफॉर्म कर दिया। उसे एक सेक्यूलर राजनीतिक पार्टी बना दिया जो हिंदू विरोधी कार्य करती दिख रही थी। इससे जो ज़िंदगी भर शिवसैनिक राग हिंदू आलापता था, वह पशोपेश में पड़ गया। उसे उद्धव का फ़ैसला हज़म ही नहीं हो रहा था।

शिवसेना विधायकों की हालत तो कार्यकर्ताओं से भी बुरी थी। वे देख रहे थे कि उनकी सरकार हिंदुत्व के पैरोकारों की ही खबर ले रही है और शिवसेना की इमैज हिंदू-विरोधी पार्टी की बनती जा रही है। इसे तो वोट देने वाले मतदाता स्वीकार नहीं करेंगे। विधायकों को लग गया कि उद्धव की हिंदू विरोधी नीति तो उनका राजनीतिक करियर ही ख़त्म कर देगी। लिहाज़ा, जन प्रतिनिधियों का शिवसेना में दम घुटने लगा। वे मौक़ा तलाशने लगे और व्यापक जनाधार के बावजूद पार्टी में साइडलाइन किए गए एकनाथ शिंदे ने जब विरोध करने की पहल की तो सभी विधायक उनके साथ हो लिए।

कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि राग सेक्यूलर आलापना उद्धव को इतना महंगा पड़ा कि उनकी शिवसेना ही उनके यानी ठाकरे परिवार के चंगुल से मुक्त होने की राह पर है। बाग़ी नेता एकनाथ शिंदे के खेमे में 37 विधायक हो जाते हैं तो बाग़ियों के गुट को मान्यता मिल जाएगी। इसका तात्पर्य यह होगा कि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली बाग़ी शिवसेना ही असली शिवसेना कहलाएगी और उद्धव का गुट अपना परंपरागत चुनाव चिन्ह तीर-धनुष भी गंवा देगा।

एकनाथ शिंदे की बग़ावत कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे उन राजनीतिक दलों के लिए ख़तरे की घंटी हैं, जिन पर एक परिवार विशेष का वर्चस्व है। कांग्रेस पर गांधी परिवार का नियंत्रण है तो समाजवादी पार्टी पर मुलायम सिंह यादव के परिवार का वर्चस्व है। इसी तरह टीएमसी, आरजेडी और एनसीपी पर क्रमशः ममता बनर्जी, लालू परिवार और शरद पवार के परिवार का नियंत्रण है।

इस बग़ावत से शिवसेना फिलहाल ठाकरे परिवार के चंगुल से मुक्त होने की राह पर पहुंच गई है। अगर उद्धव ठाकरे मजबूरी में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना में बने रहने का फ़ैसला करेंगे, उनका शिवसेना पर कोई नियंत्रण ही नहीं रह जाएगा और अगर वह एकनाथ से अलग दूसरी पार्टी बनाएंगे, तब भी ठाकरे परिवार अपना परंपरागत चुनाव चिन्ह तीर-धनुष भी गंवा देगा। इस तरह शिवसेना देश की पहली पार्टी होगी जो शुरू से ही एक परिवार विशेष ने अधीन रहने के बाद अब उस दायरे से बाहर निकल रही है। यह देश की राजनीति में नए युग की शुरुआत होगी।

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