मोटापा यूं तो पूरे शरीर के लिए परेशानी का सबब होता है, लेकिन घुटने का तो यह दुश्मन दुश्मन नंबर एक है। जैसा कि हम जानते हैं, दोनों घुटने पूरे शरीर का भर वहन करते हैं। ऐसे में शरीर जितना हल्का होगा, घुटनों पर दबाव उतना ही कम होगा। वस्तुतः मोटे लोगों का वज़न बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है, जिसका सबसे ज़्यादा असर घुटनों पर पड़ता है और घुटनों में तमाम तरह की समस्याएं पैदा होने लगती हैं।
लगातार अस्वस्थ व जंकफूड की आदतें, अनियमित खानपान, कम शारीरिक गतिविधियां या कम व्यायाम मोटापा बढ़ाते हैं। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो दुनियाभर में 50 करोड़ व्यस्क मोटापे से ग्रस्त हैं। भारत में यह आंकड़ा इस साल तीन करोड़ तक पहुंच गया है। 2020 तक इसके दोगुना यानी छह करोड़ होने का अनुमान है। अध्ययनों के अनुसार किसी व्यक्ति का एक किलो अधिक वज़न से घुटनों पर चार से पांच गुना ज़्यादा दबाव डालता है।
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परेशानी बढ़ाए मोटापा
मोटापे के बारे में जानना और इसका इलाज करना बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण है। इसके बढ़ने का सबसे बड़ा कारण कैलोरी का बर्न न होना है। जितनी आप कैलोरी ले रहे हैं, अगर उतनी कैलोरी बर्न नहीं होगी तो मोटापा बढ़ना तय है। इसके अलावा धूम्रपान, मानसिक तनाव या डिप्रेशन भी मोटापा बढ़ने का कारण बन सकते है। कई बार मोटापा जेनेटिक बीमारी भी हो सकता है। मोटापा बहुत भयंकर समस्या है। इससे आपके घुटनों बहुत अधिक प्रभावित होते है। दरअसल, जब हम मोटापे की बात करते हैं तो इसका सीधा संबंध घुटनों में ओस्टियोआर्थ्राइटिस से है। रिसर्च के अनुसार अगर मोटापा बढ़ता है तो इससे 35 फ़ीसदी घुटनों में ओस्टियोआर्थ्राइटिस का रिस्क बढ़ जाता है। मोटापा अपक्षयी रोगों के लिए सबसे ज़्यादा रिस्क कारक बना हुआ है।
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गंभीर समस्या का लेता रूप
गौरतलब है कि मानव शरीर में घुटनों के जोड़ सबसे ज़्यादा वज़न उठाते है। अगर घुटनों के जोड़ पर ज़्यादा वज़न दे दिया जाएं तो मांसपेशियों पर तनाव बढ़ता है जिससे मुलायम आर्टिकुलर कर्टिलेज में विकृति होने लगती है और व्यक्ति आर्थ्रराइटिस पीड़ित हो जाता है। अगर एक किलो वज़न ज़्यादा है तो घुटने को हर क़दम बढ़ाने के लिए 4-5 गुना ज़्यादा दबाव झेलना पड़ता है और अगर दबाव लगातार बना रहे तो कार्टिलेज में घिसाव शुरू हो जाता है। इससे घुटने के जोड़ों में विकृति पैदा होनी शुरू जाती है। लगातार दबाव से ओस्टियोआर्थ्राइटिस होने की संभावना बढ़ सकती है। भारत के परिपेक्ष्य में देखा जाएं तो शहरी इलाकों में 5।5 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 3।3 फ़ीसदी लोग घुटने में ओस्टियोआर्थ्राइटिस की समस्या से पीड़ित है। ये बढ़ती जनसंख्या की बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। गौरतलब है कि लोग न तो बढ़ते वज़न को घुटने के ओस्टियोआर्थ्राइटिस से जोड़कर देखते है और न ही इसके इलाज को गंभीरता से लेते हैं।
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पेनकिलर और ख़तरनाक
इस समस्या से बड़ी संख्या में लोग जूझ रहे हैं। कई लोगों को घुटनों में दर्द की समस्या काफी समय से होती है लेकिन वे इस ओर कभी ध्यान ही देते। जब दर्द बर्दाश्त से बाहर हो जाता तब पेनकिलर लेने लगते हैं। लंबे समय से अपने घुटनों के दर्द को पेनकिलर से नियंत्रित करने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि कुछ समय बाद पेनकिलर का भी असर नहीं होता और दर्द गंभीर होता जाता है। अंततः विकृति इतनी ज़्यादा हो जाती है थी कि नी-ट्रांसप्लांट ही एकमात्र विकल्प बचता है। फिजियोथेरेपी के साथ-साथ रोज़मर्रा के कार्य जैसे ज़्यादा देर तक खड़े रहना, सीढ़ियां चढ़ना, टांगों को मोड़कर न बैठना और भारतीय टॉयलेट शुरूआती घुटने के ओस्टियोआर्थ्राइटिस रोगियों के लिए मददगार हैं। आमतौर पर आर्थ्राइटिस का दर्द कम करने के लिए नॉन स्टेरॉयड ऐंटी इंफलेमेटरी ड्रग्स दी जाती है। लेकिन इसके लगातार इस्तेमाल से पेट और किडनी को नुकसान होता है। इसलिए इन दवाइयों के लगातार इस्तेमाल से बचना चाहिए और बिना परामर्श के नहीं लेनी चाहिए।
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कई तरह के हैं इलाज
जब रोगी के घुटने विकृत हो जाते हैं या गंभीर दर्द से पीड़ित होते हैं, उन्हें प्रत्यारोपण की सलाह दी जाती है। आजकल आधुनिक तकनीकों ने टोटल नी रिप्लेसमेंट (टीकेआर) सर्जरी ने आर्थ्राइटिस रोगियों की हालत में बहुत सुधार किया है। सिंगल रेडियस नी डिजाइन (एसआरके) या गोलाकार घुटने को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि इसकी गतिविधियां भी प्राकृतिक मानवीय घुटने की तरह गोलाकार तरीक़े से होती है। पश्चिमी देशों में गोलाकार घुटना व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है और इसका 20 साल का सफल क्लिनिक डॉटा का ट्रैक रिकार्ड है।
अध्ययनों से पता चलता है कि सर्जरी के बाद एसआरके या गोलाकार घुटने की वजह से क्वाड्रिसेप्स (जांघ) की मांसपेशियों पर 57 फ़ीसदी कम दबाव पड़ता है, जिससे मरीज़ की रिकवरी तेज़ी से होती है और दर्द कम होता है। धीरे-धीरे मरीज़ सीढ़ियां चढ़ने और बैठकर उठने में ज़्यादा आत्मविश्वास महसूस करते है। पेटेंटड एक्स3 तकनीक के कारण एसआरके अन्य प्रत्यारोपणों की तुलना में 95 फ़ीसदी तक कम घिसता है जिससे यह लंबे समय तक चलने में सक्षम होता है। अगर आप घुटनों की समस्या से जूझ रहे हैं। तो इसे नज़रअंदाज़ न करें, क्योंकि ज़्यादा देरी से जटिलता बढ़ जाती है और सर्जन के लिए भी इलाज बहुत मुश्किल भरा हो जाता है। आधुनिक तकनीकों से इलाज न सिर्फ़ शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी ज़िंदगी को बेहतर बनाता है।