कहानी – बेवफा

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

उस रोचक लव स्टोरी का शायद आज क्लाइमेक्स था। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में उस बहुचर्चित प्रेम कहानी के मुक़दमे की सुनवाई चल रही थी। जज के सामने की कुर्सियों पर बैठे लोगों के अलावा बड़ी संख्या में तमाशाई खड़े भी थे। मीडियावाले बड़ी तादात में थे। उन्हें पठनीय और रोचक मसाला जो मिलने वाला था।

पेशकार ने आवाज़ दी और शाबाना उठी और जाकर विटनेस बॉक्स में खड़ी हो गई। वह एकदम चुपचाप थी। नीचे देख रही थी। अभियोजन पक्ष के वकील के जिरह करने पर अचानक बोली -योर आनर… मुझे फुसलाकर… ये… रीवा… ले गए…

-हां-हां…, बोलो-बोलो…! वकील ने उसे पुचकारा।

वह आगे बोली -और वहां मेरे साथ बलात्कार किया…

अदालत में मौजूद पूरा जनमानस सन्न। अचानक से शोर ग़ायब हो गया। वहां के माहौल में धूसर सन्नाटा-सा पसर गया। लोगों को समझ में ही नहीं आया कि क्या हो रहा है। कुंडल तो मानो जड़वत सा हो गया। वह निहार रहा था कभी शाबाना को कभी मुझे।

ज़ाहिर है, जो कुछ शाबाना ने अभी कहा था, उसके लिए वह बिलकुल अप्रत्याशित था। एकदम अविश्वसनीय और हैरतअंगेज़। वह शाबाना का ऐसा बयान सुनने के लिए तैयार भी नहीं था। उसके चेहरे का रंग बराबर बदल रहा था। कभी हवाइयां उड़ने लगती थी। कभी वह अदालत की छत की ओर देखने लगता था। निश्चत तौर पर वह अपने आप से लड़ने का प्रयास कर रहा था। और शायद हार रहा था।

और शाबाना। पूरे किए कराए पर पानी फेरने के बाद ख़ामोशी ओढ़ ली थी उसने।

बेशक, इसके आगे वह नहीं बोल पाई। अभियोजन पक्ष के वकील के लाख प्रयास के बाद भी। लेकिन बोलने के लिए अब बाक़ी ही क्या रह गया था। कुंडल को उसने पहले डॉक्टर से पति बनाया और अब बलात्कारी बना दिया। अब और क्या बोलेगी?

हालांकि वकील उसे भी बराबर कुरेद रहा था। उसका उत्साहवर्द्धन कर रहा था।

शाबाना के परिवार वाले ख़ुश थे। एक राहत थी, उन सबके चेहरे पर। वह जो चाहते थे, उनकी बेटी ने वह बोल जो दिया था।

तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है? अदालत ने थोड़ी देर बाद कुंडल से पूछा। वह बोला कुछ नहीं, बस देख रहा था।

अदालत ने अपना सवाल दोहराया।

नो। उसने बुझा-सा उत्तर दिया।

लोगों को हैरानी हो रही थी कि कुंडल कुछ बोल क्यों नहीं रहा है। उसके घर वाले यानी माता-पिता काफी परेशान हो रहे थे, ख़ास कर उसकी मां। सब चाहते थे, कुंडल भी अपने बचाव में कुछ बोले। पर उसने तो नो कह कर पल्ला झाड़ लिया और अपने आपको क़ानून के शिकंजे में ख़ुद फंसा लिया।

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मैं भी दर्शक-दीर्घा में बैठा था। कभी कुंडल को देखता था, कभी शाबाना को। लेकिन उन दोनों में से कोई मुझसे नज़र नहीं मिला पा रहा था। मिलाते भी कैसे नज़र! क्या कहते मुझसे वे दोनों।

वहां, मैं ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जो दोनों से समान रूप से परिचित था। उनके संबंधों का इकलौता गवाह था मैं। सहसा मेरी नज़र शाबाना पर ठहर गई। मैं उसे अपलक देखने लगा। मैं सोच रहा था कि कितनी सफ़ाई से वह झूठ बोल गई। मुझे पहले से ही पता था, वह इसी तरह हथियार डाल देगी। लड़कियां अक्सर ऐसा ही करती हैं। अपने प्यार के पक्ष में अपने परिवार से लड़ने वाली बोल्ड लड़कियां समाज में बहुत कम मिलती हैं। कभा-कभार मिलती है। अन्यथा बाक़ी सब इसी तरह हथियार डाल देती हैं।

यहां हथियार डालने की दोषी केवल शाबाना ही नहीं है। कुंडल ने भी तो हथियार डाल दिया। शाबाना के बयान का विरोध नहीं किया। पहले तो कोई वकील नहीं करने दिया। अब ख़ुद चुप हो गया है। सारा आरोप अपने सिर पर ले लिया।

हालांकि वह कायर नहीं है। वह लड़ाकू किस्म का लड़का है। इसके बावजूद संवेदनशील मामले में लड़ने का उसमें माद्दा ही नहीं। ख़ासकर वह शाबाना के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोल सकता। उसके ख़िलाफ़ लंबा चौड़ा बयान दोना या कोई मोर्चा खोलना तो बहुत दूर की बात है। वह अदालत से यह नहीं कह सकता था कि शाबाना झूठ बोल रही है। दूसरा कोई होती तो शर्तिया बोलता, लेकिन शाबाना के विरुद्ध वह कैसे जा सकता है।

वैसे तीन दिन पहले जेल में लंबी-चौड़ी हांक रहा था। कह रहा था कि वह बेदाग़ छूट जाएगा, क्योंकि उसकी शाबाना उसके साथ है। शाबाना से उसका जनम-जनम का साथ है। शाबाना को लेकर वह बहकी-बहकी बातें कर रहा था। शाबाना ऐसी है, शाबाना वैसी है। शाबाना के साथ वह एक नई दुनिया बसाएगा। ख़ूब पैसा कमाएगा। यह करेगा, वह करेगा। और पता नहीं क्या-क्या… मुलाक़ात के पूरे आधे घंटे, वह यही बातें करता रहा। दूसरी बात करने का मौक़ा ही नहीं दिया। जबकि मैं मुक़दमे के संबंध में उससे कुछ बेहद महत्वपूर्ण बातें करने के लिए जेल में उससे मिलने गया था। उसे शाबाना पर इतना भरोसा था कि उसने मुझे कोई वकील ही नहीं करने दिया।

और अब एकदम चुप… सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं। एक आदमी के भरोसे पर कल्पनाओं के पुल बना लिया था। जो अचानक ही अप्रत्याशित रूप से ध्वस्त हो गया। या कहें भरभरा कर गिर पड़ा। तमाम अरमान, तमाम सपने, अपना आशियाना, जीने की अभिलाषा और भविष्य की सारी योजनाएं अचानक से भरभरा कर गिर पड़ीं। किसी रेत में बनाएं किसी महल की तरह। कुछ पलों में ज़िंदगी की पूरी की पूरी धारा ही बदल गई। या कहें, ज़िंदगी ही बेमानी हो गई। आदमी क्या सोचता है और क्या हो जाता है। शायद इसी का नाम दुनिया है। जो वैसी नहीं है, जैसी ऊपर दिखती है। न मालूम कितने रहस्य छुपा कर रखती है, यह दुनिया अपने गर्भ में।

जिस पर भरोसा किया, जब वही मुकर गया। नहीं-नहीं, मुकरा ही नहीं, बल्कि एक गंभीर आरोप भी मढ़ दिया। इतना गंभीर आरोप कि उसे कई साल जेल की चक्की पीसनी पड़ेगी।

अपनी इस हालत के लिए क्या सचमुच कुंडल दोषी ही है?

मैं समझने का प्रयास कर रहा था कि आख़िर गड़बड़ी कहां हुई? इतना तो तय था कि कुंडल की इसमें ज़रा भी ग़लती नहीं थी, क्योंकि इसका गवाह मैं भी था।

मुझे याद हैं, जब गर्मियों में कुंडल गांव आया था, तो उसने ही बताया था कि उसके जीवन में एक सुंदर सी लड़की आ गई है। वह उसे बहुत प्यार करती है। टूटकर चाहती है उसे। उसके बिना ज़िंदा नहीं रह सकती वह। आदि-आदि। वह मुझसे पांच-छह साल बड़ा था, लेकिन अपनी हर बात मुझसे शेयर करता था।

मैं तो चौंक सा पड़ा था, उसकी बातें सुनकर। क्योंकि प्यार-व्यार की बातें उसने मुझसे पहली बार की थी। वह कभी प्यार की बात भी करेगा, मैंने कल्पना ही नहीं की थी। उसकी विचारधारा कम्युनिस्टों से मिलती जुलती थी। वह कामरेडों की तरह संघर्ष और क्रांति की बातें किया करता था। जब मिलता था, वही मार्क्स, साम्यवाद, मजदूर, दलित, शोषित, वगैरह वगैरह… पर ही बात करता था। जी हां, उस समय तक उसने मुझसे केवल और केवल समाज सुधारने की ही बात की थी। मेरे लाख समझाने कि उसके सुधारे इस दुनिया का सुधरना फ़िलहाल संभव नहीं है। इसके बावजूद उसके ऊपर चढ़ा समाज सुधार का भूत उतरता ही नहीं था। इसलिए जब उसने किसी लड़की से प्यार हो जाने की बात कही, तो मैं बेसाख्ता चौंक-सा पड़ा था। अचानक गंभीर हो गया था मैं उसे लेकर। वह पढ़ने में भले ही कितना होशियार क्यों न रहा हो, लेकिन लड़कियों के मामले में था, वह बड़ा डरपोक। एकदम फिसड्डी। गांव की लड़कियों तक से वह बेझिझक नहीं बोल पाता था। हकलाने लगता था।

बहरहाल, उसके बाद उसने जो कुछ बताया, वह अविश्वसनीय और हैरतअंगेज़ था। उसे सहजता से कतई नहीं लिया जा सकता था। दरअसल, उसे एक लड़की से सचमुच का प्यार हो गया था। वह भी एक मुस्लिम लड़की से। और उसके अनुसार वह लड़की भी जनाब पर मर रही थी। उन पर जान न्यौछावर कर रही थी। वह लड़की शाबाना ही थी। दोनों प्यार के मामले में काफी आगे बढ़ गए थे।

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कुंडल ने मुझसे मिलने और मुझे बताने से पहले ही शाबाना को लेकर काफी लंबी-चौड़ी प्लानिंग कर ली थी। उस दिन उसी ने बताया था कि वह शाबाना के साथ अगले हफ़्ते किसी गुप्त जगह चला जाएगा। मौक़ा मिलते ही दोनों किसी अदालत में जाकर कोर्ट-मैरिज कर लेंगे। और नए सिरे से जीवन की शुरुआत करेंगे। अंतरधार्मिक विवाह करके धर्म के नाम पर लड़ रहे समाज के सामने नई मिसाल पेश करेंगे।

मामला काफी गंभीर था। लिहाज़ा, मैं उनके संबंधों की गंभीरता पर सोचने लगा। मेरे लाख समझाने के बावजूद कुंडल अपने फ़ैसले पर आडिग रहा।

दरअसल, उसने सारी योजना बहुत पहले ही बना डाली थी, सो मेरे समझाने का उस पर कोई असर नहीं होने वाला था। ऐसे में उसकी बात मानना मेरी मजबूरी हो गई। मुझे भी लगा, अगर मैंने अब भी कुछ कहा तो कुंडल उसका केवल नकारात्मक अर्थ ही निकालेगा। इसलिए मैं चुप कर गया और उसी हां में हां मिलाने लगा।

मैं उस कस्बे में भी गया, जहां एमबीबीएस करने के बाद कुंडल प्रैक्टिस करता था। कस्बा क्या, एक देहाती बाज़ार था जिला मुख्यालय से बीस-पचीस किलोमीटर दूर। थोड़े ही समय में कुंडल ने अपनी क़ाबलियत की बदौलत वहां काफी जान-पहचान बना ली थी। पूरा का पूरा बाज़ार उमड़ पड़ता था उसकी क्लिनिक में। सुबह-शाम मरीज़ों की लंबी भीड़ लगी रहती थी।

शाम को शाबाना कुंडल के कमरे पर आ गई। कुंडल ने मुझे से मिलवाया और हम दोनों का परिचय करवाया। प्राइमा फेसाई तो शाबाना इतनी ख़ूबसूरत थी कि कोई भी देखते ही दिल दे बैठे। मेरे पास बैठ गई थी। बातचीत से लगा वह तो काफी समझदार भी है। ब्यूटी विद ब्रेन। वह काफी सुलझी और गंभीर किस्म के विचारों वाली लड़की लगी। मुझे पहली बार लगा कि कुंडल का दिल सही लड़की पर आया है। बात-बात में शाबाना ने ही बताया था कि बीजेडसी यानी बॉटनी जुलॉजी और केमिस्ट्री से बीएससी कर चुकी है और एमएससी में दाख़िला भी ले लिया है। उसकी एमएससी की पढ़ाई शुरू होने वाली है।

-तुम्हारे घरवाले तुम दोनों के रिश्ते के बारे में जानते हैं? मैंने ही पूछा था और आगे जोड़ दिया, -जानने के बाद क्या इसे स्वीकार कर पाएगें?

-कतई नहीं, मेरे सवाल का उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

-फिर इतना बड़ा जोखिम तुम लोग किस आधार बल पर ले रहे हो? मैंने उसे कुरेदने का प्रयास किया।

-अभी सोचा नहीं। फिर उसने संक्षिप्त-सा जबाब दिया।

-अरे, इतना बड़ा फ़ैसला ले लिया और कह रही हो अभी सोचा नहीं।

-मैं बालिग हूं। कुंडल भी व्यस्क है। लिहाज़ा, क़ानून हमारी मदद करेगा। हमें अपनी मर्जी के मुतबिक रहने और जीवनसाथी चुनने की इजाज़त हमारा संविधान ही देता है। शाबाना एक सांस में बोल गई।

मैं हंसने लगा। उस समय उनकी नादानी पर हंसने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था।

-आप हंस रहे हैं…?

-शाबाना तुम तो समझने का प्रयास करो। सही कह रही हो। हमारा संविधान सबको जीने का अधिकार देता है। लेकिन यहां सवाल संविधान या क़ानून का है ही नहीं। यहां सवाल तो उस समाज का है, जिसमें तुम दोनों रहते हो। समाज की बात छोड़ भी दो तो मुझे लगता है तुम दोनों के रिश्ते को तुम दोनों का परिवार ही नहीं क़बूल करेगा। ख़ासकर तुम्हारा परिवार तो यह कतई स्वीकार नहीं करेगा कि तुम किसी हिंदू लड़के से शादी करो।

-मुझे परिवार की चिंता नहीं है। मैं जीवन में ख़ुश रहना चाहती हूं। अपने मनपसंद साथी के साथ ही सारा जीवन गुज़ारना चाहती हूं। मैं किसी के मामले में दख़ल नहीं देती तो कोई मेरे मामले में दख़ल न दे।

-तुम इस मामले को जितना आसान समझ रही हो, यह सब उतना आसान नहीं है, इसलिए अभी समय है। कोई भी क़दम काफी सोच-समझकर उठाओ। तुम दोनों को भविष्य में आने वाले ख़तरे को कतई नहीं भूलना चाहिए।

बड़ी देर तक हमारे बीच चुप्पी ही रही।

थोड़ी देर बाद शाबाना बोली – दरअसल, कभी-कभी इंसान कुछ मामलात में इतना मजबूर हो जाता है कि ज़्यादा सोच ही नहीं पाता। कुंडल को लेकर मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही है। मुझे लगता है मैं उसके बिना जी ही नहीं पाऊंगी। अब आप इसे मेरी मूर्खता कहें, पागलपन या कुछ और समझें। यह अक्षरशः सच है कि कुंडल के बिना जीवन की मुझसे कल्पना तक नहीं होती। वह फूट-फूट कर रोने लगी।

मेरा हाथ उसके सिर पर चला गया।

-अब आप ही बताएं मैं क्या करूं। थोड़ी देर बाद शाबाना ने मुझसे पूछा।

-कुंडल को बचपन से जानता हूं। वह बहुत भावुक किस्म का इंसान हैं। इतना संवेदनशील इंसान तो मैंने आज तक देखा ही नहीं। इसलिए, यह बात अपनी जेहन में रख लो, तुम लोग अगर असफ़ल हुए तो समझो, एक आदमी के रूप में कुंडल ख़त्म ही हो जाएगा।

-दुनियादारी में तुम मुझे उससे ज़्यादा समझदार लग रही हो, इसलिए तुम उसे समझाने की कोशिश करो। कोई क़दम कम से कम भावुकता में मत उठाना। पहले उसे अपने गांव जाने दो, फिर शादी वगैरह के चक्कर में पड़ना। कुछ दिन मामले को टाल दो।

-मेरे घर वाले मेरा निकाह कर रहे हैं। मेरे फुफेरे भाई से। शाबाना बोली। वह नीचे देख रही थी।

मामला बहुत गंभीर था। मुझे लगा कम से कम मैं इसका समाधान नहीं कर पाऊंगा। आगे चलकर कहीं तुम बदल तो नहीं जाओगी? यह मेरा सवाल था।

-कैसी बातें कर रहे हैं आप? मैं और बदल जाऊं? ऐसा आपने सोचा भी कैसे? मैं क्या आपको धोखा देने वाली लड़की लगती हूं। मैं सदैव कुंडल के साथ रहूंगी। कंधे से कंधा मिलकर। क्या शरीर आत्मा से बेवफ़ाई कर सकती है?

-लेकिन आत्मा तो शरीर से बेवफ़ाई करती है हमेशा। मैं झटके से कह गया।

शाबाना मुझे देखने लगी। फिर उसकी निगाह कुंडल पर गई, जो तब तक सभी मरीज़ों को देखकर हमारे पास आ चुका था।

-लेकिन, लेकिन मेरा कुंडल ऐसा नहीं हैं। मुझे इस पर अपने आप से भी ज़्यादा भरोसा है।

-तो तुम दोनों को फ़ैसला पक्का है?

-हां। बिल्कुल। साथ जीएंगे- साथ मरेंगे। शाबाना ही बोली।

-मेरी शुभकामनाएं तुम दोनों के साथ हमेशा रहेंगी। लेकिन एक बात सदा जेहन मे रखना, तुम्हारे सामने कभी ऐसी परिस्थितियां आ सकती हैं। जब एक तरफ़ तुम्हारा प्यार होगा, दूसरी तरफ़ तुम्हारा अपना परिवार। मतलब एक ओर तुम्हारा कुडंल होगा यानी तुम्हारा अपना जीवन और दूसरी ओर तुम्हारे मां-बाप यानी तुम्हारे जीवनदाता। उनके साथ जुड़ा होगा तुम्हारा सामाजिक दायित्व। और ऐसी परिस्थितियों में अक्सर लोग, ख़ासकर लड़कियां अपने प्यार की ही कुर्बानी दे देती हैं। वह स्थिति ख़ासकर प्रेमियों के लिए काफी त्रासदपूर्ण होती है। उस परिस्थिति को तुम भले ही झेल जाओ, लेकिन कम से कम कुंडल नहीं झेल पाएगा।

मैं शाबाना को बराबर देखे जा रहा था। वह बोली कुछ नहीं। बस कुंडल को निहार रही थी।

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दूसरे दिन अलसुबह मैं कुंडल का सारा सामान ट्रक में भरकर गांव में उठा लाया।

मेरे गांव आने के तीसरे दिन पता चला दोनों फ़रार हो गए। उनके भाग जाने की घटना बहुत चर्चित हुई। मामला हिंदू-मुसलमान का होने लगा। इसलिए अधिक संवेदनशील हो गया। शाबाना के घरवालों ने कुंडल पर अपनी नाबालिग बेटी को अपहृत करने का आरोप लगाया। पुलिस में एफ़आईआर भी दर्ज हो गया। अमूमन सभी अख़बारों में उनकी प्रेम कहानी की रिपोर्टें छपी, विभिन्न एंगल से। ज़्यादातर अख़बारों की ख़बरें कुंडल के ख़िलाफ़ ही थीं। यह लड़की की मां-बाप के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति की वजह से हुआ होगा।

जिला पुलिस के विशेष दस्ते ने कुंडल के घर में छापा मारा और उसके घर वालों से भी पूछताछ की। शाबाना की मां तो हमारे गांव में भी आ धमकी। किसी से उसे पता चल गया था कि मैं उसका दोस्त हूं। लिहाज़ा, वह मेरे घर भी आ गई और जी भर के मुझे खरी-खोटी सुनाने लगी।

उसने एफ़आईआर में मेरा नाम भी डलवाने का प्रयास किया, लेकिन पुलिस ने इनकार कर दिया, पता नहीं क्यों। हां, दो पुलिस वाले मेरे घर ज़रूर आ गए। मुझे जीप में बैठा कर गांव से गुज़रने वाली सड़क तक ले गए और मुझसे ढेर सारे सवाल पूछे। मैंने हर सवाल का बेबाकी से जवाब दिया।

तक़रीबन दस-बारह मिनट तक सवाल-जवाब करने के बाद पुलिस ने मुझे अपनी जीप से उतार दिया और मैं पैदल चल कर अपने घर आ गया। मेरी मां ने तो मुझे देखकर राहत की सांस ली थी।

लगभग दो साल तक दोनों का कोई पता नहीं चला कि वे हैं कहां? तब संचार सुविधाएं आज जैसी आधुनिक नहीं थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी लोगों को इक्कीसवी सदी में कंप्यूटर के साथ ले जाने की बात करते सुने जाते थे। संचार क्षेत्र में ले-देकर बस इतनी ही तरक़्क़ी हुई थी। पीसीओ कल्चर तक शुरू नहीं हुआ था, लेकिन लोग अत्यावश्यक संदेश भेजने के लिए तार यानी टेलिग्राम का प्रयोग करते थे। बहुत बड़े लोगों के पास फोन होता था। उसकी कॉल बहुत महंगी होती थी। इसीलिए, दोनों किस दुनिया में चले गए? किसी को कुछ भी नहीं पता चला।

शायद जून का महीना था, घर में मेरे पास एक पत्र आया। उसकी लिखावट से पता चला गया कि पत्र कुंडल का है। उसने लिखा था कि वे दोनों सही सलामत हैं और रीवा के एक छोटे से कस्बे में रह रहे हैं। वहां कुडल ने अपनी डिस्पेंसरी खोल रखी हैं। मैं तुरंत रीवा गया।

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वहां वाक़ई कुंडल ने अच्छी-ख़ासी जान-पहचान बना ली थी। मरीज़ों की भीड़ जौनपुर वाले क्लिनिक से भी अधिक होती थी। सुबह-सबेरे ही हेल्थ प्रॉब्लम वालों की भीड़ जुटने लगी थी। इस कारण कुंडल वहां के स्थानीय डाक्टरों की आंख की किरकिरी बन गया था। शाबाना मरीज़ों को दवा देने में उसकी मदद करती थी। वे लोग वहीं घर ख़रीदने की योजना बना रहे थे। फिलहाल, किराए के घर में पति-पत्नी के रूप में साथ रहते थे।

मैंने ही बात-बात में पूछा था- तुम दोनों ने शादी कर ली?

उन्होंने ‘हां’ कहा। दोनों बहुत ही ख़ुश थे। मेरे वहां पहुंच जाने से उनकी ख़ुशी कई गुना बढ़ गई। मैं दो दिन रहा। शाबाना मुझे कुछ और दिन रुकने के लिए बोल रही थी, पर यह संभव नहीं था। दो दिन में मैने महसूस किया कि दोनों को धरती का सबसे अधिक प्यार और केयर करने वाला पार्टनर मिला है। दवाई देने में शाबाना कुंडल की मदद करती तो खाना बनाने में कुंडल शाबाना की हेल्प करता था।

शाम को कुंडल ने ही बताया था कि वे गिरफ़्तारी के डर से अभी तक कोर्ट-मैरिज के लिए अदालत में नहीं जा सके हैं। हां, मंदिर में शादी ज़रूर कर ली है। उसकी फोटो भी रखी है। मैंने राहत की सांस ली, हालांकि अभी तक मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ था।

मैं निकलने लगा तो शाबाना ने धीरे से ‘थैंक्स फॉर कमिंग’ कहा। और कुंडल तो गले लग कर रो पड़ा। मैं भी भावुक हो गया। मैंने अपने रीवा जाने की बात की किसी से चर्चा नहीं की। वापस इलाहाबाद में अपने हॉस्टल चला आया था।

यह सोचकर मेरे मन को बड़ी तसल्ली हुई कि चलो एक परिवार बस गया। दोनों को मनपसंद ज़िंदगी जीने को मिल गई। मुझे लगा दोनों -कुंडल और शाबाना, बहुत भाग्यशाली हैं। शायद धरती के सबसे भाग्यशाली कपल।

अगस्त महीने में अचानक एक सुबह मेरे कमरे में रखे अख़बार की सुर्खियों पर मेरी नज़र गई।

नाबलिक लड़की को लेकर फरार डॉक्टर दो साल बाद पुलिस की गिरफ़्त में। वह रपट कुंडल और शाबाना की ही थी। जौनपुर की पुलिस ने उसे रीवा में गिरफ़्तार कर लिया था।

मैं फ़ौरन भागा-भागा गांव आ गया। कुंडल से मिलने ज़िला काराग़ार में गया। वह न्यायिक हिरासत के तहत ज़िला जेल में बंद था। मुझे देखते फूट-फूट कर रोने लगा। उसने ही बताया कि अनजाने में शाबाना एक भयंकर ग़लती कर बैठी और उसका बसा-बसाया आशियाना उजड़ गया।

दरअसल, शाबाना की रीवा के उस कस्बे में पास ही रहने वाली एक महिला से दोस्ती हो गई थी। दोनों ख़ूब बातें करती थीं। एक दिन शाबाना उससे खुलती चली गई।

उसने अपनी प्रेम कहानी उस पड़ोसन सहेली को बता दी। उसकी सहेली को अपनी ही सहेली की बात हजम नहीं हुई। उसने अपनी किसी और सहेली को बता दी। सहेली-दर-सहेली बात धीरे-धीरे फैलने लगी। बात भटकती रही। उसने एक दूसरे डॉक्टर का दरवाज़ा खटखटा दिया।

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कुंडल के क्लिनिक खोल लेने से उस डॉक्टर का दवाखाना वीरान हो गया था। कुडल से पहले से ही चिढ़े उस डॉक्टर ने यह सूचना फोन करके जौनपुर पुलिस को दे दी। वहां कुंडल वांछित अपराधी था, लिहाजा, पुलिस सक्रिय हो गई। जौनपुर पुलिस ने रीवा पुलिस से संपर्क किया और एक दिन रात कुंडल के घर पहुंच गई। औपचारिक रूप से कुंडल गिरफ़्तार कर लिया गया। शाबाना के लाख विरोध के बावजूद उसे उसके मां-बाप के हवाले कर दिया गया।

मामला हिंदू-मुसलमान का था, लिहाज़ा कुंडल को ज़मानत नहीं मिली। मुक़दमा भी जल्दी शुरू कर दिया गया। मैं कुंडल से मिलने के लिए अक्सर जौनपुर के ज़िला काराग़ार जाता था। वैसे मुझे पूर्वानुमान हो चला था कि कुंडल की अब खैर नहीं।

एक बार वकील की सेवाएं लेने के संबंध में बात करने के लिए मैं ज़िला कारागार गया। मैं वकील करने की ज़िद कर रहा था।

मगर कुंडल हरदम एक ही रट लगाए रहा, -तुम देखना, मैं बेदाग़ छूट जाऊंगा, क्योंकि मेरी शाबाना मेरे साथ है। मेरी ज़िंदगी, मेरी लाइफ, मेरी सबकुछ। वह रोने लगा।

बोलते-बोलते उसका रो देना मुझे हैरान करने वाला लगा। शायद शाबाना को लेकर उसका भरोसा क्या पहले से कुछ कम हो गया था?

थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोला, -शाबाना नाबालिग नहीं है, वह बाइस साल की है। जिस दिन वह जज को पूरी घटना बताएगी। उसी दिन मैं छूट जाऊंगा। और देखना, वह बताएगी ज़रूर। क्योंकि मैं ही उसके बिना नहीं, बल्कि वह भी मेरे बिना ज़िंदा नहीं रह सकती।

लेकिन मुझे उसकी बातों पर यक़ीन नहीं था। वह इस मामले में यूफ़ोरिक हो गया था। भावुकता और आदर्शवाद से बाहर ही नहीं निकल पा रह था। शाबाना के साथ दो साल रहकर स्वप्नजीवी हो गया। उसकी बौद्धिक परिपक्वता ग़ायब हो गई थी, उसकी जगह मूर्खतापूर्ण अपरिपक्वता ने ले ली थी। वह भावनात्मक दायरे से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं था।

मुझे पता था- वह फंसेगा ज़रूर। फंसेगा क्या, फंस गया है। लेकिन ऊपर से मैं भी उसकी हां में हां मिलाता था। मुझे पता था, ज़्यादातर मामलों में जब लड़कियों को प्यार और परिवार में से किसी एक को चुनने का विकल्प होता है तो वे अपना परिवार ही चुनती हैं। अपने मां की बातों में आ जाती है और अपने प्यार की बलि दे देती हैं।

इस मामले का सबसे ज़ोरदार और टर्निंग पॉइंट यह था कि शाबाना के घर वालों ने उसे नाबलिग बता दिया था, जबकि वह बालिग थी। एमएससी में दाख़िला लेने वाली लड़की नाबालिग कैसे हो सकती है?

कुंडल के लिए वकील तो नहीं किया गया परंतु अपने एक वकील मित्र की सलाह पर मैं उस स्कूल में भी गया, जहां से शाबाना ने हाईस्कूल पास किया था। स्कूल किसी मुस्लिम नेता का था, जिसे शाबाना के घर वालों ने पहले ही कोई सूचना न देने के लिए कह रखा था। लिहाज़ा, मुझे स्कूल से खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। इसके बावजूद मैं उम्मीद कर रहा था कि ख़ुद कुंडल इस मुददे को उठाएगा और शाबाना के हाईस्कूल का प्रमाण पत्र पेश करने की मांग करेगा। लेकिन उसने तो चुप्पी ओढ़ रखी थी। दरअसल, शाबाना के बयान ने उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सारे सपने को बिखेर कर रख दिया था।

-मिस्टर कुंडल, आपको अपनी सफ़ाई में कुछ कहना है। अदालत ने कुंडल से अंतिम बार पूछा।

-नो…, उसका फिर वहीं संक्षिप्त सा उत्तर।

मैं भी एक झटके से वर्तमान में आ गया। खड़ा होकर कुंडल से बोलने का इशारा किया। मगर अर्दली ने इशारे से डांटकर मुझे बैठ जाने को कहा।

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कुंडल इस बार भी कुछ नहीं बोला। सिर्फ़ आखें ही डबडबा रहा था। घनघोर निराशा थी उसकी आखों में। फिर वह नीचे देखने लगा। पराजित सिपाही की तरह। उसने शायद हार स्वीकार कर ली थी। शायद नहीं, निश्चित रूप से। उसने हार मान ली थी। इसे हार भी नहीं कहा जा सकता। जब लड़ाई ही नहीं हुई तो हार कैसा? उसके लिए आत्मसमर्पण सबसे सही शब्द है। उसने आत्मसमर्पण कर दिया था।

मुझसे थोड़ी दूरी पर शाबाना कमाबेश कुंडल की-सी ही मुद्रा में बैठी थी। वह भी चुप थी। मुझे उस ऊपर बहुत अधिक क्रोध आ रहा था। मन हुआ जाकर पूछूं -अब कैसे जीओगी कुंडल के बिना। उस दिन तो ख़ूब लंबी चौड़ी हांक रही थी। इसी तरह पराजय स्वीकार करनी थी तो क्यों उठाया ऐसा क़दम। क्यों नष्ट किया मेरे दोस्त का जीवन? लेकिन मैं चुपचाप बैठा रह गया।

बहरहाल, उस दिन की सुनवाई अधूरी रही।

दूसरे दिन सुनवाई के दौरान अदालत में पेश किए गए साक्ष्यों के आधार पर कुंडल को नाबालिग शाबाना को अपहृत करने और ज़बरदस्ती उसके साथ शारीरिक संबंध क़ायम करने के जुर्म में दोषी पाया गया। लिहाज़ा अदालत ने मुज़रिम को आईपीसी की धारा 359-363 और 376 के तहत छह साल की सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई।

अदालत बर्खास्त हो गई। पुलिस ने कुंडल को फिर से हिरासत में ले लिया। प्रेस फ़ोटोग्राफ़र कुंडल की ओर टूट पड़े। भीड़ चुपचाप बाहर जा रही थी। मैं वहीं दर्शक-दीर्घा में बैठा पता नहीं क्या सोच रहा था। थोड़ी देर में अदालत खाली हो गई।

चलिए। गांव के मेरे एक परिचित ने मुझे चौंका दिया। मैं अदालत के बाहर आ गया। बाहर कुंडल की मां रो रही थी, जबकि शाबाना की मां चहक रही थी। मैं चुपचाप चल दिया। अपने घर की ओर।

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