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हिंदी हिंदुस्तान की ऑक्सीजन है, हिंदी का विरोध करने वाला बेमौत मर जाएगा

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हिंदी को किसी सरकारी बैसाखी की ज़रूरत नहीं

भारत में हिंदी का विस्तार इतना हो गया है कि यह भाषा इस देश की ऑक्सीजन हो गई है, और जो हिंदी का विरोध करेंगा वह बेमौत मारा जाएगा, क्योंकि हिंदी संपर्क भाषा के साथ साथ कारोबार की भी भाषा बन गई है। जो लोग हिंदी बोलना बंद करेंगे, उनकी इकोनॉमी ही बैठ जाएगी। यही ज़मीनी सच्चाई है। राज ठाकरे और एमके स्तालिन जैसे माने या न माने।

यह कहता अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि जिस भाषा की व्यापकता इतनी बृहद हो, उस भाषा को किसी तरह की बैसाखी की ज़रूरत नहीं है। आप हिंदी की पढ़ाई बंद कर दीजिए, हिंदी दिवस मनाना बंद कर दीजिए, तब भी हिंदी फूलती-फूलती रहेगी। हिंदी अब इस स्तर तक पहुंच गई है कि हिंदी का विरोध करने वाले लोग हिंदी का विरोध करके अपनी अदूरदर्शिया को परिभाषित कर रहे हैं।

हिंदी के तथाकथित विरोधी हिंदी की अहमियत को बिल्कुल भी नहीं जानते, क्योंकि अगर जानते तो विरोध कतई नहीं करते। भारत में हिंदी जन-जन की भाषा है। मातृभाषा चाहे जो हो लेकिन 95 फीसदी लोग हिंदी बोल लेते हैं। सेमिनार में लोग भले स्टैटस सिंबल के लिए अंग्रेज़ी में भाषण करें, लेकिन सेमिनार के बाद लंच या डिनर करते समय सब हिंदी ही बोलते हैं।

कुछ साल पहले एक तमिल भाषा सीएसएमटी पर आरक्षित टिकट लेने पहुंचा। उसने फॉर्म तमिल में भर दिया था। तमिलभाषी को अंग्रेज़ी या हिंदी नहीं आती थी। क्लर्क को तमिल नहीं आती थी। अब वह टिकट कैसे निकाले। संयोग से आरक्षण केंद्र में एक तमिलभाषी क्लर्क था, उसने आकर संबंधित क्लर्क को बताया कि कहा का टिकट बुक करना है। कहने का मतलब अगर आपको अंग्रेज़ी या हिंदी नहीं आती तो आप अपने राज्य में ही रहिए। आपको लिए पूरा भारत विदेश की तरह है।

केंद्र को शिक्षा में तीन-भाषा फॉर्मूले को थोपने की ज़रूरत ही नहीं है। हिंदी पढ़कर सीखने की भाषा ही नहीं है। आप तमिलनाडु या किसी भी राज्य में भी हिंदी कोचिंग क्लास का बोर्ड नहीं देखेंगे। इसका मतलब हिंदी को तीन-भाषा फॉर्मूले या कोचिंग क्लास जैसे बैसाखी की ज़रूरत है। वैसे भी भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषाओं को लेकर सदैव बहस होती रही है, विशेष रूप से हिंदी को लेकर। कभी इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने की मांग की जाती है, तो कभी इसके विरोध में आवाजें उठती हैं। मगर इन सबके बीच एक सत्य यह भी है कि हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसने बिना किसी विशेष सरकारी संरक्षण या जबरन थोपे जाने के भी, अपने आप को पूरे देश में एक संवाद की भाषा के रूप में स्थापित किया है।

हाल ही में केंद्र सरकार ने शिक्षा में तीन-भाषा फॉर्मूले को पुनः लागू करने पर जोर दिया है। इसके अंतर्गत छात्रों को हिंदी, अंग्रेज़ी और एक स्थानीय भाषा पढ़ाई जाती है। इस नीति को लेकर कुछ राज्यों विशेषकर दक्षिण भारत में विरोध होता रहा है। लेकिन इस विरोध के बावजूद हिंदी ने स्वयं को एक सम्पर्क भाषा के रूप में स्थापित किया है। हिंदी दिवस जैसे आयोजनों की प्रासंगिकता भी इसी संदर्भ में देखी जानी चाहिए। आज के युग में जब हिंदी सिनेमा, समाचार चैनल, यूट्यूब, सोशल मीडिया और रेडियो के माध्यम से घर-घर पहुंच चुकी है, तब उसे संरक्षण देने या जबरन थोपने की आवश्यकता कहां रह जाती है?

हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जो देश के हर कोने में किसी न किसी रूप में बोली या समझी जाती है। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में तो यह मुख्य भाषा है ही, दक्षिण भारत में भी ‘काम-चलाऊ हिंदी’ के रूप में इसे खूब अपनाया गया है। ऑटो-रिक्शा चालक, होटल कर्मचारी, दुकानदार या कोई छोटा-मोटा कारोबारी—अधिकांश गैर-हिंदीभाषी राज्यों में भी हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं। वे जानते हैं कि हिंदी बोलना उन्हें एक बड़ा ग्राहक वर्ग दिला सकता है।

यह तथ्य है कि दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी का विरोध ऐतिहासिक रूप से तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों द्वारा किया गया है। वे इसे उत्तर भारत की संस्कृति थोपने के प्रयास के रूप में देखते हैं। किंतु इस राजनीतिक विरोध के बावजूद हिंदी वहां आम जन के बीच अपनी जगह बना चुकी है। चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे शहरों में काम करने वाले लाखों उत्तर भारतीय श्रमिक, कर्मचारी और छात्र वहाँ हिंदी को जीवंत बनाए हुए हैं। वहाँ के स्थानीय लोग भी व्यावसायिक और सामाजिक संवाद के लिए हिंदी सीखने को इच्छुक रहते हैं।

भारत में अंग्रेजी को प्रायः एक वैश्विक भाषा और आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन यह भी सत्य है कि देश की बहुत बड़ी जनसंख्या आज भी अंग्रेजी में दक्ष नहीं है। ऐसे में संवाद के लिए हिंदी ही सबसे सहज माध्यम बनती है। यह केवल शिक्षित वर्ग के लिए नहीं, बल्कि आम जनता के लिए भी अभिव्यक्ति का माध्यम है। ट्रेन में सफर करते समय, स्टेशन पर टिकट खरीदते वक्त, किसी भी पर्यटन स्थल पर गाइड से बात करते हुए, या किसी छोटे व्यवसायी से सौदा करते हुए—यदि कोई व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता, तो वह सरल हिंदी में बात कर लेता है। इसे ही ‘कम-चलाऊ हिंदी’ कहा जा सकता है। यह कोई शुद्ध साहित्यिक हिंदी नहीं होती, लेकिन संवाद स्थापित करने में पूर्ण सक्षम होती है।

आज हिंदी केवल भारत तक सीमित नहीं है। मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम, नेपाल, यूएई, अमेरिका, यूके, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और कई अन्य देशों में हिंदी बोलने और समझने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं। इन देशों में बसे भारतीय प्रवासी अपने बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए प्रयासरत हैं। कई देशों की यूनिवर्सिटियों में हिंदी पढ़ाई जाती है। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने की मुहिम भी चल रही है। यह सब बताता है कि हिंदी का विकास केवल सरकारी योजनाओं के भरोसे नहीं, बल्कि उसकी जन-स्वीकृति के आधार पर हो रहा है।

आज हिंदी टीवी चैनल्स, अखबारों, यूट्यूब चैनलों, पॉडकास्ट और मोबाइल ऐप्स के ज़रिये न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी पहुँची है। डिजिटल इंडिया अभियान ने हिंदी को और सशक्त किया है। गूगल, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे वैश्विक मंचों पर हिंदी सामग्री की भरमार है।
हिंदी अब केवल ‘काग़ज़ी भाषा’ नहीं रह गई है, यह अब युवाओं की भाषा बन चुकी है। इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स, ट्विटर ट्रेंड्स—हर जगह हिंदी का बोलबाला है। यहां तक कि अंग्रेज़ी बोलने वाले युवा भी अपने विचारों को हिंदी में व्यक्त करना गर्व की बात मानते हैं।

प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। यह उस दिन की याद दिलाता है जब 1949 में संविधान सभा ने हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। किंतु आज के संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि क्या हिंदी को विशेष दिवस की आवश्यकता है? या फिर यह केवल एक सरकारी औपचारिकता बन कर रह गई है? जब एक भाषा समाज में इतनी गहराई से रच-बस जाए, जब उसका उपयोग सरकारी कामकाज से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह हो, तो उसे ‘संरक्षण’ देने की बात हास्यास्पद लगती है। हाँ, हिंदी को मानक रूप में विकसित करने, तकनीकी शब्दावली को समृद्ध करने, और शिक्षा में इसकी उपयोगिता बढ़ाने के लिए योजनाएँ बनाई जा सकती हैं, लेकिन भाषा का असली विकास तब होता है जब वह जनमानस की भाषा बन जाए—और हिंदी आज वह बन चुकी है।

हिंदी को समर्थन देना या उसका विरोध करना अब एक राजनीतिक बहस का हिस्सा भर रह गया है। सच्चाई यह है कि हिंदी को न तो किसी जबरदस्ती की ज़रूरत है और न ही संरक्षण की। यह भाषा स्वयं लोगों ने चुनी है, स्वयं समाज में फैली है, और स्वयं अपने बलबूते एकता की कड़ी बनी है। आज का भारत नई तकनीक, वैश्विक प्रतिस्पर्धा और विविधताओं के बीच एकजुटता की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में हिंदी वह माध्यम बन रही है जो भारत के कोने-कोने को जोड़ सकती है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, यह अब भारतीय पहचान का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

क्या कोलिजियम से अयोग्य लोगों को बनाया जा रहा है जज

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न्यायाधीश यानी जज शब्द इतना आदरणीय होता है कि उस अविश्वास करने के सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि जज दूध का दूध पानी का पानी करता है। लेकिन कल्पना करिए, कि अगर जज ही  भ्रष्ट निकल जाए तो, क्या होगा? क्या आपको इंसाफ़ मिलेगा? भारत में न्यायपालिका की आजकल हालत ऐसी ही हो गई है।

कुछ उदाहरण देखिए…

  • 14 मार्च 2025 को हाईकोर्ट के जज के जस्टिस यशवंत वर्मा सरकारी घर पर आग बुझाने के दौरान बेहिसाब नकदी बरामद होती है।
  • 21 मार्च 2025 को हाईकोर्ट के जज जस्टिस राममनोहर नारायण मिश्रा कह रहे हैं कि जबरदस्ती स्तन पकड़ना और नाड़ी खोल देना रेप की श्रेणी में नहीं आता।
  • 2019 में मुख्य न्यायाधीश रहते जस्टिस रंजन गोगोई पर पर उसकी कर्मचारी यौन शोषण का आरोप लगाया, गोगोई ने खुद मामले की सुनवाई करके अपने आपको निर्दोष होने का फैसला सुना दिया।
  • 2013 में महिला इंटर्न के सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एके गांगुली पर यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाया, लेकिन गांगुली का बाल भी बांका नहीं हुआ।
  • उपरोक्त उदाहरणों से साफ है कि कॉलेजियम सिस्टम से सही लोग नहीं बल्कि अयोग्य वकील जज बनाए जा रहे हैं।

आरंभ से भारत में न्यायाधीशों के फ़ैसले पर किसी भी तरह की टिप्पणी करना अदालत की अवमानना की कैटेगरी में आता है। इसलिए अमूमन लोग जज के फ़ैसले पर टिप्पणी करने से परहेज करते हैं। यहां तक कि अनुचित एवं ग़लत प्रतीत होने वाले फ़ैसले भी लोग भारी मन से स्वीकार कर लेते हैं। अक्सर एक ही मुकदमे का अलग-अलग फैसला आ जाता है। मतलब निचली अदालत कुछ फैसला देती है, हाईकोर्ट कुछ फैसला देता है और सुप्रीम कोर्ट कुछ और कहता है। मतलब मुजरिम, मुकदमा और सबूत वही, लेकिन फैसले जितने जज उतने तरह के आते हैं। इससे दुविधा की स्थिति पैदा होती है कि किसका फैसला न्याय है।

बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करने वाली तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता का केस मिसाल है। सितंबर 2014 में बेंगलुरु की निचली अदालत के जज जॉन माइकल डिकुन्हा ने जयललिता को चार साल की सजा सुनाई। 10 साल चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दिया। जय ललिता को इस्तीफा देना पड़ा। मई 2015 कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस सीआर कुमारसामी ने उन्हें बरी कर दिया। वह फिर सीएम बन गई। 14 फरवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों जस्टिस पीसी घोष और जस्टिस अमिताव रॉय की बेंच ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। लेकिन जयललिता का तब तक निधन हो चुका था। उसी मामले में उनकी सहेली शशिकला जेल में हैं।

कहने का मतलब जस्टिस कुमारसामी के पक्षपातपूर्ण फैसले के चलते सत्ता का दुरुपयोग और भ्रष्टाचार करने वाली जयललिता सजा पूरा करने से पहले ही जेल से बाहर आ गई और सीएम बन गई। सीएम के रूप में उसका निधन हुआ तो पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार किया गया। एमसी रामचंद्रन की समाधि के बग़ल में उनकी समाधि बनवाई गई। जबकि वह सम्मान की नहीं, बल्कि जेल में जीवन गुजारने की पात्र थी। इसके लिए क्या जस्टिस कुमारसामी को ग़लत एवं पक्षपातपूर्ण फैसला देने के लिए जवाबदेह ठहराकर दंडित नहीं किया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

छह मई 2015 को दोपहर मुंबई सेशन कोर्ट के जज डब्ल्यूडी देशपांडे ने हिट-एंड-रन केस में अभिनेता सलमान खान को पांच साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई, परंतु फैसला सुनाने के दो घंटे के भीतर ही बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस अभय थिप्से ने उन्हें ज़मानत देकर जेल जाने से बचा लिया।  बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस एआर जोशी ने 10 दिसंबर को सबको हैरान करते हुए निचली अदालत का फैसला ही पलट दिया और सलमान को रिहा कर दिया। नौ दिन बाद जोशी रिटायर भी हो गए। महाराष्ट्र सरकार के फैसले के खिलाफ अपील पर सात साल से सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चल रहा है। अगर सुप्रीम कोर्ट सलमान को दोषी ठहरा दे तो क्या होगा?

इस तरह कई जजों ने हज़ारों की संख्या में इस तरह के विरोधाभासी और ग़लत फैसले दिए, लेकिन किसी के फैसले पर न तो कभी कोई टिप्पणी हुई और न ही किसी जज को ज़िम्मेदार ठहराया गया। कहने का तात्पर्य जज भी हाड़-मांस का बना इंसान होता है। उसका परिवार होता है। वह सामाजिक प्राणी होता है। लिहाज़ा, उसके भी वेस्टेड इंटरेस्ट हो सकते हैं। यानी कहीं न कहीं उसके भी मैनेज्ड हो जाने की संभावना रहती है। इसलिए भारतीय संविधान में जवाबदेही का प्रावधान होना चाहिए ताकि जिस न्य़ायाधीश का फैसला पलटा जाए, या जिसकी टिप्पणी वापस लेनी पड़े, उसके खिलाफ़ कार्रवाई की जा सके।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस एके गांगुली पर तो 2013 में एक लॉ इन्टर्न ने 24 दिसंबर को होटल के कमरे में यौन-शोषण का सनसनीखेज़ आरोप लगाया। इसी तरह अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मचारी ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई पर ही यौन उत्पीड़न का आरोप लगा दिया। लंबे समय तक वह प्रकरण सुर्खियों में रहा। यौन-उत्पीड़न जैसा गंभीर आरोप लगने के बावजूद दोनों में से किसी जज के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।

जज की जवाबदेही सुनिश्चित करना इसलिए भी ज़रूरी है कि समय समय पर उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। 1989-91 में देश के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस रंगनाथ मिश्रा (पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र के चाचा) ने 1984 के सिख दंगों के केस में कांग्रेस के नेताओं को क्लीन चिट दी। सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज के रूप में उन्होंने सिख की हत्या की जांच करने वाले आयोग की अध्यक्षता की। आरोप लगा था कि पूछताछ और जांच की कार्यवाही पक्षपातपूर्ण तरीक़े से निपटाई गई थी, जबकि आधिकारिक जांच रिपोर्ट और सीबीआई जांच में कांग्रेस के नेताओं के ख़िलाफ़ गंभीर साक्ष्य थे। बाद में कांग्रेस ने रंगनाथ मिश्रा को राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया।

1991 में 18 दिनों के लिए मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति कमल नारायण सिंह पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। आरोप लगा था कि जैन एक्सपोर्ट्स और उसकी सिस्टर कन्सर्न जैन शुद्ध वनस्पति के पक्ष में फ़ैसला देते समय जज साहब अप्रत्याशित रूप से बेहद उदार हो गए। उनके आदेश से कंपनी ने औद्योगिक नारियल का तेल आयात किया था, जबकि उस पर प्रतिबंध लगा था। कंपनी पर कस्टम विभाग के लगाए 5 करोड़ रुपए के ज़ुर्माने को भी जस्टिस केएन सिंह ने आदेश में घटाकर 35 फ़ीसदी कम कर दिया। हालांकि बाद में एमएन वेंकटचलैया ने उस आदेश को रद्द कर दिया और टिप्पणी भी की, “मैं वर्तमान हलफ़नामे पर टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं लेकिन मैं न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बारे में चिंतित हूं।”

सन् 1994-1997 के दौरान मुख्य न्यायाधीश रहे एएम अहमदी पर पक्षपात और भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। अहमदी ने भोपाल गैस त्रासदी के हज़ारों पीड़ितों को इंसाफ़ से वंचित कर दिया था। उन्होंने यूनियन कार्बाइड कंपनी के ख़िलाफ़ हत्या के आरोप को खारिज कर दिया। उनके फ़ैसले पर भी गंभीर टिप्पणी हुई कि न्याय के साथ विश्वासघात हुआ। अहमदी ने बाद में यूनियन कार्बाइड अस्पताल ट्रस्ट मंडल का अध्यक्ष बन गए। अहमदी ने पर्यावरण संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अंगूठा दिखा कर बड़खल और सूरजकुंड झील के पांच किलोमीटर के दायरे में अपना शानदार घर बनवाया।

1998 में मुख्य न्यायाधीश रहे एमएम पुंछी का एक फ़ैसला पक्षपातपूर्ण एवं भ्रष्टाचार वाला लगा था। उन्होंने शिकायतकर्ता से समझौता करने के आरोप में जेल की सज़ा भुगत रहे एक प्रभावशाली व्यक्ति को अपने मन से बरी करने का फैसला सुनाया दिया। जबकि यह नॉर्म का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन था।

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर तो फ़र्ज़ी हलफ़नामे से ज़मीन हथियाने के एक नहीं तीन गंभीर आरोप लगे। आनंद पर आरोप था कि उन्होंने जम्मू कश्मीर के होटल व्यापारी के पक्ष में फ़ैसला दिया, बदले में उनकी बेटी को औने-पौने दाम पर भूखंड मिल गया। उन्होंने तो अपने ख़िलाफ़ घोटाले को प्रकाशित करने वाले पत्रकार विनीत नारायण को बहुत टॉर्चर किया। उनको अब तक का सबसे भ्रष्ट मुख्य न्यायाधीश कहें तो हैरानी नहीं। वह कितने ताक़तवर थे, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भ्रष्टाचार के बारे में जज से क़ानून मंत्री राम जेठमलानी ने स्पष्टीकरण मांगा तो जस्टिस ने उनको क़ानून मंत्री पद से ही हटवा दिया।

न्यायमूर्ति वाईके सभरवाल भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे। उन्होंने कुछ बिल्डरों जज के बेटों को फायदा पहुंचाने के लिए दिल्ली में कॉमर्शियल गालों को सील करने का आदेश दिया। बाद में उनका बेटा एक लाभार्थी बिल्डर का पार्टनर बन गया। सबसे हैरानी वाली बात यह रही कि उनके बेटे की कंपनी का पंजीकृत ऑफिस न्यायाधीश का सरकारी घर था।

विनीत नारायण की किताब ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ के मुताबिक में कहा गया कि हवाला कांड के मुख्य न्यायाधीश रहे जगदीश शरण वर्मा ने साज़िश के तहत बिना सघन जांच के ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसके अलावा समय समय पर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज ऐसे फ़ैसले देते रहे हैं, जिनसे फेवर और भ्रष्टाचार की बू आती है।

ये तमाम उदाहरण इंगित करते हैं कि न्यायपालिका पर भी चेक एंड बैलेंस फॉर्मूला लागू होना चाहिए। लिहाज़ा, जजों को निरंकुश नहीं छोड़ा जाना चाहिए। मतलब जिस जज का कोई फ़ैसला क़ानून की प्रचलित परंपराओं के विपरीत जाता दिखे, उन्हें प्रमोशन देने से परहेज़ करना चाहिए। इतना ही नहीं यह भी ग़ौर करना कि किसी न्यायाधीश ने अपने कार्यकाल में कितने मुक़दमे का ईमानदारी से निपटारा किया। इसके अलावा असंवेदनशील मुक़दमों को कुछ सीमित सुनवाई के बाद निपटाने की भी प्रावधान होना चाहिए। इससे मुक़दमों की बढ़ती संख्या पर रोक लगेगी। इतना ही नहीं, जजों की संख्या में बढ़ोतरी भी की जानी चाहिए और हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति कोलेजियम की बजाय संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा के द्वारा होना चाहिए। इससे बड़ी अदालते परिवार वाद से मुक्त होंगी।

जो भी हो, स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को जवाबदेह और ज़िम्मेदार बनाया जाए ताकि इन संस्थानों की मर्यादा और विश्वसनीयता बरकरार रहे। पूरे विश्व की तरह भारतीय समाज में भी न्यायपालिका को बहुत सम्मान की नज़र से देखा जाता रहा है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो जनता का यह विश्वास अब तक कायम रहा, क्योंकि शीर्ष अदालतों में बैठे न्यायाधीश किसी पर भी कोई टिप्पणी सोच-समझ कर करते थे। वे न्यायायल की सत्ता स्वायत्ता और स्वतंत्रता के रक्षक रहे। ऐसे में ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट में उन्हीं जजों की नियुक्ति की जाए, जो किसी पर भी संतुलित टिप्पणी करें। अन्यथा न्यायपालिका का सम्मान घट जाएगा, जैसा कि नुपूर शर्मा के केस में हुआ है। न्यायपालिका का सम्मान घटने से जम्हूरियत की बुनियाद कमज़ोर होगी, जो कि नहीं होनी चाहिए।

वक्फ बोर्ड रेलवे और रक्षा मंत्रालय के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा भू-स्वामी

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देश के तीन सबसे बड़े भू-स्वामी

  • भारतीय रेलवे – देशवासियों के यातायात सेवा में समर्पित

  • रक्षा मंत्रालय – देश की सीमाओं की रक्षा के लिए समर्पित

  • वक्फ बोर्ड – मदरसे, मस्जिद व कब्रिस्तान के लिए समर्पित

वक्फ बोर्ड भारत का तीसरा सबसे बड़ा भूस्वामी है। इसके पास 9.4 लाख एकड़ भूमि है। इससे अधिक जमीन रेलवे और रक्षा मंत्रालय के पास है। भारतीय रलवे देश के सभी 140 करोड़ नागरिकों के लिए समर्पित है और रोजाना करोड़ों लोगो को गंतव्यस्थल तक पहुंचने में मदद करना है। इसी तरह रक्षा मंत्रालय देश को समर्पित है और इसके तीनों अंग स्थल सेना, वायु सेना और नौ सेना देश की रक्षा करते हैं। दूसरी ओर वक्फ बोर्ड केवल मुसलमानों के हितों से जुड़े मामले देखता है। इस काम के लिए बोर्ड को इतनी अधिक जमीन की जरूरत नहीं है।

भारत में वक्फ बोर्ड एक महत्वपूर्ण धार्मिक संस्थान है, जो इस्लामिक धर्मार्थ संपत्तियों के प्रबंधन और देखरेख के लिए जिम्मेदार है। वर्तमान में, वक्फ बोर्ड के पास देशभर में लगभग 9.4 लाख एकड़ भूमि है, जो इसे भारतीय रेलवे और रक्षा मंत्रालय के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा भूमि स्वामी बनाती है। यह संपत्तियां धार्मिक, शैक्षिक और सामाजिक कल्याण की गतिविधियों के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, लेकिन इनके स्वामित्व, प्रबंधन और उपयोग को लेकर समय-समय पर विवाद भी उठते रहे हैं।

The-Waqf-Board-GFX1-300x169 वक्फ बोर्ड रेलवे और रक्षा मंत्रालय के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा भू-स्वामी

वक्फ बोर्ड का इतिहास और उद्देश्य
वक्फ की अवधारणा इस्लामी परंपरा से जुड़ी हुई है, जिसमें कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को धर्मार्थ कार्यों के लिए दान करता है और इसे अनिश्चित काल के लिए समाज के हित में इस्तेमाल किया जाता है। भारत में वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन के लिए वक्फ अधिनियम, 1954 और वक्फ अधिनियम, 1995 लागू किए गए, जिनके तहत केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्डों की स्थापना की गई। इन संस्थाओं का मुख्य कार्य वक्फ संपत्तियों का पंजीकरण, संरक्षण और इनका उचित उपयोग सुनिश्चित करना है।

वक्फ बोर्ड की संपत्तियां और उनकी स्थिति
वर्तमान में, वक्फ बोर्ड के पास 8,72,336 अचल संपत्तियां और 16,713 चल संपत्तियां दर्ज हैं। जिनकी अनुमानित क़ीमत 1-2 लाख करोड़ रुपए के बीच है। इनका उपयोग मदरसों, मस्जिदों, कब्रिस्तानों और धर्मार्थ अस्पतालों के संचालन के लिए किया जाता है। वक्फ बोर्ड की अधिकांश संपत्तियां उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु और कर्नाटक में स्थित हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास लगभग 2,17,000 और शिया वक्फ बोर्ड के पास लगभग 15,000 संपत्तियां हैं।

वक्फ़ बोर्ड के पास कुल 8,72,336 अचल संपत्तियां और 16,713 चल संपत्तियां हैं, राज्यवार संपत्तियों की संख्या में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है, जहां सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के पास लगभग 2,17,000 संपत्तियां और शिया वक्फ़ बोर्ड के पास लगभग 15,000 संपत्तियां हैं। इसके बाद पश्चिम बंगाल में लगभग 80,000, पंजाब में 75,000, तमिलनाडु में 66,000 और कर्नाटक में 62,000 वक्फ संपत्तियां हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि वक्फ़ बोर्ड की संपत्तियों का विस्तार पिछले 15 वर्षों में दोगुना हुआ है, जो 2009 में लगभग 4 लाख एकड़ से बढ़कर वर्तमान में 9.4 लाख एकड़ हो गया है।

The-Waqf-Board-GFX-300x169 वक्फ बोर्ड रेलवे और रक्षा मंत्रालय के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा भू-स्वामी

विवाद और चुनौतियां

अवैध कब्जा और अतिक्रमण
वक्फ संपत्तियों का एक बड़ा हिस्सा अवैध रूप से कब्जा कर लिया गया है। कई मामलों में, सरकारी एजेंसियां और निजी संस्थान भी इन संपत्तियों का उपयोग कर रहे हैं।

पारदर्शिता की कमी
वक्फ बोर्ड की संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता की कमी के कारण कई बार भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के आरोप लगते रहे हैं।

विवादित स्वामित्व के मामले
कई संपत्तियों को लेकर कानूनी विवाद जारी हैं, जिनमें हिंदू, मुस्लिम और अन्य समुदायों के लोग अपने-अपने दावे पेश कर रहे हैं।

विकास के अवसर और चुनौतियां
इन संपत्तियों को व्यावसायिक और सार्वजनिक हित के लिए विकसित करने की संभावनाएं हैं, लेकिन कानूनी और धार्मिक प्रतिबंधों के कारण यह एक जटिल प्रक्रिया बन जाती है।

डिजिटलीकरण और पारदर्शिता
वक्फ संपत्तियों का डिजिटल रिकॉर्ड तैयार किया जाना चाहिए, जिससे अतिक्रमण और अवैध कब्जों की निगरानी की जा सके।

बेहतर प्रशासनिक प्रबंधन
वक्फ बोर्डों को अधिक स्वायत्तता और विशेषज्ञों की मदद से काम करने की आवश्यकता है।

कानूनी सुधार
वक्फ अधिनियम में संशोधन कर विवादित संपत्तियों के निपटारे के लिए एक मजबूत कानूनी ढांचा तैयार किया जाना चाहिए।

विकास और आर्थिक उपयोग
वक्फ संपत्तियों को आय-उत्पन्न करने वाले साधनों में बदलकर इसका लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचाया जा सकता है।

वक्फ बोर्ड की संपत्तियां भारत की बहुसांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं और इनका सही उपयोग समाज के हित में किया जा सकता है। हालांकि, इनसे जुड़े विवादों और चुनौतियों को दूर करने के लिए पारदर्शी प्रशासन, कानूनी सुधार और बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है। यदि इन सुधारों को लागू किया जाता है, तो वक्फ संपत्तियां न केवल मुस्लिम समुदाय बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज के लिए लाभकारी साबित हो सकती हैं।

सुजाता बजाज ने कैनवास पर उकेरा सम्पूर्ण गैलेक्सी

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पेंटिंग बनाती सुजाता बजाज

अगर आपको गहरे नीले आसमान, टिमटिमाते तारों और अनंत ब्रह्मांड का दीदार पसंद है, तो मूर्धन्य कलाकार सुजाता बजाज की पेंटिंग्स में ये सभी नज़ारे जीवंत हो उठते हैं। उनकी कला प्रकृति की व्यापकता और रहस्यमय आकर्षण को अपने रंगों में समेटे हुए है। पिछले पाँच वर्षों में सृजित उनकी कृतियाँ सुरों और रंगों का ऐसा अनूठा संगम प्रस्तुत करती हैं, जिसे देखकर दर्शक सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकते।

पेंटिंग्स केवल रंगों और रेखाओं का खेल नहीं, बल्कि आत्मा की अभिव्यक्ति भी होती है। सुजाता बजाज का वर्क इसी अभिव्यक्ति का बेहतरीन उदाहरण है। दक्षिण मुंबई के प्रमुख कला केंद्र प्रतिष्ठित जहांगीर आर्ट गैलरी में उनकी पेंटिंग्स हर आगंतुक को मंत्रमुग्ध कर रही हैं। उनकी पेंटिंग्स में दिलचस्प पहलू यह है कि वे प्रत्येक पेंटिंग में अपना नाम हिंदी में उकेरती हैं, जो उनकी कला को और भी विशिष्ट बना देता है। यह न केवल उनकी कला को पहचान देने का कार्य करता है, बल्कि हिंदी भाषा के प्रति उनके गहरे लगाव को भी दर्शाता है।

Sujata-Bajaj-7396-298x300 सुजाता बजाज ने कैनवास पर उकेरा सम्पूर्ण गैलेक्सी

मुंबई की प्रतिष्ठित जहांगीर आर्ट गैलरी में 4 मार्च से 10 मार्च तक चल रही उनकी पेंटिंग प्रदर्शनी को देखने दुनियाभर से कला प्रेमी और प्रतिष्ठित कलाकार आ रहे हैं। उनकी कृतियों ने भारतीय दर्शकों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय कला जगत का भी ध्यान आकर्षित किया है और चर्चा का केंद्र बनी हुई हैं।

भारतीय परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम
सुजाता बजाज की पेंटिंग्स में अब्स्ट्रैक्ट आर्ट का उत्कृष्ट प्रयोग देखने को मिलता है। उनकी शैली में भारतीय परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संतुलन है। रंगों के साहसिक और गतिशील प्रयोग से उनकी पेंटिंग्स में एक अलग ही ऊर्जा झलकती है। उनके चित्रों में भावनाओं और प्रतीकों का अद्भुत समावेश दिखता है। यही कारण है कि पेरिस, लंदन, न्यूयॉर्क और दुबई जैसी प्रतिष्ठित कला दीर्घाओं में उनकी पेंटिंग्स को सराहा गया है। उनकी शैली में पिकासो और मातिस जैसे महान कलाकारों की छवि तो दिखती है, लेकिन इसमें भारतीय पारंपरिक कलात्मकता की झलक भी स्पष्ट रूप से नजर आती है।

Sujata-Bajaj-7397-239x300 सुजाता बजाज ने कैनवास पर उकेरा सम्पूर्ण गैलेक्सी

‘स्पेसस्केप्स’ सीरीज़: ब्रह्मांड से प्रेरित कला
2019 में, सुजाता ने नासा के हबल टेलीस्कोप से ली गई एंड्रोमेडा गैलेक्सी की छवि देखी और इससे गहराई से जुड़ गईं। यह वह क्षण था, जब उनकी कला में अंतरिक्ष की झलक उभरने लगी। उन्होंने जेम्स वेब टेलीस्कोप से ली गई ब्रह्मांडीय छवियों का अध्ययन किया और अपनी कल्पना को नए रंगों और आकारों में ढालने लगीं। ‘स्पेसस्केप्स’ नामक यह अनूठी श्रृंखला उनके नवीन प्रयोगों का परिणाम है, जिसमें अंतरिक्ष की अनंतता और रंगों की ऊर्जा एक साथ सजीव हो उठती हैं।

कला और ब्रह्मांड का अद्भुत समन्वय
सुजाता बजाज की पेंटिंग्स समय और स्थान की पारंपरिक परिभाषाओं को चुनौती देती हैं। जब हम उनकी कला को निहारते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि समय कैनवास से निकलकर किसी अनंत यात्रा पर निकल पड़ा है। यह वैसा ही अहसास है, जैसा ट्रेन में सफर करते समय होता है—जहाँ हर कोई गतिशील है, परंतु यह समझ पाना कठिन होता है कि वास्तविक दिशा क्या है।

Sujata-Bajaj-7394-239x300 सुजाता बजाज ने कैनवास पर उकेरा सम्पूर्ण गैलेक्सी

यह सवाल खगोलशास्त्रियों और कलाकारों दोनों को समान रूप से आकर्षित करता है—हम कौन हैं? हम कहां से आए हैं? और हम कहां जा रहे हैं? खगोलशास्त्री इन प्रश्नों के उत्तर भौतिकी और गणित में खोजते हैं, जबकि कलाकार रंगों और आकृतियों के माध्यम से इन्हें व्यक्त करता है।

सुजाता की कृतियों में दिखने वाले लाल, नीले और हरे रंग केवल रंग भर नहीं हैं, बल्कि ये जीवन, ऊर्जा और पूरे ब्रह्मांड की कहानी कहते हैं। उनकी पेंटिंग्स केवल देखने की चीज़ नहीं, बल्कि अनुभव करने का माध्यम हैं। प्रत्येक चित्र एक नई कहानी कहता है, जो दर्शकों को उनकी कल्पनाओं की गहराइयों में ले जाता है।

Sujata-Bajaj-7395-240x300 सुजाता बजाज ने कैनवास पर उकेरा सम्पूर्ण गैलेक्सी

कला और विज्ञान के बीच सेतु
सुजाता की पेंटिंग्स वैज्ञानिक खोजों और मानवीय संवेदनाओं के बीच एक पुल का कार्य करती हैं, जहाँ वास्तविकता और अमूर्तता एक हो जाते हैं। यही कारण है कि उनकी कला में ब्रह्मांड की गहराई, रहस्य और अनंतता दिखाई देती है। उनकी पेंटिंग्स यह दर्शाती हैं कि ब्रह्मांड का सौंदर्य न केवल वैज्ञानिक खोजों में, बल्कि कलाकार की दृष्टि में भी समाहित है।

उनकी पेंटिंग्स को देखने के बाद यह एहसास होता है कि कला केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि आत्मा से जुड़ने का एक माध्यम भी है। सुजाता बजाज की कला ब्रह्मांड के अनसुलझे रहस्यों और मानव कल्पना के बीच एक अद्भुत संवाद प्रस्तुत करती है। यही कारण है कि उनकी हर कृति ब्रह्मांड की तरह अनंत संभावनाओं से भरी हुई प्रतीत होती है।

लेख -हरिगोविंद विश्वकर्मा

चीन में कोहराम मचाने वाले नए वायरस HMPV की भारत में दस्तक, सावधान रहें…

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बेंगलुरु में 8 महीने की बच्ची इस बीमारी से पीड़ित

कोरोना से भी ख़तरनाक बताया जाने वाला चीनी वायरस चीन में कोहराम मचाने के बाद भारत में प्रवेश कर चुका है। कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में 8 महीने की बच्ची इस बीमारी से पीड़ित पाई गई है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने दिल्ली और महाराष्ट्र को सतर्क रहने की एडवाइजरी जारी की है।

नए चीनी वायरस के आने की ख़बर से एक बार फिर से लोगों को कोविड-19 से मची तबाही याद आने लगी है, जब लोग घरों में कैद कर दिए थे। HMPV (ह्यूमन मेटान्यूमोवायरस) एक आम वायरस है जो इंसानों के श्वसन तंत्र को प्रभावित करता है। इससे ग्रसित व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। यह छोटे बच्चों, वृद्धों और मेडिकली अनफिट लोगों के लिए खतरनाक हो सकता है।

श्वसन वायरस ह्यूमन मेटान्यूमोवायरस (HMPV) फ्लू जैसे लक्षण उत्पन्न करता है, जिनमें खांसी, बुखार, नाक बंद होना और सांस लेने में कठिनाई शामिल है। हालांकि, इस वायरस के लिए अभी तक कोई विशेष टीका या एंटीवायरल दवा उपलब्ध नहीं है, और लक्षणों के आधार पर ही इसका उपचार किया जाता है।

हाल के दिनों में, चीन में HMPV संक्रमण के मामले तेजी से बढ़े हैं, जिससे वैश्विक स्वास्थ्य समुदाय में चिंता बढ़ी है। यह वायरस चीन के बाद मलेशिया और हांगकांग जैसे देशों में भी पहुंचा है। भारत में HMPV का पहला मामला बेंगलुरु में सामने आया, जहां एक आठ महीने की बच्ची में इस वायरस की पुष्टि हुई है। यह भारत में इस वायरस के संक्रमण का पहला ज्ञात मामला है।

HMPV वायरस मुख्य रूप से श्वसन बूंदों के माध्यम से फैलता है, जैसे कि खांसने या छींकने पर। इसके अलावा, संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने या दूषित सतहों को छूने से भी संक्रमण हो सकता है। संक्रमण से बचने के लिए मास्क पहनना, नियमित रूप से हाथ धोना और सामाजिक दूरी का पालन करना महत्वपूर्ण है।

भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारें HMPV के प्रसार को रोकने के लिए सतर्क हैं। दिल्ली और तेलंगाना सहित कई राज्यों में स्वास्थ्य अधिकारियों ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिसमें अस्पतालों को इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी) और गंभीर तीव्र श्वसन संक्रमण (SARI) के मामलों की तुरंत रिपोर्ट करने के निर्देश दिए गए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी स्थिति की समीक्षा के लिए संयुक्त निगरानी समूह की बैठक बुलाई है और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) से समय पर जानकारी साझा करने का अनुरोध किया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि HMPV कोई नया वायरस नहीं है। इसे पहली बार 2001 में खोजा गया था, और सीरोलॉजिकल साक्ष्यों के अनुसार, यह कम से कम 1958 से प्रचलित है। यह वायरस रेस्पिरेटरी सिंसिटियल वायरस (RSV) के साथ न्यूमोविरिडे परिवार में आता है और मौसमी बीमारी के रूप में सर्दियों और शुरुआती वसंत में अधिक सक्रिय होता है।

HMPV संक्रमण के लक्षणों में खांसी, बुखार, नाक बंद होना, गले में खराश, थकान, और सांस लेने में कठिनाई शामिल हैं। गंभीर मामलों में, निमोनिया या ब्रोंकियोलाइटिस जैसी स्थितियां विकसित हो सकती हैं, विशेषकर छोटे बच्चों और बुजुर्गों में। यदि किसी व्यक्ति में ये लक्षण प्रकट होते हैं, तो उसे तुरंत चिकित्सा सहायता लेनी चाहिए।

HMPV के प्रसार को रोकने के लिए निम्नलिखित सावधानियां बरतनी चाहिए:

  • मास्क पहनना और श्वसन स्वच्छता का पालन करना।
  • नियमित रूप से हाथ धोना और सैनिटाइज़र का उपयोग करना।
  • भीड़-भाड़ वाले स्थानों से बचना और सामाजिक दूरी का पालन करना।
  • संक्रमित व्यक्तियों से संपर्क से बचना।

चूंकि HMPV के लिए कोई विशेष टीका या एंटीवायरल दवा उपलब्ध नहीं है, इसलिए लक्षणों के आधार पर उपचार किया जाता है। हल्के लक्षणों के लिए घर पर आराम, तरल पदार्थों का सेवन, और बुखार या दर्द के लिए पेरासिटामोल जैसी दवाओं का उपयोग किया जा सकता है। गंभीर लक्षणों की स्थिति में अस्पताल में भर्ती की आवश्यकता हो सकती है।

भारत में HMPV के पहले मामले की पुष्टि के बाद, स्वास्थ्य अधिकारियों ने निगरानी और परीक्षण को बढ़ा दिया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि घबराने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन सतर्कता और सावधानी बरतना आवश्यक है। सामान्य जनसंख्या को सलाह दी जाती है कि वे स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का पालन करें और किसी भी संदिग्ध लक्षण के प्रकट होने पर तुरंत चिकित्सा सहायता लें।

HMPV के बारे में जागरूकता बढ़ाने और इसके प्रसार को रोकने के लिए, सरकार और स्वास्थ्य संगठनों द्वारा विभिन्न प्रचार-प्रसार कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छता बनाए रखने, मास्क पहनने, और सामाजिक दूरी का पालन करने के लिए लोगों को प्रेरित किया जा रहा है। इसके अलावा, स्कूलों, कार्यालयों, और अन्य संस्थानों में भी स्वच्छता और स्वास्थ्य संबंधी दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित किया जा रहा है।

HMPV के प्रसार को रोकने में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्य संबंधी दिशा-निर्देशों का पालन करके, हम न केवल स्वयं को, बल्कि अपने परिवार और समुदाय को भी सुरक्षित रख सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति में श्वसन संबंधी लक्षण प्रकट होते हैं, तो उसे तुरंत चिकित्सा सहायता लेनी चाहिए और दूसरों के संपर्क से बचना चाहिए।

अंत में, HMPV एक ज्ञात श्वसन वायरस है, जो विशेष रूप से कमजोर समूहों को प्रभावित करता है। भारत में इसके पहले मामले की पुष्टि के बाद, स्वास्थ्य अधिकारी सतर्क हैं और आवश्यक कदम उठा रहे हैं। सार्वजनिक जागरूकता और सावधानियों के माध्यम से, हम इस वायरस के प्रसार को नियंत्रित कर सकते हैं और अपने समुदाय की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं।

Sanjay Raut Allegedly Assaulted at Matoshree

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Mumbai: Shiv Sena (UBT) spokesperson and Rajya Sabha MP Sanjay Raut was reportedly locked in a room and physically assaulted during a high-level meeting at Matoshree, the residence of party chief Uddhav Thackeray. Senior journalist Bhai Tosrekar broke the sensational news, claiming the altercation lasted several hours and involved multiple senior leaders of the party. However, Sanjay Raut was not available for the comment on this incident as it is reported that currently he was in Shimla.

Meeting Focused on BMC Elections Turns Chaotic

The meeting, convened to strategize for the upcoming Brihanmumbai Municipal Corporation (BMC) elections, was attended by senior leaders of the Shiv Sena (UBT). However, discussions quickly escalated into a confrontation, with leaders airing grievances about the party’s poor performance in the 2019 Maharashtra Assembly elections, where the Shiv Sena won only 20 seats.

Sanjay Raut, a central figure in the party’s decision-making, was heavily criticized during the meeting. Several leaders accused Raut of excessive rhetoric and divisive tactics that they claimed contributed to the party’s electoral decline and alienated traditional supporters.

Raut Assaulted and Locked in a Room

According to insiders, the situation spiraled out of control when four to five leaders physically confronted Raut. They allegedly grabbed him by the collar and dragged him into a separate room at Matoshree, where he was badly assaulted. The sources further revealed that Raut was locked in the room for nearly three hours as tempers flared during the meeting.

Raut’s attempts to defend his actions, particularly his role in the 2019 split with the BJP and the formation of the Maha Vikas Aghadi (MVA), reportedly angered the dissenting leaders. His detractors accused him of prioritizing his public image over the party’s unity and blamed his aggressive stance for the Shiv Sena’s current challenges.

Uddhav Thackeray’s Intervention

Party chief Uddhav Thackeray, who was present at Matoshree during the incident, is said to have intervened to resolve the conflict. However, his efforts to calm the situation reportedly came only after the assault on Raut had taken place.

Thackeray has yet to issue an official statement regarding the incident, but the altercation has exposed deep divisions within the Shiv Sena (UBT) at a critical juncture.

Political Fallout and Reactions

The news of Raut’s alleged assault has sparked outrage among his supporters, who are demanding an explanation and accountability from the party leadership. Opposition parties have also capitalized on the incident, with the BJP and the rival Shiv Sena faction led by Maharashtra Chief Minister Eknath Shinde criticizing the Shiv Sena (UBT) for its internal discord.

Political analysts warn that this incident could further destabilize the Shiv Sena (UBT), which is already grappling with defections and challenges to its traditional voter base. The upcoming BMC elections, a key battleground for the party, are now expected to be even more challenging due to the apparent lack of unity within the ranks.

As the story continues to develop, all eyes are on Uddhav Thackeray and the Shiv Sena (UBT) leadership to see whether they will publicly address the incident and take steps to heal the party’s growing internal rifts.

मनमोहन सरल के जन्मदिन पर गूंजीं अभिलाष अवस्थी की गजलें

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मुंबई, अपनी कहानियों, कला समीक्षा और संपादन से हंदी साहित्यिक दुनिया एवं कला–जगत को समृद्ध करने वाले वयोवृद्ध पत्रकार मनमोहन सरल का 91वां जन्मदिन समारोह एक यादगार और भावपूर्ण कार्यक्रम के रूप में मनाया गया। यह आयोजन न केवल उनके जीवन और लेखन की यात्रा को संजोने का अवसर था, बल्कि धर्मयुग परिवार की पुरानी स्मृतियों और उनके योगदान को भी एक नई दिशा देने वाला बन गया।

धर्मयुग की खट्टी-मीठी यादें साझा की
सहज स्वभाव और संवेदनशील दृष्टिकोण के धनी सरल ने अपने लेखन में मानवीय भावनाओं और समाज के ज्वलंत मुद्दों को बड़ी गहराई से अभिव्यक्त किया। धर्मयुग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका से जुड़े रहकर उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा और ऊंचाई दी। उनका जीवन और कार्य एक ऐसा प्रेरणास्त्रोत है, जो आने वाली पीढ़ियों को सृजनशीलता और समर्पण का पाठ पढ़ाता रहेगा। मनमोहन सरल के जन्म दिन के कार्यक्रम की शुरुआत में धर्मयुग की खट्टी-मीठी यादें साझा की गईं। धर्मयुग परिवार के सदस्यों द्वारा भेजे गए भावभीने संदेशों को सुनाया गया और सरल जी के सरल स्वभाव, उनके साहित्यिक योगदान और कला समीक्षा पर चर्चा हुई।

लगभग चार दशक तक रहे धर्मयुग में
उत्तरप्रदेश नजीबाबाद में 28 दिसम्बर 1934 को जन्में मनमोहन सरल ने साइंस से बैचलर के अलावा कला से मास्टर और कानून की भी डिग्री हासिल की। उनकी पहली कहानी 1949 में प्रकाशित हुई और पहला कहानी संग्रह ‘प्यास एक : रूप दो’ 1959 में छपकर आया और बहुत चर्चित भी हुआ। उन्होंने 1958 में महानंद मिशन कालेज, गाज़ियाबाद में प्राध्यापक से शिक्षण करियर का प्रारंभ किया। 1961 में भारत के सर्वश्रेष्ठ और बहुचर्चित साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ के उत्कर्ष काल में सहायक संपादक पद संभाला और 1989 तक कार्य किया।

अभिलाष अवस्थी की ग़ज़लें बनीं कार्यक्रम की शान
कार्यक्रम में विशेष आकर्षण प्रतिष्ठित गीतकार और ग़ज़लकार अभिलाष अवस्थी ने अपनी ग़ज़लों से ऐसा समां बांधा कि बांद्रा के पत्रकार नगर में साहित्य की शायद ही कभी ऐसी गूंज सुनाई दी हो। अभिलाष की ग़ज़लें और उनकी प्रस्तुति दोनों ही अद्वितीय रहे। उन्होंने धर्मयुग परिवार को साहित्य और पत्रकारिता के एक नए स्तर पर जोड़ने में अपनी अहम भूमिका निभाई। कार्यक्रम में धर्मयुग परिवार के सदस्यों, ओमप्रकाश सिंह, सुदर्शना द्विवेदी, हरीश पाठक, विनीत शर्मा, रमा कपूर और आशीष पाल ने सरल का शॉल, पुष्पगुच्छ से सम्मान किया और उनके बेहतर स्वास्थ एवं दीर्घायु होने की कामना की।

धर्मयुग की स्मृतियों को मिला नया आयाम
कार्यक्रम में चर्चा हुई कि यदि इस प्रकार की प्रस्तुतियां पहले से होतीं तो धर्मयुग, डॉ धर्मवीर भारती और उनसे जुड़े साहित्य को एक नया आयाम पहले ही मिल गया होता। हरिवंश ने कहा, “हम सब भारती जी के ही बनाए हैं और जो कुछ कर रहे हैं, उसमें धर्मयुग की निरंतरता झलकती है।” मनमोहन सरल कार्यक्रम के दौरान तीन घंटे तक पूरी ऊर्जा के साथ उपस्थित रहे। उन्होंने केक काटा, लड्डू खाया और नाश्ते का आनंद लिया। उनकी प्रसन्नता कार्यक्रम में उपस्थित हर व्यक्ति के लिए एक अद्भुत अनुभव थी।

Atal Bihari Vajpayee: The Poet, Politician, and an Eternal Love Story

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Atal Bihari Vajpayee, one of India’s most celebrated leaders, was much more than a statesman and politician. Known for his eloquence, poetic soul, and humility, Vajpayee’s life was full of human emotions that made him relatable to millions. Among the lesser-known yet significant aspects of his life was his deep and lifelong connection with Rajkumari Haksar-Kaul, a relationship that beautifully blended love, loyalty, and companionship while defying societal norms and expectations.

The Beginning of a Timeless Bond
The story of Atal Bihari Vajpayee and Rajkumari Kaul dates back to the 1940s in Gwalior. Both were students at Victoria College (now Laxmibai College), where their friendship gradually transformed into something deeper. Vajpayee, known for his oratory and poetic talent even as a student, found a kindred spirit in Rajkumari, whose intellect and charm complemented his personality.

Their love story, however, was defined by its subtlety. Vajpayee, as a young man, expressed his feelings in a letter but chose an unconventional way to deliver it—by placing the letter inside a book that Rajkumari was expected to read. Rajkumari’s response, equally heartfelt, was written in another letter that fatefully never reached Vajpayee. This missed communication didn’t deter their bond, which continued to grow despite the lack of formal declarations.

Societal Norms and Forced Separation
Rajkumari Kaul belonged to a prominent Kashmiri Pandit family. Her father, Govind Narayan Haksar, held a high position in Gwalior’s administration and was deeply conservative. He strongly opposed Rajkumari’s relationship with Vajpayee, citing differences in social and familial expectations. Eventually, under familial pressure, Rajkumari married Professor Brij Narayan Kaul, a philosopher and academic at Delhi’s Ramjas College.

This marriage marked a turning point, seemingly separating their lives. Vajpayee, deeply entrenched in his political aspirations, joined the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), dedicating his life to public service and vowing to remain unmarried. Despite the separation, the emotional connection between Vajpayee and Rajkumari endured.

Rekindling the Connection in Delhi
Years later, destiny brought them back together in Delhi. Vajpayee’s political career flourished as he emerged as one of the leading voices of the Bharatiya Jana Sangh and later the Bharatiya Janata Party (BJP). During this time, his friendship with Rajkumari Kaul was rekindled, and their bond became stronger than ever.

Vajpayee became a regular visitor to the Kaul household, where he found a sense of belonging and emotional solace. Despite societal perceptions, their relationship was based on mutual respect and companionship. Rajkumari and her family offered Vajpayee unwavering support, becoming an integral part of his personal and professional life. Over time, Vajpayee moved in with the Kaul family, further solidifying their unique relationship.

Mrs Kaul shifted to Atal’s residence
By 1978, when Atal Bihari Vajpayee was the external affairs minister in the Morarji Desai government, Mr and Mrs Kaul and their daughters had all moved in to his Lutyens’ house at 5, Raisina Road. Atal adopted Mrs Kaul’s daughter Namita and later, her granddaughter Niharika.

Former President Pranab Mukherjee told Hindustan Times in an interview, “We lived next door and they made an entrance through a side wall so Vajpayee and his family members could come easily to our place. He was very fond of fish. Namita, his foster daughter, used to regularly play at our place. My wife and Mrs Kaul (Namita’s mother) had a very deep bonding. When Namita’s marriage was decided, my wife helped in preparations because the groom was a Bengali [Namita married Ranjan Bhattacharya].”

A Unique Family Dynamic
Rajkumari Kaul played a pivotal role in Vajpayee’s personal life. Her daughters, Namita and Nandita, saw him as a father figure. Vajpayee eventually adopted Namita and her daughter Niharika, treating them as his own family. This unconventional family dynamic was a testament to the depth of his bond with Rajkumari.

When Vajpayee became India’s Prime Minister in 1998, Rajkumari Kaul and her family moved with him to the official residence at 7, Race Course Road (now Lok Kalyan Marg). Namita and her husband, Ranjan Bhattacharya, played significant roles in managing Vajpayee’s household and supporting him during his tenure.

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Atal Bihari Vajpayee with Rajkumari Kaul (left) and her daughter

An Enduring Love Beyond Labels
The relationship between Vajpayee and Rajkumari defied traditional definitions. It was neither a conventional marriage nor a fleeting romance but rather a profound connection that stood the test of time. Their bond exemplified love that transcends societal norms and formalities. Despite living in the public eye, they maintained the sanctity of their relationship with dignity and discretion.

Senior journalist Kuldeep Nayar once described their relationship as “one of the most beautiful love stories in Indian politics.” Rajkumari’s unwavering support for Vajpayee during his political struggles and triumphs was unparalleled. She stood by him as a silent pillar of strength, embodying the essence of loyalty and companionship.

The Poet’s Heart
Atal Bihari Vajpayee’s poetic inclinations often reflected his emotional depth. His first poem was dedicated to the laborers who built the Taj Mahal, a symbol of love. This poem, however, didn’t glorify the monument’s beauty or Shah Jahan’s love for Mumtaz but instead highlighted the sacrifices of the workers who made it possible. This perspective mirrored Vajpayee’s own life—one where love was deeply felt but seldom openly expressed.

Vajpayee’s poetry resonated with Rajkumari, who often admired his ability to articulate complex emotions. Their shared appreciation for literature and art further strengthened their bond, making it a relationship of intellectual and emotional compatibility.

A Legacy of Love and Loyalty
Rajkumari Kaul passed away in 2014, leaving behind a legacy of love and unwavering loyalty. Vajpayee, who had already retreated from public life due to health issues, was deeply affected by her demise. Her death marked the end of an era, but their story remains an enduring testament to the quiet strength of love.

Atal Bihari Vajpayee’s life was a blend of political brilliance, poetic expression, and profound humanity. His relationship with Rajkumari Kaul adds an intimate dimension to his legacy, showcasing the human side of a leader who navigated the complexities of life with grace and dignity. Their story is a reminder that love, in its purest form, transcends societal norms, remaining timeless and eternal.

The Enigma of Atal Bihari Vajpayee
Throughout his life, Vajpayee maintained an enigmatic stance on his personal relationships. When questioned about his bachelorhood, he famously remarked, “I am unmarried but not a celibate,” hinting at the depth of his emotional connections. His decision to remain unmarried was rooted in his commitment to the RSS and his dedication to public service. Yet, his relationship with Rajkumari Kaul highlighted the balance he struck between his personal and professional lives.

Vajpayee’s closest associates often described him as a man who valued relationships deeply. While his public persona exuded charisma and leadership, his private life reflected vulnerability and warmth. His bond with Rajkumari Kaul was a cornerstone of this duality, blending the personal and political seamlessly.

Remembering a Timeless Leader
Atal Bihari Vajpayee’s legacy is multifaceted. As a politician, he was a visionary leader who steered India through critical junctures. As a poet, he captured the essence of human emotions with remarkable sensitivity. And as a human being, he exemplified love, loyalty, and compassion.

His relationship with Rajkumari Kaul remains one of the most poignant chapters of his life, offering a glimpse into the man behind the leader. It is a story of love that thrived despite societal norms, a bond that endured the passage of time, and a connection that defined the essence of companionship. In remembering Vajpayee, one cannot overlook the quiet strength of this relationship, which continues to inspire generations.

Will Bhujbal Join BJP?

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Chhagan Bhujbal

A significant development unfolded in Maharashtra politics when senior Nationalist Congress Party (NCP) leader Chhagan Bhujbal met with Chief Minister Devendra Fadnavis. This meeting took place at a time when Bhujbal had been excluded from the MahaYuti government’s cabinet, making his displeasure quite evident.

Bhujbal’s primary grievance appears to be his exclusion from the cabinet. He expressed his frustration, revealing that when he wished to go to the Rajya Sabha, he was asked to contest the Assembly elections instead. Now, after being denied a ministerial position, he is being offered a Rajya Sabha seat. Bhujbal sharply questioned, “Am I a toy? Should I stand when you say so and sit when you wish?”

Meanwhile, Deputy Chief Minister Ajit Pawar downplayed Bhujbal’s dissatisfaction, labeling it as an internal party matter. He also hinted that Bhujbal was unhappy with the BJP’s interference, asserting that the NCP would resolve its internal issues independently.

Following the meeting between Bhujbal and Fadnavis, political circles have been abuzz with speculation about whether Bhujbal plans to join the BJP. However, no clear statement has been made regarding this possibility. Chief Minister Fadnavis commented that discussions about Bhujbal’s potential role at the national level are ongoing, and a decision will be made in the next 10-12 days.

This development could have significant repercussions for Maharashtra’s political landscape. Should Bhujbal choose to join the BJP, it would deal a major blow to the NCP and potentially shift the state’s political equations. As a prominent OBC leader, Bhujbal’s decision could also influence the voting patterns of this community.

In conclusion, Chhagan Bhujbal’s dissatisfaction and his meeting with Chief Minister Fadnavis have stirred political dynamics in Maharashtra, and the full impact of this episode will become clearer in the coming days.

अब कैंसर को पड़ेगा खुद मरना

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पूरी दुनिया में कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी से जूझ रहे करोड़ों लोगों के लिए उम्मीद की नई किरण आने ही वाली है। रूसी वैज्ञानिकों ने उन्होंने कैंसर की वैक्सीन बना ली है। वर्ष 2024 के आरंभ में ही रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा था कि उनका देश कैंसर की वैक्सीन डेवलप करने के बेहद करीब हैं। इस नई दवा का नाम mRNA वैक्सीन है। इसके क्लिनिकल ट्रायल से पता चला है कि इससे कैंसर ट्यूमर का इलाज करने में मदद मिलेगी। इस खोज को सदी की सबसे बड़ी खोज माना जा रहा है।

रशियन स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि कैंसर बीमारी के इलाज के लिए उसने कैंसर की वैक्सीन बना ली, जो नए साल में सभी नागरिकों के लिए फ्री में उपलब्ध होगी। जानकारी के अनुसार ये पहली mRNA वैक्सीन और दूसरी दूसरी ऑन्कोलिटिक वायरोथेरेपी है। इस थेरेपी के तहत लैब में मॉडिफाई किए गए इंसानी वायरस से कैंसर सेल्स को टारगेट कर संक्रमित किया जाता है। इस थेरेपी के लिए बनाई जा रही वैक्सीन का नाम एंटेरोमिक्स है।

कैंसर दुनिया की सबसे घातक बीमारियों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक, पूरी दुनिया में कार्डियोवस्कुलर डिजीज के बाद सबसे ज्यादा मौतें कैंसर के कारण होती हैं। पूरी दुनिया में हर साल लगभग 6.1 करोड़ लोगों की मौत होती है, जिसमें से 1 करोड़ लोगों की मौत कैंसर के कारण होती है। इसका मतलब है कि दुनिया में हर 6 मौतों में से एक मौत कैंसर के कारण होती है। इसलिए रूस की इस खोज को पूरी दुनिया बड़ी उम्मीद की नजर से देख रही है। इससे सबकुछ बदल सकता है। हर साल लाखों लोगों की जान बच सकती है।

वैसे कैंसर को आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की सबसे घातक चुनौतियों में से एक माना जाता है। यह बीमारी हर साल लाखों जिंदगियां निगल रहा है। इस घातक बीमारी से लड़ने के लिए विश्वभर में अनेक शोध और प्रयास किए जा रहे हैं। हाल ही में रूस ने कैंसर को जड़ से खत्म करने वाली एक वैक्सीन की खोज का दावा किया है, जिसने चिकित्सा जगत में एक नई उम्मीद जगाई है। यह लेख रूस की इस खोज, कैंसर के वैश्विक और भारतीय संदर्भ, और इससे जुड़े प्रमुख पहलुओं पर प्रकाश डालता है।

Cancer-Vaccine02-300x169 अब कैंसर को पड़ेगा खुद मरना

कैंसर: एक वैश्विक संकट
कैंसर दुनिया भर में मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2020 में लगभग 1 करोड़ लोगों ने कैंसर के कारण अपनी जान गंवाई। फेफड़े, कोलोरेक्टल, पेट, लिवर, और स्तन कैंसर सबसे घातक प्रकारों में गिने जाते हैं। भारत में भी स्थिति बेहद गंभीर है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम (NCRP) के अनुसार, 2022 में भारत में लगभग 14 लाख नए कैंसर मामलों का अनुमान लगाया गया था, और इनमें से 8 लाख से अधिक मौतें कैंसर के कारण हुईं। स्तन कैंसर, ओरल कैंसर, और सर्वाइकल कैंसर भारत में सबसे सामान्य प्रकार हैं।

कैंसर की वर्तमान चिकित्सा चुनौतियां
कैंसर के उपचार के लिए वर्तमान में कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी, सर्जरी और इम्यूनोथेरेपी जैसी विधियों का उपयोग किया जाता है। हालांकि, इन उपचारों के गंभीर साइड इफेक्ट्स और सीमित सफलता दर के कारण कैंसर को पूरी तरह से खत्म कर पाना अभी भी असंभव है। यही कारण है कि कैंसर के इलाज के लिए वैक्सीन जैसे प्रभावी और सुरक्षित समाधान की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही थी।

रूस की वैक्सीन: एक नई उम्मीद
रूस के वैज्ञानिकों ने हाल ही में एक ऐसी वैक्सीन विकसित करने का दावा किया है, जो कैंसर कोशिकाओं को न केवल खत्म करती है, बल्कि उनके पुनः विकसित होने की संभावना को भी समाप्त करती है। इस वैक्सीन का मुख्य उद्देश्य रोगी की प्रतिरक्षा प्रणाली को इतना सशक्त बनाना है कि वह स्वयं कैंसर कोशिकाओं को पहचानकर उन्हें खत्म कर सके।

वैक्सीन की कार्यप्रणाली
यह वैक्सीन ट्यूमर-संबंधित एंटीजन (Tumor-Associated Antigens) को लक्षित करती है। ये एंटीजन कैंसर कोशिकाओं पर पाए जाते हैं और इन्हें शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा पहचानने में कठिनाई होती है। वैक्सीन इन एंटीजन को पहचानने और नष्ट करने के लिए प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रशिक्षित करती है। प्रारंभिक परीक्षणों में इस वैक्सीन ने प्रभावशाली परिणाम दिखाए हैं।

क्लीनिकल परीक्षण और सफलता
रूस ने इस वैक्सीन के प्री-क्लीनिकल और प्रारंभिक क्लीनिकल परीक्षणों को सफलतापूर्वक पूरा किया है। इन परीक्षणों में कैंसर के कई प्रकारों, जैसे फेफड़े, स्तन, और प्रोस्टेट कैंसर, पर इसके प्रभाव का अध्ययन किया गया। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह वैक्सीन न केवल ट्यूमर के विकास को रोकती है, बल्कि मेटास्टैसिस (कैंसर के फैलाव) को भी नियंत्रित करती है।

विश्व और भारत में प्रभाव
रूस की इस खोज से न केवल वैश्विक स्वास्थ्य जगत में उत्साह है, बल्कि यह भारत जैसे देशों के लिए भी वरदान साबित हो सकती है, जहां कैंसर के इलाज तक पहुंच सीमित है। यदि यह वैक्सीन व्यापक रूप से उपलब्ध हो जाती है, तो यह कैंसर से होने वाली लाखों मौतों को रोकने में मदद कर सकती है। यह न केवल रोगियों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करेगी, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ को भी कम करेगी। भारत में कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है, और महंगे इलाज के कारण बड़ी संख्या में लोग उचित चिकित्सा से वंचित रह जाते हैं। भारत में हर 10 कैंसर मरीज़ों में से 7 की मौत हो जाती है। इस वैक्सीन की सफलता भारत में कैंसर के इलाज को किफायती और प्रभावी बना सकती है। साथ ही, यह ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में भी कैंसर के खिलाफ लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

कैंसर से दम तोड़ने वाले प्रमुख लोग
कैंसर ने न केवल आम लोगों, बल्कि दुनिया के कई प्रसिद्ध और प्रभावशाली व्यक्तियों को भी हमसे छीन लिया है। Apple के संस्थापक स्टीव जॉब्स, अभिनेता इरफान खान, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, फिरोज खान, टॉम ऑल्टर, नफीसा अली, सिंपल कपाड़िया संगीतकार रवींद्र जैन और आदेश श्रीवास्तव को कैंसर ने असमय लील लिया।

कैंसर रोकथाम और जागरूकता
वैक्सीन की खोज अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन कैंसर की रोकथाम के लिए जागरूकता और स्वस्थ जीवनशैली अपनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
धूम्रपान और शराब का सेवन कम करें: ये कैंसर के प्रमुख कारणों में शामिल हैं।
संतुलित आहार और व्यायाम: फल, सब्जियां और फाइबर युक्त आहार का सेवन करें।
नियमित जांच: कैंसर के प्रारंभिक लक्षणों की पहचान के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच जरूरी है।
टीकाकरण: सर्वाइकल कैंसर और हेपेटाइटिस के लिए उपलब्ध टीकों का उपयोग करें।

रूस द्वारा विकसित कैंसर वैक्सीन चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में क्रांतिकारी उपलब्धि हो सकती है। यह न केवल कैंसर के इलाज में नई दिशा प्रदान करेगी, बल्कि लाखों जिंदगियों को बचाने में सहायक होगी। हालांकि, इस वैक्सीन की व्यापक उपलब्धता और लागत जैसे सवाल अभी बाकी हैं। इसके बावजूद, यह खोज कैंसर के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हो सकती है।