मानव कृत्रिम दिमाग़ विकसित करने के क़रीब

0
882

फ़िलहाल इंसान के ऐसे कृत्रिम दिमाग़ का विकास करने में जुटा है, जो हूबहू इंसानी दिमाग़ की तरह काम करे। हालांकि पहला कृत्रिम दिमाग़ का विकास कुछ साल पहले कर लिया गया था, लेकिन इसमें सोचने-समझने की क्षमता नहीं थी। इसलिए मेडिकल साइंस से जुड़े लोग सोचने वाले दिमाग़ को ईज़ाद करे के अपने मिशन में लगे हैं। समझा जा रहा है कि आने वाले दो तीन साल में यह चमत्कार होने की पूरी संभावना है। अगर इंसान ने कृत्रिम दिमाग़ तैयार कर लिया तो मानव सभ्यता के इतिहास में बहुत बड़ी घटना होगी। 

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

दरअसल, इंसान का दिमाग़ क़ुदरत के सबसे विचित्र रहस्यों में से एक है। इसके कई रहस्‍य वैज्ञानिकों के लिए आज भी ऐसी अबूझ पहेली बना हुए हैं जिनके रहस्‍यों से पर्दा हटना अभी बाक़ी है। इसमें दो राय नहीं कि इसी दिमाग़ की बदौलत इंसान ने धरती के बाक़ी जीवों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करते हुए पाषाण युग से लेकर आधुनिक युग तक का सफ़र तय किया है। सबसे बड़ी बात इंसान अपने दिमाग़ का महज़ चार से पांच फ़ीसदी ही इस्‍तेमाल कर पाता है, बाक़ी 95 फीसदी मस्तिष्‍क आजीवन अनछुआ ही रह जाता है।

दिमाग़ जटिल पहेली

यूं तो दिमाग़ हमारे शरीर का सबसे अहम हिस्सा है लेकिन हमेशा से यह एक जटिल पहेली रहा है। आज तक यह नहीं समझा जा सका है कि दिमाग़ किस तरह विकसित होता है और किस प्रकार काम करता है। चूंकि अब तक जितने भी रिसर्च हुए हैं, उनमें ज़्यादातर जानवरों के दिमाग़ पर ही हुए हैं इसलिए इंसानी दिमाग़ का अध्ययन मेडिकल साइंस से जुड़े गोलों के लिए बड़ा दुष्कर कार्य है। हालांकि ओहियो यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट ने पिछले साल पूरा इंसानी दिमाग़ विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस कृत्रिम दिमाग़ का आकार पेंसिल इरेज़र यानी रबर जितना है जो कि पांच सप्ताह के भ्रूण का होता है। ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय के इस छोटे दिमाग़ में 99 प्रतिशत सेल्स भ्रूण की सेल्स हैं। इसकी अपनी स्पाइन कॉर्ड निर्देश देने वाला सर्किट और रेटीना है।

छोटा दिमाग़ बनाया गया

इससे पहले आस्ट्रियन अकेडमी ऑफ साइंसेज से संबद्ध इंस्टिट्यूट ऑफ मोलिक्यूलर बायोटेक्नोलाजी के वैज्ञानिकों ने स्टेम सेल के ज़रिए लैब में इंसानी दिमाग़ का छोटा रूप तैयार किया था। टेस्ट ट्यूब में नौ हफ़्ते के भ्रूण में दिमाग़ का जो स्तर होता है, उस स्तर के दिमाग़ तैयार किया गया था। हालांकि लैब में तैयार दिमाग़ में सोचने-समझने की शक्ति नहीं थी। अब मेडिकल साइंस के लोग और परिष्कृत दिमाग़ विकसित करने के मिशन पर हैं। वैज्ञानिकों को पूरा भरोसा है कि आने वाले सालों में जो दिमाग़ तैयार होगा उसमें ये शक्ति भी होगी।

ब्रेन सेल्स से हुआ तैयार

वैसे लैब में पहले भी ब्रेन की सेल्स तैयार की जाती रही हैं, परंतु इस बार चार मिलीमीटर आकार का दिमाग़ बनाने में कामयाबी मिली जो लैब में तैया सबसे बड़ा दिमाग़ था। इसीलिए उसे कृत्रिम दिमाग़ की संज्ञा दी गई। टेस्ट ट्यूब में इस दिमाग़ को तैयार करने के लिए भ्रूण की ओरीजिनल सेल या वयस्क स्किन सेल का इस्तेमाल किया गया। दिमाग़ को दो महीने बायो-रिएक्टर में पोषक तत्वों और ऑक्सीजन की मौजूदगी में तैयार किया गया। देखा गया कि सेल्स ख़ुद ही विकसित होकर दिमाग़ के विभिन्न हिस्सों के रूप में खुद को संगठित करने में सफल रहीं। वैज्ञानिक फिलहाल कह रहे हैं कि यह इंसानी दिमाग़ से काफी हद तक मिलता-जुलता है। बस इसमे सोचने की क्षमता विकसित हो जाए तो यह नैसर्गिक दिमाग़ कहलाएगा।

बना कृत्रिम दिमाग़

सन् 2015 में संपूर्ण मस्तिष्क कृत्रिम तरीक़े से तैयार खरने की कोशिश नाकाम हो गई थी। हालांकि, त्वचा की सेल्स से टिश्यूज़ निकालकर दिमाग़ के कुछ हिस्सों को ही विकसित किया जाता था, जिन्हें ब्रेन ऑर्गेनॉयड्स कहा जाता रहा है। ऑर्गेनॉयड्स दिमाग़ से जुड़ी जटिल समस्याओं के उपचार संबंधी शोध में उपयोगी साबित होते रहे हैं। इन्हें हर व्यक्ति के दिमाग़ में फिट करने में सक्षम माना जाता है। यह मस्तिष्क फिलहाल सोचने की क्षमता नहीं रखता है लेकिन इस पर दवाओं का ठीक वैसा ही प्रभाव होता है जैसा सामान्य मस्तिष्क पर होता है।

हूबहू दिमाग़ मुश्किल पर संभव

इस बीच स्विटजरलैंड के ‘ब्रेन माइंड इंस्टीट्यूट’ में प्रोफेसर हेनरी मार्करैम का कहना है,”मैं पूरी तरह यह मानता हूं कि ऐसा तकनीकी और जैविक रूप से संभव है। ऐसी ईजाद के लिए भारी संसाधन की ज़रूरत पड़ सकती है। वित्तीय संसाधन की कमी इसमें आड़े आ सकती है। यह बेहद खर्चीली परियोजना साबित होगी। हूबहू इंसानी दिमाग़ बनाना वाकई बेहद जटिल काम है, क्योंकि दिमाग़ करोड़ों तंतुओं, लाखों नसों, लाखों प्रोटीन, हजारों जीन वगैरह से बना होता है। इतनी सूक्ष्मताओं का सार समझते हुए दिमाग़ की रचना करना बेहद जटिल तो है, पर असंभव नहीं है।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

हेनरी मार्करैम ने कहा, “कभी हम रोबोट की परिकल्पना को फंतासी मानते थे, पर आज रोबोट इंसान से हजारों गुना ज्यादा सक्रियता के साथ बारीक से बारीक कार्यो को अंजाम देते हैं। उनका मानना है कि कृत्रिम दिमाग़ के विकास में दुनिया भर में पिछले सौ वर्षो में हुए अनगिनत शोध के निष्कर्षो को एक जगह इकट्ठा कर दिमागी संक्रियाओं को समझना बहुत बड़ी चुनौती है। उनके मुताबिक दिमाग़ के आंतरिक इलेक्ट्रोमैगनेटिक केमिकल प्रारूपों के रहस्य को जानना इस दिदिशा में बड़ी कामयाबी होगी।“

उम्र के साथ मानव दिमाग़ होता जाता सुस्त

जैसे हमारी त्वचा का लचीलापन और दृढ़ता समय के साथ खत्म होने लगती है, उसी तरह उम्र बढ़ने के साथ हमारा दिमाग़ भी शिथिल होना शुरू हो जाता है। यह शोधकर्ताओं का कहना है। एक हाल के अध्ययन में पता चला है कि मनुष्य की उम्र, मस्तिष्क की परतों और सेरेब्रल कॉर्टेक्स में तनाव- हमारे दिमाग़ के बाह्य परत के न्यूरल ऊतक में कमी दिखाई देने लगती है।

इसे भी पढ़ें – आप भी बदल सकते हैं ग़ुस्से को प्यार में…

प्रारंभिक अनुसंधान से पता चलता है कि स्तनधारी प्रजातियों के कॉर्टेक्स में तह बनना एक सर्वव्यापक नियम है- यह आकार और आकृति में एक समान होते हैं। ब्रिटेन के न्यूकैसल विश्वविद्यालय के प्रमुख लेखक युजियांग वांग ने कहा, “हम इस नियम का प्रयोग मानव मस्तिष्क में परिवर्तन का अध्ययन के लिए कर सकते हैं।” शोधकर्ताओं ने कहा कि हालांकि इसका प्रभाव ज्यादा अल्जाइमर रोग के व्यक्तियों में पाया गया है। वांग ने कहा, “अल्जाइमर रोग में यह प्रभाव शुरुआती आयु में देखा गया है और अधिक स्पष्ट होता है। इसके अलगे चरण में तहों में बदलाव को देखना शामिल है, जो इस बीमारी का शुरुआती संकेत देता है।”

अध्ययन में यह भी पता चला है कि पुरुष और महिलाओं के मस्तिष्क में आकार और सतह क्षेत्र और तह की डिग्री में अंतर होता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि वास्तव में, महिलाओं का मस्तिष्क समान उम्र के पुरुषों की तुलना में थोड़ा कम तह (मुड़ा) होता है। इसके बावजूद महिलाओं और पुरुष के मस्तिष्क एक ही तरह के नियम का पालन करते हैं। शोधकर्ताओं ने कहा कि अध्ययन में मस्तिष्क के अंतर्निहित क्रियाविधि पर प्रकाश डाला गया है जो दिमाग़ के तहों पर प्रभाव डालता है। इसका इस्तेमाल भविष्य में मस्तिष्क रोगों की पहचान के लिए की जा सकेगी। शोधपत्र का प्रकाशन पत्रिका ‘जर्नल पीएनएएस’ में हुआ है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा