अयोध्या में कौमी एकता की आधारशिला रखने वाले जस्टिस पलोक बसु

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रामकृष्ण सिन्हा

अयोध्या में पिछले साल 5 अगस्त को भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर के शिलान्यास के बाद निर्माण कार्य तेज़ी से चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर अपना फ़ैसला देकर बहुत पुराने विवाद को सदा के हल कर दिया। ऐसे में अयोध्या के कौमी एकता एवं भाईचारी स्थापित करने में अग्रणी रहे इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर न्यायाधीश जस्टिस पलोक बसु के कार्यों को याद करना समीचीन होगा, क्योंकि ख़राब सेहत के बावजूद वह हर पखवाड़े अयोध्या का दौरा करते थे।

अपने मिशन के अंतिम चरण में विषम स्वास्थ्य और हफ़्ते में तीन-तीन बार डायलिसिस पर रहने के बावजूद वह हर पखवारे श्रीराम की नगरी अयोध्या पहुंच कर अयोध्या में भाई चारे को बढ़ावा देने और विवाद का कोर्ट के बाहर हल तलाशने के लिए स्थानीय लोगों से संवाद करते थे। अमनपसंद लोग उनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। उनके सुझाव मानते और उस पर अमल करते थे। यही उनके जीवन भर की पूंजी थी और उसी पूंजी के बल पर वह उम्मीद कर रहे थे विवाद का सर्वमान्य हल निकल जाए। वह ख़ुशहाल भारत का सपना देखते थे, जहां हर धर्म हर संप्रदाय के लोग साथ बैठकर एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी होते थे।

जस्टिस पलोक बसु का जन्म इलाहाबाद में परंपरागत बंगाली परिवार में हुआ। स्कूली शिक्षा के बाद स्नातक और विधि की पढाई उन्होंने भारत के ऑक्सफोर्ड इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की। कॉलेज के दिनों में थिएटर में उनकी गहरी रुचि थी। अमिताभ बच्चन की मां तेजी बच्चन के साथ उन्होंने कई नाटक किए। नाटकों का रिहर्सल कई बार तेजी बच्चन के घर पर होता था। 1950 के दशक में उन्होंने तेज़ी के अहम किरदार वाले नाटक अनारकली का निर्देशन किया। अभिनय कौशल के बल पर जस्टिस बसु रंगमंच जगत के प्रमुख हस्ताक्षर थे। आकाशवाणी प्रायोजित हवा महल जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम में भी उन्होंने हिस्सा लिया। अभिनय का उनका जुनून वकालत शुरू करने के बाद भी चलता रहा। कला एवं संस्कृति में अपनी गहरी रुचि के चलते वह शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक ग्रुप्स और क्लबों में बेहद लोकप्रिय थे। लोग उन्हें प्यार से ‘पलोक दा’ कहते थे।

सीधे-सादे एवं सौम्य व्यक्तित्व के धनी जस्टिस पलोक ने बतौर अधिवक्ता 1962 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपनी करियर शुरू किया। अपनी मेहनत एवं तार्किक कौशल की बदौलत हाईकोर्ट में उनकी तूती बोलने लगी। वह शीर्ष आपराधिक वकीलों की फ़ेहरिस्त में आ गए। उनका योग्यता का सम्मान करते हुए 1987 में उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट का जज बनया गया। उनके 1987-2002 से कार्यकाल को कई ऐतिहासिक फ़ैसलों के लिए भी जाना जाता है। जिनमें इलाहाबाद बाईपास वाला उनका ऐतिहासिक फ़ैसला इलाहाबाद लोगों की स्मृतियों में आज भी महफ़ूज़ है। उन्हें कई जांच आयोगों का मुखिया भी बनाया गया। अनुशासन के प्रति कठोर होने के साथ वह समय से न्याय दिलाने के भी पक्षधर थे। उन्होंने हमेशा बेंच और बार के बीच स्वस्थ संबंध को बनाए रखा। क़ानूनी बारीक़ियां सीखने और किसी मामले पर बहस करने से पहले अच्छी तरह तैयारी की वह नसीहत देते रहते थे।

जस्टिस बसु को 2002 में इलाहाबाद हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त होने के बाद उत्तर प्रदेश राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने आयोग की कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव किया और उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा के लिए न्याय प्रक्रियाओं को तेज़ किया। इस दौरान उन्होंने कई उल्लेखनीय निर्णय दिए। 2011 में सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने के लिए वह दिल्ली में शिफ़्ट हो गए।

आपराधिक कानून, मानवाधिकारों और भारतीय संविधान की जस्टिस बसु की समझ बहुत असाधारण थी। उकी खूबी उनके व्यावहारिक फ़ैसलों, भाषणों और लेखन में भी दिखता था। उनकी पुस्तक ‘लॉ रिलेटिंग टू प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट अंडर दि इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन एंड एलाइड लॉज’ भारतीय न्यायपालिक की धरोहर है। यह पुस्तक देश में मानवाधिकार संरक्षण से संबंधित कानूनों पर बेबाक टिप्पणी है और छात्रों, शिक्षकों और कानून के शोधकर्ताओं के लिए बेहतरीन संदर्भ स्रोत है। निष्पक्ष सुनवाई को न्याय प्रणाली का आधार मानते हुए वह कहते थे, “आपराधिक न्याय प्रणाली का उद्देश्य समाज में शांति बहाली के लिए अपराधी को सज़ा देने और जनता के साथ इंसाफ करने के लिए मुकदमे की त्वरित सुनवाई जरूरी है।”

2009 में उन्होंने ख़ुद को अयोध्या में कौमी एकता के लिए समर्पित कर दिया। अरसे से अनसुलझे अयोध्या मुद्दे का अदालत से बाहर समाधान खोजने के लिए अयोध्या के नागरिकों से संवाद के लिए दौरा करते और “सभी को स्वीकार्य समाधान” तलाशते रहे। उनकी ज़्यादातर बैठकें रामलला से थोड़ी दूर तुलसी स्मारक भवन में होती थी। बैठकस्थल का 300 रुपए किराया जेब से देते थे। यात्रा से पहले वधार्मिक नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को हस्तलिखित पोस्टकार्ड भेजते थे। एक अधिवक्ता बैठकों की डायरी बनाता था। यह सिलसिला छह साल से अधिक चला। अपनी प्रेरणा के बारे में पूछने पर वह विनम्रतापूर्वक कहते, “मैं अयोध्या में स्थाई शांति की कोशिश अपने ‘ठाकुर’, श्री रामकृष्ण परमहंस से प्रेरित होकर करता हूं।”

अपने अथक प्रयास के चलते जस्टिस बसु 10,502 से अधिक नागरिकों का समर्थन जुटाने में सफल रहे। याचिका पर हस्ताक्षर करने वाले लोगों में 60 फ़ीसदी हिंदू और 40 फ़ीसदी मुस्लिम थे। उनके प्रस्ताव को राम जन्मभूमि स्थल के रिसीवर फैजाबाद के मंडलायुक्त ने माननीय सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया। दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फ़ैसला आने से क़रीब नौ महीने पहले जस्टिस बसु 2019 में 5 फरवरी को अपने जन्मदिन महाप्रयाण कर गए। यह सहज समझा जा सकता है कि लंबे समय तक देश के लिए सिरदर्द रही समस्या को हल होता उन्हें अपार राहत मिलती, क्योंकि फ़ैसले के लिए इनपुट जुटाने में उनका अहम रोल रहा।

यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में उनके द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव के कई अंश शामिल किए गए। एक पवित्र शहर में सामाजिक सामंजस्य, सांप्रदायिक सद्भाव और स्थाई शांति को बनाए रखने के लिए, एक प्रख्यात न्यायविद द्वारा अपने व्यक्तिगत स्वास्थ्य की गंभीरता के बावजूद दिखाया गया असाधारण उद्देश्य, मिशनरी उत्साह और अटूट भावना है।

(लेखक बैंक ऑफ़ इंडिया के महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी। स्तंभकार हैं और सामयिक मुद्दों पर देश-विदेश के अख़बारों में लिखते रहते हैं)