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जगदीप धनखड़ का रहस्यमय इस्तीफ़ा: वे खुद हटे या हटाए गए?

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भारतीय राजनीति में अचानक होने वाले इस्तीफे हमेशा चर्चाओं का केंद्र रहे हैं, खासकर जब बात शीर्ष संवैधानिक पदों की हो। हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे ने पूरे राजनीतिक माहौल में हलचल मचा दी है। न कोई औपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस, न कोई विस्तृत कारण, बस एक संक्षिप्त सूचना—जिसमें उन्होंने “व्यक्तिगत कारणों” का हवाला दिया। लेकिन राजनीतिक हलकों में यह सवाल अब गूंज रहा है: क्या वे खुद हटे या हटाए गए? क्या उनके हालिया बयानों, विशेषकर किसान आंदोलन और न्यायपालिका को लेकर की गई तल्ख टिप्पणियों ने उनकी कुर्सी छीन ली?

धनखड़ का राजनीतिक सफर: एक पृष्ठभूमि

जगदीप धनखड़ का नाम एक सजग, स्पष्टवादी और मुखर नेता के रूप में लिया जाता रहा है। वकालत से राजनीति में आए धनखड़ ने जनता दल और फिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ अपना राजनीतिक करियर मजबूत किया। वे राजस्थान से सांसद, केंद्रीय मंत्री, और फिर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जैसे पदों पर रहे। राज्यपाल रहते हुए उन्होंने पश्चिम बंगाल की ममता सरकार से टकराव के कई चर्चित किस्से गढ़े। इसके बाद वे 2022 में उपराष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के उम्मीदवार बने और निर्वाचित हुए।

तल्ख टिप्पणियों से बनी अनबन की पृष्ठभूमि

हाल के महीनों में उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सार्वजनिक मंचों से कई विवादास्पद और तीखे बयान दिए। विशेषकर न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल, किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये पर अप्रत्यक्ष आलोचना, और संविधान की व्याख्या को लेकर उनकी कुछ टिप्पणियों ने सत्ता पक्ष के भीतर भी असहजता पैदा कर दी।

1. न्यायपालिका पर टिप्पणी:

धनखड़ ने एक विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में कहा था कि “न्यायपालिका को संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की पुनरावृत्ति करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।” उन्होंने यह भी कहा कि कुछ अदालतें “लोकतंत्र के चुने हुए जनप्रतिनिधियों के अधिकारों में अतिक्रमण” कर रही हैं। इस बयान को न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला माना गया।

2. किसान आंदोलन पर रुख:

एक और बयान में उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से कहा कि “किसानों की बात नहीं सुनी गई, जिससे लोकतांत्रिक असंतुलन पैदा हुआ है।” यह बयान ऐसे समय आया जब केंद्र सरकार 2024 के चुनावों के बाद किसान संगठनों को पुनः वार्ता के लिए आमंत्रित करने की रणनीति बना रही थी।

3. संविधान की व्याख्या पर मतभेद:

उन्होंने यह भी कहा कि “संविधान को केवल न्यायपालिका की नजर से नहीं देखा जा सकता, लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है।” यह बात उन्हें उच्चतम न्यायालय के कुछ फैसलों की आलोचना के रूप में कही गई मानी गई।

राजनीतिक गलियारों में उठते सवाल

धनखड़ के इस्तीफे के बाद राजनीतिक पर्यवेक्षक दो धड़ों में बंट गए हैं। एक धड़ा मानता है कि यह “स्वैच्छिक इस्तीफा” नहीं था, बल्कि पार्टी के भीतर असंतोष और सत्ता के शीर्ष पर असहजता के चलते “नरम विदाई” थी।

भाजपा का मौन:

भाजपा की तरफ से न तो कोई समर्थन भरा बयान आया, न ही उनके इस्तीफे पर औपचारिक प्रतिक्रिया। यह उस पार्टी के लिए असामान्य है जो आमतौर पर अपने नेताओं की पीठ थपथपाती है।

विपक्ष का आरोप:

कांग्रेस और आप सहित विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि धनखड़ को हटाया गया क्योंकि उन्होंने संविधान और लोकतंत्र की सच्ची भावना की बात की। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, “जो भी सच बोलेगा, उसकी कुर्सी जाएगी—यह नया भारत है।”

क्या यह संविधानिक संकट की शुरुआत है?

उपराष्ट्रपति का पद न केवल राज्यसभा के सभापति का होता है, बल्कि वह देश का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद भी है। ऐसे पद से बिना स्पष्ट कारण और बिना कोई विवाद उठे इस्तीफा देना, संवैधानिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। अगर यह इस्तीफा किसी राजनीतिक दबाव या असहमति के कारण हुआ है, तो यह भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए एक गंभीर संकेत है।

सत्ता और संस्थाओं के बीच तनाव: एक चिंताजनक ट्रेंड

धनखड़ के इस्तीफे को एक बड़े ट्रेंड के रूप में भी देखा जा रहा है जहां संवैधानिक संस्थाओं और केंद्र सरकार के बीच असहजता बढ़ रही है। पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, फिर पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की टिप्पणियां, और अब धनखड़ का इस्तीफा—ये सभी घटनाएं इस ओर संकेत करती हैं कि संविधान के भीतर असहमति को जगह नहीं दी जा रही

जनता के बीच क्या संदेश गया?

आम जनमानस में इस घटनाक्रम ने सरकारी असहिष्णुता की छवि को बल दिया है। सोशल मीडिया पर ट्रेंड हुआ—#RemovedNotResigned। युवाओं और बुद्धिजीवियों के बीच यह चर्चा तेज़ हो गई है कि क्या अब भारत में संवैधानिक पद भी केवल अनुकम्पा और आज्ञाकारिता के आधार पर चलेंगे?

आगे क्या…?

अब बड़ा सवाल यह है कि:

  • क्या सरकार किसी “नरम और आज्ञाकारी” व्यक्ति को उपराष्ट्रपति के रूप में नियुक्त करेगी?
  • क्या विपक्ष इस मुद्दे को लोकसभा चुनाव के लिए हथियार बनाएगा?
  • क्या न्यायपालिका इस घटना को नोटिस में लेगी?

जगदीप धनखड़ का इस्तीफा केवल एक व्यक्ति के पद छोड़ने की घटना नहीं है, यह भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली और संवैधानिक मर्यादाओं की कसौटी पर एक परीक्षा है। अगर संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति स्वतंत्र रूप से सोचने और बोलने के कारण हटा दिया जाता है, तो यह एक सत्तावादी प्रवृत्ति का स्पष्ट संकेत है।

इस घटना ने यह भी साबित किया कि अब सत्ता के सामने असहमति जताना एक राजनीतिक खतरा बन गया है। ऐसे में भारत को आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि क्या वह सचमुच उस लोकतंत्र की रक्षा कर रहा है जिसकी नींव इतने बलिदानों से रखी गई थी।

क्यों ज़रूरी है मीरा रोड से लोकल ट्रेन…

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जनसांख्यिकीय और मानवीय दृष्टिकोण से रेलवे प्रशासन से सीधी माँग

भारतीय रेलवे का मीरा रोड संभवतः इकलौता रेलवे स्टेशन है जिसमें शारीरिक रूप से कमज़ोर लोग ड्यूटी ऑवर्स में ट्रेन में घुस ही नहीं सकते। यहां तक कि एसी लोकल में भी लोग नहीं चढ़ पाते। इस कारण हर एसी लोकल यहां पांच से सात मिनट तक रुकी रहती है, क्योंकि इस स्टेशन पर यात्रियों को कोच में ठूंसना पड़ता है। दरअसल, मीरा रोड में ट्रेन पकड़ना टेढ़ी खीर है।  मीरा रोड स्टेशन एक ऐसा दुर्लभ उदाहरण बन चुका है, जहां की भीड़ न केवल सिस्टम को चुनौती देती है, बल्कि यात्रियों की शारीरिक और मानसिक परीक्षा भी लेती है। 2025 तक मीरा रोड की आबादी 6 से 7 लाख के बीच पहुँच चुकी है और यह लगातार बढ़ रही है। इस तेज़ी से फैलते उपनगर में रहने वाले लाखों लोग रोज़ाना मुंबई की ओर काम के लिए निकलते हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि मीरा रोड से एक भी लोकल ट्रेन की शुरुआत नहीं होती, जिससे लोगों को मुंबई जाने के लिए बहुत कठिनाई से गुजरना पड़ता है।

जब ट्रेन चढ़ना बन जाती है ताकत की परीक्षा…

मीरा रोड स्टेशन की सबसे भयावह पहचान बन चुकी है — ट्रेन पकड़ना टेढ़ी खीर है। पीक आवर्स यानी सुबह 8 से 10 और शाम 6 से 8 के बीच इस स्टेशन पर ट्रेन में चढ़ पाना आम आदमी के लिए एक दैनिक संघर्ष है। शारीरिक रूप से कमज़ोर, बुज़ुर्ग, महिलाएं, दिव्यांगजन — इन सभी के लिए यह एक असंभव कार्य जैसा हो चुका है। यहां तक कि महंगे टिकट वाली एसी लोकल ट्रेन में भी लोग चढ़ नहीं पाते, क्योंकि कोच पहले से ही ठसाठस भरे होते हैं।

दरअसल, मीरा रोड वो स्टेशन बन चुका है जहां एसी लोकल को 5 से 7 मिनट तक ठहराना पड़ता है, क्योंकि यात्री ट्रेन में किसी तरह “ठूंसे” जाते हैं। यह न केवल सुरक्षा के लिहाज़ से खतरनाक है, बल्कि इंसानियत और रेलवे की योजना व्यवस्था पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा करता है।

जनसंख्या के अनुपात में सुविधाओं की भारी कमी

  • 6–7 लाख की जनसंख्या में से करीब 60% यानी लगभग 4 लाख लोग कामकाजी आयु वर्ग में आते हैं।
  • इनमें से 40 प्रतिशत यानी 1.3–1.4 लाख लोग रोज़ाना लोकल ट्रेन से यात्रा करते हैं।
  • इसके बावजूद मीरा रोड से एक भी लोकल ट्रेन रवाना नहीं होती।

यह आँकड़ा अपने-आप में एक गहरी विडंबना को उजागर करता है — इतनी बड़ी संख्या में लोग मीरा रोड से यात्रा करते हैं लेकिन उनके लिए यहां से यात्रा प्रारंभ करने की कोई सुविधा नहीं है। उन्हें या तो विरार से आ रही भीड़भाड़ वाली ट्रेन में घुसना पड़ता है, या फिर बोरीवली से रवाना हो चुकी ट्रेन को किसी तरह पकड़ने की जद्दोजहद करनी पड़ती है।

मालाड, नालासोपारा से ट्रेन तो मीरा रोड से क्यों नहीं 

रेलवे प्रशासन की ओर से जब भी मीरा रोड से लोकल ट्रेन शुरू करने की माँग उठाई जाती है, तो जवाब होता है कि यहां केवल चार प्लेटफॉर्म हैं, इसलिए ट्रेन शुरू नहीं की जा सकती। लेकिन यह तर्क तथ्यात्मक रूप से अधूरा और भेदभावपूर्ण लगता है, क्योंकि नालासोपारा और मालाड जैसे स्टेशनों पर भी केवल चार प्लेटफॉर्म हैं। फिर भी इन दोनों स्टेशनों से लोकल ट्रेन रवाना होती है, जिससे खासकर शारीरिक रूप से कमज़ोर या वरिष्ठ नागरिक यात्रा में आसानी महसूस करते हैं। यदि वहीं सुविधा नालासोपारा और मालाड में संभव है, तो मीरा रोड क्यों नहीं?

समाधान क्या है?

रेलवे के पास विकल्पों की कोई कमी नहीं है, बस इच्छाशक्ति और प्राथमिकता की ज़रूरत है।

  • मीरा रोड से चर्चगेट के लिए सुबह कम से कम दो लोकल ट्रेनें चलाई जाएं।
  • इससे मीरा रोड स्टेशन पर भीड़ का दबाव घटेगा और लोगों को राहत मिलेगी।
  • स्टेशन पर ट्रेन प्रारंभ करने के लिए एक अतिरिक्त लूप लाइन या शेड्यूल स्लॉट तैयार किया जाए।
  • प्लेटफॉर्म की कमी का रोना रोने से बेहतर है कि तकनीकी समाधान निकाला जाए, जैसा अन्य स्टेशनों में किया गया।
  • स्पेशल सीनियर सिटीजन या महिला फ्रेंडली लोकल – मीरा रोड जैसे स्टेशन से यदि शुरुआत हो तो यह अन्य उपनगरों के लिए भी एक प्रेरणा बन सकता है।

शारीरिक रूप से कमज़ोर यात्रियों के लिए अपमानजनक स्थिति

  • मीरा रोड की स्थिति उन लोगों के लिए और भी अमानवीय हो जाती है, जो शरीर से कमज़ोर हैं।
  • ऐसे कई बुज़ुर्गों की रोज़ाना यात्रा इसी कारण बंद हो चुकी है, क्योंकि वे ट्रेन में चढ़ ही नहीं पाते।
  • दिव्यांगों के लिए यह स्टेशन “एक्सेस डिनाइड” बन गया है, क्योंकि दिव्यांग में आम यात्री घुस जाते हैं।
  • महिलाएं, खासकर गर्भवती या बच्चों के साथ यात्रा करने वाली, पूरी तरह असहाय महसूस करती हैं।
  • यह स्थिति सिर्फ “यातायात” का मुद्दा नहीं है, बल्कि “सामाजिक न्याय और गरिमा” से जुड़ा मसला है।

मीरा रोड की आर्थिक और सामाजिक प्रगति पर असर
मीरा रोड मुंबई मेट्रो क्षेत्र का एक तेज़ी से उभरता हुआ उपनगर है। यहां की रियल एस्टेट, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की स्थिति लगातार बेहतर हो रही है।
लेकिन लोकल ट्रेन सुविधा न होने के कारण:

  • नौकरीपेशा वर्ग को रोज़ाना मानसिक और शारीरिक थकान का सामना करना पड़ता है।
  • महिलाएं देर शाम नौकरी करने से कतराती हैं, क्योंकि वापसी के समय ट्रेन पकड़ना असंभव हो जाता है।

हमारी माँग
हम, मीरा रोड के नागरिक और करदाता, भारतीय रेलवे से निम्नलिखित माँग करते हैं:

  • मीरा रोड से चर्चगेट के लिए कम-से-कम 5 लोकल ट्रेनें (सुबह और शाम पीक आवर्स में) शुरू की जाएं।
  • प्लेटफॉर्म की कमी का तकनीकी समाधान निकाला जाए, जैसा अन्य स्टेशनों में किया गया है।
  • दिव्यांग, वरिष्ठ नागरिकों, महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष कोच या प्राथमिकता टिकट सुविधा उपलब्ध कराई जाए।
  • लोकल स्तर पर यात्रियों की राय लेकर रेलवे समय सारिणी तैयार की जाए।

निष्कर्ष

मीरा रोड जैसे भीड़भाड़ वाले और जनसंख्या-घनत्व वाले उपनगर से लोकल ट्रेन न चलाना एक योजना संबंधी विफलता है। यह केवल एक परिवहन समस्या नहीं है, बल्कि एक सामाजिक और प्रशासनिक असंतुलन का उदाहरण है।

यदि भारतीय रेलवे वाकई में “जन सेवा” और “जनसंपर्क” की बात करता है, तो मीरा रोड से लोकल ट्रेन शुरू करना उसकी ज़िम्मेदारी बनती है।

अब बहुत हुआ इंतज़ार। हमें ट्रेन चाहिए — मीरा रोड से, हमारे लिए।

यदि आप इस माँग का समर्थन करते हैं, तो इसे साझा करें, अपने स्थानीय जनप्रतिनिधि को लिखें, और रेलवे को सुनवाई के लिए बाध्य करें।

मीरा रोड बोलेगा-
हमें हमारी ट्रेन दो!

 

भारत ने Operation Sindoor अचानक क्यों रोका, इसका रहस्य खुला…

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भारत पाकिस्तान को तबाह करके आतंकवाद के नासूर की स्थायी सर्जरी कर सकता था। बहुत होता तो चीन की मदद से पाकिस्तान भारत के दो-चार और फाइटर जेट गिरा देता लेकिन पाकिस्तान का तो नाम ही दुनिया के मानचित्र से हमेशा के लिए मिट जाता। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भारत का हिस्सा होता। पिछले पांच दशक से आतंकवाद से जूझ रहा भारतीय जनमानस तन-मन-धन से इसके लिए तैयार भी था। भारत जानता था कि ऐसे मौके इतिहास में एकाधबार ही आते हैं। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पता नहीं किस डर से युद्धविराम पर सहमत हो गए। अब दुनिया के सेटेलाइट इमैज के एक्सपर्ट ने एक्स (ट्ववीटर) पर खुलासा किया है कि भारत की ब्रह्मोस मिसाइल पाकिस्तानी सेना के बेस सरगोधा में Kirana Hills पर गिरी थी। जिससे पाकिस्तान के अस्तित्व समाप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया था। मोदी की यह ऐतिहासिक गलती थी, जिसे यह देश कभी माफ़ नहीं करेगा।

Operation Sindoor: एक संभावित निर्णायक कार्रवाई
‘ऑपरेशन सिंदूर’ भारत द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ की गई सीमित सैन्य कार्रवाई थी, के दौरान ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल पाकिस्तान के सरगोधा स्थित किरणा हिल्स (Kirana Hills) में गिराई गई। यह पाकिस्तान के अस्तित्व को सीधी चुनौती देने वाली सैन्य कार्रवाई थी। दरअसल, किराना हिल्स वही जगह है जिसे पाकिस्तान अपनी परमाणु क्षमता के परीक्षण और भंडारण स्थल के रूप में प्रयोग करता रहा है। 1980 के दशक में पाकिस्तान और चीन के सहयोग से यहां भूमिगत परमाणु सुरंगों की पहचान हुई थी। अगर भारत ने इस पर हमला किया, तो यह सामान्य सैन्य कार्रवाई नहीं थी, बल्कि यह एक संकेत था कि भारत अब केवल ‘रणनीतिक धैर्य’ नहीं, बल्कि ‘निर्णायक आक्रामकता’ की ओर बढ़ रहा है।

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ऐसा मौका बार-बार नहीं आता
भारत के पास यह अवसर था कि वह न केवल पाकिस्तान को उसकी हरकतों की कीमत चुकवाए, बल्कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) को भारत में मिलाकर एक ऐतिहासिक लक्ष्य भी प्राप्त करे। देश की जनता, मीडिया, सेना और राजनीतिक नेतृत्व — सभी इस समय एक ही भाव में बंधे हुए थे: अब नहीं तो कभी नहीं। ब्रह्मोस मिसाइल का सरगोधा में गिरना कोई छोटी बात नहीं थी। यह पाकिस्तान के परमाणु अवसंरचना के बिलकुल पास हमला था। अगर भारत ने इसके बाद और मिसाइलें चलाई होतीं, तो पाकिस्तान के रणनीतिक ठिकानों को ध्वस्त किया जा सकता था। भले ही पाकिस्तान चीन की मदद से दो-चार भारतीय फाइटर जेट गिरा देता, लेकिन समग्र युद्ध में भारत की बढ़त स्पष्ट थी।

तो फिर युद्धविराम क्यों?
इतिहास में कई बार युद्ध सिर्फ सैन्य शक्ति से नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय दबाव, कूटनीति और आंतरिक राजनीति के चलते भी रुकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह फैसला कि इस निर्णायक क्षण पर ‘युद्धविराम’ स्वीकार किया जाए, कई सवाल खड़े करता है।

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कुछ संभावित कारण

1. अमेरिका और चीन का दबाव
पाकिस्तान की परमाणु क्षमता के कारण अमेरिका हमेशा ही दक्षिण एशिया में ‘संयम’ की वकालत करता रहा है। भारत द्वारा अगर व्यापक हमले किए जाते, तो पाकिस्तान की ओर से ‘परमाणु हमले’ की धमकी को लेकर अमेरिका हस्तक्षेप कर सकता था। अमेरिका को डर था कि अगर पाकिस्तान की सत्ता ढहती है, तो उसके परमाणु हथियार आतंकवादियों के हाथ में जा सकते हैं।

2. चीन का अप्रत्याशित हस्तक्षेप
चीन, जो पाकिस्तान का रणनीतिक सहयोगी है, भारत के खिलाफ अपने सीमावर्ती इलाकों में सैन्य गतिविधियां बढ़ाकर भारत पर दोतरफा दबाव बना सकता था। डोकलाम और गलवान जैसी घटनाएं पहले से ही इस तनाव की मिसाल हैं।

3. देश की अर्थव्यवस्था और युद्ध की लागत
पूर्ण युद्ध में भारत को भले ही सामरिक जीत मिल जाती, लेकिन इसकी आर्थिक कीमत बहुत अधिक होती। कोरोना महामारी के बाद भारत की आर्थिक स्थिति पूरी तरह सामान्य नहीं हुई थी। लम्बे युद्ध की स्थिति में वैश्विक बाजारों से निवेश हटता, ऊर्जा आपूर्ति बाधित होती और घरेलू महंगाई पर असर पड़ता।

4. राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन
भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जहां हर निर्णय का राजनीतिक मूल्यांकन होता है। हो सकता है कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों ने यह समझा हो कि सीमित सफलता के साथ युद्ध रोकना, पूर्ण युद्ध में उलझने से बेहतर है।

क्या यह एक चूक थी?
सवाल यही है कि क्या यह रणनीतिक संयम था या ऐतिहासिक चूक? देश के कई रणनीतिक विशेषज्ञ और पूर्व सैनिक अधिकारी मानते हैं कि भारत को इस मौके का लाभ उठाना चाहिए था। पाकिस्तान एक विफल राष्ट्र (Failed State) की श्रेणी में है। इसकी अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना और सुरक्षा ढांचा सभी बिखराव की स्थिति में हैं। कई आलोचकों का मानना है कि भारत ने 1971 के बाद पहली बार ऐसा स्पष्ट मौका पाया था जब वह पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई कर सकता था। यदि भारत POK को आज़ाद करा लेता, तो पाकिस्तान को दोबारा भारत विरोधी आतंक का अड्डा बनने में कई दशक लगते।

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ब्रह्मोस मिसाइल और संदेश की ताकत
ब्रह्मोस मिसाइल के प्रयोग ने निश्चित रूप से पाकिस्तान को झकझोर दिया। ब्रह्मोस, भारत और रूस के सहयोग से बनाई गई एक सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल है जो 300 से 800 किलोमीटर तक की दूरी पर लक्ष्य भेद सकती है। इसकी गति, सटीकता और ध्वनि से तेज गति इसे दुश्मनों के लिए बेहद खतरनाक बनाती है। सरगोधा में इसका गिरना कोई चेतावनी नहीं, बल्कि “हम सक्षम हैं और तैयार भी” का स्पष्ट संकेत था। पाकिस्तान को यह समझ आ गया कि भारत अब सिर्फ कूटनीतिक नोट नहीं, बल्कि मिसाइलों के ज़रिए भी संवाद कर सकता है।

आगे का रास्ता: संयम या निर्णायकता?
भले ही Operation Sindoor रुक गया हो, लेकिन इससे भारत की रणनीतिक स्थिति मजबूत हुई है। अब पाकिस्तान जान चुका है कि भारत केवल प्रतिक्रिया देने वाला देश नहीं रहा, बल्कि पहल कर सकने वाला शक्ति-संपन्न राष्ट्र बन चुका है। अब भारत को तय करना है कि क्या हर बार निर्णायक मौके पर युद्धविराम ही उसका अंतिम कदम होगा, या फिर एक दिन वह निर्णायक आघात कर पाकिस्तान के ‘आतंकवाद निर्यातक’ अस्तित्व को खत्म करेगा।

इतिहास ठहरता नहीं
Operation Sindoor भले ही अधूरा रह गया हो, लेकिन इसने भारत की सैन्य क्षमता और रणनीतिक सोच को स्पष्ट कर दिया। यह एक ‘मिस की गई ऐतिहासिक संभावना’ हो सकती है, लेकिन यह भी हो सकता है कि भारत ने जानबूझकर आधे रास्ते पर रुककर अगली बार के लिए एक बड़ी योजना तैयार रखी हो। एक प्रसिद्ध कहावत है — “युद्ध वही जीतता है जो सही समय पर सही निर्णय लेता है।” हो सकता है, अगला सही समय अभी आना बाकी हो।

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क्या कम उम्र और ख़ूबसूरत दिखने का सामाजिक दबाव होता है स्त्रियों पर?

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सुंदर दिखने की इच्छा इंसान में आदिम युग से ही मौजूद रही है। प्रारंभिक मानव समाजों में साथी चुनने के लिए आकर्षक, स्वस्थ और प्रजनन-सक्षम शरीर को प्राथमिकता दी जाती थी। इसलिए सुंदरता को जीवन और वंश की निरंतरता से जोड़ा गया। यह प्रवृत्ति जैविक थी, लेकिन जैसे-जैसे सभ्यताएं विकसित हुईं, सुंदरता का विचार सांस्कृतिक और सामाजिक दबाव में बदल गई, जहां सुंदरता को सम्मान, स्वीकृति और सफलता से जोड़ दिया गया। कालांतर में समाज ने सुंदरता के अपने मानक मसलन गोरा रंग, पतली काया, लंबे बाल आदि तय कर दिए।

इन मानकों ने स्त्रियों पर विशेष रूप से दबाव डाला और सुंदरता को उनकी “मूल्यवत्ता” का आधार बना दिया। आधुनिक दौर में मीडिया और बाज़ारवाद ने इस चाह को और गहरा कर दिया, जिससे सुंदरता अब आत्म-संतोष की नहीं, बल्कि सामाजिक मान्यता पाने की ज़रूरत बन गई है। विज्ञापन, फिल्में और सोशल मीडिया ने तो सुंदरता को व्यापारिक वस्तु बना दिया। अब सुंदर दिखने की इच्छा अक्सर आत्म-संतोष नहीं, बल्कि सामाजिक स्वीकृति, सराहना और सफलता पाने की मजबूरी बन चुकी है। यह चाह अब स्वतंत्र नहीं, बल्कि थोपी हुई है।

दूसरे शब्दों में कहें तो हर इंसान किसी न किसी को इम्प्रेस करना चाहता है। इसलिए आकर्षक और कम उम्र का दिखना चाहता है। लेकिन ख़ूबसूरत, आकर्षक और कम उम्र का दिखने की भी एक सीमा होती है। क्योंकि मानव के पास महज़ 60 या 70 साल या फिर 80 साल का ही जीवन है। जो ज़्यादा फिज़िकली स्वस्थ हैं तो संभव है वह 90 साल तक जी लें। लेकिन व्यवहारिक रूप से अस्सी के बाद के जीवन को जीवन नहीं बल्कि घसीटना कहा जाता है। इस जीवन से दूसरों को असुविधा होती हैं। कुछ लोग इस असुविधा का ज़ाहिर कर देते हैं और कुछ लोग परंपरावश ज़ाहिर नहीं कर पाते है।

इसलिए आप मान लीजिए कि आपको जो कुछ भी करना है उसे इतने साल में कर लीजिए, क्योंकि इसके बाद सांसारिक चीज़ें तो दूर आपका अपना शरीर ही आपका साथ नहीं देने वाला है। यही सच है और यह फ़लसफ़ा हर इंसान को समझ लेना चाहिए। जैसे बचपना के बाद तरुणाती आती है वैसे ही तरुणाई के बाद बुढ़ापा आता है। इसलिए किसी के अंदर सुंदर या कम उम्र का दिखने की सनक नहीं होनी चाहिए। यह सनक अप्राकृतिक है। हर अप्राकृतिक कार्य का लाभ बहुत कम लेकिन नुक़सान बहुत ज़्यादा होता है। अप्राकृतिक कार्य करने वाले का कभी-कभी इतना नुक़सान हो जाता है कि उसकी जान ही चली जाती है।

Shefali-Zariwala-300x300 क्या कम उम्र और ख़ूबसूरत दिखने का सामाजिक दबाव होता है स्त्रियों पर?

‘कांटा लगा’ अभिनेत्री शेफ़ाली ज़रीवाला इसी सनक के चक्कर में जान गंवा बैठीं। अगर कम उम्र की दिखने का उफक्रम न करती तो शायद 70-80 साल जी लेतीं लेकिन कम उम्र की दिखने के लिए अपनाए गए अप्राकृतिक तरीक़ों के कारण दुर्भाग्यवश वह 42 की उम्र में ही इस दुनिया से चल बसीं। उनकी मौत के बाद इस तरह की चर्चा सोशल मीडिया पर ख़ासा चर्चित है, क्योंकि वह एंटी-एजिंग मेडिसीन लेती थीं। प्रारंभिक रिपोर्ट के आधार पर डॉक्टरों का कहना है कि एंटी-एजिंग मेडिसीन के रिएक्शन से ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा। हालांकि इस बारे में विस्तृत रिपोर्ट की प्रतीक्षा की जा रही है।

शेफ़ाली का ग्लैमर, उनकी स्टाइल और आत्मविश्वास ने उन्हें एक पॉप कल्चर आइकन बना दिया। लेकिन वक्त के साथ जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, लोग उन्हें उनके टैलेंट से ज़्यादा उनकी स्किन, उनकी बॉडी और उनके लुक्स से आंकने लगे।
कई इंटरव्यूज़ में शेफाली ने खुद कबूल किया है कि उन्होंने “फेशियल ट्रीटमेंट्स”, “स्किन प्रोसिजर्स” जैसी चीज़ों का सहारा लिया ताकि वे ‘उम्र का असर’ अपने चेहरे पर दिखने न दें। हालांकि वह यह भी कहती हैं कि ये निर्णय उन्होंने अपने लिए लिए, लेकिन क्या यह सच में उनका अपना निर्णय था, या उस अदृश्य सामाजिक दबाव का असर जिससे आज हर उम्रदराज़ महिला जूझ रही है?

सवाल यह है कि क्या आज के बाज़ारवादी दौर में स्त्रियों पर कम उम्र और सुंदर दिखने का वाक़ई सामाजिक दबाव होता है? इन दिनों यह सवाल तेजी से उभर रहा है कि क्या स्त्रियां इसलिए सुंदर दिखना चाहती हैं, क्या स्त्री मान चुकी है कि वह वस्तु हैं, और सुंदर वस्तुओं के ग्राहक अधिक होते हैं? यह प्रश्न केवल सौंदर्य की चाह तक सीमित नहीं है, बल्कि स्त्री की सामाजिक स्थिति, आत्म-अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता और सांस्कृतिक दबावों की गहरी परतों को भी उजागर करता है।

सौंदर्य की अवधारणा में स्त्री की भूमिका
ऐतिहासिक रूप से स्त्रियों को “सज्जा की वस्तु” के रूप में देखा गया है। चाहे वह शाही दरबार हों या आधुनिक फ़िल्मी पर्दा, स्त्री का सौंदर्य ही उसका मूल्य तय करता रहा है। “सुंदर कन्या” होना विवाह के बाज़ार में स्त्री की “बिक्री” की गारंटी समझा जाता है। यह सौंदर्य केवल चेहरे या शरीर तक सीमित नहीं, बल्कि व्यवहार, पहनावे, चाल और आवाज़ तक विस्तारित हो चुका है। जब समाज किसी स्त्री को उसकी क्षमताओं, विचारों या संवेदनशीलता से पहले उसके रूप से आंकने लगता है, तो यह स्वाभाविक हो जाता है कि वह स्वयं को एक वस्तु की तरह सजाने-संवारने लगती है।

मीडिया और सौंदर्य का बाज़ारवाद
विज्ञापन, फ़िल्में, सोशल मीडिया और सौंदर्य उद्योग ने मिलकर स्त्री को एक ‘ब्रांडेड पैकेज’ बना दिया है। उन्हें यह सिखाया जाता है कि “अगर आप सुंदर दिखेंगी, तो आप सफल होंगी, चाही जाएंगी, सराही जाएंगी।” इस सोच ने सौंदर्य को एक उत्पाद बना दिया है और स्त्री को उसका उपभोक्ता भी और प्रदर्शनकर्ता भी। फ़ेयरनेस क्रीम से लेकर स्लिमिंग सेंटर तक और हाई-हील्स से लेकर मेकअप ट्यूटोरियल तक—हर जगह यही सन्देश है: “तुम जैसी हो, वो पर्याप्त नहीं है। तुम्हें और सुंदर बनना होगा।”

क्या यह सौंदर्य की स्वतंत्र चाह है?
यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि हर स्त्री को सुंदर दिखने का अधिकार है। बिल्कुल है। लेकिन जब यह “अधिकार” दरअसल सांस्कृतिक अनिवार्यता बन जाए, तब यह स्वतंत्रता नहीं, बल्कि परोक्ष गुलामी बन जाती है। क्या स्त्रियां सचमुच इस दबाव के बगैर भी सजना चाहती हैं? या वे इसलिए सजती हैं क्योंकि उन्हें बचपन से यही सिखाया गया कि उनकी ‘कीमत’ उनकी सुंदरता में है? यहां यह समझना आवश्यक है कि सौंदर्य की चाह और सौंदर्य की मजबूरी में बारीक फर्क है।

क्या स्त्री का अर्थ वस्तु है?
स्त्रियों को वस्तु की तरह देखे जाने की यह सोच उन्हें केवल समाज की नज़र में नहीं, बल्कि उनके अपने आत्मसम्मान में भी प्रभावित करती है। जब कोई स्त्री यह मान लेती है कि सुंदर दिखना उसकी पहली ज़िम्मेदारी है, तो वह अनजाने में अपने अस्तित्व को एक “प्रोडक्ट” के रूप में देखने लगती है—जिसे रोज़ निखारना, सजाना और प्रस्तुत करना ज़रूरी है। इससे न केवल मानसिक तनाव और असंतोष उत्पन्न होता है, बल्कि कई बार डिप्रेशन, ईटिंग डिसऑर्डर, आत्म-तिरस्कार और आत्महत्या जैसे गंभीर परिणाम भी देखने को मिलते हैं।

सौंदर्य की इच्छा के विरोध में नहीं
यह लेख सौंदर्य की इच्छा के विरोध में नहीं है, बल्कि उस सामाजिक, सांस्कृतिक और बाज़ारवादी दबाव के खिलाफ़ है जिसने स्त्री को सौंदर्य की परिभाषाओं में कैद कर दिया है। जरूरी यह है कि स्त्रियां खुद तय करें कि वे क्यों सज रही हैं, स्वयं के लिए, आत्मसंतोष के लिए, या समाज को प्रसन्न करने के लिए? जब तक यह अंतर स्पष्ट नहीं होगा, तब तक सुंदरता की स्वतंत्रता असल में सौंदर्य की दासता ही बनी रहेगी।

अतं में यही कहना होता कि स्त्रियों की सुंदरता की चाह अगर उनके व्यक्तित्व की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है, तो वह सशक्तिकरण है। लेकिन यदि यह चाह समाज द्वारा गढ़ी गई भूमिकाओं, बाजार के दबावों और स्वीकृति की मजबूरी से उत्पन्न हो, तो यह चिंता का विषय है। समाज को ज़रूरत है इस प्रश्न से मुठभेड़ करने की कि हमारी बेटियां क्या वाकई खुद को मनुष्य नहीं, वस्तु समझने लगी हैं? अगर हां, तो यह समय है उस सोच को बदलने का — कि स्त्री की सबसे बड़ी खूबसूरती उसका चेहरा नहीं, उसका चेतन स्वरूप है।

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सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया — दहेज प्रताड़ित रिधन्या की दर्दनाक दास्तां

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Ridhanya

तमिलनाडु के तिरुपुर जिले से एक दिल दहला देने वाली खबर सामने आई है। एक नवविवाहित युवती, रिधन्या, ने दहेज की मांग और ससुरालवालों की प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली। मरने से पहले उसने अपने पिता के लिए एक मार्मिक संदेश छोड़ा: “सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया।” यह एक ऐसा वाक्य है, जो एक पिता के दिल को जीवन भर चीरता रहेगा।

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रिधन्या कौन थी?
रिधन्या, 23 वर्षीय एक होशियार और आत्मनिर्भर युवती थी। वह तमिलनाडु के तिरुपुर ज़िले के एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती थी। पढ़ाई में तेज़, रिधन्या ने कंप्यूटर साइंस में डिग्री ली थी और हाल ही में एक स्थानीय कपड़ा कंपनी में नौकरी शुरू की थी। उसके माता-पिता, खासकर उसके पिता, उसे हमेशा आत्मनिर्भर और खुश देखना चाहते थे।

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शादी का सपना बुरे सपने में बदला
रिधन्या की शादी कुछ महीनों पहले ही हुई थी। शुरुआत में सब कुछ सामान्य था। परिवार ने रिधन्या की शादी एक संभ्रांत और पढ़े-लिखे युवक से की थी। लेकिन जल्द ही ससुराल के असली चेहरे सामने आने लगे। शादी के कुछ हफ्तों के भीतर ही रिधन्या को दहेज को लेकर ताने मिलने लगे। कभी फ्रिज की मांग, कभी गाड़ी की, तो कभी कैश देने की बात।
उसके पति और सास-ससुर अक्सर उसे ताना देते:
“तुम्हारे पापा ने हमारे लायक दहेज नहीं दिया। हम सोचते थे कि तुम अमीर घर से आई हो।”
रिधन्या चुपचाप सब कुछ सहती रही, शायद इस उम्मीद में कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा।

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अकेलेपन व पीड़ा का गहराता अंधेरा
रिधन्या ने कई बार अपने माता-पिता से फोन पर रोते हुए बात की, लेकिन हर बार कहा, “मैं ठीक हूं पापा, आप चिंता मत करो।” वह अपने माता-पिता को दुखी नहीं करना चाहती थी। मगर भीतर ही भीतर वह टूटती जा रही थी।
उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा था। उसे खाना नहीं दिया जाता, अपशब्द कहे जाते और मारपीट भी होने लगी थी। रिधन्या धीरे-धीरे एक ऐसे अंधेरे में डूब गई जहां से बाहर निकलने की कोई राह नज़र नहीं आ रही थी।

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सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया
एक दिन, जब तकलीफ़ असहनीय हो गई, रिधन्या ने आत्महत्या करने का फैसला कर लिया। उसने एक छोटा सा सुसाइड नोट लिखा: “सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया। मैं अब और नहीं सह सकती। मैंने कोशिश की, बहुत कोशिश की। लेकिन ये लोग मुझे इंसान नहीं समझते। मुझे माफ करना। मुझे आपकी बेटी होने पर गर्व था।” उसके कमरे में वह चिट्ठी मिली, साथ ही एक मौन चीख — जो पूरे समाज के कानों को चीरती है।

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समाज की चुप्पी और व्यवस्था की नाकामी
रिधन्या की मौत अकेले उसकी नहीं थी — यह पूरे समाज की विफलता की मौत थी। क्या एक पढ़ी-लिखी लड़की, जो आत्मनिर्भर थी, उसके लिए भी यह समाज सुरक्षित नहीं है? दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा, जो कानूनन अपराध है, आज भी कितने घरों को निगल रही है। रिधन्या के माता-पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। तिरुपुर पुलिस ने पति और ससुरालवालों के खिलाफ FIR दर्ज की है और मामले की जांच चल रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या रिधन्या को न्याय मिलेगा?

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रिधन्या की मौत से क्या सीखा जाना चाहिए?
• दहेज को ‘परंपरा’ कहना बंद करें
यह सिर्फ एक अपराध है, जो महिलाओं को मौत की ओर धकेलता है।
• लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ आवाज़ उठाना भी सिखाएं
रिधन्या ने शायद डर या समाज के कारण चुप्पी ओढ़ ली थी। हर लड़की को यह समझना होगा कि आवाज़ उठाना कमजोरी नहीं, ताकत है।
• समाज को चुप्पी तोड़नी होगी
पड़ोसी, रिश्तेदार और दोस्त – जब किसी महिला के साथ अन्याय हो रहा हो, तो चुप न रहें।

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रिधन्या की मौत नहीं, आंदोलन बने
रिधन्या आज नहीं है, लेकिन उसकी कहानी उन लाखों लड़कियों की कहानी है, जो दहेज की आग में झुलस रही हैं। यह समय है कि रिधन्या की मौत को एक आंकड़ा न बनने दिया जाए, बल्कि यह एक सामाजिक जागृति का कारण बने। यह एक बेटी की आखिरी पुकार थी, जिसने हमें एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है: कब तक बेटियां यूं ही मिटाई जाती रहेंगी? कब तक समाज दहेज के नाम पर औरतों की ज़िंदगी बर्बाद करता रहेगा? रिधन्या अब नहीं है, लेकिन उसकी कहानी, उसकी पीड़ा और उसका साहस इस समाज को आईना दिखाता है। यदि हम अब भी नहीं जागे, तो शायद अगली बार कोई और बेटी चुपचाप “सॉरी पापा” कहकर हमें हमेशा के लिए छोड़ जाएगी।

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बदनसीब रिधन्या
रिधन्या की मौत सिर्फ एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं है, यह पूरे समाज की अंतरात्मा को झकझोरने वाली घटना है। जब एक शिक्षित, आत्मनिर्भर और संवेदनशील लड़की भी इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था और दहेज के दानव से हार जाती है, तो यह हमारी सामूहिक विफलता बन जाती है। आज ज़रूरत है सिर्फ सहानुभूति जताने की नहीं, बल्कि ठोस बदलाव लाने की —कानून को सख्ती से लागू करने की, बेटियों को चुप्पी के बजाय विरोध की ताक़त देने की, और हर उस परंपरा को नकारने की जो किसी और की ज़िंदगी छीन ले। उसकी कहानी को हम अगर एक बदलाव की शुरुआत बना सकें, तो शायद उसकी दर्दनाक विदाई एक अर्थपूर्ण संदेश बन पाएगी – कि अब कोई और बेटी यूं “सॉरी पापा” कहकर इस दुनिया को अलविदा न कहे।

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भारत ‘विश्वगुरु’ बनने चला था, अब ‘विश्वचेला’ की भी औक़ात नहीं रही…

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भारत के तथाकथित दोस्त डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हो रही हैं उनसे हर भारतीय आहत हो रहा है। इन अमानवीय घटनाओं को कोई कैसे झुठला सकता है। इन घटनाओं पर प्रतिक्रिया न देने, चुप्पी अख़्तियार कर लेने अथवा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने से सच तो बदल नहीं सकता। सच का सामना आज नहीं तो कल करना ही पड़ेगा। आप किसी के भी समर्थक हों, कुछ बातें सीधे दिल पर असर करती हैं। आजकल अमेरिका में भारतीयों ख़ासकर छात्रों के साथ जिस तरह से वहां की सरकार पेश आ रही है, उस पर सरकार को कड़ा रुख अपनाना चाहिए।

भारत और भारतीय लीडरशिप को अब आत्ममुग्धता से उबर जाना चाहिए। आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत ख़तरनाक होती है। आत्ममुग्ध आदमी को अपने कमज़ोरियां नज़र ही नहीं आती। वह तो बस आत्ममुग्ध रह कर आगे बढ़ा चला जाता है। कमोबेश यही हालत भारत की है। कहा जा रहा था कि भारत ‘विश्वगुरु’ बनने जा रहा है, लेकिन प्राकृतिक और मानव संसाधन के मामले में पूरी दुनिया में श्रेष्ठ होने के बावजूद आज देश की औकात ‘विश्वचेला’ बनने की भी नहीं रह गई है। यह अवस्था कैसे आई इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।

इस साल की गर्मियों में जब भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ‘विश्वगुरु भारत’ का सपना दिखा रही थी, तब उसी समय अमेरिका की यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ने वाले हजारों भारतीय छात्र भय, असुरक्षा और मानसिक पीड़ा से गुजर रहे थे। न कोई स्पष्ट नीति, न कोई समर्थन। हर पल छापों का डर, डिपोर्टेशन की आशंका और अपने भविष्य को लेकर गहरी अनिश्चितता। क्या यही है भारत की आधुनिक और सशक्त विदेश नीति?

विदेश नीति या विदेश में मौन नीति?
भारत की विदेश नीति हाल के वर्षों में कई बार आत्ममुग्धता का शिकार होती दिखी है। सरकार अक्सर यह दावा करती रही है कि भारत अब केवल ‘निमंत्रण पर चलने वाला देश’ नहीं रहा, बल्कि ‘प्रभाव डालने वाला वैश्विक शक्ति केंद्र’ बन गया है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही कहती है।

यदि वाकई भारत की विदेश नीति प्रभावी होती, तो अमेरिका में पढ़ने वाले 25,000 से अधिक छात्र भय के माहौल में जीने को मजबूर न होते। वे कक्षा में पासपोर्ट लेकर नहीं जाते। वे अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर डिलीट और एडिट का बटन बार-बार न दबाते। और वे अपने माता-पिता को यह न कहते कि “मुझे वापस मत बुलाओ, वरना दोबारा अमेरिका में एंट्री नहीं मिलेगी।”

डर के साए में जीते भारतीय छात्र
29 जून 2025 को प्रकाशित दैनिक भास्कर की रिपोर्ट ने इस सच्चाई को और स्पष्ट कर दिया। रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की 12 यूनिवर्सिटीज़ को अमेरिकी प्रशासन ने “संदेह के दायरे में” रखा है, जहां पढ़ने वाले अधिकांश भारतीय छात्रों को वीज़ा नियमों के उल्लंघन के शक में हिरासत, पूछताछ और डिपोर्टेशन जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। एक छात्र ने बताया कि उसके माता-पिता ने 50 लाख रुपये का लोन लेकर उसे अमेरिका भेजा था, लेकिन अब वहां उसे हर समय पासपोर्ट साथ रखना पड़ता है। उसे न तो स्थायी नौकरी की गारंटी है, न ही यह विश्वास कि उसका वीज़ा रिन्यू होगा या नहीं।

भारतीय विदेश मंत्रालय की खामोशी
एक और छात्र का अनुभव हैरान करने वाला है — उसने एक बार अमेरिका की नीति पर फेसबुक पर नकारात्मक टिप्पणी की, और अगले ही दिन इमिग्रेशन ऑफिस से उसे नोटिस आ गया। अब वह और उसके जैसे सैकड़ों छात्र सोशल मीडिया पर कोई भी बात लिखने से डरते हैं। इस चुप्पी के बीच भारत का विदेश मंत्रालय कहां है? भारतीय दूतावास की जिम्मेदारी केवल पासपोर्ट रिन्यू करने तक सीमित क्यों रह गई है? क्या सरकार अपने नागरिकों को केवल तब तक पहचानती है, जब तक वे टैक्स भरते हैं या वोट डालते हैं?

‘विश्वगुरु’ का खोखला सपना
भारत की मौजूदा विदेश नीति बार-बार इस बात पर ज़ोर देती है कि भारत एक सॉफ्ट पावर है, और अब ‘विश्वगुरु’ बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन क्या किसी विश्वगुरु का पहला धर्म अपने विद्यार्थियों की रक्षा नहीं होना चाहिए? एक गुरु वह होता है जो अपने शिष्य को ज्ञान के साथ-साथ सुरक्षा और आत्मसम्मान भी प्रदान करे। लेकिन जब भारतीय छात्र विदेशी ज़मीन पर केवल “संदिग्ध” बनकर रह जाएं, तो ‘गुरु’ शब्द का अर्थ ही खोखला हो जाता है।

कूटनीति या दिखावटी दौरे?
भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री लगातार दुनिया के दौरे करते हैं — ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, यूरोप, अरब देश — लेकिन इन दौरों का वास्तविक लाभ भारतीय नागरिकों को कितना मिल रहा है? क्या इन दौरों में केवल व्यापारिक समझौते होते हैं? क्या शिक्षा, छात्र सुरक्षा, और प्रवासी समस्याएं कभी प्राथमिक एजेंडा बनती हैं?

क्या भारत के पास विकल्प नहीं हैं?
भारत जैसे देश के पास विकल्प हैं — लेकिन उन्हें अपनाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए:

अमेरिका से कड़ा संवाद: भारत को अमेरिकी प्रशासन से स्पष्ट कहना चाहिए कि भारतीय छात्रों को सुरक्षा देना केवल यूनिवर्सिटी की नहीं, बल्कि सरकार की भी जिम्मेदारी है।

मानवाधिकार मुद्दा बनाना: जिस तरह पश्चिमी देश भारत के मानवाधिकार पर टिप्पणी करते हैं, भारत को भी प्रवासी छात्रों के अधिकारों के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए।

शिक्षा समझौते का पुनर्मूल्यांकन: भारत को अमेरिका के साथ शिक्षा संबंधों की समीक्षा करनी चाहिए — चाहे वह यूनिवर्सिटी रैंकिंग की मान्यता हो या स्टूडेंट वीज़ा प्रोटोकॉल।

वैकल्पिक गंतव्य विकसित करना: भारत को अपने छात्रों के लिए अन्य देशों में बेहतर विकल्प खोलने चाहिए, जैसे जापान, फ्रांस, नीदरलैंड, कनाडा आदि, जहां पढ़ाई के साथ सुरक्षा और स्थिरता भी सुनिश्चित हो।

घरेलू शिक्षा का उन्नयन: अगर भारत की यूनिवर्सिटीज़ वैश्विक स्तर की हों, तो छात्र विदेश जाने के लिए लोन में नहीं डूबेंगे।

आत्मनिरीक्षण की ज़रूरत
‘विश्वगुरु’ बनने का सपना तब तक अधूरा है, जब तक भारत अपने ही युवाओं को विदेश में मानसिक पीड़ा और अपमान से नहीं बचा सकता। इस लेख का उद्देश्य नकारात्मकता फैलाना नहीं, बल्कि एक रचनात्मक आलोचना प्रस्तुत करना है। सरकार को यह समझना होगा कि राष्ट्रवाद केवल नारों से नहीं चलता, बल्कि अपने नागरिकों की गरिमा की रक्षा करने से बनता है — चाहे वह नागरिक दिल्ली में हो, या न्यूयॉर्क की किसी यूनिवर्सिटी में।

भारतीय विदेश नीति को अब केवल वंदन और सौजन्य से ऊपर उठना होगा। जिस देश का युवा डरा हुआ हो, उसकी नीति मजबूत नहीं कहलाती। आज ज़रूरत है उस कूटनीतिक साहस की, जो अमेरिका जैसे देश से भी सवाल कर सके: “क्या आप हमारे छात्रों को केवल डॉलर की मशीन समझते हैं, या इंसान भी मानते हैं?” भारत तभी सच्चा ‘विश्वगुरु’ बन सकेगा, जब वह अपने प्रत्येक नागरिक — चाहे वह देश में हो या विदेश में — की गरिमा, सुरक्षा और न्याय के लिए खड़ा हो।

शाबाश ईरान! अमेरिका को सीधे हमले से दिया जवाब

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एक लंबे तनावपूर्ण इंतजार के बाद ईरान ने आखिरकार अमेरिका को सैन्य मोर्चे पर चुनौती दे दी है। हालिया हमले में ईरान ने अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाते हुए यह साफ कर दिया कि वह अब सिर्फ चेतावनियों तक सीमित नहीं रहेगा। यह हमला न केवल सैन्य कार्रवाई है, बल्कि विश्व मंच पर ईरान के बदले हुए रवैये की स्पष्ट घोषणा भी है।

ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा कि “स्वाभिमान भी कोई चीज़ होती है। कोई अमर होकर नहीं आया है। जब तक जिएंगे, शान से सिर उठाकर जिएंगे।” उनके इस बयान को जनता और सेना दोनों से भारी समर्थन मिला है। खामेनेई के इस साहसी रुख ने एक बार फिर यह दर्शा दिया कि ईरान अब अपनी रणनीति और नेतृत्व को विश्व राजनीति के केंद्र में स्थापित करना चाहता है।

विशेषज्ञों के अनुसार, इस हमले के बाद अमेरिका के लिए सैन्य जवाबी कार्रवाई आसान नहीं होगी क्योंकि अब रूस और चीन, दोनों शक्तिशाली देश, ईरान के साथ खड़े हैं। रूस पहले ही ईरान को समर्थन दे चुका है, जबकि चीन ने भी संकेत दिए हैं कि वह पश्चिम एशिया में ‘संतुलन बनाए रखने’ के लिए हस्तक्षेप कर सकता है। ऐसे में यह संघर्ष किसी सीमित युद्ध के बजाय वैश्विक टकराव का रूप भी ले सकता है।

इस घटनाक्रम ने भारत में भी बहस छेड़ दी है। कई विश्लेषकों और आम नागरिकों ने ईरान और इज़राइल जैसे देशों के नेतृत्व की तुलना भारत की लीडरशिप से करते हुए सवाल उठाए हैं कि क्या भारत के नेता भी कभी ऐसा साहस दिखा सकते हैं। आलोचकों का कहना है कि भारत में ‘लीडरशिप’ के बजाय ‘डीलरशिप’ का बोलबाला है, जहां हर नीति, हर कूटनीति और हर रणनीति केवल व्यापारिक सौदों के आधार पर तय होती है।

भारत में सोशल मीडिया पर इस वक्त ‘अयातुल्ला खामेनेई’ और ‘नेतन्याहू’ जैसे नेताओं की चर्चा जोरों पर है। लोग पूछ रहे हैं कि क्या भारतीय नेतृत्व के पास भी वैसा ही आत्मसम्मान और स्पष्ट रुख है, जैसा इन देशों के पास है?

ईरान के इस हमले ने वैश्विक स्तर पर नए समीकरण खड़े कर दिए हैं। अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिमी गठबंधन पर इसका क्या असर होगा, यह आने वाला समय बताएगा, लेकिन एक बात निश्चित है — अब ईरान को वैश्विक मंच पर नजरअंदाज करना नामुमकिन होगा।

ईरान ने दुनिया को बता दिया कि चुप बैठने का नहीं, बल्कि सिर उठाकर खड़े होने का वक्त

ईरान ने कतर के दोहा में मौजूद अमेरिकी बेस पर सोमवार रात मिसाइल हमले किए। इजरायली अधिकारियों ने दावा किया कि ईरान की ओर से 6 मिसाइलें दागी गई। कतर के अल उबेद बेस पर ईरान ने हमला किया। हालांकि, कतर का दावा है कि अमेरिकी सैन्य अड्डे पर हुए हमले में किसी हताहत होने की खबर नहीं है। ईरान के पलटवार के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सिचुएशन रूम में हाईलेवल मीटिंग बुलाई। अमेरिकी रक्षा मंत्री के साथ ट्रंप बैठक कर रहे हैं। जानकारी के मुताबिक, ईरान के हमले में अब तक किसी के हताहत होने की खबर नहीं हैं।

रविवार सुबह अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकाने, नितांज, इस्फ्हान और फोर्डो पर हमले किए थे। इस हमले के बाद ईरान ने अमेरिका को बुरे परिणाम भुगतने की चेतावनी दी थी। अमेरिकी की कार्रवाई के बाद यूएस की सेना अलर्ट मोड पर है। ईरान ने साफ तौर पर कहा है कि अमेरिका ने युद्ध को अपराध किया है, जिसकी कीमत उसे भुगतनी होगी। वहीं, राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान को चेतावनी दी थी कि अगर ईरान ने अमेरिका पर हमला किया तो अमेरिकी सेना इस करारा जवाब देगी।

प्राचीनकाल की हाथीदांत की स्त्री की मूर्ति

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1938 में, पोम्पेई में हुई खुदाई के दौरान एक छोटी सी, बारीकी से तराशी गई हाथीदांत की मूर्ति मिली, जो भारतीय मूल की थी। यह प्राचीन नगर 79 ईस्वी में माउंट वेसुवियस के विस्फोट के बाद राख और पुमिस पत्थर में दब गया था, और तब से ही यह पुरातत्वविदों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा है। यह खोज प्राचीन सभ्यताओं के बीच सांस्कृतिक संपर्क को और भी प्रमाणित करती है। यह मूर्ति एक समृद्ध पोम्पेईवासी के घर में मिली थी और इसे प्रथम शताब्दी ईस्वी की माना गया है, जो रोमन नगरों में विलासिता की वस्तुओं की उच्च मांग को दर्शाती है।

यह मूर्ति तीन स्त्री आकृतियों को एक चबूतरे पर खड़ा दर्शाती है। बीच में स्थित प्रमुख स्त्री आकृति भारी हार, चूड़ियाँ, पायजेब और गहनों से सजे कमरबंध से अलंकृत है। वह एक सौंदर्यपूर्ण मुद्रा में खड़ी है — उसका बायाँ पैर दाएँ पर रखा है, सिर हल्का मुड़ा हुआ है और चेहरा मुस्कान भरी भंगिमा लिए हुए है। बाएँ हाथ में वह कोई अज्ञात वस्तु थामे है, जबकि दायाँ हाथ सिर के पीछे उसकी गूंथी हुई चोटी को स्पर्श कर रहा है। उसका सिर पर बंधा हुआ आभूषण बाईं ओर एक नुकीली आकृति में फैला हुआ है।

मुख्य आकृति के दोनों ओर दो छोटी परिचारिकाएं हैं, जो आकार में उससे आधी हैं। उनके गहने जैसे कि चूड़ियाँ और कंगन समान हैं, और वे भी कुछ अज्ञात वस्तुएँ थामे हुए हैं, जिन्हें कुछ विद्वान सौंदर्य प्रसाधन या आभूषण मानते हैं। एक ही हाथीदांत के टुकड़े से बनाई गई इन आकृतियों की नक्काशी अद्भुत संतुलन और सौंदर्य का परिचय देती है, जहाँ छोटी परिचारिकाएं प्रमुख आकृति की सौंदर्यपूर्ण रचना को और निखारती हैं।

मूर्ति की कई विशेषताएँ उत्सुकता जगाती हैं। मुख्य आकृति के सिर के ऊपर से लेकर नाभि तक एक छेद है, और चबूतरे के नीचे एक प्रतीक चिह्न उकेरा गया है, जिसे कलाकार की निशानी माना जा सकता है। चौंकाने वाली बात यह है कि मूर्ति का ऊपरी भाग अधूरा छोड़ा गया है — जबकि बाकी हिस्से में अत्यंत सूक्ष्म विवरण तराशे गए हैं।

प्रारंभ में, मूर्ति को खोजने वाले विद्वान अमादेओ मायूरी और कला इतिहासकार मिरेला लेवी डि’अंकोना जैसे विशेषज्ञों ने इसे किसी देवी की मूर्ति माना, और कुछ ने तो इसे हिंदू देवी लक्ष्मी के रूप में पहचाना। लेकिन बाद में जब इसकी प्रतिकात्मकता और शैली का गहराई से अध्ययन किया गया, तो इसे यक्षी — भारत के प्रारंभिक बौद्ध स्थलों जैसे भरहुत और साँची में मिलने वाली उर्वरता की स्त्री आकृतियों — से जोड़ा गया। इनकी मुद्रा, गहनों, फूलों की लदी हुई चोटी और सांस्कृतिक प्रतीकों में अद्भुत समानता पाई गई, जो सौभाग्य और सुरक्षा का प्रतीक मानी जाती हैं।

हालाँकि यक्षियों से समानता इस बात को दर्शाती है कि ऐसी आकृतियाँ भारतीय कला में लोकप्रिय थीं, पर यह ध्यान देना आवश्यक है कि पोम्पेई के एक समृद्ध रोमन घर में इस मूर्ति की उपस्थिति इस बात का संकेत है कि इसे धार्मिक नहीं, बल्कि एक विलासिता की वस्तु के रूप में सराहा गया। रोमन साम्राज्य में हाथीदांत अत्यंत मूल्यवान था, और लेखक प्लिनी ने भी उल्लेख किया है कि हाथीदांत की वस्तुएँ पूरे साम्राज्य में लक्ज़री बाज़ारों में लोकप्रिय थीं।

यह सुंदर मूर्ति अब इटली के नेपल्स स्थित म्यूज़ियो नैज़ियोनाले में संरक्षित है, और यह भारत और रोम की प्राचीन सभ्यताओं के बीच समृद्ध सांस्कृतिक आदान-प्रदान की एक झलक प्रस्तुत करती है।

म्यूज़ियो नैज़ियोनाले, नेपल्स, इटली

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जॉर्ज सोरोस को मुसलमानों की अधिक पीड़ा है तो उन्हें हंगरी या अमेरिका की नागरिकता दिला दें…

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पश्चिमी देश अक्सर भारत को मानवाधिकार, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और शरणार्थियों के प्रति सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते रहते हैं। लेकिन क्या वही देश स्वयं इन आदर्शों का पालन करते हैं? क्या जिन्होंने अपनी सीमाओं पर दीवारें खड़ी कर दी हैं, वे भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र से उम्मीद कर सकते हैं कि वह हर प्रवासी को गले लगाए? यह लेख जॉर्ज सोरोस और पश्चिमी देशों की कथनी और करनी के बीच के अंतर को उजागर करता है।

1. जॉर्ज सोरोस कौन हैं और उन्होंने भारत पर क्या कहा?
जॉर्ज सोरोस, अमेरिकी अरबपति निवेशक और ओपन सोसाइटी फाउंडेशन के संस्थापक हैं। वे 1930 में हंगरी में जन्मे थे और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका जाकर बस गए।

2020 और 2023 में उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत की नीतियों की आलोचना करते हुए कहा:
-भारत में लोकतंत्र खतरे में है।
-मोदी मुसलमानों को नागरिकता से वंचित कर रहे हैं।
-भारत एक हिंदू राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ रहा है।

सोरोस ने CAA और NRC को लेकर आशंका जताई कि ये नीतियाँ मुसलमानों के खिलाफ हैं और लाखों मुसलमान नागरिकता खो सकते हैं।

2. क्या भारत ने किसी मुसलमान की नागरिकता छीनी है?
नहीं। अब तक भारत सरकार ने किसी एक भी मुसलमान की नागरिकता CAA या NRC के तहत छीनी नहीं है। असम NRC में कुछ लोगों को “डाउटफुल वोटर” जरूर माना गया, लेकिन उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का पूरा संवैधानिक अवसर मिला।

वास्तविकता यह है:
CAA केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देता है।
किसी भारतीय मुसलमान की नागरिकता को इससे कोई खतरा नहीं है।

3. हंगरी का दोहरा चरित्र:
क्या सोरोस अपने देश से यही अपेक्षा करते हैं?
जॉर्ज सोरोस का जन्मस्थान हंगरी है। वहाँ की सरकार, विशेषकर प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन, यूरोप में अप्रवासी-विरोध की प्रतीक बन चुकी है।

हंगरी की कठोर नीतियाँ:
2015 में सीरियाई शरणार्थी संकट के दौरान हंगरी ने अपनी सीमाओं पर कंटीले तारों की बाड़ लगा दी।
मुस्लिम प्रवासियों के विरुद्ध खुलेआम बयान: “हम हंगरी में मुस्लिम प्रवासियों को नहीं चाहते… हम एक क्रिश्चियन राष्ट्र हैं।”
2018 में “Stop Soros Law” लागू किया गया, जिससे अप्रवासी समर्थक संगठनों पर पाबंदी लगा दी गई।

सवाल: क्या जॉर्ज सोरोस ने हंगरी को भी कहा कि वह लाखों मुस्लिम अप्रवासियों को नागरिकता दे?

4. अमेरिका की हकीकत:
क्या उसने मुस्लिम अप्रवासियों को अपनाया?
जॉर्ज सोरोस अब अमेरिका के नागरिक हैं। लेकिन अमेरिका का ट्रैक रिकॉर्ड भी काफी विरोधाभासी है:

डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में मुस्लिम बैन लगाया गया — कई मुस्लिम देशों के नागरिकों को वीज़ा देने से इनकार कर दिया गया।
मेक्सिको सीमा पर दीवार बनवाने की घोषणा, और प्रवासियों के बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करना जैसी नीतियाँ अपनाई गईं।
नतीजा: अमेरिका और हंगरी दोनों ने दुनिया के सामने दरवाजे बंद किए, लेकिन भारत को कहते हैं कि वो हर किसी को अंदर आने दे।

5. भारत की नीति:
संतुलन और संप्रभुता का अधिकार
भारत ने हमेशा शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे हैं:
1947 में लाखों पाकिस्तानी शरणार्थियों को स्वीकारा।
तिब्बती, श्रीलंकाई तमिल, बांग्लादेशी हिंदू, अफगानी सिख — सभी को भारत ने आश्रय दिया।
लेकिन हर राष्ट्र की तरह भारत को भी यह अधिकार है कि वह तय करे कि किसे नागरिकता दी जाए और किसे नहीं। इसे अंतरराष्ट्रीय कानून भी मान्यता देता है।

जिन्होंने अपने दरवाजे बंद कर दिए, वे भारत से दरवाजे खोलने की अपेक्षा कर रहे हैं। यह दोहरा मापदंड नहीं तो और क्या है? भारत को लोकतांत्रिक, संवैधानिक और मानवतावादी आदर्शों का पालन करते हुए अपने राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा को सर्वोपरि रखने का पूरा अधिकार है। जिन्होंने दीवारें खड़ी कीं, वे हमें दरवाजे खोलने को कहें — इससे बड़ा पाखंड और कुछ नहीं।

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इजरायल के साथ युद्ध के बीच ईरान ने किया न्यूक्लियर टेस्ट, तेहरान में 5.5 का भूकंप महसूस किया गया

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इजरायल के साथ जारी जंग के बीच ही ईरान ने परमाणु परीक्षण कर लिया। इस परीक्षण की वजह से शुक्रवार की रात ईरान में रिक्टर स्केल पर 5.1 का भूकंप महसूस किया गया है। इस भूकंप के बाद कहा जा रहा है कि इजरायल और अमेरिका की लाख कोशिश के बावजूद ईरान ने अंततः परमाणु परीक्षण कर डाला है। हालांकि तेहरान ने अभी इसकी पुष्टि नहीं की है, इसलिए कई लोग कह रहे हैं कि यह भूकंप इजरायल के हमले के कारण हुआ है, इसकी भी पुष्टि नहीं की गई है। वेसे इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्‍याहू ने ईरान के परमाणु ठिकानों को खत्‍म करने की कसम खाई है।

यह भूकंप 20 जून को स्थानीय समयानुसार रात 9:19 बजे महसूस किया गया। यूरोपियन-मेडिटेरियन सेस्‍मोलॉजिकल सेंटर (ईएमएससी) के अनुसार ईरान में आया यह भूकंप सेमनान से 35 किलोमीटर नीचे था। भूकंप इतना तेजा था कि इसके झटके उत्‍तरी ईरान के कई भागों में महसूस किया गए। हालांकि इसकी वजह से किसी के भी घायल होने या किसी बड़े विनाश की कोई पुष्टि नहीं हुई है। भूकंप ऐसे समय में आया है जब ईरान-इजरायल के साथ संघर्ष बढ़ता जा रहा है।

इजरायल-ईरान के बीच लड़ाई के कारण भूकंप क्षेत्र के करीब के इलाकों समेत कई क्षेत्रों में ईरान की मिलिट्री यूनिट्स को भी तैनात कर दिया गया है। भूकंप की जानकारी आते ही सोशल मीडिया पर परमाणु परीक्षण ट्रेंड करने लगा। लोग अपने अनुसार कयास लगा रहे हैं। कुछ लोगों ने कहा कि अगर परमाणु परीक्षण की बात सही है तो फिर अब अमेरिका भी देश में घुसने से घबराएगा।

दरअसल, ईरान का सेमनान प्रांत वह जगह है जहां पर उसका मिसाइल कॉम्प्लेक्स और मिसाइल सेंटर है। https://www.nti.org/ वेबसाइट की रिपोर्ट पर अगर यकीन करें तो सेमनान मिसाइल कॉम्प्लेक्स में एक बैलिस्टिक मिसाइल टेस्‍ट रेंज और मैन्‍युफैक्‍चरिंग फैसिलिटी मौजूद है। ऐसा माना जाता है कि इसे बनाने में चीन ने ईरान को हर जरूरी मदद मुहैया कराई है।

सन् 1987 में ईरान ने सेमनान में ओगहाब अनगाइडेड आर्टिलरी रॉकेट को बनाना शुरू किया था. उसका लक्ष्‍य तब से ही हर साल 600 से 1,000 ऐसे रॉकेट बनाना था। इस प्‍लांट में सॉलिड फ्यूल वाले आर्टिलरी रॉकेट नाजेट, शाहब- एक मिसाइलों का भी प्रोडक्‍शन होता है। वेबसाइट का अनुमान है कि जेलजेल रॉकेट को भी शायद यहीं बनाया गया था. वहीं ईरान का स्‍पेस सेंटर और इससे जुड़ी लॉन्चिंग फैसिलिटीज भी सेमनान प्रांत में ही हैं।

इजरायली मीडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार यह सूचना मिली है कि ईरान के वैज्ञानिकों ने परमाणु हथियार की डिजाइन की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है। इजरायल ने तब कहा था कि अगर यह सच है तो फिर ईरान परमाणु बम बनाने से बस कुछ ही कदम दूर है। इससे पहले ईरान ने शुक्रवार को साफ कर दिया है कि वह इजरायल की तरफ से जारी हमलों के दौरान अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर कोई भी बात नहीं करेगा। यूरोप की तरफ से ईरान को परमाणु वार्ता की तरफ वापस लाने की कोशिशें की जा रही हैं. ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराक्ची ने कहा कि ‘जब तक इजरायल की आक्रामकता बंद नहीं होगी तब तक बातचीत की कोई गुंजाइश नहीं है।’

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