अंग्रेजों के आगमन के समय तक देश का नाम न तो भारत था और न ही इंडिया

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जबसे जी-20 के शिखर सम्मेलन के लिए ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ शब्दावली का प्रयोग किया है, तब से पूरे देश में भारत बनाम इंडिया की बहस शुरू हो गई है। हर कोई अपना-अपना तर्क प्रस्तुत कर रहा है। बेशक इस तरह की बहस का कोई मतलब ही नहीं है। लिहाज़ा, इस बहस को कुतर्क कहना ज़्यादा मुनासिब होगा, क्योंकि यह बहस प्रोडक्टिव बिल्कुल नहीं है। फिर भी लोग अपनी-अपनी दलील दे ही रहे हैं। ऐसे में यह जानना समय की मांग है कि हिंद महासागर और हिमालय के बीच के इस भूखंड के भारत अथवा इंडिया के नामकरण का इतिहास क्या है और भारत अथवा इंडिया शब्दों की उत्पत्ति कैसे हुई।

तो आइए जानने की कोशिश करते हैं कि इतिहास में भारत और इंडिया का स्थान कहां है। इसमें दो राय नहीं कि भारत की भूमि दुनिया की सबसे प्राचीन संस्कृतियों एवं सभ्यताओं वाली भूमि मानी जाती है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार हजारों वर्ष पहले इस भू-भाग को जंबूद्वीप कहा जाता था। जंबूद्वीप के अलावा यह देश भारतखंड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिंद और हिंदुस्तान जैसे नामों से भी जाना जाता था। इन नामों में भारत और इंडिया दोनों नहीं थे। कहने का मतलब अंग्रेज़ों के आगमन के समय इस देश का नाम न तो भारत था और न ही इंडिया।

कई आध्यात्मिक ग्रंथों में बार-बार भारत नाम का ज़िक्र किया गया है। ऋग्वेद की एक शाखा ऐतरेय ब्राह्मण के मुताबिक भारत का नामकरण कण्व की मुंहबोली पुत्री शकुंतला और हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर हुआ। उनके कार्यकाल में देश की सीमा हिंदूकुश पर्वत से कन्या कुमारी और कच्छ से कामरूप तक फैली थी और उस भूभाग को अखंड भारत यानी भारतवर्ष कहा जाता था। कहते हैं इस देश का नाम चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर भारत रखा गया। मत्स्य पुराण में मनु को भरत कहा गया। जिस क्षेत्र पर उनका राज था उसे भारतवर्ष कहा गया।

इसी तरह विष्णु पुराण के एक श्लोक के मुताबिक समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का भूभाग भारतवर्ष है। व्यास रचित महाभारत महाकाव्य का तो नाम ही भारत के ऊपर रखा गया है। जैन धर्म के धर्म ग्रंथों में भी देश का नाम भारत होने का जिक्र मिलता है। भगवान ऋषभदेव के बड़े बेटे महायोगी भरत के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इस प्रसंग का जिक्र स्कंद पुराण में भी मिलता है। हालांकि इतिहास के अध्येताओं का मानना है कि भरतजन इस देश में दुष्यन्त पुत्र भरत से भी पहले से थे। इसलिए यह तार्किक है कि भारत का नाम किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर न होकर जाति-समूह के नाम पर प्रचलित हुआ।

जहां तक इंडिया की बात है तो कुछ इतिहासकार कहते हैं कि इंडिया शब्द ग्रीक शब्द इंडिका से आया है। जबकि कई लोग मानते हैं कि सिंधु यानी इंडस से इंडिया आया है। ग्रीक यानी यूनान के लोग इंडो या इंडस घाटी की सभ्यता कहा करते थे, ऐसे में इंडस शब्द लैटिन भाषा में पहुंचा तो यह इंडिया हो गया। लेकिन ये दोनों तर्क गले नहीं उतरते हैं क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता का पता ही वर्ष 1920 की खुदाई के बाद पता चला। जबकि इंडिया शब्द उससे पहले से प्रचलन में था।

दरअसल, 14वीं और 15वीं सदी में यूरोपीय व्यापारियों का रूझान पश्चिम की ओर था। क्रिस्टोफर कोलंबस के अमेरिका की खोज के बाद यूरोपीय व्यापारी कारोबार के लिए पश्चिम का रुख करने लगे। वे ‘पश्चिम’ की ओर अमेरिका के आसपास के द्वीप समूहों यानी इंडीज़ को पश्चिमी द्वीप समूह यानी ‘वेस्टइंडीज़’ कहते थे। उनके साथ ही व्यापार करने के लिए उधर ही जाते थे। इस बीच सन 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्को डिगामा के भारत की खोज करने और कालीकट बंदरगाह पर क़दम रखने के बाद यूरोपीय व्यापारियों की नज़र पहली बार पूरब की ओर गई।

अब यूरोपीयन व्यापारी पूरब के द्वीपों के बारे में भी जानना चाहते थे और उनके साथ व्यापार करना चाहते थे। चूंकि प्राचीन काल में यूनान का भारत के साथ अच्छे व्यापारिक संबंध थे। लिहाज़ा, यूरोपीय व्यापारियों ने पूरब की ओर स्थित एशियाई द्वीप समूहों के साथ भी कारोबार का मन बनाया। वे लोग भारतीय उपमहाद्वीप को पूर्वी द्वीप समूह यानी ‘ईस्टइंडीज़’ कहने लगे। इसके बाद आने वाले सौ साल में पुर्तगाल, हॉलैंड और फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों के व्यापारियों ने भारत और दूसरे एशियाई देशों में पांव जमा लिए।

15वीं सदी में अंग्रेज़ व्यापारियों ने भी ‘ईस्टइंडीज़’ यानी पूरब के द्वीपों की ओर जाने का मन बनाया। ब्रिटिश महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम भी चाहती थीं कि ब्रिटिश व्यापारी दुनिया के पूर्वी हिस्सें में भी कारोबार के लिए जाएं। लिहाज़ा, महारानी की अनुमति से पूरब में स्थित द्वीप समूहों यानी ईस्टइंडीज़ में कारोबार के लिए 31 दिसंबर सन् 1600 के आख़िरी दिन यानी 31 दिसंबर 1600 को ईस्ट इंडीज शब्द से प्रेरित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई गई। ईस्ट इंडिया कंपनी सत्रहवीं सदी के आरंभ में भारत पहुंच गई।

सन् 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया। लिहाज़ा, ईस्ट इंडिया कंपनी से ईस्ट और कंपनी शब्द हटाकर ब्रिटिश शब्द जोड़ दिया और इस भूखंड का नाम ‘ब्रिटिश इंडिया’ हो गया। शासन सीधे ब्रिटिश संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स से होने लगा। आज़ादी मिलने के बाद ‘ब्रिटिश इंडिया’ से ब्रिटिश हट गया और देश का नाम ‘इंडिया’ हो गया। तब से इस देश का नाम इंडिया ही रहा और आज भी दुनिया हमारे देश को इंडिया के नाम से ही जानती है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भी भारत का नहीं बल्कि इंडिया शब्द का प्रयोग होता है।

वैसे 18 सितंबर 1949 को संविधान सभा में देश के नाम पर लंबी चर्चा हुई थी। अंबेडकर के नेतृत्व वाली ड्राफ्ट कमेटी ने सुझाव दिया था- इंडिया, दैट इज़ भारत। इस पर काफी बहस हुई। कुछ सदस्य भारत को ‘भारत’ नाम रखने के प्रस्ताव पर अड़े थे तो वहीं कुछ कुछ सदस्य ‘भारतवर्ष’ नाम रखने के लिए प्रस्ताव रख रहे थे जबकि कुछ सदस्य ‘हिंदुस्तान’ नाम रखने पर विचार कर रहे थे। आख़िरकार सारे संशोधन ख़ारिज़ करते हुए संविधान सभा ने इंडिया, दैट इज़ भारत पर अपनी मुहर लगाई और यही नाम स्वीकार किया गया। भारतीय संविधान के हिंदी अनुवाद में लिखा गया है- भारत, अर्थात इंडिया, राज्यों का संघ होगा।

यह भी कहा जाने लगा है कि भारत बनाम इंडिया के विवाद का परिणाम 2016 की नोटबंदी से भी भयावह हो सकता है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा की तो पांच सौ और हज़ार के नोट अचानक बेकार हो गए। देश कैश के संकट में पड़ गया। बैंकों में लंबी कतार लग गई। लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर सारी नोट और सारे सिक्के उपयोग से बाहर हो गए तो क्या होगा। तो इस तरह की परिस्थिति के लिए देश के लोगों को तैयार रहना होगा, क्योंकि जिस दिन केंद्र सरकार ने इंडिया की जगह भारत के उपयोग को सुनिश्चित किया, उसी दिन पांच सौ, सौ, पचास, बीस, दस और पांच की नोटें और सारे सिक्के बेकार हो सकते हैं।

दरअसल, 2016 के नोटबंदी के समय चलन में 17.74 लाख करोड़ रुपए की मुद्रा थी, उसमें 500 और 1000 के नोट के साथ साथ दूसरे नोट और सिक्के शामिल थे। उस समय 15.41 लाख करोड़ की मुद्रा अचानक बेकार हो गई थी, लेकिन अगर इंडिया की जगह भारत ने ली तो 32.42 लाख करोड़ रुपए के नोट और सिक्के चलन से बाहर हो सकते हैं, क्योंकि सभी पर इंडिया अंकित है। इससे कोई सहज अनुमान लगा सकता है कि सत्तापक्ष और विपक्ष के इस संघर्ष के चलते कितनी बड़ी समस्या का सामना भारतीय नागरिकों को करना पड़ सकता है। मतलब हालात वर्ष 2016 की नोटबंदी से भी बदतर हो सकते हैं।

कई जानकार यह भी कहते हैं कि भारत बनाम इंडिया का मुद्दा खड़ा करने का यह उचित समय था या नहीं, यह भी बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन भारतीय जनता पार्टी नीत केंद्र सरकार जिस तरह से भारत बनाम इंडिया का मुद्दा खड़ा करने की कोशिश कर रही है, उससे साफ़ लग रहा है कि कहीं न कहीं भाजपा के लोग ‘इंडिया’ शब्द से ख़तरा महसूस कर रहे हैं। अगर केंद्र सरकार इंडिया शब्द हटाने में सफल रही तो इसके बाद ढेर सारी परेशानी खड़ी होने वाली हैं। बहरहाल, केंद्र सरकार भारत बनाम इंडिया को लेकर कितनी सफल होगी, यह संसद के विशेष अधिवेशन में ही साफ़ हो सकेगा।

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