इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष का एक मानवीय और व्यावहारिक समाधान
हरिगोविंद विश्वकर्मा
मध्य-पूर्व एशिया में जारी इज़राइल-फ़िलिस्तीन संघर्ष अब केवल राजनीतिक विवाद नहीं रहा; यह मानवीय पीड़ा का प्रतीक बन गया है। ग़ाज़ा पट्टी में बसे लगभग 21 लाख फ़िलिस्तीनी लगातार युद्ध, मौत, भूख और असुरक्षा के बीच जी रहे हैं। दूसरी ओर, पूरी दुनिया में 58 इस्लामी देश हैं, जिनके पास अपार भूमि और बेशुमार संसाधन है। ऐसे में मन में सीधा प्रश्न उठता है, क्या ये सभी देश मिलकर फ़िलिस्तीन के 21 लाख लोगों को अपने देश में शरण सम्मानजनक और सिटीजनशिप जीवन नहीं दे सकते?
वैसे भी इस्लाम धर्म केवल उपासना का नहीं, बल्कि मानवता और विश्व-बंधुत्व का संदेश देने वाला धर्म है। क़ुरआन कहता है, सभी मोमिन आपस में भाई-भाई हैं। यानी इस्लाम देशों की सीमाओं से परे भी एक ऐसे वैश्विक भाईचारे की बात करता है जिसमें हर मुसलमान दूसरे का सहारा है। और, पैगंबर मोहम्मद ने कहा है: “मुसलमान एक शरीर की तरह हैं, अगर उसका एक हिस्सा पीड़ा में है, तो पूरा शरीर उसे महसूस करता है।” लेकिन इस्लामी जगत के इस सिद्धांत की सबसे कठिन परीक्षा आज ग़ाज़ा पट्टी में हो रही है। लिहाज़ा, सभी मुस्लिम देश मिलकर फ़िलिस्तीनी लोगों को जीवन, सुरक्षा और भविष्य प्रदान करें और पूरी दुनिया के सामने अनोखा मानवीय उदाहरण पेश करें?
ग़ाज़ा की भूमि पहले किसकी थी?
फ़िलिस्तीन कहलाने वाले इस क्षेत्र का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। लगभग 1000 ईसा पूर्व में यह भूमि राजा दाऊद और सुलेमान के यहूदी शासन के अधीन थी। यरूशलेम (Jerusalem) तब भी यहूदियों का धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र था, जहां उनका ‘प्रथम मंदिर’ (First Temple) स्थित था। 586 ईसा पूर्व में बाबिल साम्राज्य ने यहूदियों को पराजित किया, परंतु वे इस भूमि से कभी पूर्णतः नहीं हटे। बाद में यूनानी, रोमन और बाइज़ेंटाइन साम्राज्यों का दौर आया। इस्लाम का उदय सातवीं सदी ईस्वी में हुआ, जब अरब सेनाओं ने इस इलाके को अपने नियंत्रण में लिया। अर्थात यह भूमि इस्लाम से लगभग 1600 वर्ष पहले यहूदी उपस्थिति के अधीन थी। यह तथ्य ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित करता है कि इज़राइल और यहूदी समाज का इस क्षेत्र से जुड़ाव केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भी है।
वर्तमान वास्तविकता – ग़ाज़ा की त्रासदी
आज ग़ाज़ा का क्षेत्रफल केवल 365 वर्ग किलोमीटर है। यानी दिल्ली के आकार से भी छोटा। यहां लगभग 21 लाख लोग रहते हैं, जिनमें 99 फ़ीसदी मुस्लिम हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार यहां बेरोज़गारी दर लगभग 45 फ़ीसदी है, पीने योग्य जल केवल 10 फ़ीसदी आबादी को उपलब्ध, और बिजली आपूर्ति प्रतिदिन कुछ घंटों तक सीमित है। युद्धों और नाकेबंदी के बीच ग़ाज़ा की पीढ़ियाँ गरीबी, भय और अस्थिरता में पली-बढ़ी हैं। हर नई हिंसा उन बच्चों के भविष्य को और भी धुंधला कर देती है।
58 इस्लामी देशों की सामूहिक क्षमता
इस्लामी सहयोग संगठन (OIC) के तहत 57 देश हैं, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम बहुल राष्ट्र हैं। इनमें इंडोनेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, तुर्की, ईरान, मिस्र जैसे बड़े देश हैं, और कतर, यूएई, मलेशिया, मोरक्को जैसे समृद्ध राष्ट्र भी। अगर ये सभी देश अपने आकार और संसाधन के अनुसार थोड़े-थोड़े लोगों को बसाने का निर्णय लें, तो पूरा संकट समाप्त हो सकता है।
पुनर्वास का एक व्यवहारिक मॉडल
एक “मानवीय पुनर्वास योजना” (Humanitarian Relocation Model) इस प्रकार काम कर सकती है:
बड़े देश – (इंडोनेशिया, पाकिस्तान, सऊदी अरब, ईरान, मिस्र आदि): प्रत्येक 1 लाख फ़िलिस्तीनी को नागरिकता दें।
मध्यम देश – (कतर, यूएई, तुर्की, मलेशिया, मोरक्को आदि): प्रत्येक 50 हजार लोगों को बसाएं।
छोटे देश – (बहरीन, मालदीव, ट्यूनीशिया आदि): प्रत्येक 25 हजार लोगों को शरण दें।
इस तरह 58 इस्लामी देश मिलकर सिर्फ़ 21 लाख लोगों को जीवन, सम्मान और भविष्य दे सकते हैं। बिना युद्ध, बिना सीमा विवाद और बिना किसी अंतरराष्ट्रीय टकराव के।
मानवीय दृष्टि से सबसे बड़ा कदम
क़ुरआन में कहा गया है, “जिसने एक निर्दोष का जीवन बचाया, उसने पूरी मानवता को बचाया।”  यदि इस्लामी जगत इस विचार को कर्म में बदले, तो यह विश्व के सामने सबसे बड़ा मानवीय उदाहरण बन सकता है। यह कदम न केवल ग़ाज़ा की त्रासदी को समाप्त करेगा, बल्कि यह भी सिद्ध करेगा कि इस्लाम केवल संघर्ष का नहीं, बल्कि करुणा और पुनर्निर्माण का धर्म है।
अरब राजनीति और व्यावहारिकता
सच्चाई यह है कि अरब देशों ने दशकों तक फ़िलिस्तीन प्रश्न को राजनीतिक औज़ार बनाकर रखा। उन्होंने फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों को स्थायी नागरिकता नहीं दी, ताकि इज़राइल पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बना रहे। परंतु इस नीति का सबसे बड़ा शिकार वही लोग बने, जिनके नाम पर यह संघर्ष लड़ा जा रहा था। अब समय है कि यह स्थिति बदले। यदि OIC के देश संयुक्त रूप से पुनर्वास का प्रस्ताव लाएँ, तो यह इज़राइल-फ़िलिस्तीन विवाद को नई दिशा देगा, और अरब दुनिया को “शांति-निर्माता” के रूप में पुनर्स्थापित करेगा।
आर्थिक दृष्टि से पूर्णतः संभव
अगर प्रति व्यक्ति पुनर्वास लागत (आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) औसतन 10,000 डॉलर मानी जाए, तो 21 लाख लोगों के लिए कुल खर्च लगभग 210 अरब डॉलर होगा।  OIC देशों की सम्मिलित GDP 10 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है। यानी यह परियोजना उनके आर्थिक ढाँचे का केवल 2 फ़ीसदी हिस्सा है। यह न तो कठिन है, न असंभव, बस राजनैतिक इच्छाशक्ति चाहिए।
यहूदियों और मुसलमानों दोनों के लिए सबक
1948 में यहूदियों ने भी विस्थापन और असुरक्षा झेली थी, लेकिन उन्होंने पुनर्निर्माण कर एक समृद्ध राष्ट्र बनाया। यदि इस्लामी देश भी ग़ाज़ा के लोगों को स्थायी बसाहट दें, तो यह “मानवता के पुनर्निर्माण” की मिसाल बन जाएगा। धर्म को संघर्ष का नहीं, सहयोग का माध्यम बनाने का यही वास्तविक रूप होगा।
सीमाएं नहीं, करुणा बांटिए
आज इज़राइल के रूप में धरती पर एकमात्र यहूदी देश है। इसके मुकाबले इस्लामी दुनिया के पास 58 राष्ट्र, 180 करोड़ जनसंख्या और अपार संपदा है। फिर भी 21 लाख फ़िलिस्तीनी भूख, भय और युद्ध में जीने को विवश हैं। अगर ये सभी देश थोड़े-थोड़े लोगों को अपनाएँ, तो न केवल एक त्रासदी का अंत होगा, बल्कि यह विश्व को बताएगा कि “जब राजनीति असफल होती है, तब मानवता रास्ता दिखाती है।”
लेखक की टिप्पणी
यह प्रस्ताव किसी राजनीतिक पक्ष का समर्थन नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण का सुझाव है। फ़िलिस्तीनी जनता की पीड़ा का स्थायी समाधान केवल युद्धविराम से नहीं, बल्कि पुनर्वास और पुनर्निर्माण से संभव है। यदि इस्लामी दुनिया यह पहल करे, तो यह न केवल ग़ाज़ा के बच्चों के लिए उम्मीद बनेगी, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक नया इतिहास भी बनेगा।
		
		











