शादी का उल्लासमय माहौल अचानक से सुबह ही बड़ा कारुणिक लग रहा है। वातावरण भी एकदम से बोझिल सा हो गया है, क्योंकि शादी की तमाम रस्मों का निष्पादन करने के बाद अब कन्या को उसके पति के घर यानी ससुराल भेजने की तैयारी हो रही है। यानी कन्या की विदायी हो रही है। वह फिलहाल दुल्हन के परिधान में है। उसकी आँखों में आँसू हैं। माता-पिता, भाई-बहन, नाते रिश्तेदार स्त्रियाँ और सहेलियाँ बारी-बारी से उसे गले लगा रही हैं। उसे विदायी दे रही हैं। हर कोई रो रहा है। यहाँ तक कि विदायी का दृश्य देखकर मेरा भी मन बोझिल हो गया है। मैं विदायी स्थल से दूर चला आया। मुझसे किसी का दुख-दर्द या किसी के भी आँख में आँसू नहीं देखा जाता। मैं विचलित सा होने लगता हूँ। थोड़ा दूर हट जाता हूँ। मुझे लगने लगता है कि उस शख़्स की जगह मैं ही हूँ। मेरा स्वभाव ही ऐसा है। अगर मैं जीवन में बहुत सफल अगर नहीं हो पाया तो इसके लिए मेरा यह अपरिपक्व स्वभाव ही ज़िम्मेदार है।
मुझे ऐसा लग रहा है कि आँखों में आँसू लिए महिलाएँ मौन की भाषी में कन्या से कह रही हैं, -जाओ बेटी, अब तुम्हारे पति का परिवार ही तुम्हारा अपना परिवार है। पति को ही नहीं बल्कि उसके सभी सगे-संबंधियों को दिल से स्वीकार औऱ अंगीकार कर लेना। वहाँ सबको यथाउचित मान-सम्मान देना। सबका यथासंभव केयर करना। तुम उस घर की लक्ष्मी हो। अपने पति और सास-ससुर के साथ मिलकर उस घर को और बेहतर और ख़ुशहाल बनाने की हर संभव कोशिश करना।
वस्तुतः हज़ारों साल पहले सभ्य समाज के निर्माण के समय जब एक पुरुष और एक स्त्री के साथ-साथ जीवन गुज़ारने वाले प्रावधान यानी शादी परंपरा को बनाया और कार्यान्वित किया गया होगा, तब समाज शर्तिया स्त्रियों को लेकर इतना असंवेदनशील नहीं रहा होगा, जितना असंवेदनशील आज के दौर में हो गया है। इसलिए विदायी के वर्णन में और आगे बढ़ने से पहले परंपराओं और संवेदनशील समाज के असंवेदनशील बनने की संक्षिप्त चर्चा अपरिहार्य है।
इसमें दो राय नहीं कि हिंदू ही नहीं बल्कि बाक़ी सभी धर्म या समाज में जितनी परंपराएँ प्रचलन में हैं, सभी की सभी स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक बनाती हैं। हमारे समाज के पुरुष प्रधान समाज होने का सिलसिला तभी से प्रारंभ हो गया था जब से इन परंपराओं पर अमल किया जाने लगा। उसी दिन से हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज से अतिपुरुष प्रधान समाज हो गया। अतिपुरुष प्रधान समाज में बेटा हुआ तो उसे पुत्ररत्न कह दिया गया, लेकिन बेटी हुई तो उसे पुत्रीरत्न नहीं कहा गया। बल्कि एक तरह से पैदा होते ही उसे अघोषित तौर पर पुत्रीबोझ कही जाती है। बेटे के पैदा होने पर सोहर गाने और बरही जैसा उत्सव करने की परंपरा शुरू हुई, जबकि बेटी जन्म पर कोई लोकगीत गाने की परंपरा नहीं प्रारंभ की गई। एक तरह से बेटी के आगमन को लोग बहुत भारी एवं बोझिल मन और अनिच्छा से स्वीकार करते हैं, क्योंकि कामना तो उन्हें पुत्र की ही रहती है न। इसलिए लड़की अपने ही परिवार में अवांछित होती है। अनिच्छा से स्वीकार करने की प्रवत्ति से वह पलते और बढ़ते समय भी रूबरू होती है। मुट्ठी भर लोग हैं जो बेटी को बेटे की तरह पालते हैं। अन्यथा, ज़्यादातर लोग उस पर बंदिश रखते हैं।
बहरहाल, पुत्र की इसी अमानवीय कामना के चलते शारीरिक रूप से बलिष्ठ पुरुष ‘स्वामी’ बना दिया गया और स्त्री का स्थान पति के चरणों में हो गया यानी स्त्री चरणों की दासी बना दी गई। जिसका कार्य ही अपने अस्तित्व को पति के अस्तित्व में समाहित कर देना, उसकी सेवा करना, उसको ख़ुश रखना और उसकी ज़रूरतों को पूरा करना हो गया। मतलब, समाज के अति पुरुष-प्रधान होते ही स्त्री अचानक इंसान से वस्तु बन गई और उसका दान किया जाने लगा। उसी को कन्यादान कहा जाता है। वह परंपरा उसी रूप में कमोबेश आज भी प्रचलन में है। जिसका दीदार मैंने खुद बीती रात में किया। शादी की रस्म के समय माता-पिता कन्यादान का अनुष्ठान करते हैं। यह कहना अतिरंजनापूर्ण नहीं होगा कि जिस दिन बेटी को कन्या कह कर शादी में उसे दान करने की परंपरा शुरू गई, उसी दिन से समाज और अधिक स्त्री विरोधी हो गया।
अगर शादी के समय ब्राम्हणों द्वारा पढ़े जाने वाले कन्या के सात वचन और वर के पांच वचन और दूसरे श्लोकों को ध्यान से सुनें तो सब के सब पूरी तरह स्त्री-विरोधी लगते हैं। उनमें कहा जाता है कि कन्या वर की सफलता, उसकी सेहत, धन-धान्य के लिए व्रत एवं पूजा-पाठ के रूप में त्याग करेगी, लेकिन वर के कन्या की सफलता, उसकी सेहत, धन-धान्य के लिए व्रत एवं पूजा-पाठ के रूप में त्याग करने का कोई प्रावधान नहीं किया गया। कहीं-कहीं, क्या ज़्यादातर जगह कन्या इस पक्षपातपूर्ण परंपरा की कीमत भी चुकाती है।
संवेदनशील पति और संवेदनशील ससुराल कन्या को बेटी की तरह स्वीकार करता है। उसे घर के नए और अभिन्न सदस्य के रूप में अंगीकार करता है। ऐसा पति और ससुराल को पाकर कन्या धन्य हो जाती है और उसके लिए ससुराल मायके की तरह ख़ूबसूरत बन जाता है, लेकिन असंवेदनशील पति और असंवेदनशील ससुराल कन्या को बेटी नहीं बल्कि दान में मिली कन्या के रूप में स्वीकार करता है। मतलब दान में मिली यह वस्तु (कन्या) उनके लिए लाभदायक है या हानिकर। तब वे लोग कन्या को बाद में पहले उसके साथ कन्या पक्ष की ओर से दिए गए नगद और सामान पर नज़र दौड़ाते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। असंवेदनशील पति और असंवेदनशील ससुराल में बहू से परिवार का उत्तराधिकारी यानी पुत्र पैदा करने की उम्मीद की जाती है। पुत्र पैदा करने के लिए स्त्री बार-बार गर्भ धारण करती है और अति पीड़ीजनक प्रसव से गुज़रती है। एक तरह से माँ-बाप की लाडली ससुराल में असंवेदशील पति और असंवेदनशील सास-ससुर बच्चा पैदा करने की मशीन बना देते हैं।
अब लौटते हैं शादी के मंडप की ओर जहाँ माता-पिता, भाई-बहन, नाते रिश्तेदार, सहेलियां ही नहीं आम जन भी दुखी हैं। एक लड़की जो पैदा होने के बाद से यहाँ बचपन में इधर से उधर भागती थी। खेलती थी। कूदती थी। मम्मी-पापा, भैया-भाभी चाचा-चाची, दादा-दादी और सखी कह कर चिल्लाती, शोर मचाती थी। बालपन में भी बड़ों तरह की बातें किया करती थी। बड़ी होकर पहले स्कूल, फिर कॉलेज जाने लगी थी। किसी दिन अचानक माता-पिता ने नोटिस किया कि बेटी अब स्त्री बनने लगी है। वही स्त्री जिसके ऊपर परिवार संभालने की ज़िम्मेदारी होती है। हर किसी की केयर करने की ज़िम्मेदारी होती है। अब आज उनकी बेटी बड़ी होकर स्त्री बन गई है और उसी स्त्री का क़िरदार को निभाने के लिए एक पराए घर में जा रही है।
यहाँ लोगों को पता नहीं है कि उनकी बेटी के साथ वहाँ क्या सलूक होने वाला है, क्योंकि अभी तक जो वर पक्ष के लोग बड़े अच्छे, व्यवहारिक और मानवीय लग रहे हैं। पता नहीं कल उनका कौन सा रूप देखने को मिले, क्यों आज जो उनका भले मानुस का स्वभाव है, वह उनका यह स्वभाव स्थायी है अथवा लोग अच्छा इंसान होने की एक्टिंग कर रहे हैं। कन्या के पिता ने शादी में नकद से लेकर सामने देने और स्वागत करने में यथास्थिति ख़र्च-वर्च किया है। फिर भी आशंकित है कि पता नहीं बेटी का भविष्य कैसा होगा। वह भगवान से प्रार्थना करता है कि बेटी का पति उसे प्यार करने वाला हो और पति के माता-पिता बेटी को बहू के रूप में नहीं बल्कि बेटी के रूप में स्वीकार करें।
लाउडस्पीकर वाले ने अभी-अभी मोहम्मद रफी का गाया गाना लगा दिया। माहौल में चलो रे डोली उठाओ कहार… पिया मिलन की ऋतु आई है… यह भी विचित्र संयोग है कि हम विकासक्रम के उस दौर में है जब न तो डोली ही है और न ही कहार हैं। डोली, पालकी, असवारी और कहार की परंपरा विलुप्त सी हो गई है। अब डोली की जगह फूलों से सजी हुई मारुति-सुजुकी की एक कार में है, जिसमें कुछ ही समय में दुल्हन बिठाई जाएगी और उसे इस घर से कर दिया जाएगा।
मेरी नज़र मंडप की ओर जाती है। बीती रात वहाँ उल्लास था। तेज़ संगीत के साथ बारातियों का नाच गाना था। द्वार चार की रस्म हो रही थी। उसके बाद खान-पान और रात में शादी की रस्म सम्पन्न हो गई। और अब सुबह, घर की सबकी दुलारी विदा हो रही है। आज के बाद जब भी वह यहाँ आएगी, तो बस एक मेहमान की तरह ही आएगी। वह जब भी यहाँ आएगी पहले से जाने का वक़्त मुकर्रर करके आएगी, क्योंकि वह अब किसी और की हो गई है। उसकी जवाबदेही माँ-बाप की जगह पति और सास-ससुर के प्रति हो गई है।
शादी समारोह वैसे तो होता है बड़ा उल्लासमय किंतु अंतिम चरण में यह कन्या के माता-पिता के लिए बड़ा कारुणिक हो जाता है। जब उनकी लाडली उनके घर से रुख़सत होती है। घऱ में अचानक से एक सदस्य कम हो जाता है। यहाँ भी परिवार में एक सदस्य कम हो गया है। माँ का एक सहारा छिन गया है। वो लाडली जो मां को कोई काम नहीं करने देती थी, आज आँख में आँसू लिए रुख़सत हो रही है। जैसे ही लड़की कार मैं बैठी, भाई ने मुंह में पानी लेकर कार से उस पार फेंकी और कार रवाना हो गई। अभी-अभी जो क्षण बीता है, वह फिर कभी नहीं आएगा, क्योंकि काल का गति वनवे होती है। माँ घऱ की ओर नज़र डालती है। केवल उसकी अनुपस्थिति में एक सदस्य की अनुपस्थिति में घर में निर्वात सा पसर गया है। एक तरह से घऱ अच्छा ही नहीं लग रहा है।
मेरे मुँह से भी निकलता है, -ऑल द बेस्ट बेटी। ईश्वर करे कि तुम्हें प्यार करने वाला बेहद संवेदनशील पति और केयर करने वाले संवेदनशील सास-ससुर मिलें और तुम भी ज़िम्मेदारी से सबका उचित मान-सम्मान करना। इस स्त्रीविरोधी समाज में तुम्हें ख़ुशी नसीब हो।
हरिगोविंद विश्वकर्मा
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