धर्म के बारे में हमेशा चर्चा होती रही है। सभी धर्मों का समय ज्ञात है कि वे कब अस्तित्व में आए, लेकिन हिंदू धर्म कब अस्तित्व में आया इसका सही-सही ब्यौरा कही उपलब्ध नहीं है। लेकिन कहा जाता है कि हिंदू धर्म सबसे पुराना है। कुछ लोग हिंदू धर्म को धर्म न कहकर मानव की जीवन शैली कहते हैं। तो आइए इतिहास और उपलब्ध दस्तावेज़ों के आधार पर जानने की कोशिश करते हैं कि धर्म का स्वरूप आदिकाल में कैसा था। दस्तावेज़ तो यही बताते हैं कि इस्लाम, ईसाई या यहूदी धर्म के अस्तित्व में आने से पहले धरती पर रहने वाले सभी लोगों का रहन-सहन, रीति-रिवाज और पूजा की पद्धति एक जैसी थी।
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दुनिया भर में खुदाई से मिले दस्तावेजों के मुताबिक मूर्ति की पूजा का जिक्र सबसे पुरानी सुमेरी सभ्यता से लेकर सबसे नई रोम सभ्यता तक में नज़र आता है। इस आधार पर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि पूरी दुनिया भले हिंदू धर्म के अनुयायी न रहे हों, लेकिन उनका रहन-सहन, रीति-रिवाज और पूजा की पद्धति हूबहू हिंदुओं जैसी ही थी। दरअसल, वेदों, पुराणों और उपनिषद जैसे धार्मिक ग्रंथों में त्रेता युग समेत चार युगों का वर्णन मिलता है। चारों युगों को मिलाकर चतुर्युग बनता है। हिंदू कालगणना चतुर्युग पर ही आधारित है। हर चतुर्युग की 43.2 लाख वर्ष बाद पुनरावृत्ति होती है। कलियुग 4.32 लाख वर्ष, द्वापर युग 8.64 लाख वर्ष, त्रेता युग 12.96 लाख वर्ष और सतयुग 17.28 लाख वर्ष का माना गया है। इन सबका ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। धार्मिक ग्रंथों में भी प्रमाण नहीं दिया गया है। केवल विष्णु, ब्रम्हा या शिव कहानियां सुनाते हैं। उन्हीं कहानियों में युगों का जिक्र आता है। राम और रामायण का समय भी त्रेतायुग है। इसके अनुसार राम का समय कलियुग और द्वापर से पहले त्रेता युग यानी 12.96 लाख और 25.88 लाख वर्ष के बीच होना चाहिए। यह निष्कर्ष अतिरंजनापूर्ण लगता है, क्योंकि धरती की उम्र 4 अरब 54 करोड़ वर्ष मानी जाती है और आधुनिक मानव जीवन तो महज 10 हज़ार वर्ष पुराना है।
दरअसल, 19वीं सदी तक पूर्व इतिहासकाल के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी थी। परंतु पुरातत्ववेत्ताओं यानी आर्कियोलॉजिस्ट के ज़रिए उन स्थानों पर खुदाई की गई, जहां किसी समय मानव के होने की संभावना थी। खुदाइयों में बर्तन, मनुष्यों एवं जानवरों की हड्डियां और अन्य अवशेष मिले। इनसे मिली जानकारी और हड्डियों के डीएनए टेस्ट के आधार पर पूर्व इतिहासकाल में मनुष्य के जीवन व्यतीत करने की शैली का अनुमान लगाया गया। इसी आधार पर मानव सभ्यता की अवधि का आकलन किया गया। अनुमान है कि धरती पर सबसे पहले मानव जैसे जीव लगभग 53 लाख वर्ष पहले अस्तित्व में आए। धीरे-धीरे अन्य जीव भी पैदा हुए, परंतु कुछ समय बाद मानव जैसे जीव विलुप्त हो गए।
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कई विद्वानों का मत है कि पशु मानव का इतिहास क़रीब 40 लाख वर्ष पुराना है। जीव विज्ञान के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व में आना क्रमिक विकास का परिणाम है। विकास के क्रमबद्ध व्याख्या का श्रेय चार्ल्स डार्विन को जाता है। उसने सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट की अवधारणा दी। बहरहाल, पशु मानव यानी बंदर से 28-30 लाख वर्ष पहले आदि मानव अस्तित्व में आया। परंतु आज का मानव होमो सेपियंस (Homo Sapiens) का वंशज है। वह क़रीब 2 लाख वर्ष पहले धरती पर बंदर जैसे आदि मानव के रूप में अस्तित्व में आया। आदि मानव जीवन के इस लंबे काल में मनुष्य पेड़-पौधे और कंदमूल खाकर अथवा शिकार कर अपना पेट पालता था।
राहुल सांकृत्यायन ने मानव सभ्यता के इतिहास का गहन अध्ययन किया और पाया कि मानव इतिहास लब्बोलुआब 10 हजार वर्ष पुराना है। इसी टॉपिक पर ‘वोल्गा से गंगा’ की रचना की। किताब में मानव सभ्यता के विकास पर विस्तृत प्रकाश डाला। कहानी तब से शुरू होती है, जब मानव बिना कपड़े के नग्न अवस्था में झुंड में गुफाओं में रहता था। झुंड पर महिलाओं का वर्चस्व होता था। तब मानव के बीच आपसी रिश्ता विकसित नहीं हुआ था। सभी लोग केवल नर-मादा थे। पशुओं की तरह एक दूसरे से सेक्स करते थे। बच्चे पैदा होते थे और जीवन चक्र चलता रहता था। बहुत बाद में परिवार और शादी व्यवस्था अस्तित्व में आई और दुनिया के विभिन्न इलाकों में सभ्यताओं ने जन्म लिया। इन सभ्यताओं की अवधि पर गौर करें, तो सब कुछ 10 हज़ार वर्ष में सिमट जाता है। इसलिए ‘वोल्गा से गंगा’ में दिए गए तथ्य प्रमाणिक और वैज्ञानिक लगते हैं। रामायण काल और महाभारत काल अगर काल्पनिक नहीं हैं, तो इन्हीं दस हज़ार साल की अवधि के दौरान किसी समय अस्तित्व में रहे होंगे।
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फ़िलहाल कोई भी ज्ञात मानव सभ्यता आठ हज़ार साल से अधिक पुरानी नहीं है। मसलन सबसे पुरानी सुमेरी सभ्यता का समय ईसा पूर्व 2300-2150 वर्ष पहले यानी आज से 4170 से 4320 वर्ष के बीच है। इसी तरह बेबिलोनिया सभ्यता का समय ईसा पूर्व 2000-400 वर्ष यानी 2420 से 4020, ईरानी सभ्यता ईसा पूर्व 2000-250 यानी 2270 से 4020 वर्ष, मिस्र (इजिप्ट) सभ्यता ईसा पूर्व 2000-150 यानी 2170 से 4020 वर्ष, असीरिया सभ्यता ईसा पूर्व 1450-500 यानी 2520 से 3470 वर्ष, ग्रीस (यूनान) सभ्यता ईसा पूर्व 1450-150 यानी 2170 से 3470 वर्ष, रोम सभ्यता ईसा पूर्व 800-500 यानी 2520 से 2820 वर्ष और अमेरिका की माया सभ्यता सन् 250 ईसवी से 900 ईसवी के बीच माना जाता है।
इस अवधारणा को 19वीं सदी तक पूरी दुनिया मानती थी, लेकिन बीसवीं सदी के पहले दशक में खुदाई से निकली सिंधु घाटी सभ्यता ने पूरा इतिहास ही बदल दिया, क्योंकि हड़प्पा और मोहन जोदड़ो सभ्यता यानी सिंधु-सरस्वती घाटी सभ्यता का समय ईसा पूर्व 5000-3500 वर्ष यानी आज से 5520 से 7020 वर्ष के बीच का आंका गया। उस सभ्यता में मूर्ति पूजा का प्रचलन था, क्योंकि हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य देवियों की मूर्तियां मिलीं। सिंधु घाटी सभ्यता को दुनिया की सबसे रहस्यमयी सभ्यता माना जाता है, क्योंकि इसके पतन के कारणों का खुलासा नहीं हो सका है। वैसे मूर्ति की पूजा का जिक्र सुमेरी से लेकर रोम सभ्यता तक नज़र आता है। इसमें दो राय नहीं कि पूरी दुनिया भले हिंदू धर्म की अनुयायी न रही हो, लेकिन दुनिया के हर कोने में लोगों का रहन-सहन, रीति-रिवाज और पूजा की पद्धति हूबहू हिंदुओं जैसी ही थी।
इस तरह कहा जा सकता है कि हिंदू धर्म भले ही एक धर्म के रूप में अस्तित्व में न रहा हो, लेकिन मानव जीवन शैली के रूप में पिछले सात-आठ हज़ार वर्ष से ज़रूर मौजूद रहा। इस सभ्यता के थोड़ा इधर-उधर वैदिक काल और महाभारत का समय माना जाता है। वैदिक काल में सभी वेदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों की रचना मानव द्वारा की गई। कहने का मतलब उस समय हिंदू धर्म भी अस्तित्व में था। हम कह सकते हैं कि धार्मिक ग्रंथों की रचना मानव समाज में आदर्श नागरिक और अच्छा-बुरा को परिभाषित करने और मानव की जीवन शैली को और बेहतर बनाने के लिए हुई होगी। धर्म ग्रंथों में उल्लेखित पात्रों का उदाहरण देकर मानव के संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिश की गई होगी। यह बताने का प्रयास किया गया होगा कि हम जीवन शांतिपूर्ण कैसे गुजार सकते हैं।
दरअसल, ईसवी सन शुरू होने से पहले यानी आज से 2020 वर्ष पहले ही यूरोप और पश्चिम एशिया में यहूदी धर्म का अस्तित्व था। कई विद्वान यहूदी धर्म को 3500 से 3700 वर्ष पुराना बताते हैं। यहूदियों के धार्मिक स्थल को मंदिर और प्रार्थना स्थल को सिनेगॉग कहते हैं। कमोबेश यही समय पारसी धर्म का भी है। ईसाई धर्म दो हज़ार वर्ष पहले अस्तित्व में आया और लगभग सन् 613 इसवी के आसपास मुहम्मद साहब ने लोगों को अपने ज्ञान का उपदेश देना आरंभ किया था। इसी घटना को इस्लाम का आरंभ माना जाता है। ‘इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका’ जैसी कालजयी किताब लिखने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक इतिहासकार महेंद्र नाथ राय उर्फ नरेंद्र भट्टाचार्य ने लिखा है कि मक्का में जहां हज किया जाता था, वहां मुहम्मद साहब से पहले एक मंदिर था, जिसमें देवी-देवताओं की 300 मूर्तियां स्थापित थीं। उन्होंने लिखा है कि पहले दुनिया भर में मूर्तिपूजा की जीवन शैली ही अपनाई जाती थी। इन दोनों धर्मों के उत्थान से पहले हिंदू, यहूदी या पारसी जीवन शैली यानी मूर्ति पूजा का प्रचलन था। यह प्रचलन रामायण काल में भी अस्तित्व में था।
पुराणों में वाल्मीकि रामायण का जिक्र तो मिलता है, लेकिन अयोध्या नगर के संबंध में कोई ख़ास ज़िक्र नहीं मिलता है। वेद में “अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या” श्लोक के माध्यम से अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। यहां भी राम का जिक्र नहीं किया गया है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। यह नगर सरयू तट पर बारह योजन और तीन योजन के क्षेत्र में बसा था। अलबत्ता रामायण में अयोध्या का उल्लेख कौशल नरेश राम की राजधानी के रूप में किया गया है।
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रामायण का मतलब ‘वाल्मीकि रामायण’ से है, जिसकी रचना आदिकवि वाल्मीकि ने लगभग तीन हज़ार वर्ष पहले संस्कृत में की। कुछ विद्वान कहते हैं कि वाल्मीकि रामायण 600 ईसा पूर्व यानी आज से 2600 वर्ष पहले लिखा गया। उसके पीछे युक्ति यह है कि वाल्मीकि रामायण की रचना महाभारत से पहले हुई होगी। महाभारत में गौतम बुद्ध या बौद्ध धर्म का कोई वर्णन नहीं मिलता है। जबकि इस महाग्रंथ में जैन, शैव और पाशुपत जैसी परंपराओं का वर्णन मिलता है। इसका मतलब है कि वाल्मीकि रामायण गौतम बुद्ध काल से पहले लिखा गया। भाषा-शैली से भी यह महर्षि पाणिनि के समय से पहले का लगता है।
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वाल्मीकि ने इस ग्रंथ में दशरथ और कौशल्या के पुत्र राम की गाथा ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ के रूप में लिखी है। संस्कृत में होने के कारण वाल्मीकि रामायण की कथा की जानकारी आम जन तक नहीं पहुंच सकी। इसीलिए राम के चरित्र के बारे में बारहवीं सदी से पहले बहुत ज़्यादा कोई नहीं जानता था। राम की चर्चा तब शुरू हुई, जब वाल्मीकि रामायण को स्रोत मानकर गोस्वामी तुलसीदास समेत तमाम कवियों ने अलग-अलग काल और अलग-अलग भाषाओं में रामायण की रचना की। यह सिलसिला बारहवीं सदी से शुरू हुआ। हर रामायण का विषयवस्तु वाल्मीकि रामायण ही है। बारहवीं सदी में तमिल में कंपण रामायण, तेरहवीं सदी में थाई भाषा में लिखी रामकीयन और कंबोडियाई रामायण, पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में उड़िया रामायण और कृतिबास की बंगला रामायण लिखा गया। सोलहवीं सदी के अंत में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधि में रामायण की रामचरित मानस के रूप में रचना की। लेकिन इन सब में तुलसीदास का रामचरित मानस सबसे अधिक प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास से पहले जम्बूद्वीप (भारत या हिंदुस्तान) में हिंदू धर्म के अनुयायी फक्कड़ शंकर, नटखट कृष्ण, गणेश, सूर्य, दुर्गा, लक्ष्मी और काली की पूजा करते थे। लेकिन सबसे अधिक पूजा भोलेनाथ की होती थी। भारत में इस समय सबसे पुराना मंदिर बिहार के कैमूर जिले में स्थित मुंडेश्वरी देवी मंदिर को माना जाता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार इसका निर्माण संभवतः सन् 1008 में हुआ है। मुंडेश्वरी मंदिर भगवान शिव और देवी शक्ति को समर्पित है। यानी यह शिव मंदिर है। देश में हर जगह भगवान शिव के मंदिर इसके गवाह हैं, जबकि राम के मंदिर गिनती भर के हैं। इन मंदिरों के निर्माण का समय देखें तो तुलसी के दौर के बाद बनाए गए हैं।
कहने का मतलब ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से कहा जा सकता है कि तुलसीदास से पहले भगवान राम का उतना क्रेज नहीं था। तुलसीदास ने रामचरित मानस रचकर राम को महिमामंडित और हिंदुओं के घर-घर में प्रतिष्ठित किया। तुलसीदास सन 1511 में पैदा हुए जबकि आगरा की गद्दी पर बाबर 1526 में बैठा। तब तुलसीदास की उम्र 16 वर्ष की थी। उन्होंने 71 वर्ष की उम्र में 1582 में रामचरित मानस लिखना शुरू किया और 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन में यह ग्रंथ पूरा हो गया। उस समय अकबर का शासन था। रामचरित मानस के प्रचलन में आने के बाद ही राम हिंदुओं के सबसे बड़े देवता बने।
पारंपरिक इतिहास में अयोध्या कौशल राज्य की प्रारंभिक राजधानी बताई गई है। गौतम बुद्ध के समय कौशल के दो भाग हो गए थे। उत्तर कौशल और दक्षिण कौशल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट नई बस्ती बनाई गई जिसका नाम साकेत था। कई विद्वान अयोध्या और साकेत को एक ही नगर मानते हैं। कालिदास ने भी रघुवंश में दोनों को एक ही नगर माना है। इसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है। भारतीय पुरातत्व, ऐतिहासिक भूगोल और इतिहास के जनक सर अलेक्ज़ैंडर कनिंघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है। वहीं बौद्ध ग्रंथों में भी अयोध्या और साकेत को अलग-अलग नगरों के रूप में बताया गया है। चीनी यात्री हेनत्सांग सातवीं सदी में अयोध्या आया था। उसने यहां 20 बौद्ध मंदिरों और 3000 भिक्षुओं के रहने का जिक्र किया है, लेकिन उसने भी भगवान राम का जिक्र नहीं किया है।
बहरहाल, इतिहास में राम का जिक्र न होने के बावजूद अयोध्या करोड़ों भारतीयों के आराध्य भगवान राम की जन्मस्थली के रूप में माना जाता है। मान्यता यह भी है कि यहीं भगवान राम ने अवतार लिया था। कहा जाता है कि इस नगर को मनु ने बसाया और इसे ‘अयोध्या’ का नाम दिया था, जिसका अर्थ होता है अ-युध्य अर्थात ‘जहां कभी युद्ध नहीं होता।’ अयोध्या मूल रूप से हिंदू मंदिरों का शहर है। यहां आज भी हिंदू धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत में कहा गया है कि चौबीस तीर्थंकरों में से पांच तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में हुआ था। इसके अलावा जैन और वैदिक दोनों मतों के अनुसार भगवान राम का जन्म भी इसी भूमि पर हुआ। सभी तीर्थंकर और भगवान राम इक्ष्वाकु वंश के थे।
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अगर आज हमेशा के लिए ख़त्म हो रहे अयोध्या विवाद की बात करें तो वह अंग्रेज़ों के दिमाग़ की उपज है। अंग्रज़ों ने डिवाइड एंड रूल की पॉलिसी सन् 1857 के विद्रोह के बाद बनाई। विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों ने भारत में लंबे समय तक शासन करने के लिए बांटों और राज करो की साज़िश रची। साज़िश का केंद्र बनाया गया हिंदुओं के सबसे अधिक पूजनीय आराध्य देव भगवान श्री राम को। राम की नगरी अयोध्या में श्री राम मंदिर को लेकर एक रणनीति के तहत रची गई भयानक और दीर्घकालीन साज़िश का नतीजा 1947 भारत के विभाजन और दुनिया के मानचित्र पर पाकिस्तान नाम का एक नया राष्ट्र अस्तित्व में आया।
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दरअसल, सन् 1857 के विद्रोह के पहले सन् 1856 में ब्रिटेन की लॉर्ड पॉमर्स्टन सरकार ने लॉर्ड कैनिंग यानी चार्ल्स जॉन कैनिंग को भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया। 1857 के गदर के बाद लॉर्ड कैनिंग ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड विस्काउंट पॉमर्स्टन को भेजी रिपोर्ट में कहा था कि अगर इंडिया में लंबे समय तक शासन करना है तो यहां की जनता के बीच धर्म के आधार पर मतभेद पैदा करना ही पड़ेगा और इसके लिए हिंदुओं के प्रमुख देवता राम की जन्मस्थली को विवाद में ला दिया जाए।
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नामचीन इतिहासकारों की लिखी इतिहास की कई चर्चित किताबों के मुताबिक 1857 के विद्रोह के बाद अयोध्या विवाद की साज़िश रची गई। इसके लिए अयोध्या के इतिहास से छेड़छाड़ भी की गई। दरअसल, इब्राहिम लोदी की बनाई गई मस्जिद को बाबरी मस्जिद का नाम दे दिया गया। दरअसल, मस्जिद में इब्राहिम लोदी के शिलालेख को नष्ट करने में ख़ास तौर पर फैजाबाद भेजे गए अंग्रेज़ अफ़सर एचआर नेविल और अलेक्ज़ैंडर कनिंघम ने अहम भूमिका निभाई।
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फ़ैज़ाबाद ज़िले का आधिकारिक गजेटियर तैयार करने वाला नेविल ही सारी ख़ुराफ़ात और साज़िश का सूत्रधार था। नेविल की साज़िश में दूसरा फ़िरंगी अफ़सर कनिंघम भी शामिल था, जिसे अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने हिंदुस्तान की तवारिख़ और पुरानी इमारतों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। कह सकते हैं, इंडियन सबकॉन्टिनेंट पर मुस्लिम देश बनाने की आधारशिला नेविल और कनिंघम ने रख दी थी। यह मुस्लिम देश पाकिस्तान के रूप में 14 अगस्त 1947 को अस्तित्व में भी आ गया।
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कालजयी लेखक कमलेश्वर के भारतीय और विश्व इतिहास पर आधारित चर्चित उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में बाबरी मस्जिद पर इतिहास के हवाले से बहुत महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक ने किताब के कई अध्यायों को अयोध्या मुद्दे को समर्पित किया है। सन 2000 में प्रकाशित ‘कितने पाकिस्तान’ को अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने बेहतरीन रचना करार देते हुए 2003 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया था। उस सरकार में तब विद्वान और अयोध्या मामलों के जानकार डॉ मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे।
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दरअसल, अयोध्या की मस्जिद (बाबरी मस्जिद नहीं) को बनाने के बाद उसमें एक शिलालेख भी लगा था, जिसका जिक्र ईमानदार अंग्रेज़ अफ़सर ए फ़्यूहरर ने कई जगह अपनी रिपोर्ट्स में किया है। फ़्यूहरर ने 1889 में आख़िरी बार उस शिलालेख को पढ़ा, जिसे बाद में उसी साज़िश के तहत अंग्रेज़ों ने नेविल और कनिंघम के ज़रिए नष्ट करवा दिया। शिलालेख में लिखा गया था कि अयोध्या में मस्जिद का निर्माण इब्राहिम लोदी के आदेश पर सन् 1523 में शुरू हुआ और सन् 1524 में मस्जिद बनकर तैयार हो गई। इतना ही नहीं, शिलालेख के मुताबिक, अयोध्या की मस्जिद का नाम कभी भी बाबरी मस्जिद नहीं था।
अंग्रेज़ अफ़सर नेविल और कनिंघम द्वारा बड़ी साज़िश के तहत गजेटियर में दर्ज किया गया। अदालत में अयोध्या विवाद पर सरकारी पक्ष ने उसी गजेटियर को सूचना का आधार बनाया। गजेटियर में लिखा कि 1528 में अप्रैल से सितंबर के बीच एक हफ़्ते के लिए बाबर अयोध्या आया और राम मंदिर को तोड़कर वहां बाबरी मस्जिद की नींव रखी थी। यह भी लिखा कि अयोध्या पर हमला करके बाबर की सेना ने एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं की हत्या कर दी। हम आज भी अकसर सुनते हैं कि बाबर की सेना सूबेदार मीरबाक़ी के नेतृत्व में अयोध्या में एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं की हत्या करने के बाद भगवान श्री राम के मंदिर को नष्ट करके वहां बाबरी मस्जिद के निर्माण की आधरशिला रखी।
‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक, मज़ेदार बात यह है कि फ़ैज़ाबाद के गजेटियर में आज भी लिखा है कि अयोध्या में उस कथित लड़ाई के क़रीब साढ़े तीन सौ साल बाद 1869 में अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की कुल आबादी महज़ दस हज़ार थी। 12 साल बाद यानी 1881 में यह आबादी बढ़कर साढ़े ग्यारह हज़ार हो गई। सवाल उठता है कि जिस शहर की आबादी इतनी कम थी वहां बाबर और उसकी सेना ने इतने लोगों को हलाक़ कैसे कर दिया या फिर इतनी बड़ी संख्या में मरने वाले कहां से आ गए? यहीं इस के बारे में देश में बनी मौजूदा धारणा पर गंभीर सवाल उठता है।
बहरहाल, हैरान करने वाली बात यह है कि दोनों अफ़सरों नेविल और कनिंघम ने सोची-समझी नीति के तहत बाबर की डायरी बाबरनामा, जिसमें वह रोज़ाना अपनी गतिविधियां दर्ज करता था, के 3 अप्रैल 1528 से 17 सितंबर 1528 के बीच लिखे गए 20 से ज़्यादा पन्ने ग़ायब कर दिए और बाबरनामा में फारसी में लिखे ‘अवध’ यानी ‘औध’ को ‘अयोध्या’ कर दिया। ध्यान देने वाली बात यह है कि मस्जिद के शिलालेख का फ़्यूहरर द्वारा किए गए अनुवाद को ग़ायब करना अंग्रेज़ अफ़सर भूल गए। वह अनुवाद आज भी आर्कियोल़जिकल इंडिया की फ़ाइल में महफ़ूज़ है और ब्रिटिश अफ़सरों की साज़िश से परदा हटाता है।
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दरअसल, बाबर की गतिविधियों की जानकारी बाबरनामा की तरह बाबर के बेटे और उसके उत्तराधिकारी हुमायूं की दैनिक डायरी हुमायूंनामा में भी दर्ज है। लिहाज़ा, बाबरनामा के ग़ायब या नष्ट किए गए पन्ने से नष्ट हो चुकी सूचना को हुमायूंनामा देखी जा सकती है। हुमायूंनामा के मुताबिक 1528 में बाबर अफ़गान हमलावरों का पीछा करता हुआ घाघरा (सरयू) नदी तक अवश्य गया था, लेकिन उसी समय उसे अपनी बीवी बेग़म मेहम और अन्य रानियों एवं बेटी बेग़म ग़ुलबदन समेत पूरे परिवार के काबुल से अलीगढ़ आने की इत्तिला मिली।
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बाबर लंबे समय से युद्ध में उलझने की वजह से परिवार से मिल नहीं पाया था इसलिए वह अयोध्या पहुंचने से पहले की वापस हो लिया और अलीगढ़ रवाना हो गया। अलीगढ़ पहुंचकर पत्नी-बेटी और परिवार के बाक़ी सदस्यों को लेकर बाबर अपनी राजधानी आगरा आया और 10 जुलाई तक उनके साथ आगरा में ही रहा। उसके बाद बाबर परिवार के साथ पिकनिक मनाने के लिए धौलपुर चला गया। वहां से सिकरी पहुंचा, जहां सितंबर के दूसरे हफ़्ते तक परिवार समेत रहा।
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‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक अयोध्या की मस्जिद बाबर के आक्रमण और उसके भारत आने से पहले ही मौजूद थी। बाबर आगरा की सल्तनत पर 20 अप्रैल 1526 को क़ाबिज़ हुआ जब उसकी सेना ने इब्राहिम लोदी को हराकर उसका सिर क़लम कर दिया। एक हफ़्ते बाद 27 अप्रैल 1526 को आगरा में बाबर के नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया। मज़ेदार बात यह है कि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी माना है कि अयोध्या में राम मंदिर को बाबर और उसके सूबेदार मीरबाक़ी ने 1528 में मिसमार करके वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। मीरबाक़ी का पूरा नाम मीरबाक़ी ताशकंदी था और वह अयोध्या से चार मील दूर सनेहुआ से सटे ताशकंद गांव का निवासी था।
अयोध्या विवाद पर पिछले साल आया सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सबसे अहम है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने शिया वक़्फ़ बोर्ड की याचिका ख़ारिज़ करते हुए कहा था कि मीर बाक़ी ने बाबर के वक़्त बाबरी मस्जिद बनवाई थी। बाबरी मस्जिद को गैर-इस्लामिक ढांचे पर बनाया गया था। बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनी थी। भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) की रिपोर्ट से साबित हो गया कि मस्जिद खाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे खुदाई में इस्लामिक ढांचे के कोई सबूत नहीं मिले। 18वीं सदी तक वहां नमाज पढ़े जाने के सबूत कोई नहीं मिले हैं। लिहाज़ा, यह साबित हो गया है कि अंग्रेजों के आने से पहले ही हिंदू राम चबूतरे की पूजा करते थे।
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देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह भी कहा कि हिंदुओं की आस्था है कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ। इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। यह भी साबित हो गया कि 1885 से पहले राम चबूतरे पर हिंदुओं का अधिकार था। अहाते और चबूतरे पर हिंदुओं का अधिकार साबित होता है। सीता रसोई की भी पूजा अंग्रेजों के आने से पहले हिंदू करते थे। उस स्थल पर 1949 में दो मूर्तियां रखी गईं। बहरहाल, चंद लोगों और तंजीमों को छोड़ दें तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को देश के आम मुसलमान ने स्वीकार कर लिया है। भले भारी मन से ही किया है।
अयोध्या का राम से संबंध हिंदुओं की आस्था का विषय है। उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। उल्लेखनीय बात है कि भारतीय पुरातत्व विभाग को खुदाई से जो अवशेष मिले हैं, उनसे मंदिर जैसा ढांचा होने का निष्कर्ष निकाला जाता है। भारतीय पुरातत्व ने हमेशा दोहराया कि वहां खुदाई में जो अवशेष मिले, उनसे मंदिर जैसे ढांचे का आभास ज़रूर होता है। सबसे अहम बात यह कि जो अवशेष मिले हैं, वे सब के सब मध्य काल के लगते हैं, जबकि राम त्रेता युग में पैदा हुए थे। भगवान राम के बारे में ऐतिहासिक प्रमाण भले उपलब्ध न हों, पौराणिक सबूतों के अनुसार त्रेता युग था और उस युग में भगवान राम पैदा हुए थे।
रिसर्च एवं लेख – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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