खतरे में है ‘लौंडा नाच’ का अस्तित्व (Launda Naach is in danger)

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इस बार गांव में संयोग से कई साल बाद लौंडा नाच (Launda Naach) यानी लौंडा डांस (Launda Dance) देखने को मिला। लौंडा नाच देखकर बचपन की यादें ताज़ा हो गईं। मैंने कुछ देर उस नाच को देखा और बाद में सवा मिनट का वीडियो भी बना लिया। मुझे याद है बचपन में मेरे गांव और आसपास में लौंडा नाच बड़ा मशहूर था। द्वारपूजा पर तो केवल लौंडा नाच ही होता था। तब शादियों में बारातियों के नाचने की परिपाटी शुरू नहीं हुई थी। बाराती नाचने की बजाय लौंडे का नाच देखते थे। लौंडा नाचने के दौरान बीच-बीच में किसी एक बाराती के पास जाता था और उसे अपना घूंघट ओढ़ा देता था। किसी को जब लौंडा अपने घूँघट में छिपाता था तो लोग ज़ोर से ठहाके लगाते थे। लौंडा उस बाराती को तब तक नहीं छोड़ता था जब तक उसे एक रुपए का कड़कड़ता नोट नहीं मिल जाता था।

वैसे मेरे गांव ही नहीं बल्कि संपूर्ण ग्रामीण अंचलों में शादियों और दूसरे आयोजनों में नाचने और गाने की परंपरा कई सदी पहले शुरू हो चुकी थी। नृत्य और संगीत के इतिहास की बात करें तो शादियों में नगाड़ा, ढोल, तुरही, खझड़ी, झांझ-मजीरा और दूसरे वाद्य बजाए जाते थे। वैसे संगीत वाद्ययंत्रों का विकास 2800 ईसा पूर्व मेसोपोटामिया सभ्यता के दौरान हुआ माना जाता है। मिस्र की संस्कृति में तो 2700 ईसा पूर्व से पहले प्रयोग किए जाने वाले वाद्ययंत्र मिलते हैं। और कई तरह के डांस के प्रमाण मिलते हैं। 2000 ईसा पूर्व के आसपास शुरू हुई सुमेरी और बेबीलोनिया संस्कृतियों में भी वाद्ययंत्रों को बजाने और नाच का विवरण मिलता है।

इस तरह कह सकते हैं कि नृत्य की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी मानव सभ्यता। जब हम मानव बनने की प्रक्रिया में थे, तब भी किसी को हराने या मारने के बाद ख़ुशी का इज़हार करने के लिए नाचते थे। नृत्य यानी नाच का ज़िक्र भारतीय वेदों, पुराणों और उपनिषदों में भी मिलता है। ऋगवेद के कई श्लोकों में इंद्र की महिमा का गान करते हुए उन्हें प्राणियों को नचाने वाला देवता कहा गया है। यह श्लोक – ‘इंद्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः और नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे’ वैसा ही है। भगवान शिव के तांडव नृत्य को हम जानते ही हैं। रामायण महाभारत काल तक नृत्य और नर्तकी राजाओं एवं राजकुमारों के मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करती थी।

वैसे तो लौंडा नाच पिछली सदी में संपूर्ण पूर्वांचल उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय था, लेकिन इसकी उत्पत्ति बिहार का भोजपुर क्षेत्र मानी जाती है। इसलिए इसे भोजपुरी लोक नृत्य कहा जाता है। मौजूदा लौंडा नाच की शुरुआत 11वीं सदी में हुई। माना जाता है कि मध्यकाल में मानसिक विकृति के शिकार कई राजाओं या नवाबों को तवायफ़ें पसंद नहीं आती थी। वे लड़कों की माँग किया करते थे। तो लड़के यानी लौंडे नाच ही उनका मनोरंजन किया करते थे। इसके साथ लौंडों को नवाबों के साथ हमबिस्तर भी होना पड़ता था। नवाबों के लोंडों के शारीरिक संबंध बनाने का ज़िक्र अक्सर मिलता है। धीरे-धीरे लौंडे नवाबों के पास नचनिए के रूप में आने लगे।

उसी समय लौंडा नाच का आग़ाज़ हुआ माना जाता है। यह लोक नृत्य पूर्वांचल के अलावा नेपाल, मॉरीशस और कैरेबियन द्वीप समूह में देखने को मिलता है। दरअसल, लौंडा नाच 19वीं सदी में लोकप्रिय हुआ। तब महिलाओं के स्टेज पर जाने और नाचने की मनाही थी, क्योंकि स्त्री का स्टेज पर जाकर नाचना लज्जाजनक माना जाता है। ऐसे समय में छोटी जाति के पुरुष स्त्रियों का रूप धारण करके स्टेज पर प्रदर्शन करते थे। उस समय राजा, ज़मीनदार और अन्य अमीर लोग तवायफ़ों के कोठे पर जाकर अपना मनोरंजन कर लेते थे, लेकिन तब गरीबों के मनोरंजन का एकमात्र सहारा लौंडा नाच था।

‘लौंडा’ का अर्थ लड़का होता है। लौंडा, एक तरह की गाली है। किसी को कह दीजिए, ‘क्या लौंडे’ तो वह नाराज़ हो जाता है। इसीलिए पब्लिक में इस शब्द का प्रयोग आमतौर पर नहीं होता है। जब राष्ट्रीय स्तर पर इसका मंचन होता था तो इसके गानों के शब्द बदल दिए जाते थे। बहरहाल, यह नृत्य केवल पुरुषों यानी किशोरों एवं युवकों द्वारा किया जाता था। लौंडों को महिला का वेश बनाकर नृत्य करना होता था। इसलिए लौंडे यानी लड़के महिलाओं के कपड़े पहनते थे। मुंह पर पाउडर, आंखों पर सुरमा लगाते थे। एक तरह से उसी तरह मेकअप करके सजते थे जिस तरह शादी वगैरह में जाने के लिए कोई स्त्री सजती-धजती है। वह देखने और भाव भंगिमा में किसी महिला से कम नहीं लगता था। उसकी आवाज भी हूबहू महिला से मेल खाती थी। चूंकि इस नाच में केवल लड़के ही नाचते हैं, इसलिए इसे लौंडा नाच कहा जाता था। लौंडा नाच, कमजोर या छोटी जाति के लोग ही करते हैं। शायद इसलिए इस कला को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार नहीं किया गया।

कई लोग कहते हैं कि लौंडा नाच को लोकप्रिय बनाने का श्रेय भिखारी ठाकुर को जाता है। प्रसिद्ध लोक कलाकार रामचंद्र मांझी लौंडा नाच के मशहूर नर्तक थे। बीसवीं सदी के पहले कुछ दशक में जब दुनिया में दलितों के अधिकारों को मान्यता देने वाले क्रांतिकारी परिवर्तन देखे जा रहे थे, तब भिखारी ठाकुर ने ग्रामीण रंगमंच के माध्यम से अपने निरंतर संघर्ष और अस्तित्व की प्रवृत्ति का जलवा दिखाया। था इस लोक नृत्य में गाने, नृत्य, कॉमेडी, व्यंग्य और मजाक किया जाता था। जहाँ लौंडे पूरी रात चलने वाले नाच में लड़के महिलाओं का परिधान पहन कर नृत्य करते थे। शादी समारोह के दौरान लौंडा नाच का लौंडा केंद्र बिंदु में होता था। वर पक्ष के लोग लौंडा नाच लेकर कन्या पक्ष के यहाँ जाते थे। कहीं एक लड़का तो कहीं दो लड़के साड़ी पहन कर स्त्री का रूप धारण करके नृत्य करते थे।

जब लड़का रंग-बिरंगे वस्त्र तथा लड़कियों का रूप धारण करता था, तो बाराती के साथ-साथ ग्रामीण दर्शक यानी घराती भी लौंडे को सराहते नहीं थकते हैं। कभी कभी नाच के साथ लौंडे और उनके साथ मौजूद जोकर सस्ती भाव-भंगिमाओं के ज़रिए दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ साथ उन पर छींटाकशी करते हैं। यह प्रसंग पहले नौटंकी में देखने को मिलती थी। लेकिन उनकी बात बुरी लगने पर भी लोग हंस कर टाल दिया करते थे। मेरे गांव में शादियों में केवल लौंडा नाच किया करता था। हमारे यहाँ यह मनोरंजन का इकलौता साधन था। लौंडा नाच केवल शादियों में होता था। जो ज़्यादा संपन्न होते थे उनके यहाँ शादियाँ बड़े धूमधाम से होती थीं। शादियों में बांसुरी, ढोलक, नगाड़ा, तुरही, हारमोनियम वगैरह बजाए जाते थे। वहाँ पेशेवर लौंडे द्वारपूजा के समय नृत्य करते हैं और बारातियों का मनोरंजन करते हैं।

1980 के दशक तक लौंडा नाच काफी मशहूर था। बाद में लौंडा नाच शादियों के अलावा कई धार्मिक प्रयोजनों में भी होता था। रामलीला में रावण और दूसरे राक्षसों को मनोरंजन के लिए किया जाता था। गांव में होने वाले लौंडा नाच की लोकप्रियता का आलम यह होता था कि जब शामियानों में लौंडा नाच शुरू होता है तो समा सी बंध जाती थी। जब लौंडे मूड में आकर नाचना शुरू करते थे तो सीटियाँ और तालियाँ बजने लगती थीं। कई लोग उसे सचमुच की स्त्री समझ लेते थे और उसे छूने के लिए लालायित रहते थे। जब लौंडा उनके चेहरे को अपने घूंघट से ढंकता था तो वे लोग परम आनंद की अनुभूति करते थे। कई मनचले तो उस कृत्रिम स्त्री पर भी फिदा हो जाया करते थे और उस पर दिल खोलकर नोटों लुटाने लगते थे। कई लोग तो कभी-कभी इन लवंडों को उठा ले जाते थे और उनके साथ अप्राकृतिक सेक्स करते थे।

बहरहाल, तब गिने-चुने लोगों के पास राजदूत या बुलेट होती थी। दूल्हा असवारी या पालकी में शादी के लिए रवाना होता था। लौंडा नाच पार्टी बारातियों के साथ रवाना हो जाती थी। जनवासे में जब बारातियों को शरबत पिलाया जाता था। लाइट वाले गैस यानी पंचलाइट जलाने में व्यस्त हो जाते थे। उसी दौरान लौंडा विधिवत मेकअप करके स्त्री रूप धारण कर लेता था। कई लोगों को उसे सजता देखने में मजा आता था। बहरहाल, नचनिया मेकअप करके तैयार होने के बाद हूबहू स्त्री ही लगता थी। तब शादियों बारात घराती की हैसियत के अनुसार कई दिन रुकते थे। डेढ़ दिन तो थोड़े सम्पन्न लोगों की बारात रुकती थी। रात में और फिर सुबह नाश्ता करने के बाद नौटंकी शुरू हो जाती थी। किसी कहानी को लेकर पात्र अभिनय करते थे और बीच-बीच में लौंडा नाच होता था। बाद में ख़ासकर 1990 के दशक धीरे-धीरे युवा बाराती भी बड़े जोश के साथ लौंडा के साथ कमर हिलाने लगे।

जब से ग्रामीण अंचलों में होने वाली शादियों में पेशेवर नृत्यांगनाओं और आर्क्रेस्टा की घुसपैठ हुई है, तब से लौंडा नाच की लोक परंपरा दम तोडने लगी है। ख़ासकर 1990 के बाद आर्केस्ट्रा और नर्तकियों के दौर में लोग लौंडा नाच से विमुख होने लगे। आधुनिक तड़क-भड़क व शोर-शराबे के दौर में इसके कद्रदान बचे नहीं तो कलाकार भी खोजे नहीं मिलते। इतिहास बन गए हैं। पिछले दो दशक से लौंडा नाच देखने को नहीं मिल रहा है। पूर्वांचल में दो-तीन गांव में लौंडा नाच की आधा दर्जन मंडली होती थी। एक मंडली में पांच से छह लोग होते थे। शादी-विवाह में इनकी बुकिंग उत्तर बिहार के विभिन्न जिलों में होती थी। आज न तो कोई मंडली बची है और न ही कलाकार। अब तो लोग शादियों में आर्क्रेस्टा करते हैं, जिसमें नाच और गाना दोनों शामिल होता था। कहीं-कहीं लोग शादियों में पेशेवर नृत्यांगनाओं को बुलाते हैं और उससे बारातियों का मनोरंजन करते हैं। इस तरह कभी बेहद लोकप्रिय रहा लौंडा नाच का अस्तित्व ख़तरे में है।

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-हरिगोविंद विश्वकर्मा

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