हरिगोविंद विश्वकर्मा
किसी ऐसी विचारधारा अथवा धर्म, मजहब या रिलिजन, चाहे वह कितनी भी सही या सामयिक हो, का अंधभक्त हो जाना, कोरी अज्ञानता, मूर्खता और पागलपन है। वजह यह है कि कोई भी विचारधारा या धर्म मानवता की विचारधारा और मानवता के धर्म के समकक्ष नहीं पहुंच सकती। दरअसल, जब किसी भी विचारधारा, मान्यता या धर्म का प्रतिपादन किया गया था तब, परिवहन, प्रौद्योगिकी या सूचना तकनीक आज जितनी विकसित नहीं थी। कहने का मतलब तब न सड़कें थीं, न मशीन और न ही संचार के साधन। लिहाज़ा, लोगों को एक जगह से दूसरे जगह जाने में कई साल और कभी कभी दशक तक लग जाते थे। लोग किसी की खोज खबर नहीं ले पाते थे।
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ऐसे परिवेश में हर संप्रदाय ने जीवन जीने की अपनी शैली विकसित की, जिसे धर्म कहा गया और वह शैली तब के माहौल के मुताबिक थी। वह धर्म या जीवन शैली बेशक सही थी, लेकिन आज वह सही नहीं है, उसमें उसी तरह फेरबदल यानी परिवर्तन की ज़रूरत है, जैसे समाज समय के साथ विकसित हो रहा है। मतलब इंसान पहले पैदल चलता था, फिर बैलगाड़ी विकसित हुई, इसी तरह वाहन के रूप में घोड़ागाड़ी, साइकल, रेलगांडी और विमान। लेकिन धर्म आज भी वहीं है।
सबसे दुखद बात यह है कि तमाम विचारधाराएं, मान्यताएं एवं धर्म जैसे विकसित हुई थीं, वैसी ही आज भी जारी हैं और लोग उन्हें आंख मूंद कर मान रहे हैं। कुछ लोग स्वेच्छा से मान रहे हैं, तो कुछ लोग मजबूरी वश। कुछ लोगों को ज़बरी मनवाया जा रहा है तो कुछ लोगों की उसे मानने से दुकान चल रही है। लिहाज़ा, ऐसे लोग चाहे वे वामपंथी हों, या दक्षिणपंथी, अपने कुतर्कों से व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया का नुक़सान करते हैं। इस वर्ग के लोग अगर थोड़ा पढ़े लिखे हैं, तो वे व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया के लिए और भी घातक हो जाते हैं। फेसबुक, वॉट्सअप और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइउट्स पर आजकल ऐसे लोग सबसे ज़्यादा सक्रिय हैं और वातावरण में ज़हर छोड़ रहे हैं।
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फ़िलहाल मार्कंडेय काटजू पिछले साल सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पर कमेंट करने के लिए सोशल मीडिया पर सबके निशाने पर आ गए थे। काटजू ने कहा था कि अमिताभ दिमाग़ से ख़ाली हैं। जस्टिस काटजू ने लिखा था, ‘अमिताभ बच्चन ऐसे शख्स हैं जिनका दिमाग खाली है और ज़्यादातर मीडिया वाले उनकी तारीफ़ करते हैं, मैं समझता हूं उन सभी का दिमाग़ भी खाली ही है।’ इसका अर्थ निकालने वाले कहने लगे कि काटजू ने सदी के महानायक को दिमाग़ से खाली यानी ‘मूर्ख’ की संज्ञा दी। कई लोग बतौर सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस काटजू की योग्यता पर ही उंगली उठाना शुरू कर दिए।
दरअसल, जस्टिस काटजू ने कार्ल मार्क्स को कोट करते हुए कहा था, “कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म जनसमुदाय के लिए अफीम की तरह है जिसका इस्तेमाल शासक वर्ग लोगों को शांत रखने के लिए ड्रग्स की तरह करता है ताकि वे विद्रोह नहीं कर सकें। हालांकि, भारतीय जनसमुदाय को शांत रखने के लिए कई तरह के ड्रग्स हैं। धर्म इनमें से एक है। इसके अलावा फिल्म, मीडिया, क्रिकेट, बाबा आदि भी हैं।“ इसमें ग़लत कुछ भी नहीं है। वस्तुतः मानव समाज को ख़तरा धर्म को मामने वाले मूर्खों से है। धर्म उनकी तार्किक क्षमता को शून्य कर देता है और वे साइंस के युग में भी मानने लगते हैं कि ऊपरवाला ही सबको कंट्रोल कर रहा है।
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कार्ल मार्क्स की ढेर सारी बातों से कई लोग सहमत नहीं होंगे, क्योंकि मार्क्स भले मजदूरों के हितों की बात करता था, लेकिन वह जर्मनी के बहुत विकसित समाज का प्रतिनिधि था और वह हर चीज़ों की व्याख्या अपनी हैसियत के अनुसार ही करता था। हां, धर्म के बारे में कार्ल मार्क्स की व्याख्या से हर समझदार और बुद्धिजीवी सहमत होगा। मार्क्स ने कहा है, “धर्म जनता के लिए अफीम की तरह है। जिस तरह लोग अफीम खाकर नशे में मस्त रहते हैं, जिससे उनकी विद्रोह करने की क्षमता ख़त्म हो जाती है, उसी तरह धर्म को मानने वाले लोग अपने धर्म को लेकर मस्त रहते हैं और शासक वर्ग के लोग उसी धर्म का इस्तेमाल करके उन पर शासन करते हैं।“ यहां मार्क्स की व्याख्या एकदम सही है। शासक वर्ग जनसमुदाय को अफीम रूपी धर्म की घुट्टी पिलाकर मस्त कर देता है, फिर उनका हक़ मारते हुए उन पर शासन करता है और धर्म के चक्कर में जनसमुदाय मस्त रहता है।
अगर मार्क्स की व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए भारतीय संदर्भ की बात करें तो सत्तावर्ग के लोग यहां धर्म के अलावा फिल्म्, मीडिया, क्रिकेट, साधु आदि का इस्तेमाल करके जनता को उसका आदी बनाते हैं और उस पर शासन करते हैं। वही बात तो जस्टिस काटजू ने कही है। दरअसल, आधुनिकता के दौर में जनता की याददाश्त कमज़ोर होती जा रही है। अमिताभ अभी अप्रैल में अपने जीवन के सर्वाधिक कठिन घड़ी में थे। जब पनामा लीक्स का विस्फोट हुआ था और उसमें अमिताभ और उनकी बहू ऐश्वर्या राय का नाम आया था।
पनामा पेपर्स सफ़ेदपोश आर्थिक अपराध की दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा पर्दाफ़ाश था। पत्रकारों की संस्था ‘ इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स ‘ के खुलासे से अमिताभ गोपनीय कंपनी के ज़रिए पैसा लगाने के विवादों में आ गए थे। पनामा की क़ानूनी सहायता संस्था मोजाक फोंसेका के लीक हुए पेपर्स में दुनिया भर के कई हस्तियों के नाम थे। पनामा पेपर्स के नाम के इस लीक के जरिये खुलासा हुआ था कि अमिताभ समेत कई दिग्गजों ने टैक्स हेवन देशों में सीक्रेट फर्म खोली। पर्दे पर अग्निपथ के इस यात्री को उम्र के 73वें साल में अब वास्तविक जीवन के अग्निपथ से गुज़रना था। उन पर आर्थिक भ्रष्टाचार के ठोस आरोप लगे हैं।
इतने गंभीर आरोप की क़ायदे से जांच हो तो मुमकिन है अमिताभ को भी जेल जाना पड़ सकता है, लेकिन चूंकि, जस्टिस काटजू के अनुसार, वह सत्ता वर्ग के आदमी हैं, इसलिए, टैक्स चोरी करके अकूत धन बनाने के बावजूद वह शानदार जीवन जी रहे हैं। क़रीब-क़रीब हर राजनीतिक दल में अमिताभ की पूजा करने वाले लोग हैं। लिहाज़ा, अमिताभ का कभी बांल बांका नहीं होगा, उन पर भ्रष्टाचार के चाहे जितने आरोप लगे। दरअसल, किसी के बारे में कमेंट करने से पहले थोड़ा विचार कर लेना चाहिए कि इस तरह का कमेंट कितना उचित होगा। पहले अमिताभ के ऊपर जो आरोप लगे हैं, उन पर विचार करिए इसके बाद जस्टिस काटजू के कमेंट पर विचार करिए और पता करिए कि क्या वाक़ई जस्टिस काटजू ने ग़लत कहा है।
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