श्रीराम की नगरी के शांतिदूत जस्टिस पलोक बसु

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वैसे धरती पर आने वाले हर इंसान की अपनी एक कहानी होती है। कमोबेश हर कहानी में एक संदेश निहित होता है। हर कहानी प्रेरणादायक होने के साथ साथ जीवन को अर्थ देती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि हर कहानी मानव जीवन के उद्देश्य को बयान करती हैं। हालांकि इनमें ज़्यादातर प्रेरक कहानियां अक्सर ही अनकही और अनसुनी ही रह जाती हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर न्यायाधीश जस्टिस पलोक बसु की भी कहानी कुछ इसी फ़ेहरिस्त में आती है जो अब तक अनकही और अनसुनी ही रही है। तो आज हम चर्चा करेंगे जस्टिस पलोक बसु की कहानी की जिन्होंने श्रीराम की नगरी में अयोध्या में कौमी एकता का शिलान्यास किया था। संयोग से पिछले साल आज ही के दिन यानी यानी 5 अगस्त को अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संतों की उपस्थिति में भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर के शिलान्यास किया था। शिलान्यास से पहले सौ साल से भी अधिक पुराने अयोध्या विवाद पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव की वजह था। उसके चलते हिंदुओं और मुसलमानों के संबंधों के बीच नफ़रत की बर्फ़ जम गई थी। जस्टिस बसु उसी बर्फ़ को पिघलाकर मोहब्बत की इबारत लिखना चाहते थे।

यह कहने में न तो कोई संकोच है और न ही कोई अतिशयोक्ति कि श्रीराम की नगरी में अयोध्या में मोहब्बत की प्रतीक कौमी एकता का शिलान्यास स्वर्गीय जस्टिस पलोक बसु ने किया था। आज जब शिलान्यास के बाद अयोध्या में भगवान राम के मंदिर को निर्माण कार्य तेजी से चल रहा हैं, तब उस शहर में भाईचारा बहाल करने के लिए अपने अंतिम समय तक कोशिश करने वाले जस्टिस पलोक बसु के प्रयासों पर एक नज़र डालना उस असाधारण व्यक्तित्व के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जस्टिस बसु धुन के बड़े पक्के थे। न्यायपालिका की सेवा से रिटायर होने के एक तरह से उन्होंने ठान लिया था कि सौ साल से ज़्यादा पुराने अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को किसी भी क़ीमत पर हल करके ही छोड़ेंगे। उनके रास्ते में तमाम तरह की बाधाएं आईं, लेकिन कोई भी बाधा उन्हें अपने ध्येय की ओर बढ़ते रहने से रोक नहीं सकी। यहां तक कि बीच में उनकी सेहत बहुत अधिक ख़राब हो गई। इतनी ख़राब कि हफ़्ते में तीन-तीन बार डायलिसिस लेना पड़ता था, लेकिन इस बाधा की भी उन्होंने परवाह नहीं की।

जस्टिस पलोक हर पखवारे अयोध्या पहुंच कर वहां शांति का अलख जगाते थे। उस प्राचीन नगर में सांप्रदायिक एकता और भाईचारे को और प्रगाढ़ करने के लिए वह अयोध्या विवाद का अदालत से बाहर समाधान खोज रहे थे। अपने इस मिशन में उन्हे अयोध्या के स्थानीय लोगों का भरपूर साथ और सहयोग मिला। वह लोगों से संवाद को प्राथमिकता देते थे। यही वजह रही कि शहर के अमनपसंद लोग उनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। लोग उनके सुझाव मानते ही नहीं थे, बल्कि उस पर अमल करने की हर मुमकिन कोशिश करते थे। जस्टिस पलोक के जीवन भर की यही पूंजी थी और उसी पूंजी की बदौलत वह उम्मीद कर रहे थे कि अयोध्या विवाद का सर्वमान्य हल निकाल लिया जाएगा। दरअसल, वह उस ख़ुशहाल भारत का सपना देखते थे, जहां हर धर्म हर संप्रदाय के लोग एक दूसरे के साथ बैठकर अपना सुख-दुख एक दूसरे से बांटते।
2009 में जस्टिस पलोक बसु ने ख़ुद को अयोध्या में शांति स्थापना और कौमी एकता बनाए रखने के मिशन के लिए समर्पित कर दिया। कई दशक से अनसुलझे अयोध्या मुद्दे का हल अदालत के अंदर या बाहर खोजने लगे। अयोध्या के नागरिकों से संवाद करने के लिए वह दौरा करते रहते थे और “सभी को स्वीकार्य समाधान” तलाशते रहे। उनकी ज्यादातर बैठकें रामलला से थोड़ी दूर तुलसी स्मारक भवन में होती थी। बैठकस्थल का 300 रुपए किराया भी वह अपनी जेब से दिया करते थे। अपनी यात्रा से पहले वह धार्मिक नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को हस्तलिखित पोस्टकार्ड भेजा करते थे। एक स्थानीय अधिवक्ता बैठकों की डायरी बनाता और कार्यवृत्त लिखता था। यह सिलसिला छह साल से अधिक चला। अपनी प्रेरणा के बारे में मीडिया के पूछने पर वह विनम्रतापूर्वक कहते, “मैं अयोध्या में स्थाई शांति बहाल करने की कोशिश अपने ‘ठाकुर’, श्री रामकृष्ण परमहंस से प्रेरित होकर करता हूं।”

अपने अथक प्रयास के चलते जस्टिस बसु अयोध्या के 10,502 से अधिक नागरिकों का समर्थन जुटाने में सफल रहे। याचिका पर हस्ताक्षर करने वाले लोगों में 60 फीसदी हिंदू नागरिक और 40 फीसदी मुस्लिम नागरिक थे। उनके प्रस्ताव को राम जन्मभूमि स्थल के रिसीवर फैजाबाद के मंडलायुक्त के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया। दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फ़ैसला आने से क़रीब नौ महीने पहले जस्टिस बसु 2019 में 5 फरवरी को अपने जन्मदिन महाप्रयाण कर गए। यह सहज समझा जा सकता है कि लंबे समय तक देश के लिए सिरदर्द रही समस्या को हल होता उन्हें अपार राहत मिलती, क्योंकि फैसले के लिए इनपुट जुटाने में उनका अहम रोल रहा। अगर वह जीते-जी अयोध्या को शांत और तरक्क़ी करता हुआ देखते तो उन्हें अपनी कोशिश पर नाज़ होता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उनके द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव के कई अंश शामिल किए गए। एक पवित्र शहर में सामाजिक सामंजस्य, सांप्रदायिक सद्भाव और स्थाई शांति को बनाए रखने के लिए यह एक न्यायविद का दिखाया गया असाधारण उद्देश्य, मिशनरी उत्साह और अटूट भावना थी।

सरल एवं सौम्य व्यक्तित्व के धनी जस्टिस पलोक ने 1962 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में अधिवक्ता के रूप में अपना करियर शुरू किया। रंगमंच की तरह यहां भी उनकी तार्किक शक्ति का लोहा बड़े-बड़े अधिवक्ता माननते लगे। उनकी मेहनत एवं तार्किक कौशल रंग लाने लगा और जल्द ही हाईकोर्ट में उनकी तूती बोलने लगी। वह शहर के टॉप आपराधिक वकीलों की फेहरिस्त में आ गए। 1987 में उनकी योग्यता का सम्मान करते हुए उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट का जज बनया गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनके 1987-2002 तक का उनका 15 साल का कार्यकाल कई ऐतिहासिक फैसलों के लिए भी जाना जाता है। उनका सबसे चर्चित फैसला इलाहाबाद बाईपास का था। जब उनके फ़ैसले के बाद सरकार को बाईपास के निर्माण का आदेश देना पड़ा। वह ऐतिहासिक फैसला इलाहाबाद लोगों की स्मृतियों में आज भी महफूज़ है, क्योंकि इससे शहर की यातायात की समस्या हमेशा के लिए हल हो गई। जस्टिस पलोक बसु को कई जांच आयोगों का मुखिया भी बनाया गया। अनुशासन के प्रति सख़्त होने के साथ-साथ वह समय से न्याय दिलाने के भी पैरोकार थे। उनकी हमेशा यह कोशिश रही कि बेंच और बार के बीच का संबंध स्वस्थ बना रहे। वह नए वकीलों को क़ानूनी बारीकियां सीखने और बहस करने से पहले बेहतर होमवर्क करने की नसीहत देते थे।

2002 में जस्टिस बसु को इलाहाबाद हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त हो गए, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें रिटायर नहीं होने दिया और उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग का अध्यक्ष बना दिया। जस्टिस बसु ने आयोग की कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव कर दिया। उनकी पहल के चलते उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा हुई और न्याय देने की प्रक्रिया तेज़ हुई। अपनी दूसरी पारी में भी इस दौरान उन्होंने कई यादगार फैसले सुनाए। बहरहाल, 2011 में जस्टिस पलोक बसु सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने के लिए दिल्ली में शिफ्ट हो गए। आपराधिक कानून, मानवाधिकारों और भारतीय संविधान के बारे में जस्टिस बसु की समझ असाधारण थी। उनकी यह खूबी उनके फैसलों, भाषणों और लेखन में भी साफ़ दिखाई देता था। उनकी कालजयी पुस्तक “लॉ रिलेटिंग टू प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट अंडर दि इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन एंड एलाइड लॉज” भारतीय न्यायपालिका ही नहीं विश्व न्यायपालिका की बहुमूल्य धरोहर है। यह पुस्तक देश में मानवाधिकार संरक्षण से संबंधित कानूनों पर बेबाक टिप्पणी है और छात्रों, शिक्षकों और कानून के शोधकर्ताओं के लिए बेहतरीन संदर्भ स्रोत है। निष्पक्ष सुनवाई को ही न्याय प्रणाली का आधार मानते हुए जस्टिस बसु कहते थे, “आपराधिक न्याय प्रणाली का उद्देश्य समाज में शांति बहाली के लिए अपराधी को सज़ा देने और जनता के साथ इंसाफ करने के लिए मुकदमे की त्वरित सुनवाई जरूरी है।”

वस्तुतः जस्टिस पलोक बसु का परंपरागत बंगाली परिवार बहुत साल पहले इलाहाबाद में बस गया था। इलाहाबाद में पलोक बसु का जन्म हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई। स्कूली शिक्षा के बाद स्नातक और विधि की उनकी पढ़ाई भारत के ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। युवक पलोक की कॉलेज के दिनों में थिएटर में गहरी रुचि थी। स्टेज शो और रेडियो प्ले में अभिनय करने लगे थे। उनके थिएटर ग्रुप में अमिताभ बच्चन की मां तेज़ी बच्चन भी थीं। बहुत कम लोगों को पता है कि पलोक के निर्देशन में तेजी बच्चन ने अनारकली नाटक में अभिनय किया। यह नाटक 1950 के कई रविवार को इलाहाबाद के पैलेस थिएटर में खेला जाता था। कई बार तो नाटकों का रिहर्सल तेज़ी के घर पर होता था। अपने घर पर तेज़ी सभी कलाकारों का ख़ूब आवभगत करती थीं। अपने अभिनय कौशल के बल पर जल्दी ही पलो बसु रंगमंच जगत के प्रमुख हस्ताक्षर बन गए थे। आकाशवाणी प्रायोजित हवा महल जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम में भी वह शिरकत किया करते थे।

रंगमंच की दुनिया में दिनोंदिन पलोक बसु निखरते गए। एक बार तो ऐसा भी वक़्त आया, जब लगा कि पलोक बसु रंगमंच को ही अपना करियर बनाएंगे। लेकिन रंगमंच के दौरान उनकी विधि स्नातक की पढ़ाई जाती रही। अभिनय उनके रग-रग में बस गया था। यही वजह है कि उनका नाटक का जुनून पढ़ाई ख़त्म करने और वकालत शुरू करने के बाद भी चलता रहा। रंगमंच और कला एवं संस्कृति में अपनी गहरी रुचि के चलते वह इलाहाबाद शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक ग्रुप्स और क्लबों में बेहद लोकप्रिय हो गए थे। उसके दोस्त उन्हें प्यार से “पलोक दा” कह कर बुलाते थे। बहरहाल, सबसे अहम बात यह है कि अयोध्या मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जस्टिस पलोक बसु द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव के कई अंश परिलक्षित होते हैं। दरअसल, जस्टिस बसु ने अयोध्या जैसे पवित्र शहर में सामाजिक सामंजस्य, सांप्रदायिक सद्भाव और स्थाई शांति को बनाए रखने के लिए काम किया। यह एक प्रख्यात न्यायविद द्वारा अपने व्यक्तिगत स्वास्थ्य के गंभीर ख़तरे के बावजूद दिखाया गया असाधारण उद्द्श्य, मिशनरी उत्साह और अटूट भावना है। अयोध्या विवाद को लेकर जस्टिस बसु के संकल्प, समर्पण और कार्यों को देखकर, दार्शनिक लियो टॉल्स्टॉय की प्रसिद्ध उक्ति दिमाग़ में कौंधती है कि “यह दुनिया उनके द्वारा ही आगे बढ़ाई गई है, जिन्होंने जीवन में अपार कष्ट सहे।”

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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