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क्या 58 इस्लामी देश 21 लाख फिलिस्तीनियों को अपने देश में नहीं बसा सकते?

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इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष का एक मानवीय और व्यावहारिक समाधान

हरिगोविंद विश्वकर्मा
मध्य-पूर्व एशिया में जारी इज़राइल-फ़िलिस्तीन संघर्ष अब केवल राजनीतिक विवाद नहीं रहा; यह मानवीय पीड़ा का प्रतीक बन गया है। ग़ाज़ा पट्टी में बसे लगभग 21 लाख फ़िलिस्तीनी लगातार युद्ध, मौत, भूख और असुरक्षा के बीच जी रहे हैं। दूसरी ओर, पूरी दुनिया में 58 इस्लामी देश हैं, जिनके पास अपार भूमि और बेशुमार संसाधन है। ऐसे में मन में सीधा प्रश्न उठता है, क्या ये सभी देश मिलकर फ़िलिस्तीन के 21 लाख लोगों को अपने देश में शरण सम्मानजनक और सिटीजनशिप जीवन नहीं दे सकते?

वैसे भी इस्लाम धर्म केवल उपासना का नहीं, बल्कि मानवता और विश्व-बंधुत्व का संदेश देने वाला धर्म है। क़ुरआन कहता है, सभी मोमिन आपस में भाई-भाई हैं। यानी इस्लाम देशों की सीमाओं से परे भी एक ऐसे वैश्विक भाईचारे की बात करता है जिसमें हर मुसलमान दूसरे का सहारा है। और, पैगंबर मोहम्मद ने कहा है: “मुसलमान एक शरीर की तरह हैं, अगर उसका एक हिस्सा पीड़ा में है, तो पूरा शरीर उसे महसूस करता है।” लेकिन इस्लामी जगत के इस सिद्धांत की सबसे कठिन परीक्षा आज ग़ाज़ा पट्टी में हो रही है। लिहाज़ा, सभी मुस्लिम देश मिलकर फ़िलिस्तीनी लोगों को जीवन, सुरक्षा और भविष्य प्रदान करें और पूरी दुनिया के सामने अनोखा मानवीय उदाहरण पेश करें?

ग़ाज़ा की भूमि पहले किसकी थी?
फ़िलिस्तीन कहलाने वाले इस क्षेत्र का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। लगभग 1000 ईसा पूर्व में यह भूमि राजा दाऊद और सुलेमान के यहूदी शासन के अधीन थी। यरूशलेम (Jerusalem) तब भी यहूदियों का धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र था, जहां उनका ‘प्रथम मंदिर’ (First Temple) स्थित था। 586 ईसा पूर्व में बाबिल साम्राज्य ने यहूदियों को पराजित किया, परंतु वे इस भूमि से कभी पूर्णतः नहीं हटे। बाद में यूनानी, रोमन और बाइज़ेंटाइन साम्राज्यों का दौर आया। इस्लाम का उदय सातवीं सदी ईस्वी में हुआ, जब अरब सेनाओं ने इस इलाके को अपने नियंत्रण में लिया। अर्थात यह भूमि इस्लाम से लगभग 1600 वर्ष पहले यहूदी उपस्थिति के अधीन थी। यह तथ्य ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित करता है कि इज़राइल और यहूदी समाज का इस क्षेत्र से जुड़ाव केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भी है।

वर्तमान वास्तविकता – ग़ाज़ा की त्रासदी
आज ग़ाज़ा का क्षेत्रफल केवल 365 वर्ग किलोमीटर है। यानी दिल्ली के आकार से भी छोटा। यहां लगभग 21 लाख लोग रहते हैं, जिनमें 99 फ़ीसदी मुस्लिम हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार यहां बेरोज़गारी दर लगभग 45 फ़ीसदी है, पीने योग्य जल केवल 10 फ़ीसदी आबादी को उपलब्ध, और बिजली आपूर्ति प्रतिदिन कुछ घंटों तक सीमित है। युद्धों और नाकेबंदी के बीच ग़ाज़ा की पीढ़ियाँ गरीबी, भय और अस्थिरता में पली-बढ़ी हैं। हर नई हिंसा उन बच्चों के भविष्य को और भी धुंधला कर देती है।

58 इस्लामी देशों की सामूहिक क्षमता
इस्लामी सहयोग संगठन (OIC) के तहत 57 देश हैं, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम बहुल राष्ट्र हैं। इनमें इंडोनेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, तुर्की, ईरान, मिस्र जैसे बड़े देश हैं, और कतर, यूएई, मलेशिया, मोरक्को जैसे समृद्ध राष्ट्र भी। अगर ये सभी देश अपने आकार और संसाधन के अनुसार थोड़े-थोड़े लोगों को बसाने का निर्णय लें, तो पूरा संकट समाप्त हो सकता है।

पुनर्वास का एक व्यवहारिक मॉडल
एक “मानवीय पुनर्वास योजना” (Humanitarian Relocation Model) इस प्रकार काम कर सकती है:
बड़े देश – (इंडोनेशिया, पाकिस्तान, सऊदी अरब, ईरान, मिस्र आदि): प्रत्येक 1 लाख फ़िलिस्तीनी को नागरिकता दें।
मध्यम देश – (कतर, यूएई, तुर्की, मलेशिया, मोरक्को आदि): प्रत्येक 50 हजार लोगों को बसाएं।
छोटे देश – (बहरीन, मालदीव, ट्यूनीशिया आदि): प्रत्येक 25 हजार लोगों को शरण दें।

इस तरह 58 इस्लामी देश मिलकर सिर्फ़ 21 लाख लोगों को जीवन, सम्मान और भविष्य दे सकते हैं। बिना युद्ध, बिना सीमा विवाद और बिना किसी अंतरराष्ट्रीय टकराव के।

मानवीय दृष्टि से सबसे बड़ा कदम
क़ुरआन में कहा गया है, “जिसने एक निर्दोष का जीवन बचाया, उसने पूरी मानवता को बचाया।”  यदि इस्लामी जगत इस विचार को कर्म में बदले, तो यह विश्व के सामने सबसे बड़ा मानवीय उदाहरण बन सकता है। यह कदम न केवल ग़ाज़ा की त्रासदी को समाप्त करेगा, बल्कि यह भी सिद्ध करेगा कि इस्लाम केवल संघर्ष का नहीं, बल्कि करुणा और पुनर्निर्माण का धर्म है।

अरब राजनीति और व्यावहारिकता
सच्चाई यह है कि अरब देशों ने दशकों तक फ़िलिस्तीन प्रश्न को राजनीतिक औज़ार बनाकर रखा। उन्होंने फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों को स्थायी नागरिकता नहीं दी, ताकि इज़राइल पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बना रहे। परंतु इस नीति का सबसे बड़ा शिकार वही लोग बने, जिनके नाम पर यह संघर्ष लड़ा जा रहा था। अब समय है कि यह स्थिति बदले। यदि OIC के देश संयुक्त रूप से पुनर्वास का प्रस्ताव लाएँ, तो यह इज़राइल-फ़िलिस्तीन विवाद को नई दिशा देगा, और अरब दुनिया को “शांति-निर्माता” के रूप में पुनर्स्थापित करेगा।

आर्थिक दृष्टि से पूर्णतः संभव
अगर प्रति व्यक्ति पुनर्वास लागत (आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) औसतन 10,000 डॉलर मानी जाए, तो 21 लाख लोगों के लिए कुल खर्च लगभग 210 अरब डॉलर होगा।  OIC देशों की सम्मिलित GDP 10 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है। यानी यह परियोजना उनके आर्थिक ढाँचे का केवल 2 फ़ीसदी हिस्सा है। यह न तो कठिन है, न असंभव, बस राजनैतिक इच्छाशक्ति चाहिए।

यहूदियों और मुसलमानों दोनों के लिए सबक
1948 में यहूदियों ने भी विस्थापन और असुरक्षा झेली थी, लेकिन उन्होंने पुनर्निर्माण कर एक समृद्ध राष्ट्र बनाया। यदि इस्लामी देश भी ग़ाज़ा के लोगों को स्थायी बसाहट दें, तो यह “मानवता के पुनर्निर्माण” की मिसाल बन जाएगा। धर्म को संघर्ष का नहीं, सहयोग का माध्यम बनाने का यही वास्तविक रूप होगा।

सीमाएं नहीं, करुणा बांटिए
आज इज़राइल के रूप में धरती पर एकमात्र यहूदी देश है। इसके मुकाबले इस्लामी दुनिया के पास 58 राष्ट्र, 180 करोड़ जनसंख्या और अपार संपदा है। फिर भी 21 लाख फ़िलिस्तीनी भूख, भय और युद्ध में जीने को विवश हैं। अगर ये सभी देश थोड़े-थोड़े लोगों को अपनाएँ, तो न केवल एक त्रासदी का अंत होगा, बल्कि यह विश्व को बताएगा कि “जब राजनीति असफल होती है, तब मानवता रास्ता दिखाती है।”

लेखक की टिप्पणी
यह प्रस्ताव किसी राजनीतिक पक्ष का समर्थन नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण का सुझाव है। फ़िलिस्तीनी जनता की पीड़ा का स्थायी समाधान केवल युद्धविराम से नहीं, बल्कि पुनर्वास और पुनर्निर्माण से संभव है। यदि इस्लामी दुनिया यह पहल करे, तो यह न केवल ग़ाज़ा के बच्चों के लिए उम्मीद बनेगी, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक नया इतिहास भी बनेगा।

व्यंग्य – भारत के लोग मूर्ख हैं!

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मेरे घर आने वाले देश के तीनों बड़े अख़बारों के फ़्रंट पेज पर आज सुबह एक विज्ञापन छपा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! यह विज्ञापन देखकर मैं बेसाख़्ता चौंक पड़ा। मेरा त्वरित रिएक्शन था, ग़लत विज्ञापन! एकदम बकवास! भारत के लोग मूर्ख कैसे हो सकते हैं। दुनिया को ज्ञान और संस्कार देने वाले लोग मूर्ख कैसे हो सकते हैं। विश्वगुरु देश के लोग मूर्ख, असंभव। मेरी यह धारणा बनी कि किसी सिरफिरे ने शरारत बस यह विज्ञापन छपवा दिया है।

मैंने देश का सबसे बड़ा अंग्रेज़ी अख़बार उठा लिया। पन्ना पलटा तो दूसरे पेज पर भी वही विज्ञापन। भारत के लोग मूर्ख हैं! अरे! दूसरे पन्ने पर भी, ऐसे कैसे? मैं सोच में पड़ गया। क्या भारत के लोग वाक़ई मूर्ख हैं? मेरे मन में यह सवाल उठा। दुनिया को ज्ञान और संस्कार देने वाले लोग मूर्ख भी हो सकते हैं? मेरे अंदर देर तक विचार को मंथन होता रहा। फिर मेरे अंतर्मन से आवाज़ आई। यह असंभव भी नहीं है। ज्ञान और संस्कार देने वाले भी मूर्ख हो सकते हैं। मतलब, भारत के लोग भी मूर्ख हो सकते हैं। सब लोग नहीं, कुछ लोग बेशक मूर्ख हो सकते हैं। अब मेरी धारणा यह बनी कि किसी ने शरारत बस नहीं, बल्कि किसी ख़ास मकसद से यह विज्ञापन छपवाया होगा।

मैंने ख़बरें पढ़ने के लिए फिर पन्ना पलटा। तीसरे पन्ने पर भी वही विज्ञापन। भारत के लोग मूर्ख हैं! फिर मैंने शेष दोनों अख़बारों पर सरसरी नज़र डाली। देश के तीनों बड़े अख़बारों के पहले तीनों पेज पर वही विज्ञापन था। भारत के लोग मूर्ख हैं! अरे, ऐसा कैसे? सभी अख़बारों के तीन-तीन पेज पर एक ही विज्ञापन। मेरे दिमाग़ में ‘भारत के लोग मूर्ख हैं’ वाक्य घूमने लगा। यह वाक्य मेरे अंदर चकरघिन्नी करता रहा। तूफान मचाता रहा। मैं सोचने लगा, आख़िर इस विज्ञापन का मकसद क्या है? किसने इसे छपवाया होगा? इतने अधिक पैसे ख़र्च किए तो क्यों किए? ज़ाहिर है, कुछ सोच-समझ कर किया होगा।

और पन्ने पलटने पर कुछ पर्चे नीचे गिरे। उनमें भी वही विज्ञापन था। भारत के लोग मूर्ख हैं! मैंने लपक कर टीवी ऑन किया। देश के सबसे तेज़ चैनल पर भी विज्ञापन में बता रहा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! सबसे स्लो चैनल स्विच्ड किया, तो वह भी बता रहा था। भारत के लोग मूर्ख हैं! मैं जिधर देख रहा हूं उधर ही ‘भारत के लोग मूर्ख हैं’ दिख रहा था। मुझे अपने घर के कोने-कोने से एक ही आवाज़ सुनाई देने लगी। भारत के लोग मूर्ख हैं! भारत के लोग मूर्ख हैं! मैंने अपना सिर थाम लिया। कुछ देर बैठा सोचता रहा। अचानक ख़्याल आया, ऑफिस जाना है।

मैं जल्दी जल्दी तैयार हुआ और ऑफ़िस के लिए निकल दिया। सड़क पर दोनों ओर लगी होर्डिंग्स में भी चमक रहा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! मेरे बग़ल से एक ऑटो रिक्शा निकला। उसके पीछे भी लिखा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! ये क्या हो रहा है। मैं मन ही मन बुदबुदाया। मैंने एक ऑटो रिक्शा रोक कर उसमें बैठ गया। देख रहा हूं, ड्राइवर के सिर के ऊपर एक बड़ा स्टिकर चिपका था। उसमें लिखा था, भारत केलोग मूर्ख हैं! ड्राइवर बड़ाख़ुश था। बुदबुदा रहा था, -भारत के लोग मूर्ख हैं!

मन में आया कि उसे टोकूं कि भाई तुम ये क्या ऊल-जलूल बक रहे हो। पर मैंने उससे उलझना उचित नहीं समझा। मैं चुप ही रहा। रेलवे स्टेशन पहुंचने तक रास्ते में जितनी भी होर्डिंग्स दिखीं, सबमें लिखा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! दीवारों पर पोस्टर्स चिपकाए गए थे। उनपर भी चमक रहा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! रेलवे स्टेशन पर सभी बोर्डिंग्स, पोस्टर्स में चमक रहा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! प्लेटफ़ॉर्म पर भी अनाउंसमेंट के बीच में विज्ञापन आ रहा था, भारत के लोग मूर्ख हैं! भारत के लोग मूर्ख हैं!

ट्रेन आई तो उसमें भी वही विज्ञापन चिपकाया हुआ था, भारत के लोग मूर्ख हैं! मुझे ऑफिस पहुंचना था, सो ट्रेन में सवार हो गया। ट्रेन के अंदर भी लोग बहस कर रहे थे। विषय था भारत के लोग मूर्ख हैं। ट्रेन भागी जा रही थी। पटरी के किनारे या स्टेशनों पर जितने भी होर्डिंग दिख रहे थे, सब पर वही, भारत के लोग मूर्ख हैं, दिख रहा था। यानी पूरे देश में संदेश चला गया कि भारत के लोग मूर्ख हैं। किसने किया होगा यह सब? इतना पैसा किसने ख़र्च किया होगा? क्यया मार्केटिंग स्ट्रेटेजी है यह। किसी चीज़ को लोगों इतनी बार दिखाइए कि लोग उसे ही सच मान लें। देश के लोगों ने मान लिया कि वे मूर्ख हैं।

इस दौरान मुझे एक सीट मिल गई। मैं उस पर बैठ गया। मेरे अग़ल-बग़ल लोग बहस कर रहे थे। धीरे-धीरे आम वहां राय बनने लगी, भारत के लोग वाक़ई मूर्ख हैं। सभी ने बहुमत से मान लिया, भारत के लोग मूर्ख हैं।

-अगर भारत के लोग मूर्ख हैं! तो हम विश्वगुरु कैसे? दूर बैठे एक आदमी ने सवाल दाग़ दिया। ज़ाहिर था, वह आम राय के पक्ष में नहीं था।

-गुरु भी मूर्ख सकते हैं। एक बुज़ुर्ग टाइप यात्री ने कहा, -बेटा, मूर्ख की कई कैटेगरी होती है। पहले ज़्यादातर मूर्ख अनपढ़ होते थे, लेकिन इसका डिसेंट्रलाइजेशन हो रहा है। आजकल पढ़े-लिखे मूर्ख भी सामने आ रहे हैं। कई मूर्ख तो अपने नाम के आगे डॉक्टर भी लगाते हैं। यानी पीएचडीधारी मूर्ख भी समाज में बड़ी संख्या में हैं। कई मूर्ख गुरु बन जाते हैं। जब मूर्ख गुरु हो सकते हैं तो मूर्ख विश्वगुरु भी हो सकते हैं। राष्ट्रीय स्तर के मूर्ख पूरे देश में मूर्खता प्रदर्शित करते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर के मूर्ख दुनिया में मूर्खता प्रदर्शित करते हैं। भारत में केवल मूर्ख नहीं हैं, बल्कि परिष्कृत मूर्ख भी हैं।

बुजुर्ग की बात सुनकर लोगों ने मान लिया कि भारत में बेस्ट क्वालिटी के मूर्ख हैं। ट्रेन की बहस धीरे-धीरे ‘भारत के लोग परिष्कृत मूर्ख हैं’ से मूर्ख होने के फ़ायदे पर चली गई।

-मूर्खों के कारण लोकतंत्र है, एक सज्जन बोले, -लोकतंत्र में मूर्खों के लिए, मूर्खों की सरकार होती है। वैसे मूर्ख होने के कई फ़ायदे हैं। मूर्ख शांति-दूत भी होते हैं। राजा कोई भी हो उन्हें कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता। उनके लिए जैसे बुद्धिमान राजा, वैसे ही मूर्ख राजा। मूर्खों को मूर्ख राजा से भी कोई प्रॉब्लम नहीं।

उन्होंने आगे कहा, -मूर्खों की ख़ासियत होती है कि वे सवाल नहीं पूछते। अगर कभी-कभार पूछते हैं तो केवल अच्छे लगने वाले सवाल पूछते है। ऐसे सवाल, जिनके जवाब सहज भाव से हंसी-ख़ुशी जवाब दिए जाएं। राजा से भी कभी सवाल ही नहीं पूछते है। अगर राजा ख़ुद जवाब देने का इच्छुक हो जाए और ज़िद करने लगे, कि सवाल करो, सवाल करो। तो मूर्ख  उससे भी उसे अच्छे लगने वाले सवाल ही पूछते हैं। उदाहरण के लिए, आप इतने महान क्यों हैं? इतने ताकतवर होकर भी आप इतने सरल कैसे हैं? आप हर ग़रीब-मज़लूम से अपना नाता कैसे जोड़ लेते हैं? आप जनता के इतने बड़े हितैषी क्यों हैं? आप केवल जनता के लिए काम कैसे कर लेते हैं। जनता का इतना ख़याल कैसे कर लेते हैं? आप इतना अच्छा ढोल कैसे बजा लेते हैं? विश्वमंच पर देश की इतनी अच्छी बैंड कैसे बजा लेते हैं? आप कभी झूठ क्यों नहीं बोलते? आप झूठे वादे क्यों नहीं करते? आपके सबके प्रति इतने जवाबदेह क्यों हैं? आप दूध गरम पीते हैं, या ठंडा करके पीते हैं?

मूर्ख जनता राजा के लिए सुविधाजनक होती है। राजा आसानी से ‘झूठ’ को ‘सच’ बताता है। मूर्ख जनता जानती है। राजा झूठ बोल रहा है। लंबी-लंबी फेंक रहा है। झूठ का डंका पीट रहा है। लेकिन मूर्ख जनता उसके झूठ को सच मान लेती है। राजा ‘पराजय’ को ‘विजय’ बताता है, तो मूर्ख जनता उसे भी स्वीकार कर लेती है। पराजय दिवस को विजय दिवस के रूप में मनाती हैं। ग्रेजुएट मूर्ख तो राजा के झूठ को सच बताकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। राजा देश को चूना लगाता है, तो ख़ुश होकर हुआं-हुआं करते हैं। राजा जानता है, ये लोग मूर्ख हैं। राजा दस कोड़े मारता था, फिर केवल दो कोड़े ही मारने लगा। मूर्ख ख़ुश। कहने लगे, कितना अच्छा राजा है, केवल दो कोड़े मारता है। सज़ा में रिफार्म कर दिया। कई मूर्ख राजा के सामने चले गए। बोले, -दस कोड़े से सीधे कोड़े। नहीं-नहीं, हम कम से कम चार कोड़े तो डिज़र्व ही करते हैं। राजा कहता है, -आप लोग देशभक्त हैं, राष्ट्रहित केवल दो कोड़े खाइए। आठ कोड़े की छूट का उत्सव मनाइए।

कुछ देर चुप रह कर राजा ने फिर कहा, -आज का विज्ञापन आप जैसे महान मूर्खों को समर्पित है। महसूस करें कि आप मूर्ख हैं। और बताएं कि कैसा लग रहा है।

लोग ध्यान मुद्रा में बैठ गए। ख़ुद को मूर्ख समझने लगे। पांच मिनट बाद आंखें खोले और बोले, -बहुत अच्छा लग रहा है। ख़ुद को मूर्ख समझना बहुत सुकून दे रहा है। पांच मिनट में ही एकदम से तनावमुक्त हो गए। हम लोग तो आज से स्थायी मूर्ख हैं।

नए-नए मूर्ख बने बुद्धिजीवी राजा को भगवान की तरह पूजने लगे। राजा जान गया। उसका विज्ञापन काम कर गया। लोगों ने ख़ुद को मूर्ख मान लिया। जो नहीं मान पा रहे हैं, वे मूर्खों को देख-देखकर मूर्ख मानने लगेंगे। भारत के लोग मूर्ख हैं। तभी तो भारत में लोकतंत्र है। राजा यह भी जानता है मूर्खों के बीच विरोध या क्रांति की भावना नहीं पनपती। वह ठहाका लगाकर हंसता है।

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

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पूना पैक्ट : अंबेडकर की एक ऐतिहासिक भूल

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भारत के सामाजिक इतिहास में डॉ. भीमराव अंबेडकर वह व्यक्तित्व हैं जिन्होंने दलित समाज को आत्मसम्मान, अधिकार और पहचान दिलाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने जाति व्यवस्था के क्रूर ढांचे को चुनौती दी, शोषित वर्ग को संगठित किया और समानता के सिद्धांत को संविधान का आधार बनाया। लेकिन उनकी दीर्घ संघर्ष-यात्रा में एक ऐसा क्षण आया, जो बाद में स्वयं अंबेडकर के लिए पीड़ा और आत्मग्लानि का कारण बना — वह था 24 सितंबर 1932 को हुआ पूना पैक्ट। यह समझौता, जिसे उस समय ब्रिटिश शासन और महात्मा गांधी के आमरण अनशन के दबाव में किया गया, अंबेडकर की दृष्टि से आगे चलकर “दलित राजनीति की सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल” साबित हुआ।

पूना पैक्ट की पृष्ठभूमि ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा घोषित कम्युनल अवॉर्ड से जुड़ी थी, जिसमें दलितों, जिन्हें तब “डिप्रेस्ड क्लासेस” कहा जाता था, को पृथक निर्वाचन (Separate Electorate) का अधिकार दिया गया था। इसका अर्थ यह था कि अनुसूचित जातियों के लोग अपने समुदाय के उम्मीदवार को चुनेंगे, और वह उम्मीदवार केवल उनके वोटों से विजयी घोषित होगा। डॉ. अंबेडकर ने इसे ऐतिहासिक अवसर माना, क्योंकि यह दलितों को पहली बार स्वतंत्र राजनीतिक आवाज़ देता था। सदियों से बहिष्कृत और उत्पीड़ित समाज को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मिलना एक वास्तविक सामाजिक न्याय का प्रारंभ होता।

परंतु गांधी जी ने इसे हिंदू समाज की एकता के लिए खतरा बताया। उनका तर्क था कि यदि दलितों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था लागू हुई तो हिंदू समाज स्थायी रूप से विभाजित हो जाएगा। गांधी ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए यरवदा जेल में आमरण अनशन की घोषणा कर दी। इस निर्णय ने पूरे देश में नैतिक और भावनात्मक उथल-पुथल पैदा कर दी। गांधी जी के अनुयायियों, कांग्रेस नेताओं, धर्मगुरुओं और सामाजिक संगठनों ने इसे गांधी की “आत्मा की पुकार” कहा, जबकि दलित नेताओं ने इसे एक नैतिक ब्लैकमेल की संज्ञा दी।

अंबेडकर, जो ब्रिटिश शासन से पहले ही इस अधिकार को स्वीकृति दिलाने में सफल हो चुके थे, अचानक पूरे राष्ट्र के दबाव में आ गए। एक ओर दलितों के लिए स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व का प्रश्न था, दूसरी ओर महात्मा गांधी की संभावित मृत्यु से उत्पन्न राष्ट्रीय संकट। अंबेडकर जानते थे कि यदि गांधी का निधन अनशन के दौरान हो गया, तो देशभर में दलितों के प्रति घृणा और हिंसा की लहर उठ सकती है। उन्होंने यह भी समझा कि तत्कालीन परिस्थितियों में इस अधिकार को बचाना असंभव हो जाएगा। अंततः उन्होंने भारी मन से गांधी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए, वही समझौता जिसे इतिहास ने “पूना पैक्ट” के नाम से याद किया।

इस समझौते के अनुसार पृथक निर्वाचन की व्यवस्था समाप्त कर दी गई और उसकी जगह संयुक्त निर्वाचन (Joint Electorate) प्रणाली लागू की गई। दलित उम्मीदवारों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 71 से 148 अवश्य की गई, लेकिन वे उम्मीदवार अब सामान्य मतदाताओं के समर्थन से ही जीत सकते थे। यानी ऊँची जातियों के मतदाताओं की स्वीकृति के बिना कोई दलित उम्मीदवार निर्वाचित नहीं हो सकता था। यह प्रणाली, व्यवहार में, दलितों को फिर से सामाजिक रूप से प्रभुत्वशाली जातियों के नियंत्रण में ले आई।

अंबेडकर को जल्दी ही यह एहसास हो गया कि उन्होंने एक ऐसा समझौता किया है जिसने दलितों के राजनीतिक आत्मनिर्भरता के सपने को अधूरा छोड़ दिया। उन्होंने बाद में कई बार कहा कि पूना पैक्ट ने “दलितों का राजनीतिक भविष्य नष्ट कर दिया।” 1942 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था, “The Poona Pact has completely destroyed the political future of the Depressed Classes.” वास्तव में, अंबेडकर की दृष्टि में अलग निर्वाचन व्यवस्था केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व का साधन नहीं थी, बल्कि यह आत्मसम्मान की पहली सीढ़ी थी। वह चाहते थे कि दलित समाज अपने प्रतिनिधियों को अपने अनुभव, अपने संघर्ष और अपनी आकांक्षाओं के आधार पर चुने, न कि ऊँची जातियों की दया या समर्थन से।

पर पूना पैक्ट के बाद वही हुआ जिससे अंबेडकर डरते थे। आरक्षित सीटों के बावजूद अधिकांश दलित नेता उन्हीं दलों से चुने गए जिनके नियंत्रण में ऊँची जातियों का प्रभुत्व था। दलित उम्मीदवारों को टिकट पाने और चुनाव जीतने के लिए मुख्यधारा के राजनीतिक दलों पर निर्भर रहना पड़ा। परिणामस्वरूप, दलितों की आवाज़ संसद और विधानसभाओं में पहुंची जरूर, लेकिन वह स्वतंत्र और स्वायत्त नहीं रही। वह सत्ता-राजनीति का हिस्सा बन गई, जहां समानता की जगह समझौते का खेल शुरू हुआ।

गांधी जी ने पूना पैक्ट को हिंदू एकता की विजय बताया और बाद में “हरिजन आंदोलन” चलाकर दलितों के उत्थान की दिशा में कार्य शुरू किया। लेकिन यथार्थ यह था कि दलितों की स्थिति में तत्काल कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। सामाजिक अस्पृश्यता, भेदभाव और जातिगत अन्याय वैसा ही बना रहा। केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व की संख्या बढ़ गई, परंतु उस प्रतिनिधित्व में स्वतंत्रता और प्रभावशीलता की कमी बनी रही।

अंबेडकर ने बाद के वर्षों में बार-बार कहा कि गांधी जी के अनशन के दबाव में उन्होंने जो समझौता किया, वह दरअसल उनकी मजबूरी थी, न कि सहमति। वे यह मानते थे कि गांधी ने नैतिकता की आड़ में एक राजनीतिक उद्देश्य साध लिया। गांधी के अनशन ने अंबेडकर को “विकल्पहीन स्थिति” में ला दिया था। इसीलिए उन्होंने कहा था कि पूना पैक्ट में उन्होंने “मन से नहीं, परिस्थिति से” हस्ताक्षर किए।

फिर भी अंबेडकर ने इस समझौते से जो कुछ हासिल किया, जैसे दलितों के लिए सीटों की संख्या में वृद्धि, शिक्षा और रोजगार में विशेष प्रावधान, तथा दलितों के सामाजिक उन्नयन के लिए प्रतिबद्धता, जो आगे चलकर भारतीय संविधान की आरक्षण नीति की नींव बना। लेकिन राजनीतिक दृष्टि से यह पैक्ट दलितों के लिए स्वतंत्र नेतृत्व की संभावनाओं को सीमित कर गया। यदि पृथक निर्वाचन व्यवस्था लागू होती, तो संभवतः भारत में एक स्वतंत्र दलित राजनीतिक शक्ति उभरती, जो सत्ता-साझेदारी में वास्तविक बराबरी का दावा करती।

इतिहास का यह विरोधाभास आज भी प्रासंगिक है। पूना पैक्ट ने तत्कालीन राष्ट्रीय संकट को टाल तो दिया, पर उसने दलितों के राजनीतिक आत्मबल को दीर्घकालिक रूप से कमजोर कर दिया। गांधी के लिए यह राष्ट्र की एकता की रक्षा थी, लेकिन अंबेडकर के लिए यह एक ऐसी समझौता था जिसमें न्याय अधूरा रह गया। डॉ. अंबेडकर के जीवन का यह प्रसंग यह भी सिखाता है कि नैतिक दबाव और भावनात्मक उथल-पुथल के बीच किया गया निर्णय भले ही तत्कालीन संकट को शांत कर दे, लेकिन उसके दीर्घकालिक परिणाम बहुत गहरे होते हैं। पूना पैक्ट का यही द्वंद्व भारत के इतिहास में दर्ज है, एक ओर गांधी की नैतिक जीत, दूसरी ओर अंबेडकर की वैचारिक हार।

अंबेडकर ने अंततः यह समझ लिया था कि सामाजिक परिवर्तन केवल राजनीतिक समझौतों से नहीं, बल्कि संस्थागत ढांचे से संभव है। इसी कारण उन्होंने संविधान निर्माण के समय अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण, शिक्षा और अवसरों की समानता सुनिश्चित की, ताकि दलित समाज बिना किसी नैतिक दबाव या दया पर निर्भर हुए अपने अधिकार स्वयं प्राप्त कर सके।

इस दृष्टि से देखा जाए तो पूना पैक्ट अंबेडकर की राजनीतिक यात्रा का वह मोड़ था जिसने उन्हें और अधिक दृढ़ बना दिया। यह उनकी एक “ऐतिहासिक भूल” अवश्य थी, लेकिन उसी भूल से उन्होंने सीखा कि समझौते से नहीं, संविधान और संगठन से ही न्याय की नींव रखी जा सकती है। पूना पैक्ट की यही सबसे बड़ी विरासत है, जिसने अंबेडकर को केवल दलित नेता से आगे बढ़ाकर आधुनिक भारत का निर्माता बना दिया।

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मोहन राकेश के चर्चित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का प्रभावशाली मंचन

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आषाढ़ का एक दिन का एक दृश्य

विरूंगला केन्द्र की शाम अभिनय कला के नाम रही

मुंबई। साहित्य, संवेदना और अभिनय के गहरे संगम की मिसाल बनी रविवार की शाम, जब मीरा रोड स्थित साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था विरूंगला केन्द्र में रंगमंच प्रेमियों ने प्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश की कालजयी कृति ‘आषाढ़ का एक दिन’ का जीवंत मंचन देखा। यह प्रस्तुति राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी), वाराणसी से अभिनय की पढ़ाई कर चुके युवा निर्देशक शिव प्रतीक के निर्देशन में हुई। लगभग दो घंटे तक चले इस नाटक ने दर्शकों को संवेदना, सौंदर्य और विचार की ऐसी यात्रा पर ले गया, जहाँ कालिदास का जीवन केवल इतिहास नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर चलने वाले संघर्षों का प्रतीक बनकर उभरा।

अभिनय कला के नाम रही शाम
विरूंगला केन्द्र का सभागार रविवार की शाम रंगकर्मियों, लेखकों, पत्रकारों और कला-प्रेमियों से खचाखच भरा हुआ था। मंच की रोशनी जैसे ही जली, दर्शक एक अलग ही संसार में पहुँच गए, वह संसार जहाँ प्रकृति, प्रेम और सत्ता के बीच झूलता एक संवेदनशील मन अपनी दिशा खोजने की कोशिश करता है। निर्देशक शिव प्रतीक ने नाटक की रूपरेखा को यथार्थवादी शैली में प्रस्तुत करते हुए मंच-सज्जा और प्रकाश संयोजन के माध्यम से हिमाचल की तलहटी में बसे एक शांत गाँव का वातावरण निर्मित किया। यह वही स्थान है जहाँ युवा कालिदास प्रकृति और प्रेम की गोद में अपनी रचनात्मकता का विस्तार करता है।

कहानी जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक
‘आषाढ़ का एक दिन’ केवल कालिदास के जीवन की कथा नहीं है, बल्कि उस हर संवेदनशील व्यक्ति की कहानी है जो रचना और सत्ता के बीच झूलता है। नाटक में दिखाया गया है कि कैसे सत्ता का आकर्षण किसी रचनाकार को उसके मूल से काट देता है। कालिदास जब उज्जैन की ओर प्रस्थान करता है, तो वह केवल एक नगर नहीं, बल्कि उस सत्ता संसार की ओर जा रहा होता है जो धीरे-धीरे उसके भीतर की सृजनात्मकता को ग्रस लेती है। शिव प्रतीक ने इस संघर्ष को बड़े मार्मिक ढंग से मंच पर उकेरा। हर दृश्य में संवादों की गूंज, भाव-भंगिमाओं की गहराई और संगीत का संयमित उपयोग दर्शकों को भीतर तक छू गया।

दर्शकों की एकाग्रता बनी नाटक की सफलता का प्रमाण
एक घंटे चालीस मिनट की यह प्रस्तुति दर्शकों को शुरू से अंत तक बाँधे रखी। न कोई अनावश्यक दृश्य, न कोई अतिनाटकीयता, सब कुछ सहज, स्वाभाविक और भावपूर्ण। मंच पर कालिदास का शांत जीवन, उज्जैन की ओर उनका जाना, सत्ता सुख का भोग और फिर उससे मोहभंग का भावनात्मक संघर्ष बेहद प्रभावी ढंग से सामने आया। नाटक के अंत में जब कालिदास सत्ता और यश की ऊँचाइयों पर पहुँचकर भी भीतर से रिक्त हो जाता है, तो दर्शकों के चेहरों पर गहरी गंभीरता झलकती रही। उस क्षण सभागार में एक अजीब-सी निस्तब्धता थी, जैसे हर व्यक्ति अपने भीतर किसी न किसी “कालिदास” से सामना कर रहा हो।

नाटक लेखकों को देता है आत्ममंथन की प्रेरणा
मंचन के बाद साहित्यकार और समीक्षक विनोद दास ने कहा कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ अपने समय से आगे की रचना है। उन्होंने कहा, “यह नाटक केवल इतिहास की व्याख्या नहीं करता, बल्कि आज के लेखकों और रचनाकारों को भी चेतावनी देता है कि सत्ता के छद्म मोह में फँसना रचनात्मकता का सबसे बड़ा विनाश है। आज जब लेखन और सत्ता का रिश्ता अधिक जटिल होता जा रहा है, ऐसे समय में यह नाटक आत्ममंथन का दर्पण है।” विनोद दास ने स्वर संगम फाउंडेशन और विरूंगला केन्द्र को इस तरह के उत्कृष्ट आयोजन के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि सीमित संसाधनों के बावजूद मंचन का स्तर अत्यंत उच्च रहा।

Ashaadh-ka-Ek-Din-2-300x166 मोहन राकेश के चर्चित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का प्रभावशाली मंचन
कल विरूंगला केंद्र मीरा रोड में हुए नाटक आषाढ़ का एक दिन की टीम।

अनूप सेठी ने की कलात्मकता की सराहना
वरिष्ठ नाट्यकर्मी अनूप सेठी ने इस अवसर पर कहा कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ जैसे क्लासिक नाटकों का मंचन करना किसी भी निर्देशक के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। उन्होंने कहा, “शिव प्रतीक ने बहुत सूझ-बूझ के साथ पात्र-चयन किया और संवादों को जिस भावभूमि में ढाला, उसने नाटक को नई ऊर्जा दी। मंच-सज्जा सरल थी पर प्रभावशाली, यही असली कला है।” उन्होंने यह भी कहा कि आज के समय में, जब नाट्य मंचन अधिकतर मनोरंजन का माध्यम बनते जा रहे हैं, ऐसे गंभीर और वैचारिक नाटक समाज में सांस्कृतिक चेतना जगाने का कार्य करते हैं।

कलाकारों का प्रभावशाली अभिनय
नाटक के सभी कलाकारों ने अपने-अपने पात्रों में गहराई से प्रवेश किया। कालिदास की भूमिका निभाने वाले कलाकार ने जहां शांत सौंदर्य और अंतर्द्वंद्व को बखूबी प्रस्तुत किया, वहीं मल्लिका के किरदार ने प्रेम, त्याग और पीड़ा को बेहद मार्मिक ढंग से जीवंत किया। मंच पर दोनों के बीच के संवादों ने कई बार दर्शकों को भावविभोर कर दिया। संगीत का संयोजन नाटक की आत्मा के अनुरूप था, न अधिक, न कम। पार्श्व में बजते वाद्ययंत्रों की ध्वनियाँ हिमालय की घाटियों और वर्षा ऋतु के सौंदर्य को जैसे मंच पर उतार देती थीं।

दर्शक दीर्घा में साहित्य और समाज के दिग्गज
कार्यक्रम में मुंबई के साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक जगत से जुड़ी कई प्रतिष्ठित हस्तियाँ उपस्थित थीं। समाजशास्त्री पुलक चक्रवर्ती, लेखक धीरेन्द्र अस्थाना, नाट्यकर्मी अजय रोहिल्ला, आरएस विकल, कवि हृदयेश मयंक, लेखक हरि मृदुल, मिथिलेश प्रियदर्शी, निशा भारती, संदीप माने, रीता दास, रमन मिश्र और कई अन्य गणमान्य दर्शकों में मौजूद रहे।
इन सबने बाद में कहा कि इस तरह के मंचन मुंबई के सांस्कृतिक जीवन में ताजगी लाते हैं और युवा पीढ़ी को हिंदी रंगमंच से जोड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं।

संवेदनशील निर्देशन की मिसाल
निर्देशक शिव प्रतीक ने संवादों की गति, मंच पर गतिशीलता और भावाभिव्यक्ति के संतुलन को जिस तरह साधा, उसने उनके परिपक्व निर्देशन कौशल का प्रमाण दिया। उन्होंने कहा, “मेरे लिए यह नाटक केवल कालिदास की कथा नहीं, बल्कि हर उस कलाकार की कहानी है जो अपने भीतर के संसार और बाहरी आकर्षण के बीच फँसा रहता है।”
उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी रंगमंच को नई पीढ़ी के युवाओं तक पहुँचाने के लिए ऐसे मंचनों की निरंतरता आवश्यक है।

सांस्कृतिक चेतना का जीवंत क्षण
विरूंगला केन्द्र की इस प्रस्तुति ने न केवल रंगकर्म को एक ऊँचाई दी, बल्कि यह भी साबित किया कि सीमित संसाधनों में भी गहरी कला दृष्टि और समर्पण से उत्कृष्ट नाटक रचे जा सकते हैं। दर्शकों ने इसे केवल एक नाट्य अनुभव नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और बौद्धिक यात्रा के रूप में अनुभव किया। कार्यक्रम के अंत में स्वर संगम फाउंडेशन की ओर से कलाकारों और तकनीकी टीम को सम्मानित किया गया। आयोजन समिति ने यह भी घोषणा की कि आने वाले महीनों में इसी श्रृंखला के अंतर्गत अन्य भारतीय नाटककारों की क्लासिक कृतियों का मंचन भी किया जाएगा।

‘आषाढ़ का एक दिन’ का यह मंचन न केवल मोहन राकेश की रचना को नई पीढ़ी तक पहुँचाने में सफल रहा, बल्कि इसने यह भी साबित किया कि सच्चा रंगकर्म वही है जो दर्शकों के भीतर सवाल छोड़ जाए। रविवार की वह शाम अभिनय, संवेदना और विचार की ऐसी यात्रा में बदल गई, जो दर्शकों के मन में लंबे समय तक गूंजती रहेगी।

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वाह रे ममता बनर्जी… “लड़की रात को निकली थी, इसलिए बलात्कार की वो खुद दोषी है?”

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भारत में बलात्कार के बाद अक्सर अपराधी नहीं, पीड़िता पर सवाल उठाए जाते हैं। लेकिन जब देश की एक महिला मुख्यमंत्री वही काम करती है — तो यह सिर्फ शर्म नहीं, स्त्री जाति के अपमान का ऐलान है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दुर्गापुर में हुई एक एमबीबीएस छात्रा के गैंगरेप पर बयान देकर पूरे देश को हिला दिया। उन्होंने पूछा, “वह 12.30 बजे रात को बाहर क्यों निकली? वह प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में पढ़ती थी, तो उसकी ज़िम्मेदारी किसकी है?” यानी साफ़ है, मुख्यमंत्री के मुताबिक़ — रात को बाहर निकलना ही बलात्कार का निमंत्रण है! वाह दीदी, क्या यही है “मां-माटी-मानुष” का संस्कार?

मुलायम के बाद ममता – भारत की शर्म

मुलायम सिंह यादव ने कभी कहा था, “लड़के हैं, गलती हो जाती है।” लोगों ने सोचा था, ऐसा बयान शायद किसी पुराने दौर की मानसिकता से आता है। लेकिन ममता बनर्जी का यह बयान दिखाता है कि स्त्री-विरोधी सोच की कोई पार्टी, कोई जेंडर नहीं होती। यह सोच सत्ता की कुर्सी पर बैठते ही इंसानियत को निगल जाती है।

पीड़िता नहीं, सोच दोषी है

“वह रात में बाहर क्यों निकली?” यह सवाल नहीं, आरोप है। यह वही गुलामी की सोच है जो मानती है कि औरत की सुरक्षा उसकी बंदिश में है। जो समाज और नेता यह सोचते हैं कि “लड़कियों को घर में रहना चाहिए”, वे असल में अपराधियों को यह संदेश दे रहे हैं कि “सड़कें तुम्हारी हैं, जो चाहो करो।” और यह सब उस ममता बनर्जी के मुंह से निकल रहा है, जिन्होंने खुद लाठियां खाई थीं, जेल गई थीं, आंदोलन किए थे। आज वही दीदी एक लड़की की आज़ादी को ही अपराध ठहरा रही हैं।

यह सवाल नहीं, एक तमाचा है

किसी रेप सर्वाइवर से यह पूछना कि वो रात में क्यों निकली, ऐसा है जैसे किसी मरे हुए इंसान से पूछना कि “मरने से पहले सांस क्यों ली थी?” अरे मुख्यमंत्री महोदया, क्या बलात्कारी रात में ही सक्रिय होते हैं? क्या दिन में हुए रेप के लिए भी यही तर्क देंगे, “वो दिन में क्यों निकली थी?” यह बयान सिर्फ असंवेदनशील नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा पर वार है। क्योंकि राज्य की सुरक्षा का दायित्व किसी कॉलेज या हॉस्टल का नहीं, बल्कि आपकी सरकार का है, ममता दीदी!

‘जंगल क्षेत्र’ कहकर अपनी नाकामी ढकना

ममता ने कहा, “वह इलाका जंगल है, छात्राओं को नहीं निकलना चाहिए।” यानी मुख्यमंत्री खुद मान रही हैं कि उनका शासन जंगलराज है! अगर इलाका असुरक्षित है, तो वहां पुलिस किसलिए है? मुख्यमंत्री का काम कानून-व्यवस्था बहाल करना है, न कि महिलाओं को कर्फ्यू में रखना। इस बयान से अपराधियों को खुली छूट मिलती है, “जंगल है, जो चाहे करो।” अगर देश में कोई भी जगह औरतों के लिए असुरक्षित है, तो इसका मतलब है कि राज्य का प्रशासन नाकाम है, और मुख्यमंत्री ने हार मान ली है।

राजनीति में इंसानियत कब मरी?

जैसे ज़हर में मिठास घोलने की कोशिश की जाती है, वैसे ही ममता बनर्जी ने अपनी टिप्पणी के बाद कहा, “ओडिशा में समुद्र तट पर भी बलात्कार हुआ, वहां क्या कार्रवाई हुई?” यह क्या है? राजनीतिक बहाना या संवेदनहीनता का नया रिकॉर्ड? किसी और राज्य के अपराध गिनाकर अपने राज्य की नाकामी को धोया नहीं जा सकता। यह बयान साबित करता है कि राजनीति में अब इंसानियत से ज्यादा ज़रूरी है ‘तुलना की सुविधा’।

औरत की आज़ादी पर ‘कर्फ्यू’ लगाने वाली सोच

भारत की हर बेटी के कानों में यह सवाल गूंजता है, “रात में बाहर क्यों निकली?” यह वही सवाल है जो निर्भया से पूछा गया, जो हाथरस की बेटी से पूछा गया, जो उन्नाव की पीड़िता से पूछा गया, और अब दुर्गापुर की छात्रा से पूछा जा रहा है। हर बार वही पैटर्न, औरत की गलती खोजो, मर्द की सज़ा भूल जाओ। इस देश में बलात्कार के खिलाफ़ कानून तो बने, लेकिन सोच अभी भी मध्यकालीन है।

महिला मुख्यमंत्री, लेकिन मानसिकता पुरुषवादी

ममता बनर्जी उन चंद महिलाओं में हैं जिन्होंने पुरुष-प्रधान राजनीति को चुनौती दी। लेकिन सत्ता में बैठते ही शायद वही मानसिकता उन्हें भी निगल गई। एक महिला से यह उम्मीद थी कि वह बोलेगी, “हर लड़की को रात में, दिन में, कहीं भी जाने का हक़ है। राज्य उसकी सुरक्षा करेगा।” पर ममता ने कहा,“रात में बाहर नहीं निकलना चाहिए।” यह बयान सिर्फ पीड़िता का नहीं, हर भारतीय स्त्री का अपमान है।

नेता नहीं, मातृत्व की आवाज़ चाहिए थी

एक मुख्यमंत्री को ममता बनर्जी नहीं, ममता का रूप दिखाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने सत्ता के तकिए पर रखकर इंसानियत को सुला दिया। अगर वह सच में गंभीर होतीं, तो कहतीं, “दोषियों को फांसी तक पहुंचाया जाएगा। लड़कियों की सुरक्षा राज्य का सम्मान है।” लेकिन उन्होंने कहा, “उन्हें बाहर नहीं निकलना चाहिए था।” इतना क्रूर, इतना असंवेदनशील जवाब शायद किसी अपराधी से भी उम्मीद न की जाए।

रात, सड़क और सम्मान — सबका हक़

ममता दीदी, याद रखिए, रातें किसी की निजी संपत्ति नहीं होतीं। सड़कें अपराधियों की जागीर नहीं होतीं। और औरत की आज़ादी पर कोई पहरा नहीं लगाया जा सकता।

अगर किसी मुख्यमंत्री को लगता है कि महिलाओं को अपनी सुरक्षा खुद करनी चाहिए, तो सवाल यह है, फिर राज्य सरकार किसके लिए है? क्यों न टैक्स देने वाले नागरिक खुद अपनी सरकार चुनना बंद कर दें?

अंत में…

ममता बनर्जी का यह बयान एक चेतावनी नहीं, एक स्वीकारोक्ति है, कि भारत की सत्ता में बैठे लोग आज भी औरत की आज़ादी से डरते हैं। वे चाहते हैं कि वह या तो घर में बंद रहे, या मौन रहे। लेकिन देश की बेटियां अब खामोश नहीं रहेंगी।

“ममता दीदी, रात को बाहर जाना अपराध नहीं, अपराध है वो सोच जो अब भी औरत की आज़ादी को गुनाह समझती है। अपराध है उस मानसिकता का जो अब भी औरत की आज़ादी पर पहरा चाहती है।”

अस्मिता पर दो-दो वार: चीफ जस्टिस पर जूता और आईपीएस की आत्महत्या का अर्थ

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भारत का लोकतंत्र अपने आप में सबसे मज़बूत और व्यापक माना जाता है। यहां न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका, तीनों स्तंभ स्वतंत्र हैं, लेकिन जब इन्हीं स्तंभों में दरारें दिखने लगती हैं, तो लोकतंत्र का आधार हिल जाता है। हाल ही में दो घटनाओं ने देश के संवैधानिक ढांचे और सामाजिक न्याय की आत्मा को झकझोर कर रख दिया, पहली, देश के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई पर जूता फेंकने की घटना और दूसरी, आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार की आत्महत्या। ये दोनों घटनाएं न केवल व्यक्तिगत असंतोष का प्रतीक हैं, बल्कि यह दिखाती हैं कि भारत की तथाकथित “समानता वाली” व्यवस्था में आज भी जाति नाम का दैत्य जिंदा है, और वह अपने सबसे क्रूर रूप में सक्रिय है।

शक्ति के शिखर पर बैठे दो दलित प्रतीक

न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई का देश के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदभार संभालना केवल एक प्रशासनिक घटना नहीं थी; यह भारतीय न्यायपालिका में सामाजिक प्रतिनिधित्व की ऐतिहासिक उपलब्धि थी। वहीं आईपीएस पूरन कुमार का नाम उस वर्ग से आता है, जिसने संविधान से अपनी अस्मिता पाई। इन दोनों पदों, न्यायपालिका और पुलिस, को भारत में “सर्वशक्तिमान” माना जाता है। मुख्य न्यायाधीश देश के प्रधानमंत्री तक को आदेश दे सकते हैं, और आईपीएस अधिकारी अपने क्षेत्र में कानून का अंतिम निर्णायक होता है। जब इतनी शक्ति वाले व्यक्तियों को भी जातिगत भेदभाव, अवमानना और मानसिक उत्पीड़न झेलना पड़े, तो सहज ही समझा जा सकता है कि भारत में सामान्य दलित नागरिकों की स्थिति क्या होगी।

ऐतिहासिक संदर्भ: सदियों पुराना जातिगत बंधन

भारत का सामाजिक ढांचा सदियों से वर्णव्यवस्था पर टिका रहा है। यह व्यवस्था इतनी गहरी थी कि कुछ वर्गों को छूना, उनके साथ भोजन करना या उन्हें शिक्षा देना तक पाप समझा जाता था। बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1927 में महाड़ सत्याग्रह के दौरान जब “चवदार तालाब” से पानी पीने की पहल की थी, तो उन्हें केवल इसलिए अपमानित किया गया क्योंकि वे “अछूत” कहे जाने वाले समुदाय से थे। इसी तरह, कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन (1930) ने समाज की जातिगत कठोरता को उजागर किया। बाबासाहेब का संघर्ष यही था कि भारत में “मानव होने का अधिकार” भी बराबर का मिले। लेकिन आज, स्वतंत्रता के 77 साल बाद भी, जब न्यायपालिका और पुलिस जैसी संस्थाओं में दलित अधिकारी खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं, तो यह संकेत है कि मानसिक गुलामी अभी समाप्त नहीं हुई।

मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकना – प्रतीकात्मक हिंसा

बीआर गवई पर जूता फेंकने की घटना न केवल न्यायपालिका की गरिमा पर आघात थी, बल्कि यह दलित प्रतिनिधित्व के खिलाफ एक मनोवैज्ञानिक प्रतिरोध भी था। सवाल यह नहीं है कि आरोपी कौन था, बल्कि यह है कि उसने किस मानसिकता से ऐसा किया? सोशल मीडिया पर जिस तरह कुछ लोगों ने हमलावर को “गोल्डमेडलिस्ट” और “वीर” बताकर गौरवशाली बनाया, वह भारतीय समाज की गहरी बीमार मानसिकता को दर्शाता है। कई बार हिंसा का उद्देश्य केवल शारीरिक चोट पहुँचाना नहीं होता; यह किसी समुदाय को मनोवैज्ञानिक रूप से अपमानित करने का तरीका भी होता है। इस घटना में जो सबसे खतरनाक बात है, वह यह कि इसे कई समूह “जस्टिफाई” करने की कोशिश कर रहे हैं। यह वही मानसिकता है, जिसने कभी अंबेडकर के आंदोलनों को “ब्राह्मण-विरोधी” कहकर बदनाम किया था और आज भी दलित नेतृत्व को “आरक्षणवादी” कहकर हाशिए पर धकेलने का प्रयास करती है।

आईपीएस पूरन कुमार की आत्महत्या – मौन विद्रोह

दलित अधिकारी पूरन कुमार की आत्महत्या की खबर ने हर संवेदनशील नागरिक को भीतर से झकझोर दिया। उन्होंने अपने सुसाइड नोट में जो लिखा, वह प्रशासनिक ढांचे के भीतर व्याप्त भेदभाव की सच्चाई को उजागर करता है। एक आईपीएस, जो कानून लागू करने वाला अधिकारी है, जब न्याय की उम्मीद छोड़ देता है, तो यह किसी व्यक्तिगत दुर्बलता का नहीं, बल्कि संस्थागत अन्याय का प्रमाण है। यह घटना हमें 1990 के दशक के उस दौर की याद दिलाती है जब दलित अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ “कुलीन वर्ग” के अधिकारी अनुशासनात्मक कार्रवाइयों का हथियार इस्तेमाल करते थे। सामाजिक न्याय केवल आरक्षण से पूरा नहीं होता, बल्कि समान अवसर, सम्मानजनक वातावरण और मानसिक सुरक्षा भी आवश्यक है। पूरन कुमार की मौत इस सवाल को उठाती है कि क्या हमारे सरकारी तंत्र में अभी भी जातीय असमानता जिंदा है?

जब समाज ‘दलित’ को मुख्यधारा में नहीं आने देता

भारत ने संविधान के ज़रिए सबको समान अधिकार तो दिए, लेकिन व्यवहार में यह समानता कितनी लागू हुई, यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। जब कोई दलित व्यक्ति सत्ता या अधिकार के केंद्र में पहुँचता है, तो समाज का एक तबक़ा उसे स्वीकार नहीं कर पाता। यही मानसिकता बी.आर. गवई और पूरन कुमार जैसे नामों के प्रति विरोध के रूप में सामने आती है। आज सोशल मीडिया के ज़रिए “दलित विरोध” की भाषा पहले से अधिक जहरीली और संगठित हो गई है। कई लोग खुद को आधुनिक और उदारवादी बताते हैं, लेकिन जब कोई दलित व्यक्ति उच्च पद पर बैठता है, तो वे “मेरिट” और “काबिलियत” के नाम पर उसके अस्तित्व को ही चुनौती देने लगते हैं।

‘ऊँच-नीच’ का न खत्म होने वाला सिलसिला

इतिहास में भी ऐसे उदाहरण अनेक हैं, जब दलित नेतृत्व को अपमानित किया गया या उसके योगदान को कम करके दिखाने की कोशिश की गई। 1917 में जब मद्रास लेजिस्लेटिव काउंसिल में डॉ. एमसी राजा जैसे दलित नेता ने सामाजिक सुधारों की बात की, तो ब्राह्मण सदस्यों ने उनका बहिष्कार किया। 1940 के दशक में जब भीमराव अंबेडकर ने अलग मतदाता सूची की माँग की, तो उन्हें “राष्ट्र विरोधी” कहा गया। यह वही परंपरा है जो आज भी किसी दलित अधिकारी की उपलब्धि को “आरक्षण की देन” कहकर उसकी व्यक्तिगत प्रतिभा को नकार देती है। इतिहास साक्षी है कि सामाजिक परिवर्तन लाने वाले हर दलित नेता को पहले समाज ने अपमानित किया, फिर समय ने उन्हें महापुरुष बनाया।

आधुनिक भारत की सबसे बड़ी चुनौती

आज जब भारत अंतरिक्ष में पहुँच रहा है और डिजिटल इंडिया की बात कर रहा है, तब भी समाज के एक बड़े हिस्से को केवल उसकी जाति की वजह से अपमानित किया जा रहा है। बी.आर. गवई पर जूता फेंकने और पूरन कुमार की आत्महत्या जैसी घटनाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम सचमुच उस भारत में रह रहे हैं जिसका सपना संविधान निर्माताओं ने देखा था? क्या हमारी न्यायपालिका और प्रशासन जाति से ऊपर उठ पाई है? अगर नहीं, तो फिर हमें अपनी “प्रगति” की परिभाषा पर पुनर्विचार करना होगा।

संविधान और समाज – एक अपूर्ण संगम

संविधान ने दलितों को समान अधिकार, प्रतिनिधित्व और सम्मान का वादा किया था, लेकिन समाज ने अभी तक उस वादे को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। कानूनी रूप से भले ही अस्पृश्यता अपराध हो, मानसिक रूप से यह अब भी ज़िंदा है।
बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था, “जाति न केवल सामाजिक अन्याय है, यह मनुष्य के आत्मसम्मान पर हमला है।”
आज गवई और पूरन कुमार की घटनाएं इसी “आत्मसम्मान पर हमले” का नया अध्याय हैं।

दलित अस्मिता की अग्निपरीक्षा

इन दोनों घटनाओं को अलग-अलग न देखकर एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है। यह केवल दो व्यक्तियों पर हुए अत्याचार नहीं हैं, बल्कि उस समुदाय पर दोहरे हमले हैं, जिसने सदियों की पीड़ा झेलकर बराबरी का दर्जा पाया था। बी.आर. गवई पर जूता फेंकना न्यायपालिका की गरिमा पर प्रहार है, जबकि पूरन कुमार की आत्महत्या उस व्यवस्था की नाकामी है, जो समानता का दावा करती है। भारत को अगर सच्चे अर्थों में “सामाजिक न्याय” वाला राष्ट्र बनना है, तो उसे केवल संविधान की किताबों में नहीं, बल्कि अपने व्यवहार और मानसिकता में भी अंबेडकर के विचारों को अपनाना होगा। अन्यथा, यह लोकतंत्र केवल “कागज़ी समानता” का प्रतीक रह जाएगा- जहाँ कानून तो सबको बराबर कहता है, लेकिन समाज अब भी किसी को इंसान मानने को तैयार नहीं।

मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि: स्मृति, संघर्ष और सवाल

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भारत में आज भी ‘पद’ का नहीं ‘जाति’ का सम्मान करते हैं लोग

9 अक्टूबर… यह तारीख़ बहुजन चेतना के इतिहास में एक ऐसी रोशनी का स्मरण कराती है, जिसने अंधकार को चीरने की हिम्मत की थी। इसी दिन, 2006 में, बहुजन समाज के महानायक और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने इस नश्वर शरीर का परित्याग किया था। आज जब उनकी पुण्यतिथि पर हम सिर झुकाते हैं, तो यह केवल श्रद्धांजलि का अवसर नहीं है, बल्कि आत्ममंथन का क्षण भी है, क्या वह भारत बना, जिसका सपना कांशीराम, डॉ. भीमराव आंबेडकर, महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले, और पेरियार ने देखा था?

कांशीराम ने राजनीति को दलितों की मुक्ति का सबसे सशक्त औजार बनाया। उनका मानना था कि सामाजिक क्रांति का दूसरा चरण राजनीतिक जागरूकता से गुजरता है। उन्होंने कहा था, “हमारी गिनती बहुत है, लेकिन ताक़त नहीं है, क्योंकि सत्ता हमारी नहीं है।” यही सोच उनके पूरे आंदोलन का केंद्र थी। वे आंबेडकर के उस विचार को आगे बढ़ा रहे थे जिसमें कहा गया था कि राजनीतिक सत्ता के बिना सामाजिक न्याय अधूरा है। पेरियार ने जिस सामाजिक विद्रोह की मशाल दक्षिण भारत में जलाई थी, फुले दंपति ने जिस शिक्षा-क्रांति की नींव रखी थी, उसे कांशीराम ने आधुनिक भारत की राजनीति में रूपांतरित किया।

सावित्रीबाई फुले ने नारी और अछूत दोनों की मुक्ति को शिक्षा से जोड़ा था। ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देते हुए कहा था कि जो ज्ञान से वंचित है, वह हमेशा शोषित रहेगा। पेरियार ने इस व्यवस्था की धार्मिक जड़ों पर चोट की और आत्मसम्मान आंदोलन को स्वर दिया। आंबेडकर ने उस विचार को संविधान के रूप में आकार दिया, जिसमें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व तीनों मूल्यों को राष्ट्र के केंद्र में रखा गया। और फिर कांशीराम ने इस पूरी विचारधारा को बहुजन राजनीति में परिणत कर दिया, ताकि संविधान में लिखी समानता को ज़मीन पर उतारा जा सके।

लेकिन आज, जब हम चारों दिशाओं में देखते हैं, तो सवाल उठता है, क्या दलित समाज वास्तव में उत्थान की दिशा में बढ़ पाया है? हां, शिक्षा का प्रसार हुआ है, आरक्षण ने सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में प्रतिनिधित्व बढ़ाया है। कुछ दलित अधिकारी, जज, प्रोफेसर, पत्रकार, और राजनेता देश के शीर्ष पदों तक पहुँचे हैं। संवैधानिक सुरक्षा कवच ने लाखों लोगों को न्याय और आत्मविश्वास दिया है। यह सब उस आंदोलन की उपलब्धियाँ हैं जिसे फुले, पेरियार, आंबेडकर और कांशीराम ने दिशा दी थी।

फिर भी सच्चाई यह है कि सामाजिक और मानसिक भेदभाव अभी भी भारत की मिट्टी से पूरी तरह नहीं निकला है। जातिवाद ने अपना चेहरा बदला है, लेकिन समाप्त नहीं हुआ। हाल ही में हरियाणा में एक दलित आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार ने आत्महत्या कर ली। उनकी पत्नी ने आरोप लगाया कि उन्हें अपमान और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा था। यह घटना सिर्फ एक अधिकारी की निजी त्रासदी नहीं है, यह बताती है कि व्यवस्था में अब भी वे अदृश्य दीवारें मौजूद हैं जिन्हें कांशीराम और आंबेडकर तोड़ना चाहते थे।

इसी तरह हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई, जो स्वयं दलित समाज से आते हैं, पर एक वकील ने जूता फेंकने की कोशिश की। यह घटना जितनी चौंकाने वाली थी, उतनी ही प्रतीकात्मक भी। सबसे बड़ी बात एक तबका वकील के कृत्य को ग्लोरीफाई कर रहा है। वकील की तारीफ़ में पोस्ट लिखने वाले नहीं जानते कि उनकी इस हरकत से हिंदुओं में बिखराव आएगा। दलित समाज के लोग उनसे कट जाएंगे। लेकिन जैसे अभिमानी रावण अपने दंभ से चूर था, वैसे सनातन के कथित पैरोकार अपने अहंकार में चूर हैं।

यह घटना बताती है कि भारत में लोग पद का नहीं जाति का सम्मान करते हैं। निचली जाति का कोई आदमी कितने भी बड़े पोस्ट पर पहुंच जाए, यब तबका उसका सम्मान नहीं करेगा। हम लाख बराबरी की बात करें, समान अवसर की बात करें लेकिन जातिगत पूर्वाग्रह और नफ़रत का ज़हर अब भी हमारे सार्वजनिक जीवन में जिंदा है। जब एक दलित आईपीएस अधिकारी अपनी वर्दी में भी असुरक्षित महसूस करता है, और एक दलित सीजेआई तक को सम्मानपूर्वक सुनने का धैर्य समाज खो देता है, तो इसका अर्थ यही है कि समानता की यात्रा अभी अधूरी है।

कांशीराम कहा करते थे, “जब तक बहुजन संगठित नहीं होंगे, तब तक उनका शोषण नहीं रुकेगा।” आज इस बात का महत्व और भी बढ़ गया है। दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से पिछड़ा है, ग्रामीण इलाकों में जातिगत हिंसा की घटनाएँ आम हैं, और राजनीति में प्रतिनिधित्व होने के बावजूद निर्णय लेने की शक्ति सीमित है। बहुजन आंदोलन ने अपने राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नेता खो दिए हैं, और संगठन का स्वर कई बार सत्ता की राजनीति में दब गया है।

अब ज़रूरत है उस वैचारिक पुनर्जागरण की, जो केवल आरक्षण या सत्ता की हिस्सेदारी की बात न करे, बल्कि सामाजिक सम्मान और आत्मनिर्भरता की संस्कृति बनाए। शिक्षा को हथियार बनाना, आर्थिक आत्मनिर्भरता को लक्ष्य बनाना, और सामाजिक एकता को आंदोलन का केंद्र बनाना ही कांशीराम की सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हमें यह समझना होगा कि जाति की लड़ाई सड़कों या संसद में ही नहीं, बल्कि हमारे विचारों में भी लड़ी जाती है।

आज जब कांशीराम को याद करते हैं, तो यह भी याद रखना होगा कि उन्होंने “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” की जो परिभाषा दी थी, वह केवल दलित राजनीति नहीं थी, वह एक समावेशी भारत का सपना था, जहाँ इंसान की पहचान उसकी जाति नहीं, बल्कि उसका कर्म और चरित्र हो। उनका सपना था कि हर घर में आंबेडकर जगे, हर दिल में आत्मसम्मान बोले, और हर संस्था में बराबरी झलके।

उनकी पुण्यतिथि पर यह कहना उचित होगा कि हमने बहुत कुछ पाया है, लेकिन बहुत कुछ अभी शेष है। कांशीराम की राह हमें यह सिखाती है कि संघर्ष से थकना नहीं है, क्योंकि हर पीढ़ी को अपना हिस्सा निभाना होता है। जब तक भारत के आख़िरी व्यक्ति के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता, तब तक आंबेडकर का संविधान और कांशीराम का आंदोलन, दोनों अधूरे हैं।

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जब वाजपेयी ने एमएफ हुसैन को फोन करके मुशर्रफ की पेंटिंग बनाने का आग्रह किया…

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हुसैन के भतीजे फ़िदा हुसैन ने किया खुलासा

बेशक, कला के विराट आसमान में जब भी किसी भारतीय चित्रकला का नाम लिया जाता है, तो एक नाम सबसे चमकीले सितारे की तरह झिलमिलाता हुआ सामने आता है। वह नाम है मक़बूल फ़िदा हुसैन (Maqbool Fida Hussain)। भारत के पिकासो कहे जाने वाले हुसैन ने तूलिका को अपना धर्म बना लिया था और रंगों को अपनी भाषा। जितना बड़ा उनका कैनवास था, उतनी ही बड़ी उनकी कहानी भी। उनकी यह कहानी रहस्यमयी, विवादों से घिरी और आत्मा को छू लेने वाली भी रही। विवादों के साथ तो मानो उनका चोली-दामन का संबंध था। उन्होंने रहन-सहन को अपने अनुसार परिभाषित किया। दुनिया के हर प्रोटोकॉल को तोड़कर अपने अनुसार ज़िंदगी जिया और भरपूर जिया। उनके मन में जो आता था, वही बना देते थे। कतई इस फिक्र में नहीं रहते थे कि किसी को बुरा लगेगा या अच्छा। उनका क़द इतना विराट था कि उन्हें सीधे राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष के फोन आते थे।

ऐसा ही एक फोन कॉल उन्हें आया था 2001 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) का। वाजपेयी कितने बड़े इंसान थे, यह इस फोन कॉल से साबित हो जाता है। वाजपेयी को पता था कि पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने 1999 में कारगिल में घुसपैठियों को भेजकर भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे शांति प्रयासों पर केवल पानी ही नहीं फेरा था, बल्कि अपने पड़ोसी के मन में स्थायी संदेह भी पैदा कर दिया था। नवाज़ शरीफ़ को अपदस्थ करके सत्ता हथियाने वाले मुशर्रफ़ को वाजपेयी ने भारत आने का निमंत्रण दिया। वह मेहमान को ख़ूबसूरत और यादगार तोहफ़ा देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मक़बूल फ़िदा हुसैन को फोन किया और उनसे मुशर्रफ़ का एक पोर्ट्रेट बनाने का आग्रह किया। हुसैन ने मुशर्रफ़ की पेंटिंग बनाकर भेजी, और उसे वाजपेयी ने मेहमान मुशर्रफ़ को भेंट किया।

पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और मशहूर पेंटर एमएफ हुसैन के बारे में यह खुलासा कई दशक तक हुसैन के सहयोगी रहे उनके भतीजे फ़िदा हुसैन ने किया है। फ़िदा ने यह अहम और दिलचस्प खुलासा वरिष्ठ पत्रकार मयूरी डोंगरे (Mayuri Dongre) के साथ ‘टू बाई सिक्सटीन फिल्म्स’ के पॉडकास्ट में किए हैं। लंबी बातचीत के दौरान मयूरी ने हुसैन से जुड़े हर विवाद और सुर्खियों पर बेबाकी से सवाल पूछे। लगभग एक घंटे की इस बातचीत में फ़िदा हुसैन ने एमएफ के जीवन के साथ-साथ उनसे जुड़े विवादों और उपलब्धियों पर विस्तार से प्रकाश डाला। पूरी बातचीत Two by Sixteen Films यूट्यूब चैनल पर देखी जा सकती है।

दरअसल, दशकों तक यह कथा दोहराई जाती रही कि एमएफ हुसैन बॉलीवुड अभिनेत्री माधुरी दीक्षित के दीवाने थे। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने माधुरी की एक फ़िल्म 67 बार देखी, और जब दिल न भरा तो खुद माधुरी को लेकर ‘गजगामिनी’ नाम की एक फ़िल्म बना डाली। कालांतर में यह किस्सा भारतीय कला-जगत में रोमांटिक दंतकथा बन गया। लेकिन अब उनके भतीजे फ़िदा हुसैन ने इस कथा के रंगों को नए सिरे से परिभाषित किया है। फ़िदा हुसैन कहते हैं, “माधुरी, हुसैन साहब की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थीं।”

वह आगे कहते हैं, “हुसैन साहब जानते थे कि माधुरी की शोहरत, उनका जादू उनकी कला को घर-घर तक पहुँचा सकता है। ‘गजगामिनी’ और माधुरी पर बनी पेंटिंग्स निजी मोह का परिणाम नहीं थीं, बल्कि एक बेजोड़ पब्लिसिटी मास्टरस्ट्रोक थीं।” यह सुनना उन सबके लिए चौंकाने वाला है जिन्होंने हुसैन और माधुरी की कहानी को प्रेम और दीवानगी का प्रतीक मान लिया था। लेकिन शायद हुसैन की कला में प्रेम हमेशा एक प्रतीक ही रहा, किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि स्त्रीत्व के उस सार्वभौमिक सौंदर्य का, जो उनके कैनवास पर नारी की आकृति बनकर खिल उठता था।

अब हुसैन की यादों को समर्पित दुनिया का पहला और सबसे भव्य संग्रहालय ‘लाव्ह वा कलम’ (Love Wa Kalam) क़तर की राजधानी दोहा में आकार ले रहा है। यहाँ 1950 से लेकर 2011 तक का उनका समूचा सफ़र, भारत की गलियों से लेकर विश्व की गैलरियों तक, प्रदर्शित किया जाएगा। इस संग्रहालय की कल्पना और डिज़ाइनिंग में स्वयं हुसैन की भागीदारी रही थी।

इसकी जानकारी देते हुए फ़िदा हुसैन की आंखों में चमक थी। उन्होंने भावुक होकर कहा, “यह म्यूज़ियम सिर्फ़ कला का नहीं, एक जीवन का उत्सव है। हुसैन साहब चाहते थे कि लोग रेगिस्तान की धूल से लेकर गंगा की लहरों तक का उनका सफ़र उनके चित्रों के ज़रिए महसूस करें।” लेकिन हर महान कलाकार की तरह, हुसैन की कहानी भी सिर्फ़ रंगों से नहीं, छायाओं से भी बनी है। जहां-जहां वे गए, ख़बरें और विवाद उनके साथ चले। कभी नंगे पांव घूमने की आदत चर्चा का विषय बनी, तो कभी उनकी पेंटिंग्स ने आस्था और अभिव्यक्ति की सीमाओं पर बहस छेड़ दी।

2010 के दशक के आरंभिक दिनों में चरमपंथी हिंदू संगठनों ने आरोप लगाया कि हुसैन हिंदू विरोधी हैं। कहा गया कि उन्होंने हिंदू देवियों की ऐसी तस्वीरें बनाई, जिससे हिंदू धर्म के लोगों को बड़ा झटका लगा। हुसैन ने सन 1970 में ये पेंटिंग बनाई थीं, मगर इन्हें ‘विचार मीमांसा’ नाम की पत्रिका में साल 1996 में छापा गया था। फ़िदा कहते हैं, “दरअसल, हुसैन साहब ने ये पेंटिंग्स खजुराहो की मूर्तियों से प्रेरित होकर बनाई थीं। उनका किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का कोई इरादा नहीं था। अश्लील पेंटिंग बनाने के विरोध में हुसैन के खिलाफ देशभर में कई आपराधिक मामले दर्ज किए गए। उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी हुए। 1998 में हिंदू संगठनों ने हुसैन के घर पर हमला किया और वहां रखी दूसरी तस्वीरों को नष्ट कर दिया था।”

हुसैन का विरोध धीरे-धीरे नफ़रत में बदल गया। अल्प समय में ही देशभर में उनके ख़िलाफ़ 1200 से अधिक मुकदमे दर्ज हो गए। उन्हें धमकियां मिलने लगीं। और आख़िरकार, 2006 में हुसैन को भारी मन से भारत छोड़ना पड़ा। वह अपने ही देश से निर्वासित कलाकार बनकर रह गए। फ़िदा बताते हैं, “जब उन्होंने क़तर की नागरिकता ली, तब उनकी उम्र 90 साल थी। हाथ में पासपोर्ट था, लेकिन आंखों में आंसू। भारत उनका घर था, जिसे छोड़ना उन्हें कभी मंज़ूर नहीं था। लेकिन वह जेल नहीं जाना चाहते थे, इसलिए भारी मन से दूसरे देश की नागरिकता ग्रहण की।”

फ़िदा हुसैन बताते हैं कि उनके चाचा के लिए रंगों की कोई जाति या मज़हब नहीं था। वे कहते थे, “कला मेरे लिए पूजा है, और ब्रश मेरा मंत्र।” उनकी रचनाओं में धर्म नहीं, भावना बोलती थी। लाल, पीला, नीला जैसे उनके लिए केवल रंग नहीं थे, बल्कि जीवन के प्रतीक थे। उनके चित्रों में बार-बार दिखाई देने वाला घोड़ा उनकी आत्मा की गति का प्रतीक था। फ़िदा याद करते हैं, वे कहते थे, ‘घोड़ा रुकता नहीं, जैसे मेरी आत्मा।’ यह बेचैनी ही उनकी सृजनात्मक ऊर्जा थी, जो हर रेखा में धड़कती थी।

विवादों की छाया और निर्वासन की वेदना का ज़िक्र करते हुए मयूरी डोंगरे ने एक गंभीर सवाल रखा, “क्या उन्हें उन विवादों से बहुत पीड़ा हुई थी?” फ़िदा का जवाब धीमा था, “बहुत। उन्हें ग़लत समझा गया। उन्होंने किसी देवी या संस्कृति का अपमान नहीं किया। उनके लिए नग्नता अश्लीलता नहीं, बल्कि मासूमियत का प्रतीक थी।” जब विवादों का शोर बहुत अधिक बढ़ गया, तो उन्होंने भारत छोड़ने का निर्णय लिया। लेकिन दिल में भारत हमेशा जिंदा रहा। वे कहा करते थे, “मैं जहां भी जाऊं, भारत मेरे साथ जाता है। वो मेरे रंगों में बसा है।” यह कथन सिर्फ उनके निर्वासन का दर्द नहीं, बल्कि मातृभूमि से उनके अटूट संबंध की गवाही है।

एमएफ हुसैन की कला आज भी भारत की आधुनिकता की आत्मा मानी जाती है। उन्होंने यह दिखाया कि कलाकार का धर्म केवल सृजन है, और सृजन हमेशा असुविधाजनक प्रश्न पूछता है। उनके जाने के बाद भी उनके चित्र बोलते हैं, कभी घोड़े की गति में, कभी रंगों के शोर में, तो कभी एक अधूरी आकृति की खामोशी में। इंटरव्यू के अंत में जब फ़िदा से पूछा गया कि अगर आज हुसैन ज़िंदा होते तो वे क्या कहते, तो उन्होंने कहा, “वो कहते, ‘कैनवास अब भी मेरा इंतज़ार कर रहा है। मैं मुसलमान हूँ, लेकिन मेरी कला किसी धर्म की सीमाओं में नहीं बंधी। मैंने राम, कृष्ण, फातिमा और मदर टेरेसा, सबको एक ही कैनवास पर जगह दी। कला मेरे लिए पूजा है, और ब्रश मेरा मंत्र। कैनवास मेरा मंदिर है, ब्रश मेरी अज़ान।

आज जब दुनिया उनकी पेंटिंग्स के लिए करोड़ों ख़र्च करती है, हाल ही में उनकी एक कलाकृति 118 करोड़ रुपये में बिकी। इसके बावजूद भारत का एक तबका उन्हें उसी विवाद की दृष्टि से देखता है। इस पर फ़िदा हुसैन कहते हैं, “हुसैन साहब ने कभी किसी की भावना को ठेस पहुंचाने का इरादा नहीं रखा। उन्होंने इसके लिए माफ़ी भी मांगी थी। मैं आज उनकी ओर से फिर कहता हूँ। वे कलाकार थे, अपराधी नहीं।” इसलिए हुसैन की कला आज भी ज़िंदा है। केवल दीवारों पर टंगे कैनवास में नहीं, बल्कि हर उस संवाद में जहाँ कला, अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता का नाम लिया जाता है।

फ़िदा ने याद दिलाया कि हुसैन साहब का जन्म महाराष्ट्र के पंढरपुर में हुआ था। इस तरह उनका सफ़र पंढरपुर के एक छोटे से गांव से शुरू हुआ। वहीं से निकलकर उन्होंने विश्व स्तर पर नाम कमाया और कला जगत में अपनी अलग पहचान बनाई। वह पंढरपुर के विठोबा का दर्शन करने अक्सर जाया करते थे। हुसैन साहब ने विघ्नहर्ता गणेश की सबसे अधिक पेंटिंग्स बनाई। और शायद यही उनकी असली विरासत थी, विवादों से ऊपर उठकर अपने ब्रश से दुनिया को नया अर्थ देना। हुसैन के जीवन की यह अनकही कहानी फ़िदा हुसैन के ज़रिए सामने आई है। पूरी बातचीत ‘Two by Sixteen Films’ यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है, जहां रंग, शब्द और यादें मिलकर हुसैन की आत्मा को फिर से जीवित कर देती हैं।

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गाँव के आकाश में चरखी के रूप में घूमती जीवंतता

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भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार का सीमावर्ती इलाका, जिसे हम सामान्यतः पूर्वांचल कहते हैं, अपनी लोकसंस्कृति, गीत-संगीत और प्रकृति के लिए विख्यात है। यहाँ की पहचान सिर्फ खेत-खलिहानों, आम के बागों और पगडंडियों से ही नहीं होती, बल्कि वहाँ रहने वाले पक्षियों से भी होती है। गौरैया, तोता, मैना, कबूतर और बगुलों के बीच एक और चंचल पक्षी है, चरखी।

चरखी का नाम सुनते ही ग्रामीण मन में एक चित्र उभरता है। संध्या का समय। खेतों के ऊपर मंडराती दर्जनों चरखियाँ। उनकी चहचहाहट और गोल-गोल घूमती उड़ान। यही चरखी पूर्वांचल के गाँवों की एक जीवंत पहचान है। खेत के अलावा दरवाज़े पर भी चरखी को उछल कर चलते देखा जा सकता है।

चरखी का नाम और पहचान
चरखी नाम का आधार उसकी उड़ान और आवाज़ है। जब यह पक्षी समूह में उड़ता है तो आकाश में गोल-गोल चक्कर काटता है, जैसे कोई चरखी घूम रही हो। उड़ान के समय निकलने वाली इसकी ध्वनि भी कुछ वैसी ही प्रतीत होती है। ग्रामीण बोली में इसी कारण इसे चरखी कहा जाने लगा। चरखी का आकार प्रायः गौरैया के बराबर या उससे थोड़ी बड़ी होती है। रंग भूरे, काले और स्लेटी का मिश्रण होता है। पतली और नुकीली चोंच इसे कीट पकड़ने में मदद करती है। इसकी गति अत्यंत तीव्र होती है और यह अचानक दिशा बदलने में माहिर होती है।

इसका वैज्ञानिक नाम ब्लैक ड्रोंगो (Black Drongo – Dicrurus macrocercus) है। इसे लिटिल स्विफ्ट (Little Swift – Apus affinis) भी कहा जाता है। पूर्वांचल में कई जगह इसे चरखी कहते हैं। यह काले रंग का छोटा और बेहद तेज़ उड़ने वाला सुंदर पक्षी है। जो खेतों के ऊपर मंडराता है और कीड़े पकड़ता है। किसानों का मित्र माना जाता है। छतों, पुरानी इमारतों और पेड़ों में घोंसले बनाता है। आकाश में गोल चक्कर काटते हुए उड़ना इसकी विशेषता है। कुल मिलाकर, ‘चरखी’ कोई एक प्रजाति नहीं, बल्कि गाँव की आम बोलचाल में प्रयुक्त नाम है।

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चरखी का आवास और जीवनशैली
चरखी प्रायः गाँव के घरों की छतों, खेतों और छोटे पेड़ों पर पाई जाती है। यह झुंड में रहना पसंद करती है। अकेली चरखी विरले ही देखने को मिलती है। खेतों के ऊपर मंडराकर कीड़े-पतंगों को पकड़ना इसकी आदत है। बरसात और फसल के मौसम में इनकी संख्या विशेष रूप से दिखाई देती है। चरखी का घोंसला प्रायः पेड़ की डालियों या किसी दीवार की दरार में होता है। लिटिल स्विफ्ट की प्रजाति तो अक्सर पुराने मकानों और मंदिरों में भी घोंसला बना लेती है।

भोजन की आदतें
चरखी का मुख्य भोजन कीड़े-मकोड़े और छोटे दाने हैं। यह फसल के ऊपर मंडराते कीटों को पकड़ लेती है, जिससे खेतों में कीटों की संख्या घट जाती है। यह किसानों की फसल की सुरक्षा करती है और प्राकृतिक कीटनाशक का कार्य करती है। कभी-कभी यह छोटे दानों को भी चुग लेती है, लेकिन इसका नुकसान नगण्य होता है।

किसानों के लिए उपयोगिता
पूर्वांचल में चरखी को किसान अपना साथी मानते हैं। यह खेतों को हानिकारक कीटों से बचाती है। धान और गेहूँ की फसलों के समय इसकी मौजूदगी को शुभ समझा जाता है। ग्रामीण मानते हैं कि “जहाँ चरखी, वहाँ हरियाली”। कई किसान अपने अनुभव में कहते हैं कि यदि किसी मौसम में चरखियों की संख्या कम हो जाए तो कीटों की मार ज़्यादा होती है और फसल को खतरा बढ़ जाता है।

ग्रामीण जीवन और चरखी
पूर्वांचल की संध्या की कल्पना चरखियों के बिना अधूरी है। सूरज ढलने के समय जब पूरा गाँव खेत-खलिहान से लौटता है, तभी दर्जनों चरखियाँ आसमान में गोल चक्कर लगाते हुए उड़ान भरती हैं। उनकी चहचहाहट और गतिशीलता गाँव के वातावरण को जीवंत बना देती है। बच्चे अक्सर चरखियों को देखकर गीत गाते हैं और उनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। कई जगह बच्चों की तुकबंदी है…
‘चरखी चरखी चक्कर काटे, खेत-खलिहान के ऊपर बाटे।’

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सांस्कृतिक और लोक महत्व
चरखी का उल्लेख पूर्वांचल की लोककथाओं और गीतों में भी मिलता है। इसे शुभ पक्षी माना जाता है। चरखी की उड़ान को ग्रामीण “समृद्धि का संकेत” कहते हैं। फसल कटने के बाद भी यदि खेतों पर चरखियों का झुंड मंडराता है, तो ग्रामीण मानते हैं कि अगले वर्ष भी भरपूर उपज होगी। गाँव के बुजुर्ग कहते हैं कि चरखी की फुर्ती और सामूहिकता हमें भी यह संदेश देती है कि संगठित होकर ही जीवन की कठिनाइयों का सामना किया जा सकता है।

पर्यावरणीय दृष्टिकोण
चरखी पक्षी पारिस्थितिकी के लिए भी महत्वपूर्ण है।
यह कीटों की संख्या नियंत्रित करके पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखती है।
कीटनाशकों पर निर्भरता घटाती है।
यह पक्षी जैव विविधता का हिस्सा है और ग्रामीण परिदृश्य को समृद्ध करता है।

व्यक्तिगत अनुभव का स्पर्श
यदि आप पूर्वांचल के किसी गाँव की यात्रा करेंगे तो सुबह और शाम का समय चरखी देखने का सबसे अच्छा होगा। सुबह जब खेतों में ओस की नमी रहती है, तभी चरखियाँ झुंड बनाकर उड़ती हैं। शाम को जब सूर्यास्त की लालिमा आसमान पर छा जाती है तो चरखियों का गोल-गोल उड़ना मानो आकाश में किसी उत्सव का दृश्य रच देता है। गाँव का कोई बच्चा आपको यह भी बता देगा कि “देखो भइया, चरखी घूम रही है, अब अंधेरा होने वाला है।”

आज शहरीकरण, पेड़ों की कटाई और पुराने मकानों के टूटने से चरखियों के घोंसले नष्ट हो रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक आवास सुरक्षित न किए गए तो आने वाले वर्षों में इनकी संख्या में गिरावट आ सकती है। इसलिए कह सकते हैं कि चरखी पक्षी केवल एक जीव नहीं, बल्कि पूर्वांचल की लोक-संस्कृति, कृषि और पर्यावरण का अभिन्न हिस्सा है। इसकी चहचहाहट और उड़ान गाँवों की जीवंतता का प्रतीक है। यह किसान का साथी, बच्चों का खेल और ग्रामीण लोककथाओं का पात्र है। आज आवश्यकता है कि हम चरखी जैसे छोटे पक्षियों की भी रक्षा करें। क्योंकि इनके बिना गाँव का आकाश सूना और संस्कृति अधूरी लगने लगेगी।

खत्म होने वाला है फिजिकल सिम कार्ड का सफर

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आने वाले समय में Mobile Phone में लगने वाले प्लास्टिक के छोटे SIM Card इतिहास बनने जा रहे हैं। स्मार्टफोन की दुनिया में अग्रणी माने जाने वाले Apple ने पिछले हफ्ते अपने सबसे पतले iPhone Air को लॉन्च करके इस सवाल को और मजबूत कर दिया है। खास बात यह है कि यह फोन केवल eSIM सपोर्ट के साथ आता है। अब सवाल उठने लगा है कि क्या फिजिकल सिम कार्ड का सफर खत्म होने वाला है? हालांकि, अमेरिका में 2022 से ही सिर्फ eSIM वाले iPhone मिल रहे हैं।

अब तक स्मार्टफोन उपयोगकर्ता इस प्लास्टिक वाले कार्ड के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि फोन शुरू करने के लिए उसे खास तरीके से फोन में लगाना जरूरी था। लेकिन नए आईफोन एयर की खरीदारी करने वाले यूजर्स के लिए यह पुरानी बात रह जाएगी क्योंकि यह फोन सिर्फ ई-सिम तकनीक से चलेगा। ई-सिम के इस्तेमाल से ग्राहक बिना सिम-ट्रे खोले अपने नेटवर्क या प्लान बदल सकते हैं, जिससे सुविधा बढ़ जाती है।

सीसीएस इनसाइट के विश्लेषक केस्टर मान का कहना है कि एप्पल की यह घोषणा “सिम कार्ड के युग के अंत की शुरुआत” है। हालांकि, सब लोग कब पारंपरिक सिम कार्ड का इस्तेमाल छोड़ेंगे और इसका फोन के उपयोग पर क्या असर पड़ेगा, यह देखना दिलचस्प होगा।सिम, यानी सब्सक्राइबर आइडेंटिटी मॉड्यूल, हमारे फोन को मोबाइल नेटवर्क से जोड़ता है। पिछले कुछ वर्षों में ई-सिम एक विकल्प के तौर पर उभरा है और अब अधिकतर नए स्मार्टफोन्स में यूजर्स को पारंपरिक सिम या ई-सिम चुनने की छूट मिलती है। एप्पल ने अपने नए, सबसे पतले आईफोन एयर को केवल ई-सिम सपोर्ट के साथ लॉन्च किया है।

ऐसा पहली बार है जब ग्लोबल स्तर पर केवल ई-सिम वाला आईफ़ोन उपलब्ध हुआ है। हालांकि, अमेरिका में यह सुविधा 2022 से मौजूद है। फिर भी, एप्पल ने अन्य बाजारों के लिए अभी सिम कार्ड का विकल्प पूरी तरह खत्म नहीं किया है। कुछ नए आईफोन जैसे 17, 17 प्रो, और 17 प्रो मैक्स जहाँ केवल ई-सिम के साथ आएंगे, वहीं ज्यादातर देशों में सिम स्लॉट भी मिलेगा। सैमसंग और गूगल जैसी कंपनियां भी धीरे-धीरे ई-सिम अपना रही हैं, लेकिन कई जगह अभी पारंपरिक सिम प्रचलित है।

सीसीएस इनसाइट की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में लगभग 1.03 अरब स्मार्टफोन ई-सिम का इस्तेमाल कर रहे हैं और 2030 तक यह संख्या 3.01 अरब तक पहुँचने की संभावना है। तकनीकी विशेषज्ञ पाओलो पेस्कातो का मानना है कि समय के साथ सिम ट्रे पूरी तरह गायब हो जाएगी।ई-सिम अपनाने से कई फायदे मिलते हैं, जैसे मोबाइल डिवाइस में जगह बचती है, जिससे बड़ी बैटरी फिट हो पाती है; प्लास्टिक सिम कार्ड का न रहना पर्यावरण के लिहाज से भी फायदेमंद है; और विदेश यात्रा के दौरान ग्राहक आसानी से नेटवर्क/प्लान बदल सकते हैं।

इसके अलावा, ग्राहकों को अब सिम कार्ड के लिए स्टोर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जिससे सुविधा बढ़ेगी। हालांकि, यह बदलाव हर किसी को सहज नहीं लगेगा, खासतौर पर वरिष्ठ नागरिकों और कम तकनीक-प्रेमी लोगों के लिए। ऐसे में कंपनियों को ग्राहकों को ई-सिम की प्रक्रिया समझाने के लिए सक्रियता से काम करना होगा।

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