श्रद्धांजलि: जीवन की सरहदों के पार इक सागर सरहदी

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सरोज कुमार 

सागर सरहदी नहीं रहे। पिछले रविवार देर रात। हमेशा हर क्षण ज़िंदा लोगों के बीच जीने वाले ज़िंदादिल सरहदी कोरोनाकाल का अकेलापन नहीं सह पाए। कोरोना के कारण घर की सरहदों में क़ैद हो गए थे और उनके चाहने वालों का आना-जाना भी बंद हो गया था। एकाकीपन के इस पिंजरे को तोड़कर अब वह जीवन की सरहदों के पार दूसरी दुनिया में चले गए हैं। सागर सरहदी, वही, जिन्होंने ’बाज़ार’ जैसी फिल्म बनाई थी। लेकिन वह बाज़ार का हिस्सा कभी नहीं रहे। उनका बाज़ार अलग था, जो बाज़ार के ख़िलाफ़ खड़ा दिखाई देता था। बाज़ार ने उनसे दूरी भी बना रखी थी। उन्हें उसकी परवाह नहीं थी। उनके निधन की ख़बर मुख्यधारा की मीडिया में सिंगल कॉलम की ख़बर बन कर रह गई। मुख्यधारा के सिने जगत ने भी उनके साथ ऐसा ही बरताव किया।

जिस व्यक्ति ने हिंदी फिल्म जगत के लिए ‘कभी कभी’, ‘नूरी’, ‘सिलसिला’, ‘चांदनी’, ‘फासले’, ‘दीवाना’ और ‘कहो न प्यार है’ जैसी सफल फिल्में लिखीं उस व्यक्ति का निधन बॉलीवुड के लिए कोई ख़बर नहीं रही। अफ़सोस नहीं, आश्चर्य की बात है। यह किसी बाज़ार नहीं, बल्कि आचार में गिरावट का विषय है। बाज़ार यही काम करता है, वह सब कुछ ख़त्म कर उसके ढूह पर अपना साम्राज्य स्थापित करता है। कुछेक लोगों को छोड़कर बाक़ी फिल्म जगत ने सागर सरहदी के निधन पर शोक संवेदना व्यक्त करने की ज़रूरत भी नहीं समझी। मर चुकीं संवेदनाओं का मरघट बन चुके इस देश में किसान आंदोलन के दौरान शहीद हो चुके 200 से अधिक किसानों के लिए जिनके भीतर संवेदना के शब्द सूख गए तो सागर सरहदी को भी उन्हीं किसानों के क्रम में गिन लिया जाना चाहिए। सागर सरहदी अलग क़िस्म के किसान थे, जो शब्दों और संवेदनाएं बोते और उगाते थे और इसलिए उन्हें किसी की संवेदना की ज़रूरत भी नहीं थी।

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देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान के ऐबटाबाद से चलकर एक शरणार्थी के रूप में वह अपने परिवार के साथ दिल्ली आए थे और फिर मुंबई चले गए। जीवन की इस दर्दनाक यात्रा ने गंगासागर तलवार को सागर सरहदी बना दिया। सरहदी होने का दर्द जीवन के आख़िरी हद तक उनके भीतर सालता रहा। उनकी कहानियों, उनकी फिल्मों में इस दर्द को साफ़ देखा जा सकता है। हिंदी फिल्म जगत में बतौर लेखक उन्हें रोमांस का मास्टर माना जाता था। लेकिन उनके नाटक ‘भगत सिंह दी वापसी’, ‘तनहाई’ और ‘राजदरबार’ उनके भीतर रोमांस के लिफ़ाफ़े में छिपे विद्रोह की बानगी है, जिसे बाहर आने का मौक़ा कम ही मिल पाया। लेकिन जब उन्होंने ‘बाज़ार’ बनाई तो अपने भीतर के इस लिफ़ाफ़े का अनावरण भी किया और वह लिफ़ाफ़ा लोगों के सामने है।

बकौल सागर सरहदी जब ‘बाज़ार’ बनकर तैयार हो गई तो उन्होंने फिल्म जगत के मित्रों को फिल्म दिखाने की एक दिन व्यवस्था की। फिल्म देखने के बाद कई बड़े लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया था। उनका कहना था कि यह फिल्म थिएटर में नहीं लग पाएगी, चलना तो दूर की बात। यहां मैं उन लोगों के नाम नहीं देना चाहता हूं, लेकिन सागर सरहदी की ज़ुबान पर उनके लिए ख़ास तरह की गालियां ही होती थीं। वाक़ई, किसी वितरक ने बाज़ार को हाथ नहीं लगाया था, और सरहदी ने फिल्म ख़ुद रिलीज़ की थी। लेकिन फिल्म ने जो सफलता हासिल की, स्वयं सरहदी को भी ऐसी उम्मीद नहीं थी। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, “यार फिल्म ने इतनी कमाई की कि पैसा रखने में शर्म आने लगी थी।” यह अलग बात है कि ‘बाज़ार’ की कमाई ‘तेरे शहर में’, ‘अगला मौसम’ और ‘चौसर’ में चली गई।

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रचनाकर्म सागर सरहदी का पेशा नहीं था, वह उनका जीवन था। वह उसी से सांस लेते थे, ऊर्जा लेते थे। उन्होंने शादी नहीं की थी, उनका कोई अपना परिवार नहीं था, लेकिन वह कभी अकेले नहीं रहे, अकेले रहना उनकी आदत में नहीं था। चाहे घर हो, या ऑफिस कलाकारों, रचनाकारों की महफिल हर जगह हमेशा सजी रहती थी। हर शाम अंधेरी पश्चिम के लिंक रोड स्थित ऑफिस में कलाकारों, रंगकर्मियों, लेखकों का जमघट होता था। कविता पाठ, कहानी पाठ, नाटक पर चर्चा दैनिक जमघट की चर्या थी। ये सारी चीज़ें मिलकर ही सागर सरहदी बनते थे।

सागर सरहदी रंगमंच के लिए समान रूप से सक्रिय रहते थे। अभिनय में भविष्य बनाने मुंबई पहुंचे रंगकर्मी उनकी नाटक मंडली का हिस्सा होते थे। प्रतिष्ठित पृथ्वी थिएटर में तारीख़ों की किल्लत हुई तो उन्होंने अपना अलग ठिकाना ढूंढ़ लिया था। एक अहाते में उपेक्षित पड़े एक प्लेटफ़ार्म को रंगमंच बना लिया। अंधेरी पश्चिम स्थित इस मंच पर ही सागर सरहदी की रंग-मंडली नाटक जमी रहती थी। धीरे-धीरे यह मंच इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी मांग बढ़ गई। कई दूसरी नाटक मंडलियां भी यहां आने लगीं। यहां मंचित सरहदी के कई नाटकों की समीक्षा मैंने लिखी थी। अपनी नाटक मंडली के कलाकारों के आग्रह पर ही उन्होंने फिल्म ‘चौसर’ का निर्माण किया। उन्हीं कलाकारों को इसमें किरदार सौंपे। ‘चौसर’ वाकई उनके लिए ‘चौसर’ था। घर की सारी पूंजी लगा दी, और फिल्म आजतक रिलीज़ नहीं हो पाई। अलबत्ता उस फिल्म के कई कलाकार आज कीमती हो चुके हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी उन्हीं में से एक हैं।

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सागर सरहदी से मेरी मुलाक़ात 2000 के दशक में मुंबई में जनवादी लेखक संघ के एक कार्यक्रम में हुई थी। यह मुलाक़ात जल्द ही मित्रता में बदल गई। मित्रता इसलिए कि विचार काफी मिलते थे और सरहदी संबंधों के बीच उम्र के फ़ासले एक क्षण में मिटा देते थे। वह 80 साल की उम्र में भी ख़ुद को नाबालिग ही समझते रहे। ज़िंदादिली ऐसी कि नाबालिग भी शर्मा जाए। अपनों के साथ बातचीत में गाली, उनके लिए किसी महिला के होठ की लाली की तरह थी। उनकी गाली अपनत्व का इज़हार होती थी। यह उनकी बहुत बड़ी ख़ासियत थी, और इसे उन्होंने आजीवन चुकने नहीं दिया। जब भी मुलाक़ात होती बोलते, “पत्रकार हो, तुम्हारे पास तमाम सूचनाएं आती होंगी, तमाम आइडियाज़ आते होंगे, कुछ लेकर आओ, चर्चा करेंगे, कोई नई चीज़ बनेगी, समाज और कला जगत के काम आएगी।” एक दिन मैंने उनसे कहा, “कहानी तो है, लेकिन चर्चा अकेले में होगी।”

मुंबई में कहानी चोरी होने की बातें मैंने सुन रखी थी। सरहदी पर पूरा भरोसा था, लेकिन ऑफिस में वह कलाकारों से घिरे रहते थे। उन्होंने अगले दिन लंच पर घर बुलाया। तय समय पर सरदार नगर स्थित उनके घर पहुंचा तो लंच का टेबल दुल्हन की तरह सज-धज कर तैयार था। ठोस, द्रव और गैस तीनों अतिथि का इंतज़ार कर रहे थे। सरहदी को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मैं गैस का ग्राहक नहीं हूं। उनके मुंह से प्रतिक्रिया में जो सहज शब्द निकले थे, यहां लिख पाने में असमर्थ हूं। उनको जानने वाले बगैर लिखे ही जान जाएंगे।

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सागर सरहदी अच्छी चाय, अच्छी शराब और अच्छे भोजन के शौक़ीन थे। वह पकाते ज़्यादा थे, खाते कम थे। उनकी केतली में चाय की अनगितन किस्में उबलती थीं। जिसे जो पसंद हो, चुस्की ले। भोजन की मेज पर भले ही दो आदमी बैठे हों, लेकिन पूरी मेज भोजन से भरी रहती थी। कई बार उनके घर साथ में खाना खाने का मौक़ा मिला, और मैं यह देखकर हैरान रहता था कि सिर्फ़ दो लोगों के लिए इतनी मात्रा में इतने सारे व्यंजन! सागर सरहदी स्वयं भोजन खाते नहीं, बल्कि सूंघते थे। एक बार मैंने पूछ लिया कि इतना खाना क्यों बनवाते हैं सागर साहब? उनका सीधा जवाब था -देखने के लिए। और वह फिर अपने अंदाज़ में आ गए। बाद में पता चला कि उनकी रसोई से कई ऐसे लोगों के पेट भरते थे, जो अपना पेट भर पाने में सक्षम नहीं थे।

भोजन के साथ कहानी शुरू हुई। मैंने संक्षेप में सुना दिया। फिल्मी भाषा में इसे ‘वन लाइनर’ कहते हैं। सागर सरहदी मेरी तरफ़ देखने लगे थे। उन्होंने उसी समय मुझसे वचन लिया कि यह कहानी मैं किसी और को नहीं सुनाऊंगा। उन्होंने यहां तक कहा कि अभी करार कर लो। ‘चैसर’ के बाद उनकी इस कहानी पर काम करने की इच्छा थी। वर्ष 2003 में मैं मुंबई से दिल्ली आ गया। लेकिन सागर साहब से संपर्क बना रहा। जब भी फोन पर बात होती, वह सबसे पहले उस कहानी के बारे में पूछते, “किसी को सुनाया तो नहीं न। जनाब वह कहानी मेरी है और उस पर काम करना है।” इस दौरान वह कई बार दिल्ली आए। मैं भी कई बार मुंबई गया। मुलाक़ात होती तो उस कहानी के बारे में ज़रूर पूछते। वह कहानी उनके दिल को इतना छू जाएगी, मुझे अंदाज़ा नहीं था। यहां साफ़ कर दूं कि मैं न तो कहानीकार हूं, और न फिल्म की मेरी कोई महत्वाकांक्षा ही रही है। वह कहानी सागर सरहदी के बार-बार आग्रह करने पर ही मन में आकार ले पाई थी। ‘चौसर’ रिलीज़ नहीं हो पाई और दूसरी कहानी पर काम शुरू नहीं हो पाया।

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सागर सरहदी प्रगतिशील विचारधारा के थे और इस कारण वह सरकारी मीडिया, सरकारी पैसे और सरकारी पुरस्कारों से दूर रहते थे। स्वाभिमान उनके भीतर कूट-कूट कर भरा था। लेकिन कई फिल्मों में पैसे डूबने के बाद वह दूरदर्शन के लिए काम करने को तैयार हो गए थे, लेकिन अपनी शर्तों पर। इसी सिलसिले में एक बार दिल्ली आए थे, मंडी हाउस पर ललित कला अकादमी के अतिथि गृह में ठहरे हुए थे। उन दिनों केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग की सरकार थी और कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 125वीं जयंती मनाने का सरकार ने निर्णय लिया था। पूरे साल देश के अलग-अलग शहरों में आयोजन होने थे और प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर फिल्में भी बननी थीं। इन सब के लिए एक अच्छा ख़ासा बजट था। माकपा की राज्यसभा सदस्य सरला माहेश्वरी इस पूरे आयोजन की एक तरह से सूत्रधार थीं। माकपा उस समय केंद्र सरकार में शामिल थी। हालांकि बाद में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर माकपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।

आयोजन के सिलसिले में हुई दो-तीन मुलाक़ातों के कारण सरला माहेश्वरी से मेरा थोड़ा परिचय हो गया था। मुझे लगा कि प्रेमचंद की कहानियों पर फिल्म बनाने के लिए सागर सरहदी जितना उपयुक्त दूसरा कोई नहीं होगा। काम भी अच्छा होगा और सागर साहब की थोड़ी मदद भी हो जाएगी। सरला माहेश्वरी को फोन पर ही इस भावना से अवगत करा दिया था और उनका रुख सकारात्मक था। उन्होंने सागर सरहदी को लेकर घर आने को कहा। मैंने सागर साहब को पूरी बात बताई और वह सहर्ष सरला माहेश्वरी से मिलने को तैयार हो गए। अगले दिन सरला माहेश्वरी के आवास पहुंचे। उन्होंने अच्छे से स्वागत किया, बातचीत हुई और सागर सरहदी के साथ काम करने की इच्छा भी ज़ाहिर की, लेकिन बाद में पता चला कि फिल्म बनाने की ज़िम्मेदारी एमके रैना को सौंप दी गई है। सरला माहेश्वरी को मैंने दोबारा कभी फोन नहीं किया, मुलाक़ात भी कभी नहीं की। राजनीति में एक व्यक्ति के कई चेहरे होते हैं, सरला माहेश्वरी भी इसकी एक उदाहरण थीं। सरहदी को मैंने यह जानकारी दे दी और उनकी ज़ुबान पर माहेश्वरी के प्रति अपनत्व के जो शब्द आए थे, उसे सागर साहब को जानने वाले यहां लिखे बगैर पढ़ लेंगे।

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उम्र अधिक होने के साथ फिल्म जगत के लोग उनके साथ काम करने से बचने लगे थे, जबकि बेकार बैठना उनकी सबसे बड़ी बीमारी थी। वह स्वयं इस बात को कई बार कहते थे। वह हमेशा अपने आपको व्यस्त रखते थे। फिल्में नहीं होती थीं, तो नाटक करते थे। इधर कुछ वर्षों से वह बार-बार बीमार होने लगे थे, उन्हें सुनने में भी समस्या होती थी। फोन पर बातचीत कठिन हो गया था। कोरोनाकाल शुरू होने से पहले एक बार फोन पर बात हुई थी, लेकिन वह ठीक से सुन नहीं पा रहे थे। मुंबई जाने का कार्यक्रम था, सोचा था मुलाक़ात होगी। लेकिन लॉकडाउन ने सब कुछ लॉक कर दिया। सागर सरहदी जैसे व्यक्ति के लिए यह कारावास था। अकेलापन उनका सबसे बड़ा दुश्मन था। लेकिन उन्हें पूरे साल अकेले रहना पड़ा। उन्होंने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी थी, वह एक अजीब से संघर्ष में थे। उनके भीतर की भीड़ और बाहर के अकेलेपन में संघर्ष चल रहा था। लेकिन अकेलापन हावी होता गया और उनकी उम्मीद और सांसें टूट गईं।

‘चैसर’ में उनके सहभागी शाम जी के अनुसार, सरहदी साहब का एकमात्र हत्यारा उनका अकेलापन रहा। उन्होंने कहा कि यदि कोरोना के कारण अकेले रहने की आफ़त न आई होती तो वह अभी कम से कम 10 साल आराम से काट लेते। सागर सरहदी के दो भतीजे हैं -रमेश तलवार और डॉ. इंद्र तलवार। रमेश तलवार फिल्मकार और कलाकार हैं और डॉ. इंद्र तलवार बंबई हॉस्पिटल में बड़े डॉक्टर हैं। अंतिम समय में परिवार ने उनकी बेहतर देखभाल की। कोरोनाकाल से पहले एक बार वह बीमार हुए थे, हफ़्ते भर अस्पताल में रहना पड़ा था। फोन पर बात हुई तो उन्होंने कहा, “यार पता नहीं कौन-सी बीमारी है साली, अस्पताल पहुंचा दिया। एक हफ़्ते अकेले बिस्तर पर सड़ गया। लेकिन भतीजे ने अच्छी देखभाल की। अब बाहर आ गया हूं, ठीक हूं, ऑफिस जाने लगा हूं। जल्द ही दिल्ली आ रहा हूं, मिलेंगे, और कहानी पर काम करना है।” वह दिल्ली नहीं आ पाए और आई उनकी ख़बर दिल्ली से दूर दूसरी दुनिया में चले जाने की।
श्रद्धांजलि सागर सरहदी साहब।

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(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

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