भाजपा के तीन चुनावी वादे
• 5 अगस्त 2019 को पहला वादा – कश्मीर से अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा – पूर्ण
• 5 अगस्त 2020 को दूसरा वादा – अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण – पूर्ण
• भाजपा का तीसरा चुनावी वादा – देश में कानून कॉमन सिविल कोड – शेष
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉमन सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता (UCC) के बारे में ऐसा बयान दे दिया कि उसके बाद देश में की राजनीति अचानक गरमा गई है। 27 जून यानी मंगलवार को भोपाल में मोदी ने देश में समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए विपक्षी दलों पर निशाना साधा था। मोदी ने कहा था दो कानून होने से घर नहीं चलता है, ऐसे में दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा। मोदी के बयान पर हमला बोलते हुए कांग्रेस ने इसे विभाजनकारी राजनीति बताया था और कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने कॉमन सिविल कोड (Uniform Civil Code) को लेकर देश और परिवार की तुलना को ग़लत बताया है।
दूसरी बार और अधिक बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त (2019) को जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के साथ अनुच्छेद 370 एवं अनुच्छेद 35 ए को ख़त्म करके कई दशक पुराना अपना वादा पूरा कर दिया। इसी तरह कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने की पहली सालगिरह यानी दूसरे 5 अगस्त (2020) को प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भगवान श्री राम मंदिर के निर्माण की आधारशिला रख करके भाजपा का दूसरा वादा भी पूरा कर दिया। इसके बाद लोग सवाल करने लगे कि क्या प्रधानमंत्री देश में समान नागरिक संहिता भी लागू कर देंगे? अब भोपाल में मोदी के बयान से तो यही लग रहा है कि 2024 के चुनाव से पहले देश को कॉमन सिविल कोड मिल जाएगा।
दरअसल, भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, बल्कि भारतीय जनसंघ की स्थापना के बाद से ही इस दल के तीन प्रमुख मुद्दे रहे हैं। पहला जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए का खात्मा, दूसरा अयोध्या में भगवान श्री राम के मंदिर का निर्माण और तीसरा देश में समान नागरिक क़ानून यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना। पार्टी अपने हर चुनाव घोषणा पत्र में इस तीनों मुद्दों का ज़िक्र करती है। इस तीनों वादों में से नरेंद्र मोदी ने दो वादा पूरा कर दिया। अब केवल तीसरा वादा पूरा करना बाक़ी रह गया है। फ़िलहाल, कांग्रेस समेत विपक्षी दलों को मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए कॉमन सिविल कोड का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोदी को बहुमत देने वाली जनता आम राय से देश में कॉमन सिविल कोड चाहती है। ऐसे में जो लोग इस क़ानून का विरोध करेंगे, वे निश्चित रूप से अलग-थलग पड़ जाएंगे।
सितंबर 2020 में गोवा के एक परिवार की संपत्ति के बंटवारे पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता का जिक्र किया था। देश की सबसे बड़ा अदालत ने इस बात पर निराशा जताई थी कि भारत में अब तक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। इससे पहले अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने ईसाई तलाक़ क़ानून में बदलाव की मांग करने वाली याचिका सुनते हुए केंद्र सरकार से कहा था कि देश में अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बनी रहती है। इसलिए सरकार एक समान कानून बना कर इस विसंगति को दूर कर सकती है। यह अदालत चाहती है कि सरकार को यह काम कर देना चाहिए। हालांकि संविधान बनाते समय समान नागरिक संहिता पर विस्तृत चर्चा हुई थी। अनुच्छेद 44 में नीति निदेशक तत्व के तहत उम्मीद जताई गई थी कि भविष्य में ऐसा क़ानून बनाया जाएगा।
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आज़ादी मिलने के बाद देश में केवल हिंदुओं के लिए इस तरह का क़ानून बनाया गया। सन् 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिंदू कोड बिल लेकर आए। इसी आधार पर हिंदू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून जैसे क़ानून बनाए गए। देश में हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के लिए विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे कानून संसद ने बना दिए, लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के आधार पर ही शादी, तलाक और उत्तराधिकार की परंपरा चलाने की छूट दी गई। हालांकि इस तरह की छूट नगा ट्राइबल समेत देश के कई आदिवासी समुदायों को भी हासिल है।
समान नागरिक संहिता का मतलब है विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेने और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम बनाना। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इसका मतलब परिवार के सदस्यों के आपसी संबंध और अधिकारों को लेकर समानता। लिंग, जाति, धर्म, परंपरा के आधार पर कोई रियायत न देना। फ़िलहाल भारत में नागरिकों को धर्म और परंपरा के नाम पर अलग नियम मानने की छूट मिली हुई है। मसलन, किसी समुदाय में बच्चा गोद लेने पर रोक है, तो किसी समुदाय में पुरुषों को एक से अधिक शादी करने की इजाज़त है। कहीं-कहीं विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने का नियम लागू है। समान नागरिकता क़ानून लागू होने पर किसी समुदाय विशेष के लिए अलग से कोई नियम नहीं होंगे। सबके लिए एक ही क़ानून होगा।
जब भी यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात होती है, तब धार्मिक कट्टरपंथी मुसलमान इस क़दम को सीधे अपने धर्म पर हमले की तरह पेश करने लगते हैं, जिससे मुद्दा ही बदल जाता है। इस बार भी यही हो रहा है। दरअसल, यह समझने की बात है कि समान नागरिक संहिता का यह मतलब कतई नहीं है कि इसकी वजह से विवाह मौलवी या पंडित नहीं करवा पाएंगे। समान नागरिक संहिता लागू होने पर भी परंपराएं बदस्तूर बनी रहेंगी। इतना ही नहीं नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत और रहन-सहन पर इसका कोई असर नहीं होगा। केवल धर्म के नाम पर जो अनाचार या अति की जाती है, कॉमन सिविल कोड लागू होने से वह बंद हो जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने भारतीय विधि आयोग (लॉ कमीशन) को समान नागरिक संहिता पर रिपोर्ट देने के लिए कहा था। 31 अगस्त 2019 को दी गई अपनी लॉ कमीशन ने यूनिफार्म सिविल कोड और पर्सनल लॉ में सुधार पर सुझाव दिए थे। अलग-अलग लोगों से विस्तृत चर्चा और कानूनी, सामाजिक स्थितियों की समीक्षा करने के बाद लॉ कमीशन ने कहा था कि अभी देश में समान नागरिक संहिता लाना मुमकिन नहीं है। इसलिए नया क़ानून लाने की बजाय मौजूदा पर्सनल लॉ में सुधार किया जाए। इसके अलावा मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता में संतुलन बनाने की ज़रूरत है। सभी समुदाय के बीच में समानता लाने से पहले एक समुदाय के भीतर स्त्री-पुरुष के अधिकारों में समानता लाने की कोशिश की जानी चाहिए।
समझा जाता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार अगर समान नागरिक संहिता की तरफ़ आगे बढ़ती है तो केंद्र सरकार के इस कदम से राजनीतिक विवाद हो सकता है, क्योंकि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर राजनीतिक पार्टियां एकमत नहीं हैं। कांग्रेस समेत सेक्यूलरवादी राजनीतिक दल इसका शुरू से विरोध करते रहे हैं। समान नागरिक संहिता पर राजनीतिक दलों के अपने-अपने तर्क हैं। संसद समान नागरिक संहिता विधेयक को यदि पारित कर देती है तो देश भर में सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून लागू होगा। इसके बावजूद राजनीतिक हलकों में चर्चा हो गई है कि सरकार का अगला कदम समान नागरिक संहिता लागू करना है।
लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा
(29 जून 2023 को अपडेटेड)