हिंदी को किसी सरकारी बैसाखी की ज़रूरत नहीं
भारत में हिंदी का विस्तार इतना हो गया है कि यह भाषा इस देश की ऑक्सीजन हो गई है, और जो हिंदी का विरोध करेंगा वह बेमौत मारा जाएगा, क्योंकि हिंदी संपर्क भाषा के साथ साथ कारोबार की भी भाषा बन गई है। जो लोग हिंदी बोलना बंद करेंगे, उनकी इकोनॉमी ही बैठ जाएगी। यही ज़मीनी सच्चाई है। राज ठाकरे और एमके स्तालिन जैसे माने या न माने।
यह कहता अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि जिस भाषा की व्यापकता इतनी बृहद हो, उस भाषा को किसी तरह की बैसाखी की ज़रूरत नहीं है। आप हिंदी की पढ़ाई बंद कर दीजिए, हिंदी दिवस मनाना बंद कर दीजिए, तब भी हिंदी फूलती-फूलती रहेगी। हिंदी अब इस स्तर तक पहुंच गई है कि हिंदी का विरोध करने वाले लोग हिंदी का विरोध करके अपनी अदूरदर्शिया को परिभाषित कर रहे हैं।
हिंदी के तथाकथित विरोधी हिंदी की अहमियत को बिल्कुल भी नहीं जानते, क्योंकि अगर जानते तो विरोध कतई नहीं करते। भारत में हिंदी जन-जन की भाषा है। मातृभाषा चाहे जो हो लेकिन 95 फीसदी लोग हिंदी बोल लेते हैं। सेमिनार में लोग भले स्टैटस सिंबल के लिए अंग्रेज़ी में भाषण करें, लेकिन सेमिनार के बाद लंच या डिनर करते समय सब हिंदी ही बोलते हैं।
कुछ साल पहले एक तमिल भाषा सीएसएमटी पर आरक्षित टिकट लेने पहुंचा। उसने फॉर्म तमिल में भर दिया था। तमिलभाषी को अंग्रेज़ी या हिंदी नहीं आती थी। क्लर्क को तमिल नहीं आती थी। अब वह टिकट कैसे निकाले। संयोग से आरक्षण केंद्र में एक तमिलभाषी क्लर्क था, उसने आकर संबंधित क्लर्क को बताया कि कहा का टिकट बुक करना है। कहने का मतलब अगर आपको अंग्रेज़ी या हिंदी नहीं आती तो आप अपने राज्य में ही रहिए। आपको लिए पूरा भारत विदेश की तरह है।
केंद्र को शिक्षा में तीन-भाषा फॉर्मूले को थोपने की ज़रूरत ही नहीं है। हिंदी पढ़कर सीखने की भाषा ही नहीं है। आप तमिलनाडु या किसी भी राज्य में भी हिंदी कोचिंग क्लास का बोर्ड नहीं देखेंगे। इसका मतलब हिंदी को तीन-भाषा फॉर्मूले या कोचिंग क्लास जैसे बैसाखी की ज़रूरत है। वैसे भी भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषाओं को लेकर सदैव बहस होती रही है, विशेष रूप से हिंदी को लेकर। कभी इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने की मांग की जाती है, तो कभी इसके विरोध में आवाजें उठती हैं। मगर इन सबके बीच एक सत्य यह भी है कि हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसने बिना किसी विशेष सरकारी संरक्षण या जबरन थोपे जाने के भी, अपने आप को पूरे देश में एक संवाद की भाषा के रूप में स्थापित किया है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने शिक्षा में तीन-भाषा फॉर्मूले को पुनः लागू करने पर जोर दिया है। इसके अंतर्गत छात्रों को हिंदी, अंग्रेज़ी और एक स्थानीय भाषा पढ़ाई जाती है। इस नीति को लेकर कुछ राज्यों विशेषकर दक्षिण भारत में विरोध होता रहा है। लेकिन इस विरोध के बावजूद हिंदी ने स्वयं को एक सम्पर्क भाषा के रूप में स्थापित किया है। हिंदी दिवस जैसे आयोजनों की प्रासंगिकता भी इसी संदर्भ में देखी जानी चाहिए। आज के युग में जब हिंदी सिनेमा, समाचार चैनल, यूट्यूब, सोशल मीडिया और रेडियो के माध्यम से घर-घर पहुंच चुकी है, तब उसे संरक्षण देने या जबरन थोपने की आवश्यकता कहां रह जाती है?
हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जो देश के हर कोने में किसी न किसी रूप में बोली या समझी जाती है। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में तो यह मुख्य भाषा है ही, दक्षिण भारत में भी ‘काम-चलाऊ हिंदी’ के रूप में इसे खूब अपनाया गया है। ऑटो-रिक्शा चालक, होटल कर्मचारी, दुकानदार या कोई छोटा-मोटा कारोबारी—अधिकांश गैर-हिंदीभाषी राज्यों में भी हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं। वे जानते हैं कि हिंदी बोलना उन्हें एक बड़ा ग्राहक वर्ग दिला सकता है।
यह तथ्य है कि दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी का विरोध ऐतिहासिक रूप से तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों द्वारा किया गया है। वे इसे उत्तर भारत की संस्कृति थोपने के प्रयास के रूप में देखते हैं। किंतु इस राजनीतिक विरोध के बावजूद हिंदी वहां आम जन के बीच अपनी जगह बना चुकी है। चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे शहरों में काम करने वाले लाखों उत्तर भारतीय श्रमिक, कर्मचारी और छात्र वहाँ हिंदी को जीवंत बनाए हुए हैं। वहाँ के स्थानीय लोग भी व्यावसायिक और सामाजिक संवाद के लिए हिंदी सीखने को इच्छुक रहते हैं।
भारत में अंग्रेजी को प्रायः एक वैश्विक भाषा और आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन यह भी सत्य है कि देश की बहुत बड़ी जनसंख्या आज भी अंग्रेजी में दक्ष नहीं है। ऐसे में संवाद के लिए हिंदी ही सबसे सहज माध्यम बनती है। यह केवल शिक्षित वर्ग के लिए नहीं, बल्कि आम जनता के लिए भी अभिव्यक्ति का माध्यम है। ट्रेन में सफर करते समय, स्टेशन पर टिकट खरीदते वक्त, किसी भी पर्यटन स्थल पर गाइड से बात करते हुए, या किसी छोटे व्यवसायी से सौदा करते हुए—यदि कोई व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता, तो वह सरल हिंदी में बात कर लेता है। इसे ही ‘कम-चलाऊ हिंदी’ कहा जा सकता है। यह कोई शुद्ध साहित्यिक हिंदी नहीं होती, लेकिन संवाद स्थापित करने में पूर्ण सक्षम होती है।
आज हिंदी केवल भारत तक सीमित नहीं है। मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम, नेपाल, यूएई, अमेरिका, यूके, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और कई अन्य देशों में हिंदी बोलने और समझने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं। इन देशों में बसे भारतीय प्रवासी अपने बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए प्रयासरत हैं। कई देशों की यूनिवर्सिटियों में हिंदी पढ़ाई जाती है। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने की मुहिम भी चल रही है। यह सब बताता है कि हिंदी का विकास केवल सरकारी योजनाओं के भरोसे नहीं, बल्कि उसकी जन-स्वीकृति के आधार पर हो रहा है।
आज हिंदी टीवी चैनल्स, अखबारों, यूट्यूब चैनलों, पॉडकास्ट और मोबाइल ऐप्स के ज़रिये न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी पहुँची है। डिजिटल इंडिया अभियान ने हिंदी को और सशक्त किया है। गूगल, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे वैश्विक मंचों पर हिंदी सामग्री की भरमार है।
हिंदी अब केवल ‘काग़ज़ी भाषा’ नहीं रह गई है, यह अब युवाओं की भाषा बन चुकी है। इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स, ट्विटर ट्रेंड्स—हर जगह हिंदी का बोलबाला है। यहां तक कि अंग्रेज़ी बोलने वाले युवा भी अपने विचारों को हिंदी में व्यक्त करना गर्व की बात मानते हैं।
प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। यह उस दिन की याद दिलाता है जब 1949 में संविधान सभा ने हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। किंतु आज के संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि क्या हिंदी को विशेष दिवस की आवश्यकता है? या फिर यह केवल एक सरकारी औपचारिकता बन कर रह गई है? जब एक भाषा समाज में इतनी गहराई से रच-बस जाए, जब उसका उपयोग सरकारी कामकाज से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह हो, तो उसे ‘संरक्षण’ देने की बात हास्यास्पद लगती है। हाँ, हिंदी को मानक रूप में विकसित करने, तकनीकी शब्दावली को समृद्ध करने, और शिक्षा में इसकी उपयोगिता बढ़ाने के लिए योजनाएँ बनाई जा सकती हैं, लेकिन भाषा का असली विकास तब होता है जब वह जनमानस की भाषा बन जाए—और हिंदी आज वह बन चुकी है।
हिंदी को समर्थन देना या उसका विरोध करना अब एक राजनीतिक बहस का हिस्सा भर रह गया है। सच्चाई यह है कि हिंदी को न तो किसी जबरदस्ती की ज़रूरत है और न ही संरक्षण की। यह भाषा स्वयं लोगों ने चुनी है, स्वयं समाज में फैली है, और स्वयं अपने बलबूते एकता की कड़ी बनी है। आज का भारत नई तकनीक, वैश्विक प्रतिस्पर्धा और विविधताओं के बीच एकजुटता की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में हिंदी वह माध्यम बन रही है जो भारत के कोने-कोने को जोड़ सकती है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, यह अब भारतीय पहचान का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा