वड़ापाव – आम आदमी का आहार

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विश्व वड़ापाव दिवस पर विशेष

वड़ापाव वस्तुतः भारतीय राज्य महाराष्ट्र का सबसे अधिक लोकप्रिय फास्टफूड है। इसे बर्गर का भारतीय संस्करण भी कह सकते हैं। वड़ा पाव जितना टेस्टी है उतनी ही जल्दी ये तैयार हो जाता है। मुंबई के लोग इसे स्नैक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वैसे भी मुंबई की भागदौड़ वाली लाइफ़-स्टाइल में एक सस्ते और किफ़ायती स्नैक की बहुत ज़रूरत थी, जिसे लोग कभी भी आराम से अपना काम करते हुए इंजॉय कर सकें। इसकी कमी को वड़ापाव पूरा करता है। अपने यम्मी स्वाद के कारण वड़ापाव आजकल आम लोग से लेकर सेलिब्रिटिज़ तक को पसंद है।

पाव के बीच में चटनी और मिर्च के साथ गरमा-गरम वड़ा रखकर परोसा जाता है। आजकल वड़ापाव की दुकान हर गली-मोहल्ले में मिल जाएगी, जहां आप गरमा-गरम वड़ापा का मजा ले सकते हैं। मुंबई में शुरू होनेवाला यह वड़ापाव आज पूरी दुनिया में मशहूर हो गया है। मुंबइया जबान में वड़ापाव को मुंबई को राष्ट्रीय खाना भी कहा जाता है। मुंबई में रहनेवाले लगभग सभी लोगों ने वड़ापाव खाते हैं। कई लोग तो सिर्फ वड़ा पाव खाकर ही अपनी दिन निकाल लेते हैं।

आज विश्व वड़ापाव दिवस है यानी की आज ही के दिन लोगों ने पहली बार वड़ा पाव का स्वाद चखा था। माना जाता है कि वडा-पाव का जन्म 1966 में हुआ। दरअसल, बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना 19 जून 1966 को की तो उस समय अशोक वैद्य शिवसेना के कार्यकर्ता थे। उनके साथ और ढेर सारे कार्यकर्ता थे, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं था। उनको लगा पॉलिटिक्स में आने से आजीविका मिल जाएगी।

बाल ठाकरे ने शिवसेना कार्यकर्ताओं से एक अपील की कि केवल पॉलिटिक्स से पेट नहीं भरेगा, इसलिए सभी लोग पार्टी के साथ ही अपने घर को चलाने में भी हाथ बटाएं यानी कोई न कोई काम करें। ठाकरे से प्रेरित होकर अशोक वैद्य ने दादर रेलवे स्टेशन के बाहर अपना फूड का स्टाल लगा दिया और वहां सुबह-सुबह पूरी-भाजी लबेचने लगे। उनकी दुकान पर अच्छी-ख़ासी भीड़ होती थी। उन्होंने इसके साथ कुछ नया करने के बारे में सोचा। उन्हें एन नए डिश का आडिया आया।

अशोक वैद्य ने 23 अगस्त 1966 यानी आज के दिन पूरी-भाजी खाने वाले अपने कुछ ग्रहाकों को पहली बार एक नया डिश परोसा था। दरअसल, उन्होंने उबले आलू को मसलने के बाद उसमें धनिया-मसाला वगैरह मिला कर उसकी टिकिया बना ली और उस टिकिया पर बेसन के घोल में डुबोकर उस पर बेसन परत चढ़ा दिया। अंत में बेसन चढ़ी टिकिया को खौलते तेल में डालकर उसे तल दिया। तलने पर टिकिया फुल कर गोल हो गई।

अशोक वैद्य ने उस बेसनयुक्त तली हुई टिकिया को प्लेट में रखकर परोसा तो खाने वालों के मुंह से वाह-वाह निकल गया। केवल आलू की सब्जी और रोटी खाने के बजाय लोगों ने बेसिन में तेल में तल कर वड़ापाव बहुत अधिक स्वादिष्ट लगा। सबने कहा यह तो शानदार खाना है। बस क्या था, अशोक वैद्य ने कहा कहा कि यह बटाटा वड़ा है। क्योंकि यह बटाटा यानी आलू का बना हुआ है। उसके बाद उस टिकिया का नाम ही बटाटा वड़ा पड़ गया। बाद में बटाटा वड़ा को पाव के बीच रखकर परोसा जाने लगा।

पाव के बीचोबीच मिर्च और लहसुन, नारियल, और मुंगफली से बनी एक तीखी चटनी लगाने से उस डिश का स्वाद और बढ़ गया। अब बटाटा वड़ा का नाम बटाटा वड़ापाव पड़ गया। बटाटा वड़ापाव नाम थोड़ा लंबा था, सो उसे वड़ापाव कहा जाने लगा। उसके बाद तो अशोक वैद्या के स्टाल पर वड़ापाव खाने वालो की भीड़ लगने लगी। वैसे तो यह मूलतः नाश्ते के रूप में खाने के लिए बनाया गया था, लेकिन उसे लोग दिन भर खाने लगे। वैसे भारत में बनने के कारण वड़ा पाव इंडियन डिश है, लेकिन इसके दो अहम घटक पाव और आलू भारतीय नहीं हैं। लेकिन बेसन पूरी तरह भारतीय है।

अशोक वैद्य के स्टाल पर ग्राहकों की भीड़ देखकर दादर में ही सुधाकर म्हात्रे ने भी वड़ापाव बेचने की शुरुआत की। अब उनके भी स्टाल पर ग्राहकों की भीड़ जुटने लगी। वड़ापाव का स्वाद धीरे धीरे लोगों को इतना पसंद आने लगा की दादर के बाद परेल वडाला, करीरोड और भायखला से लोग वड़ापाव खाने के लिए आने लगे। इसके बाद वड़ी संख्या में लोग वड़ापाव का स्टाल लगाने लगे और मुंबई के कोने-कोने में वड़ापाव बनने लगा। धीरे-धीरे वड़ापाव आम मुंबईवासी की एनीटाइम इटिंग फूड बन गया। लोगों को जब खाने की तलब होती तो किसी स्टाल से वड़ापाव उठा लेते थे।

मजेदार बात यह रही कि धीरे-धीरे मुंबई के लोग ही नहीं बाहरी लोग भी वड़ापाव खाने लगे। जिस समय वड़ापाव बिकना शुरू हुआ, उस समय उसकी कीमत सिर्फ 10 पैसे थी। दस साल में वड़ापाव की कीमत में केवल 15 पैसे की बढ़ोतरी हुई। आपातकाल के दौरान वड़ापाव 25 पैसे में मिलता था। 1980 तक एक रुपए में पहले तीन वड़ापाव और कुछ साल बाद एक रुपए दो बड़ापाव मिलने लगी। दादर, लालबाग, परेल और गिरगांव में मिल श्रमिकों के कारण वड़ापाव ‘श्रमिकों का पसंदीदा खाना बन गया। 1980 के दौरान जब मिलें बंद होने लगीं, तो कई युवाओं ने रोजगार की तलाश में वडापाव का ठेला या स्टाल लगाना शुरू कर दिया। बाद में महाराष्ट्र के गली-गली और मोहल्ले-मोहल्ले में वड़ापाव मिलने लगा। शिवसेना ने मुंबई में दक्षिण भारतीयों को खिलाफ आंदोलन शुरू किया, तो लोगों ने दक्षिण भारतीय खाना छोड़कर वड़ापाव खाना शुरू किया। अब तो इसका नाम मुंबई के पर्यायवाची के रूप में भी लिया जाने लगा है।