कहानी – नियति

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वाराणसी की ओर जाने वाली सड़क सिंहपुर गाँव से होकर गुजरती थी। यह गाँव शहर से बीस-बाइस किलोमीटर दूर था। तक़रीबन दो हज़ार आबादी वाला यह गाँव क़ुदरती तौर पर बहुत समृद्ध था। गाँव के किनारे से एक नदी गुज़रती थी, इसलिए यहाँ हरियाली भरपूर थी। यहाँ पीपल, बरगद, नीम, आम, महुआ, इमली, शीशम, कटहल और अशोक के ढेर सारे वृक्ष हरियाली को और बढ़ा रहे थे। इसके अलावा यहाँ सागौन और बादाम जैसे बड़े पत्तों वाले वृक्ष भी लगाए गए थे। आसपास का यह इकलौता गाँव था, जहाँ पलाश के वृक्ष भी उगे थे। गाँव और नदी के बीच बड़ी संख्या में खड़े पलाश के पेड़ों में फूल आ गए थे। ये फूल बड़े ही मनोहारी लगते थे। हर किसी को अपनी ओर खींचते थे। नदी और सड़क पर बने पुल के साथ मिलकर ये वृक्ष गाँव के प्राकृतिक सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे। गाँव के लोगों और राहगीरों को छाया एवं फल प्रदान करते थे। इतना ही नहीं यहाँ गर्मी के मौसम में भी बहुत अधिक गर्मी महसूस नहीं होती थी। गाँव में लोग शांतिपूर्ण जीवन जी रहे थे।

तनमय छुट्टियाँ ख़त्म होने पर जम्मू-कश्मीर के उधमपुर जनपद में ड्यूटी रिज़्यूम करने जा रहा था। उसे वाराणसी से ट्रेन लेनी थी। लेकिन जम्मू तवी जाने वाली ट्रेन आज अचानक पाँच घंटे विलंब हो गई। वह कुछ देर बैठा टाइम पास करता रहा। जल्दी ही वह बोर होने लगा। उसे लगा प्लेटफॉर्म पर बैठकर बोर होने से बेहतर है, वह सिंहपुर चला जाए। वहाँ बिट्टन और उसके पिता श्याम लाल से मुलाक़ात भी हो जाएगी, क्योंकि अति व्यस्तता के कारण बहुत लंबे अरसे से वह चाहकर भी सिंहपुर जा नहीं सका था। उसने एक ऑटोरिक्शा रिज़र्व कर लिया। फिर भी उसे उसे गाँव पहुँचने में एक घंटे लग गए। फिर भी उसके पास चार घंटे का समय था।

सिंहपुर में श्याम लाल का घर सड़क के पश्चिमी किनारे पर था। घर के पीछे बहुत दूर तक खेत फैले हुए थे। श्याम लाल देश के अति प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर थे। तनमय के बड़े भाई के सुसर। उन्हें ग्रामीण जीवन बहुत पसंद था। उन्होंने पहले से ही फ़ैसला कर रखा था कि सेवा-निवृत्त होने के बाद वह गाँव में ही रहेंगे। इसलिए नौकरी में रहते हुए ही उन्होंने गाँव में शानदार घर बनवाया था। अध्यापन कार्य करते हुए भी वह हर तीज-त्यौहार या कार्य-प्रयोजन में अपने गाँव चले आते थे। उनकी अपनी कार थी, तो शनिवार की शाम गाँव पहुँच जाते थे और सोमवार की सुबह वापस यूनिवर्सिटी पहुँच जाते थे। उनका दो मंज़िला घर आसपास के इलाक़े में बड़ा मशहूर था। वह घर आगे दिल्ली के लुटियंस ज़ोन में बने किसी बंगले की तरह लगता था। पीछे एक आँगन भी था, जहाँ कई कमरे थे। घर के सामने उन्होंने वाटिका लगा रखी थी। वहाँ लगे हर प्रजाति के फूल और पौधे घर के सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे।

श्याम लाल दो भाई थे। नरोत्तम लाल उनसे दस साल छोटे थे। एक बहन थी, जो उनसे छोटी लेकिन नरोत्तम से बड़ी थी। नरोत्तम एक राष्ट्रीयकृत बैंक की वाराणसी शाखा में ही प्रबंधक थे। वह भी शहर की बजाय गाँव में ही रहते थे। उनका संयुक्त परिवार था। श्याम लाल को दो संतानें थीं। एक लड़का और एक लड़की – तनमय की भाभी। नरोत्तम को केवल एक लड़की थी – बिट्टन। दोनों भाइयों में बहुत अधिक स्नेह था। वे एक दूसरे का बड़ा सम्मान करते था। वे साथ मिलकर खेती करते थे। कुछ मवेशी भी पाल रखे थे। घर और खेत का सारा काम-काज नौकर ही करते थे।

साइंस पर कई किताबें लिख चुके श्याम लाल को पढ़ने में सीरियस बच्चे बहुत प्रिय थे। वह शिक्षा को ज़िंदगी का अपरिहार्य हिस्सा मानते थे, इसलिए पढ़ाई को बड़ी अहमियत देते थे। किशोरावस्था में तनमय पढ़ने में बहुत ही होशियार था, इसलिए श्याम लाल को उससे बड़ा अनुराग था। यही वजह है कि वह जम्मू-कश्मीर में नौकरी लगने से पहले तक अक्सर श्याम लाल और बिट्टन से मिलने के लिए सिंहपुर ज़रूर चला आता था। नौकरी लगने के बाद आने-जाने का सिलसिला थम सा गया था।

सिंहपुर से भावनात्मक लगाव था उसका। भाई का ससुराल होने के साथ-साथ यह गाँव उसके लिए बहुत ख़ास था। गाँव के हर शख़्स से उसका परिचय था। वह गली-गली से वाक़िफ़ था। स्वाभाविक तौर पर गाँव में पहुँचते ही उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। मन भर आया। स्मृतियाँ ताज़ा हो उठीं। थोड़ी ख़ुशी थी, तो थोड़ी व्याकुलता भी थी। पूरे एक दशक बाद इस गाँव में उसके क़दम पड़े थे।

शहरीकरण के दौर में लोग रोज़ी-रोटी के सिलसिले में शहर पलायन करने लगे हैं। इससे गाँव उजड़ी बस्ती की तरह लगने लगे हैं। प्राकृतिक हरियाली के बावजूद मानव की कम संख्या के कारण सिंहपुर भी कमोबेश उजड़ी बस्ती की तरह ही लग रहा था। पूरे गाँव में इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे। जो मिलते, उनसे दुआ सलाम करता हुआ तनमय अपने गंतव्य-स्थल पर पहुँच गया। श्याम लाल के द्वार पर गाय, गोरू और दो कुत्तों के सिवा कोई नहीं था। वह सीधे लिविंग रूम यानी दालान में चला आया। दालान बहुत बड़ा था। सोफ़े और मैचिंग कुर्सियाँ सलीके से लगी थीं। ऊपर बड़ा फैन चल रहा था। उसकी हवा पूरे कमरे में पहुँच रही थी।

दालान से सटे स्टडी रूम में कुर्सी पर बैठकर दीपक पढ़ाई कर रहा था। वह तनमय की भाभी का भतीजा था। अब काफी बड़ा हो चुका था। दीपक ने उसे पहचान लिया। उठ कर उसका पाँव छुआ और उसके आने की ख़बर देने के लिए घर में चला गया। तनमय ने अपना बैग वहीं रख दिया और आरामदायक सोफ़े में धँस गया। उसे थोड़ी गर्मी लग रही थी। सो पीठ के बल होकर उसने दोनों पाँव फैला लिए। शर्ट की दो बटन खोल दी और पंखे की हवा खाने लगा। दालान में बाहर के मुक़ाबले नमी अधिक थी, इसलिए गर्मी का असर थोड़ा कम हो गया। आँखों को राहत देने के लिए उसने आँखें मूँद ली।

‘तनमय!’ एक अपनत्व भरा संबोधन। पतली और मीठी आवाज़ उसके कान के परदे से टकराई। उसने सहसा आँखें खोल दी और हड़बड़ाकर उठ बैठा। जिससे मिलने आया था, वही उसके सामने खड़ी थी – बिट्टन। हाथ में पानी का ग्लास लिए। उस देखकर तनमय को तेज़ झटका सा लगा। कितनी दुबली हो गई थी। मुख-मंडल एकदम कांतिहीन और पीला। बीमार सी लग रही थी।

उसने मन ही मन सोचा, ये वह बिट्टन तो नहीं जो उसके मन में बसी हुई है। उसकी बिट्टन तो तंदुरुस्त थी। फ़ुर्तीली थी। उसमें तो अल्हड़पन था। चंचलता थी। शोख़ी थी।

‘तुम…?’ उसके मुँह से निकला।

‘हाँ मैं। पहचाना?’ बिट्टन ने धीरे से पूछा, ‘कैसे हो तुम?’

‘मैं तो ठीक हूँ।’ तनमय बोल पड़ा, ‘लेकिन तुम मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लग रही हो।’

वह हँस दी। फ़ीकी सी हँसी। जैसे जबरी हँसी हो।

‘तुम्हारे मन का भरम है।’ बिट्टन आगे बोली, ‘तुम्हें कहाँ कोई ठीक लगता है। तुम्हें तो हर आदमी बीमार ही लगता है। लो पानी पी लो। प्यास लगी होगी।’

‘हाँ, प्यास तो लगी है।’ उसने बिट्टन के हाथ से ग्लास का पानी ले लिया। और गटागट पीने लगा। जैसे एक ही साँस में पीना चाहता हो। उसे सच में बहुत ज़ोर की प्यास लगी थी।

सहसा उसने अपने पाँव में किसी का स्पर्श महसूस किया। उसकी नज़र उधर गई। बिट्टन उसकी पदधूलि ले रही थी।

‘ये क्या कर रही हो?’

‘तुम्हारी पदधूलि ले रही हूँ।’ बिट्टन उसकी ओर देखे बोली, ‘तुमसे छोटी हूँ। तुम्हारा चरण स्पर्श तो कर ही सकती हूँ। तुमसे आशीर्वाद तो ले ही सकती हूँ।’

‘क्या सचमुच छोटी होने के कारण तुम पदधूलि ले रही हो?’

बिट्टन इसके बाद कुछ नहीं बोली। चुपचाप खड़ी रही। अंगूठे से पक्के फ़र्श में गड्ढा बनाने का असफल प्रयास करती रही।

कितना कुछ बदल गया पंद्रह-बीस साल में। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। पहले की तरह कुछ भी नहीं रहा। लेकिन वह बिल्कुल नहीं बदली। उसने खाली ग्लास बिट्टन की ओर बढ़ा दिया।

‘क्या लोगे? चाय, कॉफी या शरबत? बिट्टन ने पहली बार उस पर भरपूर नज़र डाली।

‘सब कुछ भुला बैठी न?’ तनमय उसकी ओर हैरानी से देख रहा था।

‘अरे हाँ…’ बिट्टन बोली, ‘तुम्हें तो केवल दूध में अदरक, इलायची और हरी चाय पत्ती डालकर बनी चाय बहुत पसंद है।’ अचानक बिट्टन ख़ामोश हो गई। शायद उसे अपनी भूल और उसके बाद अपने ज़्यादा बोलने का भी अहसास हो गया था।

सचमुच उसमें पिछले पंद्रह-बीस साल में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया। तनमय सोचने लगा, आदमी कहाँ बदलता है। वह तो हमेशा बच्चा ही रहता है। चंचल और निःस्वार्थी बच्चा। उसका बदलाव बदलाव नहीं अभिनय होता है। और, बिट्टन भी बदलने का अभिनय कर रही थी।

तक़रीबन बीस साल पहले जब पहली बार वह बिट्टन से मिला था, तो वह बीए अंतिम वर्ष में पढ़ रही थी और वह ख़ुद इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में था। उनमें ख़ूब शरारत होती थी। उन दोनों का रिश्ता ही कुछ ऐसा था कि उनकी शरारत का कोई भी बुरा नहीं मानता था।

बिट्टन ख़ाली ग्लास लिए बाहर चली गई। तनमय नज़र गड़ाए एकटक बाहर की ओर देखने लगा। उसका ध्यान अतीत की ओर खिंचता चला गया। उसकी स्मृतियाँ जीवंत हो उठीं। पंद्रह साल पहले की घटनाएँ उसके मानस पटल पर प्रतिबिंबित होने लगीं।

उस दिन जब उसकी नींद खुली तो दिन ढल चुका था। वह कभी दिन में नहीं सोता था, लेकिन ना मालूम कैसे उसे नींद आ गई। वह पूरे चार घंटे गहरी निद्रा में सोता रहा। जागने पर उसे अचरज हुआ कि वह कैसे सो गया। क्या सोच रहा था वह, जब नींद ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया था। हाँ, वह बिट्टन के बारे में ही सोच रहा था।

उसका बिट्टन से नया-नया परिचय हुआ था। रिश्ते में वह उसकी साली लगती थी। उसके बड़े भाई की चचेरी साली। उसे ख़ूब छेड़ती-छकाती थी। मज़ाक में उसके गालों में चिकोटी काट लेती थी। एक बार तो उसके भी हाथ चुटकी काटने के लिए बिट्टन के गालों तक पहुँच गए थे। फिर ख़ुद-ब-ख़ुद रुक गए। वह स्पर्श भर कर पाया था। चिकोटी नहीं काट सका था। उसके हाथ ही आगे नहीं बढ़े और तब तक बिट्टन भाग गई। बिट्टन से मज़ाक़ में भी अक्सर उसे ही झेंपना पड़ता था। उसने महसूस किया कि लड़कियाँ जितनी जल्दी बेतकल्लुफ़ हो जाती हैं, लड़के नहीं हो पाते। लड़के डरते हैं कि कहीं उनकी पहल का लड़की अन्यथा ना ले ले। इसलिए वे सब कुछ लड़की पर ही छोड़ देते हैं, जबकि लड़कियाँ शायद ऐसा नहीं सोचतीं।

नींद खुलने पर वह चारपाई से उठा और अँगड़ाई ली। हड्डियों के जोड़ों को चटकाया। नींद से जागने के बाद हाथ-मुँह धोने की उसकी आदत थी। वह पानी के लिए घर में चला गया। हैंडपंप आँगन में ही लगा था। आँगन में बात-बात पर कहकहे और ठहाके लग रहे थे। भाभी अपनी सहेलियों से घिरी थीं। वह गौने के पूरे दो साल बाद पीहर आई आई थीं, इसलिए आज चौथे दिन बाद भी उनकी सहेलियाँ उन्हें घेरे थीं। वह दो वर्ष के अपने मीठे अनुभवों और रोचक संस्मरणों व प्रसंगों को सविस्तार सुना रही थीं। उसी पर सहेलियाँ ठहाके लगा रही थीं।

आँगन में पहुँचते ही सभी युवतियाँ उसी को देखने लगीं। लड़कियों का इस तरह देखना उसे बड़ा अटपटा और अस्वाभाविक सा लगा। उन सबको अवॉयड करके वह हैंडपंप पर जा कर मुँह-हाथ धोया और बालों में कंघी करने के लिए दालान में चला आया। दर्पण के सामने खड़ा होकर कंघी करने लगा। सहसा, उसे बालों के बीच कुछ लाल-लाल सा दिखाई दिया। उसे थोड़ा संदेह हुआ। दर्पण में बालों को क़रीब से देखा। बालों में सिंदूर दिखाई दिया। किसी ने उसके बालों में सिंदूर डाल दिया था।

‘ये क्या मज़ाक़ है। ऐसा कोई करता है क्या?’ बाल में सिंदूर देखते ही वह बड़बड़ाने लगा।

उसे बहुत ही बुरा लगा। उसके क्रोध की कोई सीमा ना रही। क्रोध में उसने विवेक खो दिया। वह जान गया कि ये शरारत किसने की है। उसके अपरिपक्व मन ने इसका बदला लेने का फ़ैसला कर लिया। वह धीरे से घर में गया। अपने भाभी के कमरे में रखे श्रृंगारदान से सिंदूर की डिबिया लेकर अपनी जेब में रख ली और वापस दालान में चला आया।

दालान के पास वाला कमरा बिट्टन के स्टडी रूम था। वह खुला हुआ था। तनमय ने झाँक कर अंदर देखा। वहाँ बिट्टन थी। वह अपना रूप सँवार रही थी। वह रहस्यमय ढंग से मुस्कराया। दरवाज़े से सटकर खड़ा हो गया। बिट्टन के सजने-सँवरने में वह बाधा नहीं डालना चाहता था। बिट्टन ने अपनी नागिन जैसी जुल्फ़ों को तीन भाग में करके एक लंबी चोटी बनाई। इसके बाद चेहरे को सँवारा। अंत में दर्पण में अपना रूप देखकर मुस्कराई। कई कोणों से अपने रूप-सौंदर्य को परखा। उसे नहीं पता था, जिसके लिए वह सज-सँवर रही है, वह चितचोर पास ही खड़ा उसके सौंदर्य का रसपान कर रहा है। बिट्टन उठने वाली थी कि तनमय दबे पाँव अंदर चला आया। उसके दोनों हाथ पीछे थे। वह तेज़ी से दबे पाँव ही बिट्टन की ओर बढ़ा और चीते की सी फ़ुर्ती से एक चुटकी सिंदूर बिट्टन की माँग में डाल दिया। सहसा बिट्टन चौंक पड़ी। तनमय के बालों में सिंदूर देखकर हँस पड़ी। बड़ी दिलकश मुस्कान थी। प्यारी सी। हसरत भरी। बहुत अपनापन था उस मुस्कुराहट में।

‘अपने बालों को तो देखो, किसी ने सिंदूर डाल दिया है। एकदम लड़की लग रहे हो।’ बिट्टन चहक पड़ी, ‘किससे माँग भरवा लिया?’

उसकी माँग में सिंदूर डालते ही तनमय को होश आया कि वह क्या कर बैठा। उसने तो ब्लंडर कर दिया, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। उसे तो काठ सा मार गया। जड़वत हो गया अचानक। सहसा बिट्टन की नज़र उसकी उंगलियों पर पड़ी। सिंदूर देखकर वह लरज पड़ी। उसने फ़ौरन घूमकर ख़ुद को दर्पण में देखा। अपनी माँग में सिंदूर देखकर वह काँपने लगी।

‘नहीं, ये झूठ है।’ वह रोने लगी। उसने अपनी उंगलियों से अपनी माँग को टटोला। वहाँ सिंदूर ही था। उसके होंठ थरथराने लगे।

‘ये कैसा अनर्थ कर दिया तनमय?’ बड़े मासूम और करुण स्वर में बोली, ‘कैसा अनर्थ कर दिया। ये कैसा बदला लिया? ये क्या किया तुमने? ओह अम्मा, अब क्या होगा। मुझे तो बरबाद करके रख दिया।’

बिट्टन फूट-फूटकर रोने लगी।

तभी उसकी बुआ वहाँ पहुँच गईं। बिट्टन को रोते देखकर उन्हें लगा कि तनमय ने उसे कुछ अप्रिय बोल दिया।

‘क्या हुआ बेटा? रो क्यों रही हो?’ उन्होंने आते ही पूछा।

अचानक उनकी नज़र बिट्टन की माँग पर पड़ी।

‘बिट्टन, तेरी माँग में सिंदूर बेटा…? किसने डाली?’ अचानक उनकी नज़र तनमय की उंगलियों की ओर गई, ‘ये तुमने क्या कर दिया तनमय बेटा…?’

‘बुआ… इसने सोते समय मेरी माँग में सिंदूर डाल दिया था। तो मैंने भी ग़ुस्से में इसकी माँग में सिंदूर डाल दिया।’ तनमय ने सफ़ाई दी, मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई। अब क्या करूँ?’

‘ऐसे कैसे ग़लती हो गई बेटा…’ बुआ ने कहा, ‘जानते हो तनमय बेटा, लड़कियों की माँग में सर्वप्रथम सिंदूर कौन भरता है? उसका पति। उसका जीवनसाथी। उसका दूल्हा। जो सेहरा बाँधे बारात लेकर आता है। लड़की की माँग में सिंदूर भर कर उसे अपनी अर्धांगिनी बनाता है और दुल्हन के रूप में उसे विदा करके अपने घर ले जाता है। क्या तुम ये सब कर सकोगे? नहीं कर सकोगे न… फिर, ये अनर्थ क्यों किया? हे भगवान, ये क्या हो गया? मेरी बेटी को किस गुनाह की सज़ा दे दी।’

थोड़ी देर ख़ामोशी के बाद बुआ फिर बोलीं।

‘जानते हो बेटा, इसने तुम्हारे बालों में सिंदूर क्यों डाला था… बस थोड़े से हास-परिहास के लिए। थोड़े से आनंद और थोड़ी मौज़-मस्ती के लिए इसने दिल्लगी की थी। तुम लड़के हो। तुम्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। लेकिन तुमने ये सब क्यों किया? कौन सा आनंद मिला तुम्हें? तुमने तो इसका जीवन ही नरक कर दिया। तुम भूल क्यूँ गए तनमय कि वह लड़की है। नारी। भारतीय नारी, जिसकी माँग में केवल एक ही पुरुष सिंदूर भरता है। इसीलिए भारतीय नारी को संसार में सम्मान की नज़र से देखा जाता है। और, वह सम्मान तुमने मेरी बेटी से छीन लिया। देखो, कैसे बिलख रही है वह। तुम इसका गला दबा देते, तो भी उसे इतनी पीड़ा न होती लेकिन तुमने तो उससे भारतीय नारी का सम्मान ही छीन लिया।’

बिट्टन बिलख रही थी। तनमय का मन ग्लानि से भर उठा। उसने भारी भूल कर दी थी। उसे भी बहुत पछतावा हो रहा था। पीड़ा हो रही थी। किंतु वह जो कुछ कर बैठा था, वह वापस भी तो नहीं हो सकता था। बुआ की बातों से उसे मालूम पड़ी, भारतीय नारी की महत्ता। भारतीय कन्याएँ अपनी हिफ़ाज़त क्यों करती है। अपनी माँग रिक्त क्यों रखती हैं। इन पर किसका हक़ बनता है।

बिट्टन का क्रंदन उसके सब्र की तमाम दीवारों को धराशायी कर गया। उसे बिट्टन के हाल पर रोना आ रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह फूट पड़ेगा। लेकिन ऊपर से वह बुत ही बना रहा।

‘मुझे माफ़ कर दो बिट्टन। मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। चाहे जो सज़ा दो। तुमने मुझसे मज़ाक़ क्या किया, लेकिन ग़ुस्से में मैंने अपना विवेक ही खो दिया। मुझसे बड़ा अनर्थ हो गया। प्लीज़ रोओ मत। मुझसे अब और नहीं सहा जा रहा है। मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। मुझे क्षमा कर दो।’ तनमय बड़े निरीह और कातर स्वर में बोला और बिट्टन का पाँव पकड़ लिया। लेकिन बिट्टन पीछे हट गई।

‘तुम्हें क्या माफ़ करूँगी…’ बिट्टन अब भी सिसक रही थी।

’तुमने उसकी माँग में सिंदूर भरा है। क़ायदे से अब तुम ही उसके धर्म पति हो।’ ये अप्रत्याशित निष्कर्ष बुआ का था।

‘धर्म पति…!’ तनमय सन्नाटे में आ गया। उसने कल्पना तक नहीं की थी कि बुआ या कोई भी ऐसा वाक्य बोलेगा।

हालाँकि उसे बिट्टन बहुत पसंद थी। वह उसे मन ही मन भी चाहता था। उनका रिश्ता भी ऐसा था कि दोनों की शादी में कोई बाधा भी नहीं थी। वैसे दोनों की शादी की चर्चा कई बार चल भी चुकी थी। लेकिन नरोत्तम लाल पता नहीं क्यों तनमय को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। उन्होंने इस रिश्ते की संभावना को ही सिरे से ख़ारिज़ कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि वह एक घर में दो-दो बेटियों की शादी के पक्षधर कतई नहीं थे।

‘रुको मैं नरोत्तम को बुलाकर लाती हूँ। उनको इस बारे में सूचित करना बहुत ज़रूरी है। वही भूल-सुधार करेंगे।’ बुआ बाहर चली गईं। बिट्टन अब भी सिसक रही थी और तनमय उससे चुप हो जाने का बार-बार आग्रह कर रहा था।

‘मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ बिट्टन। मुझसे ग़लती हुई है। इस ग़लती का केवल एक ही भूल-सुधार है कि मैं आज से तुम्हें धर्म पत्नी के रूप में स्वीकार कर लूँ। ये भूल-सुधार मैं ज़रूर करूँगा। हाँ बिट्टन, मेरे जीवन में अब तुम्हारे अलावा किसी और लड़की के लिए कोई स्थान नहीं होगा। मेरी इस नादानी के चलते अगर तुम मेरी धर्म पत्नी हो गई तो मैं भी तन-मन-धन से तुम्हें अपनी जीवन-संगिनी स्वीकार कर लेता हूँ। एक बात और तुम भी जानती हो, यह भी संभव है, संभव क्या निश्चित है कि तुम्हारे पिता मुझे तुम्हारे पति के रूप में स्वीकार नहीं स्वीकार करेंगे। वह हमारी शादी के लिए तैयार नहीं होंगे। अगर उनकी ज़िद के कारण हम सात फेर ना ले सके तो मैं आजीवन शादी नहीं करूँगा। मैं वयस्क हो चुका हूँ और मुझ पर किसी और लड़की से शादी करने का दबाव कोई नहीं डाल सकता। मेरे घर वाले भी नहीं। आजीवन अकेला रहना मेरे लिए आज की ग़लती की सज़ा होगी। मैं ख़ुद को वह सज़ा ज़रूर दूँगा बिट्टन।’ तनमय झटके से कह गया।

थोड़ी देर में बिट्टन के पिता नरोत्तम लाल पहुँच गए। पीछे-पीछे बुआ भी आ गईं।

‘क्या हुआ बेटा, रो क्यों रही हो?’ नरोत्तम लाल ने बेटी से पूछा।

नरोत्तम लाल एकदम शांत थे। बुआ ने उन्हें पूरा वाक़या नहीं बताया था। केवल इतना ही बताया कि तनमय से हँसी मज़ाक़ करते-करते बिट्टन को कोई बात बुरी लग गई और वह रो रही है। दरअसल, बुआ भी चाहती थीं कि बिट्टन की शादी तनमय से हो जाए। यह उनके लिए स्वर्णिम मौक़ा था। सो वह, इस मंतव्य से नरोत्तम लाल के पास गई थीं कि अब वह तनमय को लेकर अपनी ज़िद छोड़ दें।

पिता को देखते ही बिट्टन के सब्र का बाँध टूट गया। वह उनसे लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी। नरोत्तम लाल कुछ समझ ही नहीं पाए कि मामला क्या है। हमेशा चहकने वाली उनकी लाड़ली इतने भावुक होकर रो क्यों रही है? जब से तनमय आया था तभी से दोनों हँसी-मज़ाक़ ही कर रहे थे। दोनों में ऐसा क्या हो गया कि उनकी लाड़ली इस तरह से बिलख रही है और इतनी व्यथित है। सहसा उनकी नज़र बिट्टन के बाल सहलाते अपने हाथ पर पड़ी। वह बेतहाशा चौंक पड़े। उनके हाथ में सिंदूर लग गया था। उनकी नज़र बेटी की माँग पर गई। माँग में सिंदूर था। विद्युतीय रफ़्तार से उनकी नज़र तनमय की ओर गई। तनमय मुजरिम की तरह खड़ा था। एकदम कातर दिख रहा था। उसके दाहिने हाथ की उँगलियाँ लाल दिख रही थीं। उनमें सिंदूर के अवशेष थे।

नरोत्तम लाल को पूरा मामला समझते देर नहीं लगी। वह अपना आपा खो बैठे और एक करारा तमाचा तनमय के चेहरे पर दे मारा।

‘आ गया न अपनी औक़ात पर…’ उनके मुँह से यही शब्द निकले।

‘अरे, नरोत्तम क्या कर रहे हो?’ बुआ ने बीच-बचाव करने की कोशिश करते हुए कहा, ‘घर के दामाद पर हाथ उठा रहे हो।’

‘चुप रहो बहन!’ नरोत्तम लाल ने पहली बार अपनी बड़ी बहन को डाँटा, ‘तुम कुछ भी बोलती रहती हो। एक बार कह चुका हूँ कि बिट्टन की शादी इससे नहीं होगी तो तुम समझती क्यों नहीं… देख रही हो, यह दामाद बनने लायक है? यह तो क्रिमिनल है क्रिमिनल।’

उन्होंने एक और झापड़ मारा। तनमय इसके लिए तैयार नहीं था। वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा। उसका सिर दरवाज़े से टकरा गया और आँख के ऊपर की त्वचा कट गई। झापड़ भी ज़ोरदार था, जिससे उसके होंठ कट गए। उसके मुँह और सिर से ख़ून निकलने लगा। उसका चेहरा ही लहूलुहान हो गया।

तनमय अभी बीमारी से उठा था। शरीर भी कमज़ोर था। लिहाज़ा, अपना होश खो बैठा और वहीं लुढ़क गया। तभी वहाँ उसकी भाभी पहुँच गई। देवर की यह हालत देखकर उसे शॉक सा लगा। वह आपे से बाहर हो गई। घर में उत्पात मचा दिया। इस प्रकरण से घर में कोहराम मच गया। उस संयुक्त परिवार के घर की दीवारों में पहली बार दरार पड़ती दिखी थी।

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बहरहाल, तनमय को पास के डॉक्टर के पास ले जाया गया। ज़ख़्म ज़्यादा गहरा नहीं था। मरहम पट्टी कर डॉक्टर ने नींद की गोली दे दी, ताकि उसे दर्द महसूस ना हो। उसके बाद तनमय ऐसा सोया कि रात भर सोता रहा। अगली सुबह उसकी नींद खुली तो सिर फटता हुआ महसूस हुआ।

श्याम लाल ने इस मामले में एक शब्द बोलना उचित नहीं समझा। उन्हें भी लगा कि तनमय ने जो हरकत की, उस पर उनके छोटे भाई का उबलना स्वाभाविक था। उन्होंने तनमय को घर भेजने के लिए जीप बुक कर दी। तनमय की भाभी भी वापस ससुराल जाने के लिए तैयार हो गई। तनमय को सहारा देकर जीप में बिठाया गया। भाभी भी साथ बैठ गई। परिवार के सभी सदस्य विदा करने के लिए वहाँ खड़े थे। लेकिन वहाँ न तो बिट्टन वहाँ थी और न ही उसके पिता नरोत्तम लाल। सभी लोग अजीब सी ख़ामोशी ओढ़े थे। कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था। जैसे ही जीप चली उसकी भाभी फूट-फूट कर रोने लगी। पीहर से नाराज़ होकर अपनी ससुराल जा रही थी। अब न मालूम कब माइके आना होगा।

वह घटना दोनों परिवारों के रिश्ते में गाँठ सी बन गई। दोनों ओर से पूरे तीन साल तक कोई संपर्क या संवाद नहीं हुआ। मुकम्मल संवादहीनता ही रही। इस दौरान तनमय की भाभी न तो अपने मायके नहीं गईं और न ही उनके मायके से कोई उसे मिलने के लिए आया।

नरोत्तम लाल बड़े ज़िद्दी इंसान थे। बिट्टन उनकी इकलौती बेटी थी। वह उसकी शादी बड़े घर में करना चाहते थे, इसलिए अंत तक तनमय से उसके रिश्ते के लिए तैयार ही ना हुए। बुआ समेत परिजनों और रिश्तेदारों ने बहुत समझाया। पर वह नहीं माने। बिट्टन ने जैसे ही एमए पास किया उन्होंने उसकी शादी अन्यत्र कर दी। लड़का एक राष्ट्रीयकृत बैंक में अच्छी पोस्ट पर कार्यरत था।

इसी दौरान तनमय ने नौकरी करते हुए यूपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। आयकर विभाग में उसकी नौकरी लग गई और पहली पोस्टिंग जम्मू-कश्मीर के उधमपुर जनपद में मिली।

बिट्टन की शादी तो हो गई। लेकिन धीरे-धीरे उसके पति की असलियत सामने आने लगी। पता चला कि उसका चाल-चलन बिल्कुल भी ठीक नहीं है। उसे नशाख़ोरी समेत कई बुरी आदतें हैं। लेकिन जब तक पता चलता, बहुत देर हो चुकी थी। वह शराब पीकर बिट्टन को घोर मानसिक यातनाएँ देने लगा था। बिट्टन बहुत स्वाभिमानी लड़की थी। उसके लिए ऐसे इंसान के साथ ज़िंदगी गुज़ारना असंभव सा लगा। वह मायके चली आई और नरोत्तम लाल को सारा वृतांत सुना दिया।

नरोत्तम लाल को अब अपने फ़ैसले पर पछतावा हो रहा था। वह चाहते थे कि उनकी बेटी उस शराबी के चंगुल से बाहर आ जाए। इसके लिए वह अदालत में तलाक़ के लिए मुक़दमा दायर करना चाहते थे। इसी सिलसिले में एक दिन वह अदालत जा रहे थे, लेकिन रास्ते में ही उनकी कार को एक अनियंत्रित ट्रक ने टक्कर मार दी। हादसे में घटनास्थल पर ही उनकी मौत हो गई। बिट्टन के ऊपर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। बाल्यावस्था में माँ काल-कवलित हो गई थी। अब सिर से बाप का साया भी हट गया। वह एकदम अनाथ हो गई।

नरोत्तम लाल की मौत की ख़बर सुनकर तनमय सिंहपुर पहुँच गया। श्राद्ध की तैयारी के सिलसिले में वह दो हफ़्ते तक गाँव में ही रहा, लेकिन इस दौरान उसके और बिट्टन के बीच लगभग संवादहीनता ही रही। उनमें काम को लेकर यदा-कदा बातचीत हो जाती थी। वह अक्सर बिट्टन को या तो उदास या रोते हुए देखता था। वह सब कुछ देख सकता था, लेकिन बिट्टन को रोते हुए नहीं देख सकता था। लेकिन हालात ऐसे थे कि वह कुछ कर भी नहीं सकता था, क्योंकि बिट्टन कुछ बोलती ही नहीं थी। वह उसकी इस हालत के लिए अपनी उस नादानी को ज़िम्मेदार मानता था। कभी-कभी उसका मन होता था कि जाकर बिट्टन से कहे, मत रोओ, मैं हूं न। लेकिन बिट्टन की ख़ामोशी देखकर उसकी हिम्मत जवाब दे जाती थी।

बिट्टन थी कि कुछ बोलती ही नहीं थी। उसकी इस तरह चुप्पी तनमय को सालती थी। वह कभी नहीं चाहता था कि बिट्टन दया की पात्र बने। वह बहादुर लड़की थी, पर उसकी नादानी ने उस बेचारी को दया का पात्र बना दिया था। उसे खुद बिट्टन पर दया आ रही थी। वह उसे बहुत प्यार करने लगा था, लेकिन उसकी चुप्पी से उसकी ज़ुबान पर भी ताला लगा रहता था।

नरोत्तम लाल के श्राद्ध में ना तो बिट्टन का पति आया और ना ही उसके घर का कोई सदस्य। इससे बिट्टन और भी दुखी हो गई। दरअसल, पति के बुरी आदतों के बावजूद कहीं न कहीं उसे उम्मीद थी कि वह उन आदतों को छोड़ कर माफ़ी माँग लेगा और उनका वैवाहिक जीवन पुनः सामान्य हो जाएगा। ससुराल से किसी के ना आने से बिट्टन निराश हो गई। उस दिन दिन भर रोती रही। उसे रोता देखकर तनमय कोलैप्स्ड हो गया। उसका मन हुआ जाकर बिट्टन के आँसू पोंछ दे। लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका।

श्राद्ध के दूसरे दिन दालान में बैठा था कि बिट्टन अचानक उसके पास आ गई। उसे देखते ही तनमय खड़ा हो गया। वह शायद कुछ कहना चाहती थी। उसके पास आकर खड़ी हो गई। वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। चुपचाप थी। उसकी आँखें भर आई। दो बूँद मोती गालों पर लुढ़क आएई। उस समय तनमय अपने आपको रोक नही पाया और उसके आँसू पोंछ दिए। इसके बाद तो बिट्टन फूट पड़ी और तनमय के सीने पर सिर टिकाकर फूट-फूट कर रोने लगी।

तनमय ने उसका चेहरा हाथों में ले लिया और धीरे से कहा, ‘रोओ मत। सब ठीक हो जाएगा। मैं हूँ न।’ उसके बाद बड़ी देर तक दोनों साथ ही रहे। उसने उसे बीएड करने की सलाह दी। वह चाहता था बिट्टन आर्थिक रूप से भी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए।

नरोत्तम लाल के श्राद्ध के तीसरे दिन तनमय ने सिंहपुर से प्रस्थान किया। बिट्टन उसे छोड़ने के लिए दूर तक आई। विदा लेते समय उसकी पदधूलि ली। इस बार तनमय का मन भर आया। उसकी इच्छा हुई कि उसे बाँहों में भर ले, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई।

उसके बाद उसकी भाभी तीज-त्योहार और किसी फंक्शन में माइके जाने लगीं। दोनों परिवार के बीच संबंध सामान्य हो गए। तनमय भी आयकर विभाग की नौकरी में वह बहुत व्यस्त रहने लगा। घर भी साल में एकाध बार ही आ पाता था।

एक बार घर आने पर उसकी भाभी ने ही बताया कि बिट्टन अब अपने ससुराल नहीं जाती है। उसने बीएड पूरा कर लिया। अब पीएचडी कर रही है और नौकरी की भी तलाश में भी है। पीएचडी के बाद निश्चित रूप से किसी कॉलेज में लेक्चरर हो जाएगी। पति से अघोषित तलाक़ हो गया। घर वाले तलाक़ के लिए मुक़दमा करने वाले थे, लेकिन बिट्टन ने ही मना कर दिया। उसने तो चाचा को भी मना किया था लेकिन वह नहीं माने और अदालत जाते समय उनका ऐक्सीडेंट हुआ था जिसमें उनका निधन हो गया। इसलिए बिट्टन ने ही कोर्ट-कचहरी जाने से पापा को भी मना करती है।

फिर उसे ख़बर मिली कि बिट्टन के पति ने तलाक़नामे का पत्र भेजा था। जिस पर बिट्टन ने हस्ताक्षर कर दिया। वह वहाँ जाना ही नहीं चाहती थी। उस आदमी के साथ रहना ही नहीं चाहती थी तो तलाक़ का विरोध करने का कोई मतलब नहीं था। तलाक के बाद उसके पति ने दूसरी शादी कर ली। इस बीच बिट्टन को अपने शहर में स्थित केंद्रीय सरकारी कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई।

घर वालों के लाख कहने पर भी तनमय ने शादी नहीं की। उसके सामने अनगिनत रिश्ते आए, लेकिन वह सबको रिजेक्ट करता रहा। उसे शादी शब्द से ही वितृष्णा हो गई थी।

अचानक दीपक के दालान में आने से अतीत से उसका तारतम्य टूट गया। वह वर्तमान में आ गया। उसे लग रहा था कि सब कल की ही तो बात है। वह पूरी गति से चल रहे सीलिंग फैन को देखने लगा।

कुछ देर बाद बिट्टन दो कप चाय और प्लेट में बिस्किट लेकर आई। एक कप तनमय को दिया, दूसरा दीपक की ओर बढ़ा दिया। दीपक चाय की चुस्की लेता हुआ बाहर चला गया।

‘और तुम्हारी चाय?’ तनमय बिट्टन की ओर देखा।

‘अब मैं चाय नहीं पाती।’ वह अंगूठे से फ़र्श को खुरचने का प्रयास कर रही थी।

‘याद करो बिट्टन, अदरक और इलायची की चाय हम साथ-साथ पीते थे।’ तनमय ने उसे देखते हुए कहा।

बिट्टन उसे देखने लगी। तनमय को लगा कि वह उसकी आँखों में झाँक रही है और कह रही है कि उस दौर के बातें तुम्हें अब तक याद हैं। कुछ देर बात तनमय वही वाक्य बिट्टन से सुन रहा था।

‘तुम्हें अब तक याद हैं। हमारे साथ चाय पीने की बातें?’

‘तुम भी कहाँ भूल पाई हो कोई बात। हाँ, अब भूलने का अभिनय करो तो दूसरी बात।’

बिट्टन कुछ नहीं बोली। चुपचाप बैठी रही। उनके दरम्यान गहरी ख़ामोशी पसरी रही।

‘तुम भी अपने लिए चाय लेकर आओ प्लीज़। मैं अकेले नहीं पी सकूँगा।’ तनमय ने चाय रख दी।

‘अकेले चाय नहीं पी सकोगे तो चाय पर कंपनी देने वाली का इंतज़ाम कर लो। मतलब शादी कर लो।’ बिट्टन उसे देखते हुए बोली, ‘इससे अकेलेपन से भी निजात मिल जाएगी और चाय और भोजन में कंपनी देने वाली भी मिल जाएगी।’

‘कोई कंपनी नहीं चाहिए यार…’ तनमय ने बिट्टन की आँखों में आँख डालकर कहा, ‘जीवन जीने के लिए क्या शादी बहुत ज़रूरी है बिट्टन?’

‘हाँ… शादी जीवन का इंटीग्रल पार्ट है।’ बिट्टन बोली, ‘शादी की औपचारिकता तो निभानी ही पड़ती है न।’

‘तब तो वह औपचारिकता तो मैं बरसों पहले निभा चुका हूँ। शादी तो मैं कर चुका हूँ। इसी दालान के बग़ल वाले कमरे में। सिंदूरदान भी हो गया था। बस मेरे दुल्हन की विदायी न हो सकी। मैं तो चाहता था कि मेरी दुल्हन की डोली यहीं से निकले, मगर शायद क़ुदरत को मंज़ूर नहीं था। अब मैं क्या करूँ, अगर मेरी हैसियत आड़े आ गई थी तो।’ तनमय के चेहरे की पीड़ा पढ़ी जा सकती थी।

इस बार बिट्टन चुप ही रही। बस बीच-बीच में उसे देख रही थी।

‘बस मज़ाक़ कर रहा था। डोन्ट माइड टीचर।’ तनमय गंभीरता को चीरने का प्रयास किया, ‘जाओ, एक खाली कप ही लेकर आओ। इसी में आधा-आधा पी लेंगे।’

इस बार बिट्टन ने आँखों से ओके कहा और कप लाने घर में चली गई।

तनमय फिर अतीत की ओर खिंचने लगा।

बिट्टन की शादी हो जाने के तुरंत बाद ही बहन के साथ उसके ससुराल आई थी। वह तनमय से मिलना चाहती थी, जो उसकी शादी में नहीं गया था।

‘शादी कर लो तनमय।’ उसी समय उसने तनमय से कहा था।

‘क्यों…?’ तनमय उसकी बात सुनकर चौक पड़ा, ‘ये सलाह क्यों दे रही हो?’

‘सलाह नहीं दे रही हूँ। बस शादी कर लो।’ बिट्टन ने फिर कहा, ‘अकेलेपन से निजात मिल जाएगी।’

‘मैं अकेलेपन से निजात पाना ही नहीं चाहता बिट्टन। तनमय ने कहा था, ‘किसी को अकेलापन सालता है तो किसी को सुकून देता है। अकेलापन किसी के लिए अभिशाप भले हो लेकिन मेरे लिए ईश्वर का दिया अनुपम वरदान है। अकेलेपन में मेरा अतीत मेरे साथ होता है। मेरा ख़ूबसूरत अतीत। तो शादी करके मैं अपने आपको अपने ख़ूबसूरत अतीत से वंचित कर दूँ?’

‘तुमने शादी न करने का निर्णय ले लिया। लेकिन तुम्हें नहीं पता एक लड़की ये भी नहीं कर सकती। वह स्वेच्छा से कोई निर्णय नहीं ले सकती।’ बिट्टन सिसक पड़ी, ‘जब पिता जी मेरी शादी तय कर रहे थे तब मैं परंपराओं और रिश्तों की मजबूरी में क़ैद थी। उसी समय मुझे महसूस हुआ कि एक स्त्री कितनी कमज़ोर और लाचार होती है। मेरी शादी कर दी गई। मुझसे पूछा तक नहीं गया कि मुझे क्या पसंद क्या नापसंद है।’

‘रोओ मत, मैं तुम्हें कभी डूबने नहीं दूँगा। मुझे पता है, तुम्हारी शादी हो गई है। मैं तुम्हारा नहीं हो सकता, लेकिन मैं अकेले रहूँगा ताकि जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत पड़े, तब मेरे पैरों में कोई बंधन न हो…’

तभी बिट्टन अपने लिए एक कप में चाय लेकर आ गई और सामने वाली चेयर पर बैठ गई।

‘कब तक रहोगे?’

‘आज ही जा रहा हूँ। दो घंटे बाद ट्रेन लेनी है। चार-पाँच घंटे का टाइम था, सो चला आया। सोचा तुमसे मिल लूँ। तुम आओ न कश्मीर घूमने।’ तनमय बाहर देखने लगा।

बिट्टन कुछ नहीं बोली।

‘चलूँ अब। एक घंटा तो स्टेशन पहुँचने में ही लगेगा।’

बिट्टन ने उसकी ओर देखा। बोली कुछ नहीं। नज़रें झुका ली। वह कुछ कहना चाहती थी पर कह नहीं पायी।

चलते समय तनमय परिवार के सभी सदस्यों से मिला। सबका चरण स्पर्श किया। दीपक ने उसका चरण स्पर्श किया। आख़िर में बिट्टन भी उसके पास आई और उसने भी चरण स्पर्श किया।

‘ये क्या कर रही हो?’

‘तुम्हारी पदधूलि ले रही हूँ।’ बिट्टन की आवाज़ हलक में फँसी हुई थी। वह स्पष्ट बोल नहीं पाई। काफी कोशिश के बाद उसने पूछा, ‘अब कब आओगे?’

‘जब तुम बुला लो।’ तनमय परिहास में कह गया। फिर बोला, ‘देखो, जब फ़ुर्सत मिलेगी तो कोशिश करूँगा…’

और वह चल पड़ा। कुछ दूर जाकर पीछे मुड़कर देखा। सब लोग उसी को निहार रहे थे। द्वार पर बँधे गाय-गोरू भी चारा खाना छोड़कर उसी को देख रहे थे। उसका मन भर आया। बिट्टन भी उसे एक गाय की तरह लगी। उसका मन भारी था। शायद यही उसकी नियति थी।

वह चला जा रहा था, लेकिन उसे लग रहा था उसका कुछ ज़रूर सिंहपुर में छूट गया है। शायद उसके शरीर का ही अंश।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

साभार – मेरी सहेली

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