मोदी का अंधविरोध ही मुसलमानों का एकमात्र एजेंडा क्यों?

0
884

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा कट्टरपंथी मुसलमानों के निशाने पर रहते हैं। यह सिलसिला जब तब से शुरू हुआ, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री बनें और वहां 2002 भयानक दंगा हुआ। 18 साल पहले शुरू हुआ मोदी विरोध का सिलसिला अभी तक जारी है। दंगे या पक्षपात के आरोप समय-समय पर नेताओं पर लगते रहे हैं, लेकिन किसी नेता का इतने लंबे समय तक विरोध नहीं हुआ। मज़ेदार बात यह रही कि मुसलमानों का मोदी-विरोध नरेद्र मोदी के लिए शुभ साबित हुआ है। जब से मुसलमानों ने मोदी का विरोध करना शुरू किया है। तब से उनका राजनीतिक सफ़र आरोह क्रम में है। मुसलमानों के तीव्र विरोध के बावजूद वह लगातार तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने हैं।

अपने देश में नरेंद्र मोदी विरोध का आलम यह है कि अभी जब वह अयोध्या में भगवान राम के निर्माण की आधार शिला रखने के लिए अयोध्या जा रहे थे, तब भी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी समेत अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने उनका भारी विरोध किया और यह भी कहा कि यह देश के प्रधानमंत्री पद की अवमानना है। अगर सोशल मीडिया या वॉट्सअप या दूसरे मेसेंजर्स पर पोस्ट हो रहे लेखों, विचारों या दूसरी सामग्रियों के कंटेंट पर गौर करें, तो एक तरफ़ से सारे मुसलमान नरेंद्र मोदी का विरोध करते रहते हैं। केवल वही मुसलमान मोदी का समर्थन करते हैं, जो किसी न किसी तरह भाजपा या भाजपा नेताओं से जुड़े होते हैं। बाक़ी सब मोदी विरोधी खेमे में ही खड़े नज़र आ रहे हैं। चाहे अनपढ़ मजदूर मुसलमान हों या फिर उच्च शिक्षित मुस्लिम बुद्धिजीवी, चाहे राजनेता हों अथवा सामाजिक कार्यकर्ता, एक तरफ़ से सब के सब मोदी विरोध का परचम लहरा रहे हैं।

मोदी-विरोध इन लोगों पर इस कदर हावी है कि इन्हें मोदी नहीं मंजूर है, मोदी के अलावा हर कोई मंजूर है। चाहे वह कोई भी हो। यहां तक कि लोगों को रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे के विध्वंस के लिए कथित तौर पर सीधे ज़िम्मेदार लालकृष्ण आडवाणी से भी परहेज़ नहीं है। बस मोदी को हटाओ। मोदी को हराओ। किसी भी क़ीमत पर हराओ। मोदी और भाजपा आगे न बढ़ पाएं। मज़ेदार बात यह रही कि 2014 और 2019 के आम चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के विरोध के बावजूद मोदी जीत गए। नरेंद्र मोदी के इस अंधविरोध से आम आदमी ख़ासकर गैरमुस्लिम लोगों के मन में सवाल उठता है कि क्या अंध मोदी विरोध ही मुसलमानों का एकमात्र एजेंडा है? आख़िर मुस्लिम बुद्धिजीवी दूसरे ज़रूरी मुद्दों पर इतने सक्रिय क्यों नहीं रहते हैं? क्या आज मुस्लिम समाज के समक्ष मोदी विरोध के अलावा और कोई समस्या नहीं है?

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना? महिलाएं काम पर जाएंगी, पुरुष घर में खाना बनाएंगे!

इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए भारतीय मुसलमानों की समस्याओं को लेकर समय-समय पर आईं तरह तरह की सरकारी रिपोर्ट्स पर गौर करना होगा। राजिंदर सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग और महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट पर गौर करना पड़ेगा। इन रिपोर्ट्स से पता चलता है कि आज की तारीख़ में मुस्लिम समाज के सामने सबसे ज़्यादा समस्या है। कोई दूसरा समाज आज इतनी समस्याओं से दो-चार नहीं है, जितना मुस्लिम समाज। सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट से सभी अवगत हैं। महाराष्ट्र में मुसलमानों की समस्या के लिए आज चर्चा करते हैं महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट्स की। दरअसल, 2006 में राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लोकसभा में पेश होने के बाद 2008 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने राज्य में मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट डॉ. महमूदुर रहमान की अगुवाई में छह सदस्यीय समिति का गठन किया। उसे महमूदुर रहमान समिति कहा गया। समिति ने रिपोर्ट अक्टूबर 2013 में कांग्रेस-एनसीपी सरकार को सौंप दी, लेकिन राज्य सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया।

इसे भी पढ़ें – क्या अगले 5 अगस्त तक भाजपा समान नागरिक संहिता का अपना तीसरा वादा भी पूरा कर देगी?

इस बीच रिपोर्ट मीडिया में लीक ज़रूर हो गई। महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, एसएनडीटी वीमेन यूनिवर्सिटी की इकोनॉमिक्स फैकेल्टी और मुंबई यूनिवर्सिटी के निर्मला निकेतन कॉलेज ऑफ़ सोशल वर्क समेत, कुल सात विश्वसनीय संस्थानों के भरोसेमंद सर्वेज़ और स्टडीज़ का हवाला दिया गया है। रिपोर्ट में मुसलमानों के बारे में कई हैरान करने वाले तथ्य सामने आए। महाराष्ट्र में, देहात की बात छोड़ दें, मुंबई जैसे शहर में रहने वाले मुसलमानों की भी हालत एकदम पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर अवस्था में है। मुसलमानों को बैंकें क़र्ज़ देने से कतराती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़ महाराष्ट्र में 1.20 करोड़ मुसलमान हैं, जिनमें 15 साल तक की आबादी 37 फ़ीसदी है, जो ज़्यादा जन्म दर दर्शाती है। पुरुष मुखिया वाले हर मुस्लिम परिवार में औसतन 6.1 सदस्य हैं जबकि महिला मुखिया वाले परिवार में 4.9 सदस्य। रिपोर्ट में बताया गया है कि ग़रीबी और उचित मेडिकेयर का अभाव मुस्लिम 60 साल के बाद जल्दी मर जाते हैं। इसीलिए 60 साल या उससे ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी महज़ 6.6 फ़ीसदी है। यह भी सीरियस रिपोर्ट है। लिहाज़ा इस पर बहुत गंभीर शोध की ज़रूरत है। ताकि मुसलमानों को असामयिक मौत से बचाया जा सके। यह बहुत भयावह निष्कर्ष है।

इसे भी पढ़ें – हिंदुओं जैसी थी इस्लाम या ईसाई धर्म से पहले दुनिया भर में लोगों का रहन-सहन और पूजा पद्धति

समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में केवल 10 फ़ीसदी मुसलमान अपने खेत में कृषि कार्य करते हैं। 49 फ़ीसदी यानी क़रीब आधी मुस्लिम आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे गुज़र बसर करने मजबूर है जबकि पूरे देश में 34.4 फ़ीसदी मुसलमान ग़रीब तबके के हैं। राज्य में 20 फ़ीसदी मुसलमानों के पास राशन कार्ड नहीं ही है। इसी तरह 59 फ़ीसदी मुसलमान स्लम और बहुत गंदी बस्तियों में रहते हैं। इनमें भी केवल 18 फ़ीसदी लोगों के घर पक्के हैं। राज्य में बहुत बड़ी तादाद में मुस्लिम युवक बेरोज़गार हैं। 32.4 फ़ीसदी मुसलमान छोटे-मोटे काम करते हैं। शायद यही वजह है कि 45 फ़ीसदी मुसलमानों की परकैपिटा आमदनी महज़ 500 रुपए ही है। 34 फ़ीसदी मुसलमानों (आबादी का एक तिहाई) की मासिक आमदनी 10 हज़ार रुपए से भी कम है। 24 फ़ीसदी 10 से 20 हज़ार महीने कमाते हैं, जबकि 20 से 30 हज़ार कमाने वाले मुसलमानों की तादाद 3.8 फ़ीसदी है। 30 से 40 हज़ार रुपए कमाने वाले मुसलमानों की तादाद केवल 1.0 फ़ीसदी है। यह रिपोर्ट मुसलमानों की विपन्नता दिखाती है।

महमूदुर रहमान की रिपोर्ट यह भी कहती है कि मुस्लिम समाज काफ़ी संपन्न लोग भी हैं। देश के बाक़ी समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मुट्ठी भर लोग ही बेहतर जीवन जी पाते हैं। यानी केवल 6.0 फ़ीसदी मुसलमान हर महीने 50 हज़ार या उससे ज़्यादा आमदनी करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में महमूदुर रहमान की रिपोर्ट तक़रीबन सच्चर कमेटी जैसी ही है। शिक्षा में मुसलमानों की दशा बहुत दयनीय है। जहां देश में साक्षरता की दर 74 फ़ीसदी है, वहीं मुसलमानों मे साक्षरता मात्र 67.6 फ़ीसदी हैं। महाराष्ट्र में यह 65.5 फ़ीसदी से भी नीचे है। हालांकि,प्राइमरी स्तर पर मुस्लिम बच्चे हिंदुओं से बेहतर स्थिति में हैं। यानी हिंदुओं के 38 फ़ीसदी बच्चे प्राइमरी तक पहुंचते हैं, तो मुसलमानों के 47 फ़ीसदी बच्चे स्कूल तक पहुंच जाते हैं। आमतौर पर 14 साल की उम्र में मुस्लिम बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं और बाल मज़दूर के रूप में काम करने लगते हैं। आर्थिक तंगी इसकी मुख्य वजह है। सेकेंडरी यानी 12वीं तक केवल 4.2 फ़ीसदी बच्चे पहुंच पाते हैं। उच्च शिक्षा का मुस्लिमों का आंकड़ा भयावह है। महज़ 3.1 युवक स्नातक तक पहुंचते हैं। ज़ाहिर है, इसीलिए उच्च कक्षाओं में मुसलमान दिखते ही नहीं।

इसे भी पढ़ें – सुशांत की रहस्यमय मौत को और रहस्यमय बना रही है महाराष्ट्र सरकार

रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा का आंकड़ा तो बेहद निराश करने वाला है। महज़ एक फ़ीसदी लडकियां कॉलेज तक पहुंचती हैं। उच्च शिक्षा हासिल न कर पाने के कारण वे नौकरी वगैरह नहीं कर पाती और मजबूरी में पुरुषों का अत्याचार सहती हैं। उनके शौहर उनके विरोध के बावजूद एक से ज़्यादा निकाह कर लेते हैं। 2006 की थर्ड नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वें के मुताबिक़, 2.55 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाओं के पतियों के पास एक से अधिक बीवियां पाई गई थीं। मुसलमानों में दूसरे समुदायों की तुलना में अविवाहितों, तलाकशुदा और विधवाओं की संख्या बहुत ज़्यादा है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों में मैरिटल स्टैटस महज़ 29 फ़ीसदी है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 33 फ़ीसदी बच्चे उर्दू पढ़ते हैं, तो शहरों में क़रीब आधे (49 फ़ीसदी) बच्चे उर्दू पढ़ते हैं। 96 फ़ीसदी स्टूडेंट्स जनरल स्टडी करते हैं। महज़ 4 फ़ीसदी ही तकनीकी संस्थानों में जाते हैं। वोकैशनल एजुकेशन का परसेंटेज 0.3 फ़ीसदी यानी नहीं के बराबर है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकारी ही नहीं, निजी क्षेत्र में भी मुसलमानों को बहुत कम नौकरियां मिलती हैं। अगर मीडिया में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की बात करें तो उर्दू मीडिया को छोड़ दें तो बाक़ी मीडिया जैसे बौद्धिक संस्थानों में भी इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार देखने को मिलते हैं। महमूदुर रहमान कमेटी का साफ़ निष्कर्ष है कि महाराष्ट्र में वाक़ई बहुमत में मुसलमानों की हालत बहुत दयनीय है। कमोबेश यही तर्क देते हुए सच्चर कमेटी भी मुस्लिम समाज के विकास पर ख़ास ध्यान देने की बात कही थी। संभवतः इसी तरह की रिपोर्ट के आधार पर 2007 की रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने नौकरी में मुसलमानों को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने की पैरवी की थी।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

इन रिपोर्ट्स के आधार पर कहा जा सकता है कि मुस्लिम समाज आज ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। लेकिन कोई बुद्धिजीवी इन समस्याओं पर नहीं सोचता। सब ‘राग मोदी विरोध’ आलाप रहे हैं। गौर करने वाली बात है कि मुसलमानों का मोदी विरोध 2014 चुनाव में भी ऐसा ही था। मुसलमान मोदी का विरोध तब से कर रहे हैं जब सितंबर 2013 में उन्हें भाजपा ने प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया था। इसके बाद अधिकांश खाते-पीते मुसलमान चुनाव में मोदी के विरोध में लंगोट बांध कर खड़े हो गए। कोई मोदी के सिर इनाम रख रहा था, तो कोई गला काटने की बात कर रहा था। कांग्रेस नेता इमरान मसूद ने तो मोदी को बोटी-बोटी काट डालने की धमकी दे डाली थी। लोग ऐसी हवा बना रहे थे कि मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो मुसलमानों की शामत आ जाएगी। यह अंध विरोध अभियान नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए वरदान साबित हुआ। मुसलमानों के विरोध के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे।

इसे भी पढ़ें – क्षमा बड़न को चाहिए…

सबसे अहम बात यह है कि पिछले पांच साल कै दौरान मुसलमानों के अहित को लक्ष्य करके मोदी सरकार ने कोई भी फ़ैसला नहीं लिया। ट्रिपल तलाक़ विरोधी अध्यादेश को मुस्लिम विरोधी कतई नहीं कहा जा सकता। मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक़ की विभीषिका से मुक्त कराना हर भारतीय का फ़र्ज़ है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। ऐसे में वह अध्यादेश समय की मांग है। मुसलमानों को भी यह स्वीकार करना होगा कि उनके यहां महिलाओं की हालत ज़्यादा दयनीय है। लिहाज़ा, मुस्लिम समाज को समझना होगा कि सबसे पहले उन समस्याओं को हल करने के लिए आगे आना होगा। उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कोई न कोई वजह तो है जिसके कारण देश में हर क्षेत्र में मुसलमान दूसरे समुदाय से पिछड़ रहे हैं। यह सोचना होगा कि क्यों आतंकवाद इस्लाम के गर्भ से पैदा हो रहा है? क्यों दुनिया भर के जिहादी मुसलमान ही हैं? आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, यह कहकर इस समस्या को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस बारे में ‘बीइंग द अदर: द मुस्लिम इन इंडिया’ की लेखिका सईद नकवी लिखती हैं, “इस देश का मुसलमान दरअसल विकास की कीमत पर एक खास किस्म की मजहबी और सांस्कृतिक सनक का शिकार होकर रह गया है। इसके लिए मुसलमानों को तालीम देने वाले मुल्ले ही दोषी हैं।”

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

लिहाज़ा मोदी विरोध से पहले मुल्लाओं और मुल्लापन को विरोध करना होगा। मुसलमानों को उन कारकों का विरोध करना होगा जो उनके सर्वांगीण विकास में बाधक है। मुसलमान सालों से भारतीय संस्कृति और देश का हिस्सा हैं और उन्हें अपने विकास के लिए इन जमीनी समस्याओं से अपनी आने वाली पीढ़ी को निजात दिलानी होगी। सरकारों की ओर से उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति की पड़ताल समस्याओं को सुलझाने के लिए की गई है ना की राजनीतिक औजार के रूप में उनका इस्तेमाल करने के लिए। बेहतर होगा कि देश के मुसलमान अपनी समस्याओं को आगे आकर समझें और उसका समाधान निकालें।

हरिगोविंद विश्वकर्मा