सिर काटने वाली पाशविक-प्रवृत्ति के चलते संकट में इस्लाम

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धरती पर इंसान को हर प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि उसके पास जज़्बात यानी भावनाएं होती हैं। धरती के दूसरे प्राणियों में भावनाएं नहीं होती हैं। भावनाविहीन लोगों को पशु कहा जाता है। इन भावनाओं के कारण ही इंसान भावुक यानी संवेदनशील होता है। वह पशुओं की तरह केवल अपना ही दर्द महसूस नहीं करता है, बल्कि दूसरों के दर्द को भी शिद्दत से अनुभव करता है। इंसान कई बार लोगों को दुखी देखकर इतना दुखी होता है कि ख़ुद रोने लगता है। इस भावनात्मक प्रवृत्ति को ही इंसानियत कहा जाता है, जो इंसान को पशुओं की श्रेणी से अलग करती है।

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यह भावनात्मक प्रवृत्ति ही इंसान के अंदर तर्क करने की शक्ति पैदा करती है। इसी तर्क-शक्ति के चलते इंसान में विवेक पैदा होता है, जिससे वह अच्छे बुरे की पहचान करता है। इस विवेक के चलते इंसान बेहतर नागरिक बनने की कोशिश करता है। वह लोगों से अच्छी तरह बातें करता है, उनके साथ बहस करता है। अगर कोई ग़लत कार्य कर रहा है तो अपनी इसी तर्क शक्ति से एक इंसान दूसरे इंसान को बताता है कि उसने ग़लत कार्य किया है या वह जो भी कर रहा है, वह ग़लत कार्य है।

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अगर इंसान की ये भावनाएं ख़त्म हो जाएं तो उसके अंदर की संवेदनशीलता ही मर जाएगी। तब वह केवल और केवल अपना दर्द महसूस करेगा। वह दूसरों का दर्द बिल्कुल महसूस नहीं करेगा। भावनाएं ख़त्म होने से उसकी तर्क-शक्ति भी ख़त्म हो जाएगी। वह अपने अंदर का विवेक भी गंवा देगा। यह इंसान की पाशविक अवस्था है। यानी बिना भावना और बिना विवेक के इंसान एक तरह से इंसान की काया में पशु ही है। तब वह बिना झिझक के अपनी प्रजाति के किसी दूसरे इंसान का जीवन छीन लेगा। यानी वह किसी का गला काट देगा या किसी की दूसरे हथियार से हत्या कर देगा।

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‘द सैटेनिक वर्सेज’ (The Satanic Verses) नाम की किताब लिखकर दुनिया भर के मुसलमानों के दुश्मन बने विश्वविख्यात लेखक सलमान रुशदी (author Salman Rushdie) पर जानलेवा हमला हुआ है। न्यू जर्सी के हादी मतार (Hadi Matar) नाम के 24 वर्षीय मुस्लिम ने 75 वर्षीय कश्मीरी मुस्लिम (Kashmiri Muslim) सलमान पर हमला किया। इससे पहले नवंबर 2020 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में यही तो हुआ था। इतिहास के अध्यापक सैमुअल पैटी ने कक्षा में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून बना दिया, तो चेचन्या मूल के अब्दुलाख अंजोरोव नाम के इंसानी काया वाले पशु ने पैटी का गला ही काट दिया था। यह अंजोरोव की पाशविक अवस्था थी। अगर वह इंसान होता तो विरोध करने का सभ्य तरीक़ा अपनाता। मसलन, वह अदालत का दरवाज़ा खटखटाता या सरकार से शिकायत करता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया, उसने सीधे अपने कथित रसूल का अपमान करने वाले पैटी का गला काट दिया। एक तरह अंजोरोव का इंसान से पशु में रूपांतरण हो गया था।

किसी के भी आराध्य या ईश या रबी का मज़ाक़ बनाना ग़लत है। यहां बेशक पैटी ग़लत था। इसके बावजूद उसका गला काट देने के इस कृत्य को किसी भी नज़रिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। हत्या अच्छे आदमी की हो या बुरे आदमी की, उसकी भर्त्सना होनी चाहिए। हत्या में क़ुदरत की दी हुई बेशकीमती जान चली जाती है। हत्या इंसान के जीने के अधिकार का हनन भी है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत फ़ांसी की सज़ा का विरोध करता है। इंसान मानव-हत्या को लेकर बहुत संवेदनशील होता है। वह हत्या को अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात मानता है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है। कोई सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोच कर ही दहल उठता है और किसी की गला काटकर हत्या तो समस्त इंसानियत को ही शर्मशार करती है।

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किसी ज़िंदा इंसान का गला काट देना असभ्य, बर्बर और पाशविक प्रवृत्ति वाला कार्य है। इसीलिए हर सभ्य धर्म या सभ्य देश में हत्या के लिए गंभीर सज़ा देने का प्रावधान किया गया है। लिहाज़ा, गला काटने की प्रवृति जिस भी किसी इंसान में होती है, उसे कम से कम इंसान नहीं कहा जा सकता। वह जिस भी धर्म, मजहब या रिलिजन को मानता है, उसे धर्म या मजहब या रिलिजन भी नहीं कहा जा सकता। यानी जो लोग मज़हब के नाम पर गला काटते हैं, वे कम से कम इस्लाम के अनुयायी तो हो ही नहीं सकते हैं। जो लोग गला काटने वालों का समर्थन करते हैं, वे भी इस्लाम के अनुयायी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे बर्बर कृत्य का समर्थन करते हैं।

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यहां तक कि वे मुसलमान जो अपने आपको उदार और सहिष्णु मुसलमान और इस्लाम को शांतिपूर्ण धर्म मानते हैं, लेकिन गला काटने वालों का खुला विरोध नहीं करते हैं, वे एक तरह से उनका अप्रत्यक्ष यानी मौन समर्थन करते हैं। ऐसे लोग भी इस्लाम के अनुयायी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि गला काटने वाले दरिंदे उनके जैसी ही इबादत या पूजा पद्धति अथवा मज़हब को मानते हैं। उसी तरह नमाज़ अता करते हैं या रोज़ा वगैरह रखते हैं। गला काटने वाले लोग उसी को अपना रसूल मानते हैं, जिनको उदार और सहिष्णु मुसलमान अपना रसूल मानते हैं।

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गला काटने की प्रवृत्ति वाले व्यक्ति, उनका समर्थन या मौन समर्थन अथवा विरोध न करने वाले लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि इस तरह के लोग या समुदाय उस ज़माने की सोच का है, जब इंसान पशु की तरह रहता और कार्य करता था। इसीलिए गला काटने की प्रथा को पाशविक-प्रवृत्ति कहा जाता है। हैरानी की बात यह है कि इस तरह की हरकत जहां भी होती है, वहां कोई और धर्म नहीं, बल्कि केवल और केवल इस्लाम मौजूद होता है। कभी तालिबान के आतंकवादी के रूप में, तो कभी आईएसआईएस के दहशतगर्द रूप में और कभी अब्दोलाख अंजोरोव के रूप में इस्लाम को मानने वाला व्यक्ति यह कार्य सेलिब्रेट करते हुए करता है।

इस बिना पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था ‘इस्‍लामि‍क आतंकवाद अंतरराष्‍ट्रीय ख़तरा है और इससे निपटने के लिए अंतरराष्‍ट्रीय प्रतिक्रिया की ज़रूरत है।’ अफ्रीकी देश में मोजांबिक में 50 लोगों की गला काटकर हत्‍या करने से भड़के मैक्रों ने ‘इस्‍लामिक आतंकवाद’ के बढ़ते ख़तरे के प्रति दुनियाभर को आगाह किया था। उनकी इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए थी कि उन्होंने सच बोलने का साहस तो किया और फरमाया कि गला काटने की इस पाशविक-प्रवृत्ति के कारण वाकई इस्लाम संकट में है। आज के दौर में इमैनुएल मैक्रों की तरह का ख़याल अनगिनत लोग मन में रखते हैं, लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। वे डरते रहते हैं कि मुसलमान नाराज़ हो जाएंगे। लिहाज़ा, ऐसे लोग चुप रहना बेहतर समझते हैं। यह चुप्पी ही इस्लाम की असहिष्णुता की वजह है, जो आजकल नासूर यानी कैंसर बन गई है। भारत इसका भुक्तभोगी रहा है। पहले दुनिया के लोग भारत की पीड़ा पर ध्यान नहीं देते थे, लेकिन फ्रांस में जब एक इंसान का गला काटा गया तो सबका ध्यान इस पाशविक प्रवृत्ति की ओर गया।

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दरअसल, मानव जीवन के विकास का अध्ययन करें तो पता चलता है कि करोड़ों साल पहले जब इंसान में बुद्धि का विकास नहीं हुआ था, तब उसे अच्छे-बुरे का इल्म ही नहीं था। तब वह एक तरह से पशु ही था, क्योंकि पशुओं की तरह इंसान की भी प्राकृतिक तौर पर केवल दो ही मकसद और उसे पूरा करने के लिए दो ज़रूरतें हुआ करती थीं। मकसद ज़िंदा रहना एवं जीवनचक्र को बनाए रखना था और उसे पूरा करने के लिए भोजन और सेक्स की ज़रूरत थी। पशुरूप में जीने वाला इंसान, तब भोजन और सेक्स के लिए अपनी प्रजाति के जीवों की हत्या कर देता था। उसमें रहम नाम की चीज़ ही नहीं थी, क्योंकि वह उसी तरह सोचता था, जैसे आज के वन्यजीव सोचते हैं। कुत्ते या शेर-बाघ भोजन या सेक्स के लिए दूसरे कुत्ते या शेर-बाघ की हत्या कर देते हैं। इंसान ने लगभग 40 लाख साल पहले ही दो पांव पर चलना शुरू किया था। इससे उसका सिर सबसे ऊपर हो गया और सिर में दिमाग़ यानी बुद्धि का विकास हुआ। तब से इंसान धीरे-धीरे सभ्य होता गया और पाशविक प्रवृत्ति से बाहर आ गया।

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दुनिया में दर्जनों धर्म हैं। उनमें ईसाई को मानने वाले 2.2 अरब, इस्लाम को मानने वाले 1.6 अरब और हिंदू धर्म को मानने वाले लगभग 1 अरब हैं। 1.1 अरब लोग कोई धर्म नहीं मानते यानी नास्तिक हैं। कुछ अपवाद छोड़ दीजिए तो इस्लाम को छोड़कर किसी भी धर्म के लोग द्वारा गला काटने की कोई घटना सुनने को नहीं मिलती है। यह कटु सत्य है और इससे बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज जहां-जहां इस्लाम या इस्लाम के अनुयायी हैं, वहां-वहां हिंसा, मारकाट और गला काटने की प्रवृत्ति है। इस धरती पर मुस्लिम देशों की संख्या 57 है और चंद मुल्कों को छोड़ दें, तो हर जगह मार-काट और रक्तपात चल रहा है। हर जगह से आए दिन इंसान का गला काट देने की ख़बरें आती रहती हैं और सभ्य इंसानों को विचलित करती रहती हैं। हर जगह मुसलमान इसलिए लड़ रहे हैं, क्योंकि वे मुसलमान हैं। कहीं वे जिहाद के नाम पर ख़ून बहा रहे हैं। कहीं उनकी हिंसक प्रवृत्ति इस्लाम न मानने वालों को ख़त्म करने की है। इसे पागलपन या मूर्खता नहीं कहा जा सकता। इसके तरह के लोगों के लिए पाशविक प्रवृत्ति एकदम सही शब्द है।

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कहां इस्लाम के गर्भ से ग़ज़ल, सूफ़ी संगीत, कव्वाली जैसी सुकून देने वाली विधाए विकसित हुईं,जो मानव संस्कृति की धरोहर हैं, कहीं इस्लाम के अनुयायी इंसान का गला भी काट रहे हैं। यक़ीन मानिए, इसी पाशविक प्रवृत्ति के चलते आजकल दुनिया भर में इस्लाम संकट में है। जहां भी लोग किसी मुसलमान को देखते हैं, तो सबसे पहले यही सोचते हैं कि यह इंसान कट्टर होगा, दूसरे धर्म का विरोध करता होगा और लगा काटने की बर्बर प्रथा का समर्थन करता होगा। इस वजह से गला काटने की इस पाशविक प्रवृत्ति का समर्थन न करने वाले मुसलमानों को बहुत कष्ट झेलना पड़ता है। उनकी इस पीड़ा को बताने के लिए ‘माई नेम इज़ ख़ान बट आई एम नॉट अ टेररिस्ट’ का संदेश देने वाली फिल्म बनाने की ज़रूरत पड़ती है। ज़ाहिर है, यह संकट या अपमान मुसलमान इसलिए झेलते हैं क्योंकि गला काटने की पाशविक प्रवृत्ति का विरोध नहीं करते हैं। अगर समय रहते इस बर्बर प्रथा का विरोध किए होते तो इस तरह अपमान का घूंट नहीं पीना पड़ता।

जो लोग किसी ज़िदा इंसान का गला काट देते हैं, केवल वे ही जानवर नहीं हैं, बल्कि वे पढ़े-लिखे लोग, जो गला काटने वाले पशुओं का उनका समर्थन करते हैं, भी जानवर हैं। इंसान की तरह दिखने वाले ऐसे ही जानवर तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन, मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद, पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और अपने को शायर कहने वाले मुनव्वर राणा जैसे लोग हैं। मुंबई में रज़ा अकादमी जैसे संगठन में भी गला काटने की प्रवृत्ति का समर्थन करने वाले इंसान जैसे दिखने वाले कई जानवर हैं। इन्हें इंटलेक्चुअल टेररिस्ट कहा जाना चाहिए। भारत में यह संख्या लाखों क्या करोड़ों में है, जो इमनुएल मैक्रों और फ्रांस की कार्रवाई का विरोध कर रहे थे और फ्रांस में बने सामान के बहिष्कार का आह्वान कर रहे थे।

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फ्रांस में ज़िंदा इंसान का गला काट देने वाले पाशविक प्रवृत्ति के लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हुई, तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे ज़िम्मेदार पद पर बैठे लोगों को भी बुरा लगा। इतना बुरा लगा कि सामूहिक नरसंहार का फतवा देने लगे थे। मतलब धर्म को लेकर जाहिली इस कदर है और इतनी बड़ी तादाद में है कि यक़ीन नहीं होता कि इंसान ऐसा भी हो सकता है। अफ़सोस होता है कि इंसान धर्म के चक्कर में घृणित पशु बन सकता है कि किसी का गला काट देता है। गला काटने की इस पाशविक प्रवृत्ति का बहुत पहले ही पुरज़ोर विरोध होना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ। इसीलिए यह पाशविक प्रवृत्ति बरकरार रही। बहरहाल इस पाशविक प्रवृत्ति का हर जगह विरोध होगा। इसीलिए मैक्रों ने कहा था कि अपनी हरकतों से इस्लाम गंभीर संकट में है।

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कल्पना करिए, ऐसे समय जब इंसान तरक़्क़ी करता हुआ चांद पर पहुंच गया है। ब्रह्मांड के दूसरे ग्रहों पर मानव को बसाने के लिए दुनिया भर में शोध हो रहे हैं। ऐसे में इंसान का गला काटने जैसी पाशविक हरकतें इंसान ही कर रहा है। इस तरह की पाशविक हरकत यह सोचने पर मजबूर करती है कि इस गला काटने वाले इस पाशविक प्रवृत्ति के तबक़े को सभ्य और सुसंस्कारित इंसान कैसे बनाया जाए। चूंकि यह कार्य कोई बाहरी यानी गैर-मजहबी व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए यह ज़िम्मेदारी उन लोगों को ही उठानी होगी, जो अपने आपको सच्चा मुसलमान कहते हैं, उदार हैं और जीओ और जीने दे की फिलॉसफी में भरोसा करते हैं।

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अगर इतिहास में जाएं तो अपने विरोधी या दुश्मन या बग़ावत करने वाले इंसान का गला काट देने की पाशविक प्रथा आज से कोई आठ-नौ हज़ार साल पहले तब आम थी, जब इंसान जंगलों में रहता था और भोजन एवं सेक्स के लिए दूसरे इंसान से लड़ता था और उसे मार डालता था। सभ्यता के विकास के साथ धीरे-धीरे यह बर्बर प्रथा या प्रवृत्ति दुनिया में कमोबेश हर जगह समाप्त हो गई। भारत में भी यह जंगली पंरपरा मौजूदा सहास्त्राब्दि के आरंभ से पहले ही यानी 2000 साल पहले समाप्त हो गई थी। इतिहास कहता है कि अपने विरोधी का गला काट देने की पाशविक प्रथा सातवीं सदी में शुरू हुई। संयोग से उसी दौर के आसपास इस धरती पर इस्लाम अस्तित्व में आया था।

दरअसल, एक समय इस्लाम बहुत उदार धर्म था। अपनी न्यायप्रियता के चलते इस्लाम बहुत कम समय में अरब की सीमा को लांघता हुआ अफ्रीका-यूरोप तक पहुंच गया था। इतिहासकार गिबन ने ‘द डिक्लाइन एंड फाल ऑफ रोमन अंपायर’ जैसी किताब में अरब के खलीफाओं की सादगी, न्यायप्रियता और सत्यनिष्ठा की जमकर तारीफ़ की है। उन्होंने लिखा है, “खलीफाओं ने केवल निष्कासित यूनानी विद्वानों को अपना संरक्षण ही प्रदान नहीं किया, बल्कि उन्होंने योग्य व्यक्तियों को रोम साम्राज्य के क्षेत्र में भेजकर वहां से प्राचीन यूनानी दार्शनिकों और विचारकों के ग्रंथ मंगवाए। अरस्तू, हिप्पारचस, हिप्पोक्रेट्स और गेलन जैसे दार्शनिकों की किताब का अनुवाद करवाया। शुरुआत में इस्लाम वैज्ञानिक अनुसंधान को बहुत अहमियत देता था।” कई इतिहास की किताबों में लिखा है कि मदरसों में शुरुआती दौर में विज्ञान पर रिसर्च होते थे।

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इतिहासकार और ‘इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका’ जैसी कालजयी किताब लिखने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक महेंद्र नाथ राय (एमएन राय) उर्फ नरेंद्र भट्टाचार्य ने लिखा है कि जब तक इस्लाम पर सरासेनियों का वर्चस्व था, तब तक इस्लाम उदार और प्रगतिशील था। इसीलिए उसका प्रचार-प्रसार अपने आप हो रहा था। लोग स्वेच्छा से इल्माम क़बूल कर रहे थे। अलकाजी, अल हसन, अल फराकी, अबीसीना, अल गजाली, अबू बकर, अवेमपाक जैसे नाम इतिहास में अविस्मरणीय हैं। लेकिन जब से बर्बर और पाशविक प्रवृत्ति वाले गोथ, हूण, वनडल, अवार, मंगोल, तातारी और सीथियाई लोगों का इस्लाम पर वर्चस्व हुआ, तब से इस धर्म में कट्टरता का बोलबाला हो गया। इसके बाद ही इस्लाम में बर्बरता और गला काटने की पाशविक प्रथा शुरू हो गई। तब से यह पाशविक परंपरा अब तक बदस्तूर जारी रही है। अरब के लोग जहां-जहां गए, गला काटने की बर्बर प्रथा वहां-वहां उनके साथ गई। भारत में मध्यकाल, ख़ासकर आठ-नौ सौ साल के इस्लामी शासन के दौरान यह बर्बर प्रथा फिर से अस्तित्व में आ गई, जब सुल्तान या शासक अपने दुश्मन का गला काट देते थे या कटवा देते थे।

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मुहम्‍मद बिन कासिम से लेकर बहादुर शाह ज़फर के शासन काल में फ़ारसी कहावत ‘या तख़्त या ताबूत’ यानी ‘या तो सिंहासन या फिर क़ब्र’ का दौर हमेशा विद्यमान रही और सिर क़लम करने की प्रथा को न्यायोचित ठहराती रही। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने ससुर का गला काटकर उससे गद्दी छीन ली तो मुग़ल सम्राट औरगंज़ेब के आदेश पर उसके सगे बड़े भाई दारा शिकोह का गला काटकर उसके सामने पेश किया गया था, क्योंकि वह तख़्त का दावेदार था। तैमूर लंग ने तो क्रूरता की सारी सीमाएं लांघ दी थी और बड़ी संख्या में लोगों का सिर क़लम करवाया था। इस तरह का अनगिनत उदाहरण हैं। ऐसे में कोई मुसलमान गर्व के साथ अपने बेटे का नाम तैमूर या औरंगज़ेब रखे तो उसकी मानसिकता समझी जा सकती है। जो भी हो, भारत में इस्लामी सल्तनत के साथ इस बर्बर प्रथा का अंत हो गया।

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अंग्रेज़ों का शासन शुरू होने पर ईशनिंदा यानी ब्लासफेमी का कृत्य करने वालों को दंड देने का क़ानूनी तरीक़ा अपनाया गया। लेकिन इस्लाम मानने वालों का एक बड़ा वर्ग अब भी दिमाग़ से कट्टर और पाशविक प्रवृत्ति का है। उसे लगता है कि उसके रसूल का मजाक़ उड़ाने वाले का सिर क़लम होना ही चाहिए। 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश के एक नेता ने दूसरे बड़े नेता का गला काट देने की बात कही थी। उसकी बात पर खूब ताली बजी। विधायक अकबर ओवैसी तो इस तरह की बात अक्सर करते हैं। कहने का मतलब गला काट देने की प्रवृत्ति हमारे समाज में आज भी मौजूद है। कहीं यह तालिबान के रूप में सामने आता है तो कभी आईएसआईएस के रूप में ज़िंदा इंसान का गला काटते हुए विडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करता है।

अपने को उदार और सेक्यूलर कहने वाले कई कथित इस्लामिक बुद्धिजीवी गला काट कर हत्या करने वाली घटनाओं को ‘लोन वुल्फ अटैक’ यानी ‘किसी सरफिरे का कारनामा’ बताकर इस्लाम में मौजूद इस बर्बर प्रथा का बचाव करते हैं। बड़ी तादात में इस्लामिक बुद्धिजीवी ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्दावली का ही विरोध करते हैं और कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता। लेकिन आतंकवादियों के शव को जलाने की मांग के विरोध में डटकर खड़े हो जाते हैं। यह तो सरासर दोगलापन, बुजदीली और मौक़ापरस्ती है, क्योंकि हर जगह निर्दोष लोगों को जिहाद के नाम पर मारने वाले आतंकवादी और नबी की शान में गुस्ताखी करने वाले की गला काट कर हत्या करने वाले लोग इस्लाम के ही गर्भ से पैदा हो रहे हैं। दुनिया भर में सक्रिय इस्लामिक आतंकवादी संगठनों की सूची बनाएं तो सैकड़ों होंगी। मानव संहार करने वाले लोग अपने आपको गर्व से मुसलमान कहते हैं।

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ऐसे में अगर को कह रहा है कि इंटरनेट के दौर में इस्लाम संकट में है तो बिल्कुल सही कहा है कि यह संकट इस्लाम का अपना बनाया हुआ संकट है। उनकी बात से थोड़ा आगे जाकर यह कहना चाहिए कि आजकल इस्लाम बहुत गंभीर संकट में है। ऐसे में इस महासंकट से बाहर निकलने की कोशिश इस्लाम को ही करनी होगी, क्योंकि मौजूदा दौर में इस्लाम इस्लामोफोबिया का शिकार हो गया है। यानी इस्लाम एक ख़ौफ़ का नाम बन गया है। मैक्रों का विरोध करने से कुछ नहीं होगा। उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने से भी कुछ नहीं होगा। इस्लाम को सरासेनियों के उस दौर में ले जाने की ज़रूरत है, जब इस्लाम उदार धर्म था, विद्वानों और वैज्ञैनिकों का सम्मान करता था। जब मदरसों में रिसर्च हुआ करता था। इस्लाम को मौजूदा राजनीतिक डिजाइन और नफरत प्रेरित माहौल से निकालने की सख़्त ज़रूरत है।

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दुनिया इक्कीसवीं सदी में पहुंच गई है और आगे भी इसी तरह बढ़ती रहेगी। दुनिया तो बढ़ती रहेगी, लेकिन गला काटने की प्रवृत्ति के चलते इस्लाम के पीछे छूट जाने का ख़तरा है। यानी यह इस्लाम के लिए अस्तित्व का संकट है। इस्लाम को अतीत बन जाने से बचाया जाना चाहिए। लिहाज़ा, इस्लाम को उस मुकाम पर ले जाने की ज़रूरत है, जहां सभ्यता और इंसानियत हो, जहां अहिंसा और विश्वबंधुत्व हो। जहां कार्टून का जवाब कार्टून से, फिल्म का जवाब फिल्म से और लेख के जवाब में लेख से देने का सिविल डिसओबिडिएंस का इस्तेमाल किया जाता हो। जहां दूसरे धर्म यानी गैर-मुसलमान को भी जीने और अपने ढंग की जीवनशैली अपनाने का अधिकार मिले। अगर अब भी ऐसा नहीं किया गया, तो सूचना-प्रौद्योगिकी के विस्फोटक विकास के दौर में संकटग्रस्त इस्लाम के परखच्चे उड़ सकते हैं।

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इस धरती पर धर्मों की अवधारणा मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए विकसित हुई। जैसे हिदुत्व, ईसाई, यहूदी धर्म अस्तित्व में आए वैसे है 13-14 सौ साल पहले इस्लाम अस्तित्व में आया। धर्म मानव के लिए है, मानव धर्म के लिए कतई नहीं है। इसीलिए धर्म को ईमान कहा जाता है। मुसलमान का अर्थ ही सच्चा ईमान है। लिहाज़ा, इस्लाम में भी कट्टरता की जगह उदारता होनी चाहिए। इंसान का जीवन लब्बोलुआब सत्तर-पचहत्तर साल का शो होता है। हर धर्म, मजहब या रिलिजन ऐसे होने चाहिए, जहां इंसान अपने इन सत्तर-पचहत्तर साल को आज़ादी के साथ बिना किसी भय के शांतिपूर्वक और ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ार सके। इस्लाम को भी इसी फिलॉसफी की तरह बनाने की ज़रूरत है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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