मुसलमानों को कामुक व वहशी साबित करती है बुरका प्रथा

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
इस धरती पर स्त्री और पुरुष नैसर्गिक रूप से एक दूसरे के पूरक हैं। स्त्री-पुरुष के बराबर योगदान से ही इस सृष्टि का अस्तित्व लाखों साल से कायम है। इसका मतलब यह कि समाज के निर्माण में स्त्री और पुरुष दोनों का बराबर योगदान है। यानी प्राकृतिक रूप से स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं। समान हैं। ऐसे में किसी भी समाज में स्त्री के लिए अलग और पुरुष के लिए अलग प्रथाएं क्यों हों? पुरुष और स्त्री का समाज में दर्जा स्वामी और दासी का क्यों हो। सभी बंदिशें स्त्री पर ही क्यों हों? घर हो या बाहर, स्त्री के लिए ही परदा क्यों हो? स्त्री को अपनी इच्छानुसार जीवन-यापन करने की आज़ादी क्यों नहीं हो? वह पुरुषों की ही तरह क्यों न मुंह खोल कर केवल सामान्य कपड़े में घर से निकले। क्यों न वह बिंदास घूमे-फिरे और मौज-मस्ती करे? उसके लिए अपना चेहरा या संपूर्ण बदन को ढकना क्यों ज़रूरी है? क्या स्त्री इंसान के भेस में ऐसे वहशियों के बीच में रहती है, जो उसका चेहरा या बदन देखकर उस टूट पड़ेंगे, उसे अपनी हवस का शिकार बना लेंगे?

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अगर इन सवालों का उत्तर ‘नहीं’ है यानी स्त्री वहशी पुरुषों के बीच में नहीं रहती है तो उसके लिए परदा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ऐसा समाज वाक़ई सभ्य और शिष्ट समाज माना जाएगा। उस समाज में स्त्री पूरी तरह महफ़ूज़ है। लेकिन अगर इन सवालों का जवाब ‘हां’ है, यानी स्त्री वहशी पुरुषों के बीच में रहती है। इसलिए उसे परदा करने की सख़्त ज़रूरत है या स्त्री को परदे में रहना ही चाहिए। यक़ीन मानिए वह संपूर्ण समाज ही असभ्य और अशिष्ट माना जाएगा। उस समाज में स्त्री बिल्कुल सुरक्षित नहीं है, लिहाज़ा, उसे मजबूरन परदा करना पड़ेगा, क्योंकि परदा न करने पर मुमकिन है कामुक पुरुष उसके अस्तित्व को ही मिटा डाले। कितने अफ़सोस की बात है कि संचारहीन काल में बनाई गई यह आदिम और बर्बर परंपरा आज भी लाइव वीडियो टेलीकॉस्ट के दौर में भी उसी स्वरूप में ज़िंदा है।

परदा समर्थक समाज में रहने वाली स्त्री को स्वीकार करना पड़ेगा कि वह ऐसे समाज में रहती है, जो उसे केवल वस्तु समझता है। भोगने की वस्तु और बच्चा पैदा करने की मशीन। अगर वह बिना परदा के घर से बाहर निकली या उसका चेहरा या बदन का कोई हिस्सा किसी पुरुष को दिख गया तो वह पुरुष उस पर टूट पड़ेगा। इसका तो यही तात्पर्य है न स्त्री कि परदे में रखने की पैरवी करने वाला समाज मानता है कि उसके पुरुष बेपरदा स्त्री को देखकर अपना मानवीय आचरण भूल सकते हैं और कोई अनुचित या अमानवीय हरकत कर सकते हैं, इसलिए स्त्री को परदे में रखना ज़रूरी है। अगर कोई समाज ऐसा है तो वह समाज से केवल स्त्री समुदाय को नहीं, बल्कि संपूर्ण दुनिया को ख़तरा है।

स्त्री के लिए हिजाब, बुरका या घूंघट जैसी परंपराओं का समर्थन करने वाला हर समाज चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो, कामुक और दरिंदा है। बलात्कारी है, क्योंकि उसके अंदर विवेक नाम की चीज़ नहीं है। उसका ख़ुद पर नियंत्रण भी नहीं है। लिहाज़ा, स्त्री को बिना परदे का देखकर वह वहशी बन जाता है। मतलब वह अपनी वहशियाना प्रवृत्ति को कंट्रोल करने के लिए स्त्री को परदे में रखना चाहता है, इसलिए परदा प्रथा का समर्थन करता है। परदे के समर्थन में वह ढेर सारी कुतार्किक दलीलें प्रस्तुत करता है। परदे की तुलना बिकनी अथवा स्कर्ट से करता है। ऐसी ही तुलना कट्टरपंथी इस्लामिक ख़तीब ज़ाकिर नाइक भी करता था। वह परदा प्रथा को सही और न्यायोचित ठहराने के लिए परदे वाली स्त्री और स्कर्ट वाली स्त्री की तुलना करता था।

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ज़ाकिर कहता था, “एक स्त्री बुरक़े में जा रही है और दूसरी स्त्री स्कर्ट में जा रही है। तो आप ही बताइए कि सड़क पर खड़े लोग किस स्त्री को देखेंगे? किस स्त्री को घूरेंगे?” फिर लोगों को बताता था, “लोग बुरक़े वाली स्त्री को नहीं, बल्कि स्कर्ट वाली स्त्री को देखेंगे। उसी स्त्री को घूरेंगे। बुरक़े वाली स्त्री पर किसी की नज़र नहीं जाएगी और वह महफ़ूज़ रहेगी, इसलिए स्त्रियों की हिफ़ाजत के लिए परदा ज़रूरी है।” ज़ाकिर के उपदेश परदा प्रथा समर्थक लोग आत्ममुग्ध होकर सुनते थे। अगर उसकी बातों पर गौर करें तो उसका अलग ही अर्थ निकलता है। यह कहना कि कोई स्त्री स्कर्ट में है तो लोग उसे देखेंगे या घूरेंगे, पुरुषों का असली चरित्र परिभाषित करता है। मतलब ज़ाकिर और उसके श्रोता जाने-अनजाने यह बताने की कोशिश करते थे कि अगर कोई स्त्री स्कर्ट पहन कर जा रही है तो उसे पुरुष ज़रूर देखेंगे। पुरुष स्कर्ट वाली स्त्री को देखे बिना नहीं रह सकते यानी लोग वहशी प्रवृत्ति के हैं, इसलिए स्त्रियों को उन वहशियों से बचने के लिए परदे में रहना चाहिए।

ज़ाहिर है, बुरक़े की स्कर्ट से तुलना भी समाज को वहशी साबित करती है। कोई स्त्री स्कर्ट में जा रही है तो आप उसे घूरेंगे। उसके चेहरे या बदन को देखने की कोशिश करेंगे। और मौक़ा मिला तो उसे अपनी हवस का शिकार बनाने की कोशिश करेंगे। मतलब, इस धरती पर ऐसी मानसिकता वाला समाज भी है, जिसके सामने से स्कर्ट पहन कर स्त्री सही-सलामत गुज़र नहीं सकती। यहीं पर ज़ाकिर या असदुद्दीन ओवैसी जैसे बुरक़ा या हिजाब समर्थकों की विचारधारा बेनकाब हो जाती है। अपने इस तरह के बयान से वे साबित करते हैं कि वे नैसर्गिक रूप से पाशविक प्रवृत्ति के इंसान हैं। उनके अंदर एक वहशी जानवर बैठा है, जो बेपरदा स्त्री को देखकर जाग सकता है। इसलिए उनकी काम इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए स्त्रियों को परदा करना ज़रूरी है।

आप देख रहे होंगे कि कर्नाटक में हिजाब पर रोक लगाने के बाद मुस्लम समाज की कई लड़कियां और महिलाएं भी विरोध पर उतर आई हैं। कई जगह हिजाब को मजहबी हक़ बताकर धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। वस्तुतः यह वैसी ही मानसिकता है जैसी हिंदुओं में कुछ महिलाएं घूंघट की पैरवी करती हैं। बहू को घूंघट में रखने की कोशिश करने वाली महिलाएं यह भी मानती हैं कि पीरियड के दौरान स्त्री को धार्मिक प्रयोजनों से दूर रहना चाहिए। वे पीरियड को शौच-पेशाब की तरह नैसर्गिक क्रिया मानने को तैयार नहीं। गहराई से विचार करें तो इसमें बुरक़ा-हिजाब या घूंघट का समर्थन करने वाली महिलाओं का दोष नहीं है। वस्तुतः स्त्री विरोधी समाज में रहते-रहते ज़्यादातर स्त्रियां भी पुरुषों की तरह ही सोचने लगी हैं। सदी-दर-सदी पुरुष के इशारों चलने के कारण स्त्री के डीएनए में पुरुष की ग़ुलामी घर कर गई है। इसीलिए कमोबेश हर स्त्री अपने गर्भ से पुत्री की नहीं, बल्कि पुत्र की कामना करती है। पुत्र प्राप्त होने पर उसे रत्न कहकर ख़ुश होती है। इस तरह स्त्री को पुरुष की दासी बनाने वाली परंपराओं का स्त्री ही समर्थन करती है।

बुरक़ा-हिजाब या घूंघट जैसी स्त्री विरोधी परंपराओं की पैरवी करने वाली महिलाओं को पता ही नहीं होता कि अनजाने में संपूर्ण स्त्री समाज का ही नुकसान कर रही हैं, क्योंकि आज वे जो कुछ भी कर रही हैं उससे समाज और अधिक स्त्री विरोधी एवं पुरुष प्रधान बनेगा। उसकी कीमत उनकी आने वाली कई-कई पीढ़ी की लड़कियों और स्त्रियों को चुकानी पड़ेगी। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि वे ऐसी बंदिश का समर्थन कर रही हैं जिसके चलते पुरुष उन्हें स्वछंद घूमने फिरने या अपने ढंग से अपना जीवन जीने की आजादी कभी नहीं देंगे। वे ऐसी व्यवस्था का समर्थन कर रही हैं जो उनके मानवीय अधिकारों की हत्या करता है। समस्त स्त्री जाति के लिए इस ख़तरे को भांप कर ही पाकिस्तान की प्रमुख लेखिका और बुद्धिजीवी डॉ शाज़िया नवाज़ (Dr. Shazia Nawaz) बुरक़ा को महिलाओं के लिए पुरुष की बनाई मोबाइल जेल करार देते हुए उस पर तुरंत प्रतिबंध लगाने की बात करती हैं। यही बात कट्टरपंथी मुसलमानों के निशाने पर रही प्रख्यात लेखिका तस्लीमा नसरीन (Taslima Nasreen) कहती रही है। वह भी बुरक़ा या हिजाब को लड़कियों के लिए मोबाइल जेल कहती रही हैं।

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कुछ लोग कहते हैं कि परदे की बात क़ुरआन में लिखी है। तो परदा के धार्मिक पहलू पर चर्चा जरूरी है। वस्तुतः मौजूदा मानव सभ्यता क़रीब 10 से 12 हज़ार साल पुरानी है। दुनिया के चार प्रमुख धर्मों ईसाई, इस्लाम, बौद्ध और हिंदू में से बौद्ध धर्म 23-24 सौ साल, ईसाई धर्म 20-21 सौ साल और इस्लाम धर्म 14-15 सौ साल पुराना है। हिंदू धर्म कितना पुराना है कोई नहीं जानता। बेशक हिंदू धर्म इन तीनों धर्मों से अधिक पुराना है। कुछ विद्वानों का मत है कि रामायण और महाभारत काल में स्त्रियां परदा या घूंघट नहीं करती थीं। अजंता और सांची की प्राचीन काल की बनी कलाकृतियों में भी स्त्री बिना घूंघट के दिखती है। मनु और याज्ञवल्क्य जैसे आदि पुरुषों ने स्त्रियों की जीवन शैली के बारे में कई नियम बनाए, परंतु कहीं भी उसे परदे में रहने की बात नहीं कही। किसी हिदू धर्म ग्रंथ में भी परदे का ज़िक्र नहीं मिलता। संस्कृत नाटकों में भी इसका उल्लेख नहीं है। दसवीं सदी के आरंभिक काल में भारतीय राज परिवारों की स्त्रियां बिना परदे के राजसभा में आती थीं, यह वर्णन स्‍वयं अरब यात्री अबू जैद ने किया है। इससे साफ़ है कि भारत में प्राचीनकाल से लेकर इस्लाम के आगमन तक परदा प्रथा जैसी बीमार परंपरा प्रचलन में नहीं थी।

अगर भारत के बाहर के दुनिया पर नज़र डालें तो ईसा के जन्म से 500 वर्ष पहले यूनानी स्त्रियां पुरुष के बिना घर से बाहर नहीं जा सकती थीं। उन्हें अनजान व्यक्तियों से मिलने की अनुमति नहीं थी। मेनांडर ने तो अपने नाटक में पात्रों से अक्सर कहलवाता है कि आज़ाद घूमने वाली स्त्री के लिए गली का द्वार बंद कर देना चाहिए। ईसा से 300 वर्ष पहले अभिजात्य वर्ग की महिलाओं में परदा प्रथा थी। विवाहित स्त्रियां अपने चेहरे को विशेष आवरण से ढके रहती थीं। संभवतः इसी बिना पर कहा जाता है कि भारत में परदा प्रथा इस्लाम की देन है, क्योंकि परदा का अर्थ ढकना है। इस्लामे आगमन के समय आक्रमणकारियों से बचने के लिए हिंदू स्त्रियां भी परदा करने लगी थीं। इस प्रथा ने मुग़ल शासकों के दौरान अपनी जड़ें मज़बूत की।

कहने का तात्पर्य जहां हिंदू धर्म ग्रंथों में इंसान को जीवन शैली चुनने का स्वतंत्रता है। मतलब कौन क्या पहने या, या कैसे रहे इसकी कोई बात नहीं लिखा गई है। वही, क़ुरआन की कुछ आयतों में रहने की रीति-रिवाज़ का ब्यौरा मिलता है। लेकिन क़ुरआन विनम्र तरीके से कपड़े पहनने की बात करता है, जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है। तो क्या पुरुष बुरका या हिजाब पहनता है। नहीं न, तो फिर स्त्री बुरका क्यों पहने। फिर क़ुरआन तो यह भी कहता है कि झूठ मत बोलिए। क्या आज के दौर में कोई दावा कर सकता है कि वह झूठ नहीं बोलता? क़ुरआन में मनाही के बावजूद अगर इंसान धड़ल्ले से झूठ बोलता है। तो इसका मतलब यह है कि वह क़ुरआन का पालन अपनी सुविधा के अनुसार करता है। यानी क़ुरआन की झूठ बोलने पर बंदिश को वह समय के अनुकूल नहीं मानता है। तो परदा भी तो समय के अनुकूल नहीं है। तो उसके लिए क्यों क़ुरआन का हवाला देने का क्या तुक है?

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ज़ाहिर है परदा प्रथा का समर्थन करने के लिए क़ुरआन का हवाला देने वाले समाज को व्यापक सुधार की ज़रूरत है। वैसे तो सुधार की ज़रूरत आज हर धर्म, मजहब या रिलिजन को है, लेकिन इस्लामी जीवन शैली में क्रांतिकारी सुधार की ज़रूर है। इसके लिए किसी क्रांतिकारी समाज सुधारक की दरकार है। एक ऐसा समाज सुधारक जो बताए और यक़ीन भी दिलाए कि इस्लाम को किसी दूसरे धर्म के मानने वालों या अनुयायियों से कोई ख़तरा नहीं है, इसलिए इस्लाम की कथित हिफ़ाज़त के लिए किसी तरह के जिहाद की कोई ज़रूरत नहीं है। वह समाज सुधारक मुस्लिम समाज को यह भी बताए कि इस धरती पर गैर-मुसलमानों को भी रहने और जीने और अपने अपने धर्म के अनुपालन का उतना ही हक़ है, जितना मुसलमानों को है। वह समाज सुधारक मुस्लिम महिलाओं को भी बराबरी का दर्जा देने की पैरवी करे और सार्वजनिक रूप से कहे कि स्त्री इंसान है। वह वस्तु नहीं है कि उसे परदे में रखा जाए। यानी वह बुरका या हिजाब के रिवाज़ को सिरे से ख़रिज़ कर दे और कहे कि स्त्री को काले कपड़े से ढकना उसके स्त्री अधिकारों का हनन है।

वह समाज सुधारक यह भी कहे कि दूसरे धर्म की तरह इस्लाम में भी इबादत से ज़्यादा महत्वपूर्ण काम-काज है। या कामकाज को ही इबादत कहे और उसे ही वरीयता दे। वह यह भी कहे कि काम-धाम छोड़कर रोज़ाना पांच-पांच बार नमाज़ पढ़ना आज से व्यस्त दौर में पूरी तरह अव्यवहारिक परंपरा है। इसलिए जिसे नमाज पढ़ना है वह सुबह शाम घर में नमाज़ पढ़ ले या मस्जिद में जाकर इबादत कर ले। वह समाज सुधारक यह भी कहे कि मस्जिद में लाउडस्पीकर की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि आजकल हर आदमी मोबाइल इस्तेमाल करता है और मोबाइल में नमाज़ के समय का अलार्म लगा दे। वह समाज सुधारक दृढ़ता से यह भी कहे कि सड़कों पर नमाज़ पढ़ना ख़ुदा की इबादत नहीं, बल्कि ख़ुदा की अवमानना है, क्योंकि इससे सड़क पर चलने वालो के जीने के अधिकार का हनन होता है। लोगों को भारी असुविधा होती है और ट्रैफिक जाम होता है।

हर धर्म, दर्शन या विचारधारा में समय के साथ सुधार होना समय की मांग है, क्योंकि समाज में जो चीज़ आज प्रासंगिक हैं, हो सकता है वैज्ञानिक आविष्कार के बाद वह कल को अप्रासंगिक हो जाए। कमोबेश सभी धर्म सदियों पुराने हैं। सिख धर्म और इस्लाम सबसे नए धर्म हैं। वस्तुतः जब इन धर्मों का आग़ाज़ हुआ था तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन पूरी दुनिया एक गांव में तब्दील हो जाएगी और दूरी यानी डिस्टेंस की मौत यानी डेथ हो जाएगी। लेकिन आज सच यही है। दुनिया में दूरी का लोप हो गया है। किसी से मिलने या उसे देखने भर के लिए जहां महीने और साल लग जाते थे, आज हम वीडियो कॉलिंग से तत्काल बात कर सकते हैं और यातायात के दूसरे साधनों के ज़रिए कुछ घंटों में मिल सकते हैं।

एक बात और, सभी धर्मों का आग़ाज़ लोगों को बेहतर और मानवीय जीवनशैली देने के लिए हुआ है। न कि उनकी इच्छा के विरुद्ध उन पर कोई बात या परंपरा थोपने के लिए हुआ है। ऐसे में हर धार्मिक कार्य व्यक्ति पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। उसकी निष्ठा हो तो वह पूजा-पाठ करे, नमाज़ अता करे या गिरजाघर में जाए, उसकी मर्जी न हो तो वह न करे। इसके अलावा धार्मिक कार्य का संपन्न करते समय यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उससे आम आदमी को किसी तरह की कोई असुविधा न हो। अगर आपके धार्मिक कार्य करने से लोगों को असुविधा हो रही है तो आप धर्म का पालन नहीं बल्कि एक सामाजिक अपराध कर रहे हैं। इसीलिए हर धर्म का केवल इतना ही दर्शन होना चाहिए कि हर व्यक्ति को अपना जीवन जीने की आजादी हो। ताकि हर व्यक्ति प्रकृति द्वारा प्रदत्त 70, 80 या 90 या 100 साल के जीवन को शांतिपूर्वक जिए।

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