भारतीय राजनीति में अचानक होने वाले इस्तीफे हमेशा चर्चाओं का केंद्र रहे हैं, खासकर जब बात शीर्ष संवैधानिक पदों की हो। हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे ने पूरे राजनीतिक माहौल में हलचल मचा दी है। न कोई औपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस, न कोई विस्तृत कारण, बस एक संक्षिप्त सूचना—जिसमें उन्होंने “व्यक्तिगत कारणों” का हवाला दिया। लेकिन राजनीतिक हलकों में यह सवाल अब गूंज रहा है: क्या वे खुद हटे या हटाए गए? क्या उनके हालिया बयानों, विशेषकर किसान आंदोलन और न्यायपालिका को लेकर की गई तल्ख टिप्पणियों ने उनकी कुर्सी छीन ली?
धनखड़ का राजनीतिक सफर: एक पृष्ठभूमि
जगदीप धनखड़ का नाम एक सजग, स्पष्टवादी और मुखर नेता के रूप में लिया जाता रहा है। वकालत से राजनीति में आए धनखड़ ने जनता दल और फिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ अपना राजनीतिक करियर मजबूत किया। वे राजस्थान से सांसद, केंद्रीय मंत्री, और फिर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जैसे पदों पर रहे। राज्यपाल रहते हुए उन्होंने पश्चिम बंगाल की ममता सरकार से टकराव के कई चर्चित किस्से गढ़े। इसके बाद वे 2022 में उपराष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के उम्मीदवार बने और निर्वाचित हुए।
तल्ख टिप्पणियों से बनी अनबन की पृष्ठभूमि
हाल के महीनों में उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सार्वजनिक मंचों से कई विवादास्पद और तीखे बयान दिए। विशेषकर न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल, किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये पर अप्रत्यक्ष आलोचना, और संविधान की व्याख्या को लेकर उनकी कुछ टिप्पणियों ने सत्ता पक्ष के भीतर भी असहजता पैदा कर दी।
1. न्यायपालिका पर टिप्पणी:
धनखड़ ने एक विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में कहा था कि “न्यायपालिका को संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की पुनरावृत्ति करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।” उन्होंने यह भी कहा कि कुछ अदालतें “लोकतंत्र के चुने हुए जनप्रतिनिधियों के अधिकारों में अतिक्रमण” कर रही हैं। इस बयान को न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला माना गया।
2. किसान आंदोलन पर रुख:
एक और बयान में उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से कहा कि “किसानों की बात नहीं सुनी गई, जिससे लोकतांत्रिक असंतुलन पैदा हुआ है।” यह बयान ऐसे समय आया जब केंद्र सरकार 2024 के चुनावों के बाद किसान संगठनों को पुनः वार्ता के लिए आमंत्रित करने की रणनीति बना रही थी।
3. संविधान की व्याख्या पर मतभेद:
उन्होंने यह भी कहा कि “संविधान को केवल न्यायपालिका की नजर से नहीं देखा जा सकता, लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है।” यह बात उन्हें उच्चतम न्यायालय के कुछ फैसलों की आलोचना के रूप में कही गई मानी गई।
राजनीतिक गलियारों में उठते सवाल
धनखड़ के इस्तीफे के बाद राजनीतिक पर्यवेक्षक दो धड़ों में बंट गए हैं। एक धड़ा मानता है कि यह “स्वैच्छिक इस्तीफा” नहीं था, बल्कि पार्टी के भीतर असंतोष और सत्ता के शीर्ष पर असहजता के चलते “नरम विदाई” थी।
भाजपा का मौन:
भाजपा की तरफ से न तो कोई समर्थन भरा बयान आया, न ही उनके इस्तीफे पर औपचारिक प्रतिक्रिया। यह उस पार्टी के लिए असामान्य है जो आमतौर पर अपने नेताओं की पीठ थपथपाती है।
विपक्ष का आरोप:
कांग्रेस और आप सहित विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि धनखड़ को हटाया गया क्योंकि उन्होंने संविधान और लोकतंत्र की सच्ची भावना की बात की। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, “जो भी सच बोलेगा, उसकी कुर्सी जाएगी—यह नया भारत है।”
क्या यह संविधानिक संकट की शुरुआत है?
उपराष्ट्रपति का पद न केवल राज्यसभा के सभापति का होता है, बल्कि वह देश का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद भी है। ऐसे पद से बिना स्पष्ट कारण और बिना कोई विवाद उठे इस्तीफा देना, संवैधानिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। अगर यह इस्तीफा किसी राजनीतिक दबाव या असहमति के कारण हुआ है, तो यह भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए एक गंभीर संकेत है।
सत्ता और संस्थाओं के बीच तनाव: एक चिंताजनक ट्रेंड
धनखड़ के इस्तीफे को एक बड़े ट्रेंड के रूप में भी देखा जा रहा है जहां संवैधानिक संस्थाओं और केंद्र सरकार के बीच असहजता बढ़ रही है। पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, फिर पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की टिप्पणियां, और अब धनखड़ का इस्तीफा—ये सभी घटनाएं इस ओर संकेत करती हैं कि संविधान के भीतर असहमति को जगह नहीं दी जा रही।
जनता के बीच क्या संदेश गया?
आम जनमानस में इस घटनाक्रम ने सरकारी असहिष्णुता की छवि को बल दिया है। सोशल मीडिया पर ट्रेंड हुआ—#RemovedNotResigned। युवाओं और बुद्धिजीवियों के बीच यह चर्चा तेज़ हो गई है कि क्या अब भारत में संवैधानिक पद भी केवल अनुकम्पा और आज्ञाकारिता के आधार पर चलेंगे?
आगे क्या…?
अब बड़ा सवाल यह है कि:
- क्या सरकार किसी “नरम और आज्ञाकारी” व्यक्ति को उपराष्ट्रपति के रूप में नियुक्त करेगी?
- क्या विपक्ष इस मुद्दे को लोकसभा चुनाव के लिए हथियार बनाएगा?
- क्या न्यायपालिका इस घटना को नोटिस में लेगी?
जगदीप धनखड़ का इस्तीफा केवल एक व्यक्ति के पद छोड़ने की घटना नहीं है, यह भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली और संवैधानिक मर्यादाओं की कसौटी पर एक परीक्षा है। अगर संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति स्वतंत्र रूप से सोचने और बोलने के कारण हटा दिया जाता है, तो यह एक सत्तावादी प्रवृत्ति का स्पष्ट संकेत है।
इस घटना ने यह भी साबित किया कि अब सत्ता के सामने असहमति जताना एक राजनीतिक खतरा बन गया है। ऐसे में भारत को आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि क्या वह सचमुच उस लोकतंत्र की रक्षा कर रहा है जिसकी नींव इतने बलिदानों से रखी गई थी।