ग़ज़ल
गुज़र ही गया वो लम्हा ख़्वाब सा
फिर लगता है क्यों मुझे पास सा।
बड़ा गुलज़ार था आशियाना यहां
अब लगता है दिन भी उदास सा।
तू क्या गई सारी रौनक चली गई
दिल में चुभ गया है एक फांस सा।
माफ़ ना किया तूने मेरी ख़ता को
ये जीवन ही लगता है अपराध सा।
ज़िंदगी दो इजाज़त रुख़सत करें
तेरे बिना ज़िदगी जीया पहाड़ सा।
-हरिगोविंद विश्वकर्मा
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