कुर्सी से उतर क्यों नहीं जाते!
लाशों का अंबार देखकर, तुम सिहर क्यों नहीं जाते,
कुछ हो नहीं रहा तो कुर्सी से उतर क्यों नहीं जाते।
यहां हर आदमी ही बीमार है, बेमौत मर रहे हैं लोग
इस भयावह मंजर से तुम भी, डर क्यों नहीं जाते।
तब्दील होती जा रही, बस्ती की बस्ती श्मशान में,
मौत के इस तांडव से आख़िर, सिहर क्यों नहीं जाते।
रोटी को भुला कर सिर्फ़, ज़िंदगी मांग रहे हैं लोग,
लोगों की लाचारी देखने तुम, उधर क्यों नहीं जाते।
जनाज़े में जाएगा कौन, जब आदमी ही न रह जाएगा,
कुछ लम्हा सियासत की बातें, बिसर क्यों नहीं जाते।
रहनुमा से आदमी, बन क्यों नहीं जाते फिर एक बार
अगर हो गए लाचार तुम भी, तो ठहर क्यों नहीं जाते।
इंसान के भेस में इंसान ही हो न, यह तो बता दो
लोग को बचाने हेतु कुछ ठोस, कर क्यों नहीं जाते।
नायक से खलनायक होने में, ज़्यादा देर लगती नहीं
यह फ़लसफ़ा जल्दी से, तुम समझ क्यों नहीं जाते।
-हरिगोविंद विश्वकर्मा