इकबालिया बयान

0
1231

इक़बालिया बयान

हां, माई लार्ड
कबूल करता हूं मैं
भरी अदालत में
मैंने की है हत्या
एक निहत्थे वृद्ध की
ऐसे इंसान की
जो था घनघोर विरोधी
हर तरह की हिंसा का
जो मृदुभाषी था इतना कि
करता था प्रेम
अपनी बकरी तक से
जिसकी आहिंसा बन गई
एक समूचा दर्शन
जिसे पूरी दुनिया
अब कह रही है
महात्मा, महापुरुष
आहिंसा का पुजारी
शांति का दूत
पता नहीं और क्या-क्या
इसीलिए
हैरान होते हैं लोग
क्यों नहीं मिला उसे
शांति का नोबेल पुरस्कार
मगर
नहीं चाहता था मैं
वह मरे
अपनी सहज मौत
क्योंकि मैं मानता उसे
देश के विभाजन का ज़िम्मेदार
इसलिए
मार डाला उसे
भून डाला गोलियों से
सबके सामने
भरी सभा में
मेरा मकसद था
करना खड़ा एक सवाल
उसे मिले संबोधनों पर
उसे दिए विशेषणों पर
ताकि
हर जिज्ञासु सोचे
आख़िर क्यों हुई हत्या
उस शख़्स की
जो था अजातशत्रु
नहीं था कोई दुश्मन
जिसका धरती पर
और ईमानदारी से लोग करें
अध्ययन और विश्लेषण
उसके कार्यो का
उसकी आहिंसा का
जिसमें मारे गए
युद्ध से भी कई गुना ज़्यादा लोग
और तब
आने वाली पीढ़ी
करे आकलन
उसके कार्यो का
पता लगाए
वह सचमुच था राष्ट्रप्रेमी
अथवा था
जन्मजात राजभक्त
और फिर सोचे
एक महात्मा, एक फकीर
जिसने जन्म लिया
एक स्टेट के दीवान के घर
जिसने ली शिक्षा
गांव में नहीं, भारत में भी नहीं
बल्कि सात समंदर पार
दुनिया के सबसे मंहगे शहर में
और जो बना था नेता
करोड़ों दरिद्र और अनपढ़ों का
या
सैकड़ों भू-स्वमियों का
साधनविहीन गांववालों का
या
सुविधा सम्पन्न शहरियों का
जो था पूंजीवाद का विरोधी
लेकिन जिसके करीबी थे
देश के सारे पूंजीपति
जिसने त्याग दिया अपना शूट
और बांध लिया लंगोटी
चलाया एक आंदोलन
रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थय और शिक्षा
के लिए नहीं, बल्कि
केवल सत्ता पाने के लिए
वह भी उस समय, जब
दरिद्रों, अछूतों के लिए पेट था
सबसे बड़ा आंदोलन
तब वह क्या
वाकई था महात्मा वह?
या कुछ और था
यह है विषय अनुसंधान का
खोजने का जवाब
मेरे यक्ष प्रश्नों का
मुझे गर्व है
मैं रहा कामयाब
मकसद में अपने
और खड़ा कर दिया
सचमुच एक ज्वलंत सवाल
उसके महात्मापन पर
उसकी आहिंसा पर
अब लोग करेंगे प्रयास देखने का
उसकी आहिंसा के पीछे भी
और चाहेंगे जानना
उसके व्रत का असली उद्देश्य
मैंने कर दिया अपना काम
अब कानून करे अपना काम
मैंने की है एक मानव की हत्या
इसलिए
मैं बिलकुल तैयार हूं
सहर्ष फांसी के फंदे से
झूलने के लिए
हुक़्म कीजिए
तोड़िए कलम
हे इंसाफ़ के देवता!

-हरिगोविंद विश्वकर्मा