कहानी – अनकहा

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18209

हरिगोविंद विश्वकर्मा

अचानक नींद टूटे गई। कोई आधा घंटा पहले। कोई सपना देख रही थी मैं। बालकनी में कौवे ने आकर कांव-कांव शुरू कर दिया। उसकी कांव-कांव सुनकर अचानक नींद खुल गई। कौन-सा सपना था…? क्या देख रही थी मैं सपने में…? मैंने याद करने की बहुत कोशिश की, लेकिन कुछ याद ही नहीं आया।

साल भर से ऐसा हो रहा है। ख़ासकर, जब से रोहित के दूसरी शादी करने की ख़बर सुनी हूं। हालांकि, मैंने स्वेच्छा से उसका घर छोड़ा था। मैं मिस भी नहीं करती। इसके बावजूद मेरे जीवन में एक खालीपन सा भर गया है। पता नहीं क्यों मैं ख़ुश नहीं रहती।

दरअसल, रोहित मुझसे ही नहीं, बल्कि मम्मी-पापा से भी बहुत बदतमीज़ी से पेश आने लगा था। वह आला दर्जे का घटिया इंसान था। उसके साथ पल भर भी रहना मुमकिन नहीं था, पूरी ज़िदगी की तो बात ही छोड़िए। मेरा दम घुटता था उसके साथ। लिहाज़ा, मैंने ही उससे रिश्ता ही तोड़ लेना बेहतर समझा…

लेकिन अब… अब तो लगता है, उस रिश्ते के साथ-साथ मैंने अपना चैन और सुकून भी गंवा दिया। आने को तो मैं मम्मी-पापा के घर आ गई उस समय। लेकिन मुझे अकेला देखकर दोनों हर वक़्त बिना वजह दुखी रहते हैं। मेरी बेचैनी की यही सबसे बड़ी वजह है। मैं ममा-डैड को दुखी बिल्कुल नहीं देख सकती। एक अपराधबोध सा होता है कि उनके दुख का कारण मैं हूं।

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हालांकि, ममा से मैं साफ़-साफ़ कह चुकी हूं कि मैं अकेले ही ज़िंदगी जी लूंगी। परंतु इन दिनों एक असुरक्षा की भावना से हरदम दबी-सी रहती हूं। शायद इसी कारण नींद लगते ही न जाने कैसे-कैसे सपने देखने लगती हूं। पता नहीं क्या-क्या देखने लगती हूं सपने में। नींद भी बिस्तर पर पड़ते ही दबोच लेती है। मगर, जल्द ही सपनों का सिलसिला शुरू हो जाता है, लेकिन पूरा सपना कभी नहीं देख सकी। बीच में किसी न किसी कारण से जाग जाती हूं या फिर जगा दी जाती हूं। उसके बाद बहुत कोशिश के बावजूद याद नहीं आता कि सपने में कौन था, या फिर किसका सपना था। हां, एक अवसाद से ज़रूर भर जाती हूं अंदर तक।

साल भर से ऐसे ही चल रही है ज़िंदगी। अब तो आदत-सी बनती जा रही है। सुबह-सुबह उठना, स्कूल जाना, वहां बच्चों का क्लासेस अटेंड करना, दोपहर बाद छुट्टी, अंत में घर वापस आ जाना और खा-पीकर बिस्तर पर पड़ जाना। हां, हफ़्ते में एक या दो बार एफ़एम रेडियो की ड्यूटी। बस यही है मेरी दिनचर्या।

अचानक से कॉलबेल बजी।

ममा को पता है, मैं उठने वाली नहीं। सो, दरवाज़ा उन्होंने ही खोला।

-कौन है ममा?

-अनुज हैं। ममा ने आकर बताया।

जीज्जू नाम सुनते ही मैं बिस्तर से उठ गई। बालों को हाथों से ही लपेटती हुई मैं हॉल में पहुंच गई।

-हाइ जीज्जू!? कहने को तो मैं कह गई, लेकिन उनका हुलिया देखकर मेरे होश उड़ गए। इतना दुर्बल और इतना कमज़ोर मैंने उन्हें शायद कभी नहीं देखा था। शेव बनाने के बावजूद मलीन, पीला और कांतिहीन चेहरा। एकदम बेरौनक-सा। धंसी हुई आंखें और उनमें गहरी निराशा के भाव। आंखों के नीचे का हिस्सा स्याह। ऐसा लग रहा था, किसी सोच में बहुत गहरे डूबे हुए हैं जीज्जू।

-कैसी हो? वहीं चिरपरिचित शैली। औपचारिक अभिवादन। दम तोड़ती सी आवाज़।

-मैं तो ठीक हूं…! लेकिन जीज्जू तुम… शब्दों ने धोखा दे दिया। छल किया मुझसे। लिहाज़ा, मैं पूरा वाक्य बोल नहीं पाई। कहना चाहती थी, जीज्जू खाना नहीं मिलता क्या? ये कैसी हालत बना रखी है तुमने अपनी?

मैं हतप्रद, सामने सोफ़े पर बैठ गई। उन्हें निहार रही थी। जबकि उनकी नज़र बाहर की तरफ़ थी। खिड़की के बाहर। दूर आकाश की ओर, जाने क्या तलाश रही थीं उनकी आंखें। और, अंगूठा फ़र्श से जूझ रहा था।

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पूरे डेढ़ साल बाद मैं देख रही थी उन्हें। हालांकि रहते थे, इसी शहर में और ममा-पापा से मिलने अमूमन हर महीने आते भी थे। लेकिन उनका आगमन ही ऐसे समय होता था, जब मैं स्कूल में होती थी। शायद वह जानबूझ कर ऐसे समय आते हैं, ताकि मुझसे मुलाक़ात न हो सके। वह हमेशा मुझसे कतराते रहते हैं।

-तबीयत तो ठीक है न बेटा? ममा ने पूछा। वह पानी लेकर आई थीं।

-जीज्जू ने डबडबाई आंखों से ममा को देखा… बड़ी देर बाद बोले… ठीक हूं…!

-चाय बनाऊं? अचानक मेरे मुंह से निकला। जीज्जू मुझे देखने लगे। ममा भी घूरने लगीं।

मुझे तुरंत अपनी ग़लती का एहसास हुआ। दरअसल, जीज्जू को बहुत कॉफ़ी पसंद है, यह बात घर में हर कोई जानता था। मैं भी।

मैं चुपचाप किचन में आ गई। पछता रही थी, अपनी ग़लती पर। चूल्हे पर दूध रख दिया और चीनी और कॉफ़ी के डिब्बे निकालने लगी।

मुझे याद आया पिछले साल दो अक्टूबर को आख़िरी बार मेरी जीज्जू से मुलाक़ात हुई थी। तब तक मेरा रोहित से तलाक़ नहीं हुआ था। हमारा मामला कोर्ट में चल ही रहा था। मेरे लिए अनिर्णय और तनाव भरा दौर था वह। मैंने जीज्जू से ठीक से बात नहीं की थी उस बार। मैंने उनके पास ही नहीं गई। वे ही मेरे पास आए तो मैंने बेरुखी से जवाब दिया था। शायद उसी से वह बुरी तरह हर्ट हो गए थे। हालांकि कुछ बोले नहीं थे। वैसे भी जीज्जू आमतौर पर कम ही बोलते हैं।

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उस दिन वह रात में ही चले गए तो ममा मुझे डांटने लगीं।

-तुम सामान्य शिष्टाचार भी भूलती जा रही हो। अनुज से ठीक से बात क्यों नहीं की। मत भूलो कि अब भी वह इस घर के बड़े दामाद हैं। आने पर तुम्हें उनके पास बैठना चाहिए। पहले तो हरदम चिपकी रहती थी। अब क्या हो गया तुम्हें?

दूध खौलने लगा था। मैंने उसमें चीनी डाल दी।

मुझे याद है… मेरी शादी से पहले एक बार जीज्जू घर आए। वह मुझसे बहुत खुल गए थे। मैं भी उनको कभी आप तो कभी तुम कहने लगती थी। हम लोग ख़ूब धमाचौकड़ी करने लगे थे। उस दिन उनके हाथ में एक अख़बार था। पहले पन्ने पर बॉक्स एक खबर छपी थी, इमरान ने जेमिमा गोल्डस्मिथ से शादी रचाई। उस समय तक हम सब से मिलने के लिए जीज्जू हफ़्ते-पखवारे में ज़रूर आ जाते थे। उस दिन ममा की किसी बात पर मेरा उनसे झगड़ा हो गया था। उसी के चलते मैं बहुत अपसेट थी। घर में प्रवेश करते ही जीज्जू ने वह ख़बर मुझे दिखाई।

-देखा तुमने, इमरान ने जेमिमा से निकाह कर लिया। उन्होंने कहा था।

-ये ख़बर तो मैंने कल ही टीवी पर देख लिया था। मैंने लापरवाही भरे अंदाज़ से कहा।

-तुम्हें पता है दोनों की उम्र में 21 साल का फ़ासला है।

-तो क्या हुआ। मेरा स्वर तेज़ हो गया था।

-पागल हो तुम। इमरान खान 42 साल का है और जेमिमा गोल्डस्मिथ महज 21 की। जीज्जू उसी धुन में बोलते गए।

-लेकिन यह सब तुम मुझे क्यों बता रहे हो जीज्जू। मैं झल्ला बड़ी, आप भी न… जीज्जू… मैं एकदम से चिढ़ गई थी। मेरी आवाज़ का लेवल बहुत तेज़ हो गया था।

जीज्जू इस तरह के जवाब के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे शायद। इसलिए अचानक उनका चेहरा पीला पड़ गया।

-अरे… क्या हुआ तुमको। बुरा मान गई, ओह, सॉरी… सॉरी रागिनी। एक्सट्रिमली सॉरी… ग़लती हो गई।

-इट्स ओके जीज्जू…

मैं थोड़ी कूल हुई, लेकिन अपसेट तब भी थी।

-पता नहीं मुझे क्या हो गया था। सॉरी यार… अब… आइंदा ऐसी ग़ुस्ताखी नहीं होगी। सचमुच उनका स्वर भीगा सा लग रहा था। उनकी आंखों में डर था… पछतावा था… अपराधबोध था… वह एकदम से चुप हो गए थे।

हमारे बीच बहुत देर तक सन्नाटा पसरा रहा। कुछ देर बाद मुझे लगा कि मैंने कुछ ज़्यादा रिएक्ट कर दिया।

-नहीं जीज्जू, मैंने उनसे कहा, -आप सॉरी मत बोलिए। ग़लती मेरी है। आप तो बस ख़बर बता रहे थे।

मैंने सफ़ाई पेश करने की कोशिश तो की, मगर तब तक डैमेज हो चुका था। लाइफ़टाइम डैमेज…

उनके चेहरे पर अजीब तरह के भाव देखे थे, उस दिन मैंने। उनका एकदम से रंग ही उड़ गया था। जैसे उनसे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और पछता रहे हों। बड़े निरीह प्राणी लग रहे थे, किसी मासूम बच्चे की तरह।

पहली बार वह रात में ही चले गए। मेरे बेरुखे व्यवहार से एकदम अपसेट हो गए थे। सो, रोकने से भी रुकने वाले नहीं थे। उनके जाने के बाद घर में अजीब सा खालीपन भर गया था।

मुझे तो नींद ही नहीं आई। देर रात तक मैं यही सोचती रही कि जीज्जू इमरान-जेमिमा की शादी की ख़बर इतने गर्मजोशी के साथ मुझे क्यों बता रहे थे? आख़िर यह प्रसंग उन्होंने मुझसे ही क्यों छेड़ा? वह क्या कहना चाहते थे इमरान-जेमिमा के बहाने? कहीं उनका मतलब कुछ और तो नहीं था? कोई बात तो छिपी नहीं थी उनकी ख़बर में? वह कोई संदेश तो नहीं देना चाहते थे? कहीं मुझसे यह तो नहीं कहना चाहते थे कि जब पति-पत्नी की उम्र के बीच 21 साल का फासला हो सकता है तो… उनकी ख़ामोशी और निग़ाह में कुछ न कुछ तो ज़रूर था। वह उस बहाने मुझसे कुछ तो कहना चाहते थे। लेकिन मेरे सहसा उखड़ जाने से शायद डर गए थे। अपनी भावनाओं को शब्दों में नहीं पिरो पाए… वैसे भी वह बहुत कम बोलते थे। ज़बान पर ताला लगाए रहते थे। हर वक़्त एक झिझक पसरी रही थी उनके व्यक्तित्व पर।

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जीज्जू की मैरीड लाइफ़ बहुत संक्षिप्त रही। दो साल से भी कम। दीदी के स्वभाव से मैं भली-बांति परिचित थी। वह बचपन से ही ग़ुस्सैल स्वभाव की थीं। वह जीज्जू से अच्छा व्यवहार नहीं करती थीं। मुझे ही नहीं ममा और डैड को भी पता था कि बिना बात के, बिना वजह वह जीज्जू से लड़ती रहती हैं। हरदम चुभने वाली बात बोल देती हैं। कोसती रहती हैं। दोनों के बीच कोई समस्या ही नहीं थी। इसके बावजूद उनकी लाइफ़ कुत्ते-बिल्ली जैसी थी। जीज्जू ने तो कभी कोई गिला-शिकवा ही नहीं किया। एक लब्ज़ तक नहीं बोला। उनको दीदी से कोई परेशानी थी ही नहीं। जबकि दीदी के पास शिकायत ही शिकायत रहती थी। ऐसा लगता था, वह दुनिया की सबसे दुखी औरत हैं। इसके बावजूद डिलीवरी के समय जब दीदी की अस्पताल में अचानक मौत हुई तो हम सबने जीज्जू को फूट-फूटकर रोते हुए देखा था। सच में रूखे व्यवहार के बावजूद जीज्जू के दिल में दीदी के लिए बहुत प्यार था। मैटेरियलिस्टिक सोच वाली मेरी दीदी ही कभी अपने पति के प्यार को समझ नहीं पाईं।

दीदी की असामयिक मौत के बाद तो जीज्जू की दुनिया ही वीरान हो गई। उनके जीवन में एक गहरा खालीपन भर गया। उनका हमारे यहां आना अचानक से कम हो गया। चार महीने तक तो उन्होंने एक फोन भी नहीं किया। उनकी कमी मैं ही नहीं, ममा-डैड भी फील करने लगे थे। एक दिन रविवार के दिन ममा ने मुझे जीज्जू के घर भेजा। उनको लेकर आने के लिए।

मैं उनके घर पहुंची और कॉलबेल नहीं दबाई। दरवाज़ा हलक़े से पुश किया तो खुल गया। लैच अंदर से बंद ही नहीं था। उन्हें चौंकाने के लिए चुपचाप कमरे में घुसी। पर वह हॉल में ही थे। सोफे पर पैंट-टीशर्ट में सो गए थे। कमरे में हर जगह सामान बिखरे पड़े थे। एकदम बेतरतीब घर। बिना पत्नी या औरत के घर का हाल कैसा होता है, मुझे पता चल रहा था। मैं वहां दीदी के रहते भी कई बार आ चुकी थी। तब घर सलीके से सजा रहता था। दीदी में चाहे जितनी कमी रही हो, वह घर की सफाई पर ख़ास ध्यान देती थी। हर चीज़ अपनी जगह रखी मिलती थी। मैं जीज्जू के सामने खड़ी हो गई। वह गहरी निद्रा में सोए थे। उनका चहरा बच्चों की तरह निरीह लग रहा था। अचानक से उन पर मुझे प्यार आने लगा। पहली बार मेरा दिल बेक़ाबू हो रहा था। ऐसा मैंने महसूस किया। मन में आया, उनके माथे को चूम लूं। मेरे होंठ धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगे। मैं उन्हें किस करने वाली ही थी कि अचानक किसी अदृश्य ताक़त ने मुझे रोक दिया।

-उफ्.. मैं ये क्या करने जा रही थी। मैं सोचने लगी, यह दुर्बलता कहां से आई मेरे अंदर। क्या मुझे भी प्यार की ज़रूरत है? किसी पुरुष के सानिध्य की दरकार है? मेरे अंदर सवालों का सैलाब आ गया। मैंने सिर झटका और उनसे परे हट गई।

थोड़ी देर में उनको जगाया तो वह हड़बड़ा कर उठ गए। मैंने उन्हें बताया कि ममा ने बुलाया है। तो उन्होंने इनकार नहीं किया। उनकी कार से ही उन्हें साथ लेकर घर आ गई। ममा बहुत ख़ुश हुईं और डैड भी। मैं तो पहले से ही ख़ुश थी।

उसके बाद जीज्जू फिर से घर आने लगे थे। अगर बिना मुलाक़ात के हफ़्ता-पखवारा गुज़रता तो मैं फ़ौरन शिकायत करने लगती थी। तो उसी दिन रात तक वह सामने होते ही थे, किसी आज्ञाकारी बालक की तरह।

दूध जल रहा है रागिनी। यह ममा का स्वर था।

सचमुच दूध उबलकर चूल्हे पर गिर रहा था। मैंने झटके से गैस बंद कर दिया। दूध को तीन कप में उड़ेला और कॉफी डाल कर हिलाया। फिर प्लेट में रख कर बाहर आ गई।

हाथ-मुह धो लो जीज्जू… प्लेट तिपाई पर रखते हुए मैंने कहा था।

जीज्जू बॉश बेसिन की ओर चले गए और मैं अतीत की जानिब।

उस दिन शाम को ही जीज्जू घर आए थे। जैसे ही उन्होंने घर में क़दम रखा, मैंने आइसक्रीम की फ़रमाइश कर दी।

ठीक है, अभी लेकर आया। जीज्जू वापस लौटने लगे।

रुको, मैं भी साथ चलूंगी। सहसा मैंने उनका हाथ पकड़ लिया।

जीज्जू को यक़ीन ही न हुआ, क्योंकि अब तक कभी मैं उनके साथ अकेले बाहर नहीं गई थी। जीज्जू की तो ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। मैंने इतना ख़ुश उन्हें कभी देखा ही नहीं था। इंसान इतना भी ख़ुश हो सकता है। उसकी आंखों में इतनी ख़ुशी तैर सकती है, मैंने पहली बार महसूस किया। मैंने ही नहीं, इस बात को ममा ने भी नोटिस किया।

जब हम बाहर निकले तो सात बज रहे थे। सूर्यास्त बस होने ही वाला था। मैं पीले रंग के पंजाबी सूट में थी और जीज्जू चेक शर्ट और जींस पहने हुए थे। हालांकि वह अपनी कार से आए थे, लेकिन आइसक्रीम की दुकान तक मैंने पैदल चलने का आग्रह किया। वह कभी मेरी बात को टालते नहीं थे। पैदल चलने के लिए भी मान गए। मैं उनके साथ थोड़ा चहलक़दमी करने के बहाने वक़्त बिताना चाहती थी।

कॉलोनी की दर्जन भर महिलाएं लॉन में बैठी गपशप कर रही थीं, उनमें अविनाश आंटी भी थी। सामना होते ही जीज्जू ने उनसे नमस्ते किया।

-अरे वाह, घूमने… बुरा मत मानना बेटा, तुम दोनों की जोड़ी ख़ूब फब रही है। अविनाश आंटी मुस्कुरा कर बोलीं। मैंने तिरछी नज़र से जीज्जू को देखा, सचमुच वह बड़े हैंडसम लग रहे थे। हालांकि अविनाश आंटी की बात सुनकर वह असहज से हो गए थे।

अविनाश आंटी जीज्जू से बात करने लगीं।

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वैसे, हम दोनों की जोड़ी का फबना कोई हैरान करने वाला नहीं था। जीज्जू मुझसे पांच-छह साल से ज़्यादा बड़े नहीं थे। मैं खुद दीदी से केवल तीन साल छोटी थी। दरअसल, पापा मेरी और दीदी की शादी एक ही साथ करना चाहते थे। मगर मेरा कहीं रिश्ता ही तय नहीं हो पा रहा था। लिहाज़ा, दीदी की शादी पहले कर दी गई और मेरे लिए योग्य वर की तलाश जारी रही। ममा बेटे की कमी शिद्दत से फील करती थीं, इसीलिए शादी के बाद जीज्जू को पुत्र की तरह मानने लगी थीं। जीज्जू में वह अपना बेटा देखती थीं, वैसे भी दामाद एक तरह से बेटा ही होता है।

इसलिए दीदी की असामयिक मौत के बाद भी ममा की इच्छा थी कि जीज्जू का इस घर से नाता पहले की तरह बना रहे। वह जीज्जू को उतनी ही शिद्दत से मानती थीं। उनके अंदर मैंने अपनी और जीज्जू की शादी कर देने की दबी इच्छा भी देखी थी। लेकिन उनकी कभी मुझसे इस बारे में बात करने की इच्छा नहीं हुई। लिहाजा, वह मेरे सामने जीज्जू की ख़ूब तारीफ़ करती थीं। दरअसल, ग़ुस्सा करने में मैं दीदी से कम नहीं थी, लेकिन घर में मैं अपनी बड़ी बहन के मुक़ाबले ज़्यादा समझदार मानी जाती थी। मैं अधिक ऐडजस्टेबल थी। वैसे मां ने यह जानने के बाद भी कि मेरी लाइफ़ में कोई बॉयफ्रेंड या क्लोज्ड फ्रेंड नहीं है, सीधे कभी कुछ नहीं कहा। इस मामले में वह मुझसे बहुत डरती थीं। मुझे भी डैड को परेशान देखकर लगता था कि मैं इस तरह की लड़की क्यों निकलीं, जिसकी शादी के लिए योग्य लड़का ही नहीं मिल रहा है। इतना अधिक पढ़ने की क्या ज़रूरत थी। वैसे, जीज्जू मुझे अच्छे लगते थे। सो दीदी की जगह लेने में मुझे कोई हर्ज नहीं था। फिर उनकी अच्छी सेलरी वाली सरकारी नौकरी हर सिंगल लड़की के लिए अट्रैक्शन थी। हालांकि इस मामले में सारा फैसला डैड को ही लेना था।

अविनाश आंटी की बात ही ख़त्म नहीं हो रही थी। औपचारिकता निभाने के लिए जीजू भी अपने काम के बारे में बताने लगे।

-मार्केट जा रहे हो?

-हां, इनकी जेब खाली कराने का इरादा है। मैंने जीज्जू की ओर देखते हुए कहा।

-जाओ-जाओ, जीजा की जेब पर साली का हक़ सर्वमान्य है। बिलकुल जेब खाली कराओ। जाओ… ऑल द बेस्ट…

हम आगे बढ़ गए…

-जीज्जू, क्या सोचने लगे… मैंने राह चलते पूछा।

-कुछ तो नहीं, जीज्जू अचानक चौंक पड़े जैसे मैने कोई अप्रत्याशित सवाल कर दिया हो।

मैं चुप हो गई। वह चलते रहे। एकदम ख़ामोश।

-अच्छा जीज्जू, हम साथ-साथ चलते क्या वास्तव में फब रहे हैं? मेरा मतलब हमारी जोड़ी… अविनाश आंटी ने जो…

-मुझे क्या पता… वह बार-बार मुझे निहार रहे थे।

-पर मुझे तो आप बहुत स्मार्ट और हैंडसम लग रहे हैं, खूब हैंडसम… एकदम झक्कास…

-तुम भी तो ख़ूबसूरत हो… कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं। ये सूट तो तुम्हारी ख़ूबसूरती में चार चांद लगा रहा है। किसी की… क्या मेरी ही नज़र न लग जाए कहीं… सच्ची रे…

-थैंक्स जीज्जू… मैंने कॉम्पलिमेंट स्वीकार कर लिया।

जीज्जू हाथ-मुंह धोकर वापस आकर सोफे पर बैठ गए। हम तीनों चुपचाप कॉफी पीते रहे। थोड़ी देर में ममा अंदर के कमरे में चली गईं। हम दोनों अकेले रह गए। आसपास बहुत देर तक नीरवता ही पसरी रही।

-क्या कर रही हो आजकल? मुझे लगा जीज्जू औपचारिकता पूरी कर रहे हैं।

-करूंगी क्या … पढ़ा रही हूं बच्चों को। फिर और करने के लिए है क्या… हफ़्ते में दो बार एफएम की ड्यूटी है। वैसे एक कॉलेज में लेक्चरर पोस्ट के लिए अप्लाई कर दिया है। मैंने बहुत धीरे से जवाब दिया।

-रोहित ने दूसरी शादी कर ली? जीज्जू फिर बोले, अभी ममा बता रही थीं मुझे।

-हां, मैं थोड़ी देर चुप रह कर बोली, -सच ख़बर है यह। वैसे ठीक ही किया उसने।

-तुमने रोका नहीं। जीज्जू मुझ पर नज़र गड़कर बोले।

-नहीं… मैं उसके साथ रह ही नहीं सकती थी… वैसे उसके बारे में आपकी आशंका सच निकली। वह बड़ा नीच और पतित है। ऐसे आदमी के साथ पल भर भी नहीं रहा जा सकता। मैं उसके साथ रहकर ज़िंदा ही नहीं रह पाती। मेरा दम घुटता था उसके साथ। मैंने अपने मन की भड़ास निकाल दी।

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दरअसल, डैड के ही एक दोस्त ने किसी दिन शराब के नशे में ऐसा व्यंग्य कर दिया कि वह सहन नहीं कर सके। उसने कहा कि पैसा बचाने के लिए वह अपनी छोटी लड़की की शादी अपने विधुर दामाद से करना चाह रहे हैं। यह बात डैड को अंदर तक चुभ गई। वह कई दिन टेंशन में रहे। वह सात-आठ साल से मेरे लिए लड़का खोज रहे थे, पर कायदे का लड़ा मिल ही नहीं रहा था। इस कारण से मुझे डैड से गहरी सहानुभूति हो गई थी। मैं उन्हें टेंशन में नहीं देखना चाहती थी। इत्तिफाक से उन्हीं दिनों एक करीबी रिश्तेदार ने रोहित का नाम सुझाया। वह एक निजी कंपनी में प्रोडक्शन इंजीनियर था। घर का दामाद होने के नाते उसे देखने के लिए डैड के साथ जीज्जू भी गए। बाद में मुझे देखने के लिए रोहित भी मेरे घर आया। पहली मुलाक़ात में वह मुझे बुरा नहीं लगा। उसकी उम्र थोड़ी ज्यादा लगी, मैं तीस की हो गई थी, वह पैंतालिस के आसपास था। वैसे यह अंतर उतना अधिक नहीं था कि रिश्ता ही ठुकरा दिया जाए। हां, उसकी सेलरी ज़रूर जीज्जू से ज़्यादा थी। मतलब, सेलरी उम्र में गैप की भरपाई कर रही थी। कुल मिला कर पिता की परेशानी को कम करने के लिए आतुर लड़की के लिए वह उचित जीवनसाथी जान पड़ा। यानी उत्तम वर। रोहित और उसके साथ आए लोग खाना खाने के बाद चले गए। जीज्जू बहुत दिन बाद उस दिन रात में रुक गए। उनके साथ मैं और ममा ड्राइंग हॉल में बैठे थे।

रोहित तुम्हें पसंद है न? अचानक जीज्जू ने सवाल किया। वह काफी सीरियस लग रहे थे।

हां… और आपको। सच-सच बताना जीज्जू। मेरी लाइफ़ का सवाल है। मेंने चुहल की।

वह मुझे देख रहे थे। देखे जा रहे थे। अपलक। मुझे लगा कि कुछ सोच रहे हैं। फिर लगा कि मुझे देख रहे हैं। फिर लगा कि वह देख भले रहे है लेकिन कुछ सोच रहे हैं।

बताइए न जीज्जू। मैंने दोबारा पूछा, कैसा लगा रोहित आपको…?

अबकी उन्होंने नज़र मेरे चेहरे से हटा ली। बहुत देर तक सोचते रहे चुपचाप।

सच कहूं तो वह मुझे जमा नहीं। यह जीज्जू का निष्कर्ष था। दो टूक। एकदम प्रत्याशित।

क्यों? यह ममा का सवाल था। जो जीज्जू के निष्कर्ष से असहज हो गई थीं।

सब कुछ ठीक लगा। नौकरी भी शानदार है। उसकी उम्र तो ज़्यादा है ही, उसका स्वभाव भी ठीक नहीं लगा मुझे। मुझे वह बहुत ज़्यादा इगोइस्ट लगा। उससे मैं दो बार मिला। वह मुझसे जिस तरह मिला, जिस तरह से बातचीत की, वह ठीक नहीं लगा मुझे। इसीलिए वह मुझे जंचा नहीं। वह तुम्हारे लिए क़ाबिल जीवनसाथी नहीं है वह। नॉट ऐट ऑल। एक इगोइस्ट व्यक्ति जो तुमसे उम्र में पंद्रह साल बड़ा है, मैं ऐसे आदमी के साथ तुम्हारी शादी के पक्ष में नहीं हूं। तुम्हारे लिए हम और अच्छा लड़का खोजेंगे। जीज्जू बहुत गंभीर थे।

वह ममा से मुखातिब हुए, -मम्मी, यह लड़का अपनी रागिनी के लिए ठीक नहीं।

मैं जीज्जू के निष्कर्ष से बिल्कुल सहमत नहीं थी। सो आपा खो बैठी और उबल पड़ी, -क्या जीज्जू। आप भी पहेलियां बुझाने लगे। आप साफ़-साफ़ क्यों नहीं कह देते कि आपको मेरे होने वाले पति से जलन हो रही है। मैं ग़ुस्से से कांपने लगी।

-अरे अरे। पागल हो गई है क्या। ममा अचानक तमतमा उठीं। वह भी ग़ुस्से से कांप रही थी।

मैं भी सकते में थी कि मेरे मुंह से अपने जीज्जू के लिए यह क्या निकल गया। जिसे मैं जीजा कम दोस्त ज़्यादा मानती रही, उसके लिए इतने कठोर अल्फाज़ मैं कैसे बोल गई।

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दरअसल, पापा कितने साल से मेरी शादी को लेकर परेशान थे। सुयोग्य वर के लिए देश के कोने-कोने जा चुके थे। इतनी मुश्किल से यह रिश्ता बन रहा था। और जीज्जू को लड़का इसलिए पसंद नहीं था क्योंकि उसने इनसे ठीक से बात नहीं की। इसी बात पर मैं अपना आपा खो बैठी थी।

मैं पछता रही थी।

जीज्जू का तो चेहरा ही सफ़ेद पड़ गया था। काटो तो ख़ून नहीं। चेहरे पर एक दयनीय मुस्कान चिपक गई थी। मानो उनकी चोरी सरेआम पकड़ ली गई हो।

थोड़ी देर बाद बोले, -सॉरी रागिनी… ग़लती हो गई… रियली सॉरी… वह कांप रहे थे।

-तुम कुछ भी बोलने लगती हो रागिनी। बिना सोचे-समझे क्या-क्या बोल दिया। ममा बोलीं।

-नहीं मम्मी। रागिनी का ग़ुस्सा अनुचित नहीं है। मैं ही कुछ ज़्यादा बोल गया। सारा दोष मेरा है। कोई स्त्री अपने होने वाले पति के लिए ऐसे कमेंट्स सुनकर चुप नहीं रह सकती। अगेन सॉरी रागिनी। प्लीज़ फ़ॉरगिव मी।

मैं उठी और अपने कमरे में आ गई। थोड़ी देर में ममा वहां आईं। मुझे डांटने लगी। तुम बेसिक शिष्टाचार भी भूल गई हो। वह घर के दामाद हैं। उनकी बात को ठंडे दिमाग से लेना चाहिए था न।

मैं चुप ही रही।

बहरहाल, रोहित से मेरी शादी हो गई। विदाई के समय जीज्जू फूट से पड़े थे। आंसुओं की धार निकल आई थी। उसे छिपाने के लिए वह दूर चले गए थे। पर मैंने उन्हें नोटिस किया था। उनमें कुछ ज़रूर ऐसा था, जो मुझे अंदर तक कचोट गया। मेरी भी आंख भर आई थी।

कार में मैं रोहित की बग़ल में बैठी जीज्जू को निहार रही थी। ऐसा लग रहा कि सचमुच वह मुझसे अपेक्षाएं पाले हुए हैं। बस संकोचवश कुछ कह नहीं पाए।

रोहित भी पता नहीं क्यों जीज्जू से चिढ़ता था, मुझे बाद में पता चला। बहरहाल, सुहागरात में ही मुझे रोहित का स्वभाव बड़ा अटपटा लगा। धीरे-धीरे जीज्जू का निष्कर्ष या आशंका सच साबित होने लगी। रोहित मुझ पर ऊल-जलूल आरोप लगाने लगा। मुझे हर बार सफ़ाई देनी पड़ती थी। हमारा रिश्ता पहले दिन से ही कमज़ोर पड़ने लगा। बाद में मुझे उसके साथ घुटन सी होने लगी।

बाहर एकमात्र बचे पीपल के वृक्ष पर पंछियों की कलरव होने लगी थी। जो लगातार बढ़ती जा रही थी।

-मैं बेंगलुरु जा रहा हूं। जीज्जू कॉफी ख़त्म करके बोल पड़े।

-क्यों… मेरे मुंह से निकल पड़ा।

ममा भी चौंक पड़ी थी।

-तबादला हो गया है। वह बहुत देर तक चुप रहे। फिर होंठ थरथराए, -फिर यहां मन भी तो नहीं लगता था मेरा। इसलिए ट्रांसफर को ऐक्सेप्ट कर लिया। दूसरे शहर में जाऊंगा, तो शायद कुछ बदलाव फील करूं…

-यहां मन नहीं लगता… मतलब… मैं कुछ कहना चाह रही थी पर ज़बान कांप कर रह गई। दग़ा दे गई। बस मैं उन्हें देख रहा थी। वह कहीं और खोए थे।

-वैसे भी कोई वजह भी तो नहीं है यहां रहने की। सरकारी नौकरी है, ट्रांसफर रिजेक्ट भी नहीं कर सकता। जैसे बारह साल पहले यहां आया था, अब चला जाऊंगा यहां से दूसरे शहर में।

-कब ड्यूटी जॉइन कर रहे हो?

-मंडे से ड्यूटी जॉइन करनी है। फ्लाइट कल ही है।

-और यहां का घर… और… यह मेरी आवाज़ थी।

-पड़ा रहेगा। हो सकता है किसी के काम आए। जीज्जू बहुत धीरे से बोले इस बार। अनिच्छा से।

मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करूं… अचानक से लगा कुछ तो मुझसे दूर जा रहा है। कुछ तो जो मेरा है, अब मेरा नहीं रहेगा। तो क्या मेरा ही अंश मुझसे दूर हो रहा है और मैं उसे रोक नहीं कर पा रही हूं। मैंने अपने आप से सवाल किया।

-तुम क्यों जा रहे हो जीज्जू?

-क्या करें, कुछ चीज़ें हमारे बस में नहीं होती है।

-अब कब आओगे..

-देखो… कब आना होता है।

-फोन तो करोगे न जीज्जू? मेरा स्वर बहुत आर्द्र हो उठा।

-हां-हां। रोज़ाना फोन करूंगा। तुम्हें फोन नहीं करूंगा तो किसको करूंगा। तुम लोगों के अलावा कौन है ही मेरा। तुम भी जवाब दोगी न? उनकी ज़बान हलक में फंसी हुई सी लगी। आंखें भर आई थी। वह मुझे निहार रहे थे।

मैं भी बोल नहीं पा रही था। बड़ी मुश्किल से सिर हिला कर हां कह पाई।

-चलता हूं ममा। उन्होंने मां की पदधूलि ली। फिर मेरी तरफ देखने लगे। वही हसरत भरी नज़र।

मन में जीज्जू के लिए ढेर सारा प्यार उमड़ आया था। मन कर रहा था उन्हें अभी बांहों में भर लूं। कह दूं, मत जाओ जीज्जू। तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगी। भले तुमसे नियमित मुलाकात नहीं होती थी, परंतु तुम्हारी इस शहर में मौजूदगी से एक संबल मिलता था। ऐसे लगता था, मैं अकेले नहीं हूं, कोई तो है हमारा। अब तुम मुझे उससे भी वंचित कर रहे हो। ये सारे वाक्य ज़बान से निकले ही नहीं।

जीज्जू ने सहसा मेरी ओर नज़र उठाई। पहली बार इतनी भरपूर नज़र मुझ पर डाली थी। मैं तो उस निगाह से सराबोर हो गई। मुझे लगा वह कहना चाह रहे है, रागिनी, रोक क्यों नहीं लेती अपने जीज्जू को। क्यों नहीं करती कोई पहल। अब कौन सी बाधा है हमारे बीच। लेकिन बोल ही नहीं पा रहे थे। लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी अपनी भावनाओं को शब्द नहीं दे पाए। आज भी वहीं झिझक जो हमेशा उनके दामन से चिपकी रही।

सहसा उन्होंने दरवाज़ा खोला ओर बाहर निकल गए।

मैं अपने कमरे में आई और धम्म से गिर पड़ी अपने बिस्तर पर।

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