सोने की छड़ी वाला दबंग पठान
हरिगोविंद विश्वकर्मा
वह दिसंबर 1973 की एक दोपहर थी। घड़ी में दो बज रहे थे। भिंडी बाज़ार का गेटा इलाक़ा आम दिनों की तरह गुलज़ार था। लोग इधर-उधर आ-जा रहे थे। कुछ फेरीवाले सड़क पर रखे सामान को बेचने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे।
वहीं एक कार से एक नक़ाबपोश महिला उतरी। सड़क से ट्राम सेवा हटा ली गई थी, लेकिन उसकी पटरियां अभी तक जस की तस थीं।
नक़ाबपोश महिला ने सड़क के किनारे बैठे एक ठेलेवाले से पूछा, “भाई का ऑफिस किधर है? करीम भाई का ऑफिस?”
-सामने सीधे चली जाओ मैडम। गली खतम होने पर फर्स्ट राइट टर्न ले लो। टर्न लेते ही सामने भाई का ऑफिस है। ग्राउंड फ्लोर पर।
नक़ाबपोश महिला तेजी से इमारत की ओर लपकी। दरवाज़े पर दो हट्टे-कट्टे युवक बैठे थे। उसने इशारे से ही पूछा।
“भाई से मिलना है।”
“नाम क्या है?”
“हेलन?”
“क्या काम है?”
“भाई को पता है।”
“ठीक है। अपुन पूछता है भाई से। एक युवक अंदर चला गया।”
वह थोड़ी देर में बाहर आया और दरवाज़ा खोलकर कहा, -आ जाओ मैडम।
नक़ाबपोश महिला दर चली गई और चेहरे से नकाब हटा लिया।
अंदर की तो दुनिया ही अलग दिख रही थी।
सिंहासननुमा कुर्सी पर एक लंबे क़द और मज़बूत डीलडौल का कोई 55-60 साल का व्यक्ति शान से बैठा था। उसका व्यक्तित्व उसके दबंगई की कहानी ख़ुद कह रहा था।
“आओ, हेलन आओ। यहां बैठो।” यूसुफ साहब का फोन आया था। उस व्यक्ति ने इशारा किया और वहां बैठे दो लोग वहां से बाहर चले गए।
नक़ाबपोश महिला धीरे से कुर्सी पर बैठ गई।
“क्या लोगी? चाय या लस्सी? यहां की लस्सी मस्त मस्त है। लस्सी ही मंगाता हूं।”
“नहीं-नहीं। मैं कुछ लूंगी नहीं।”
“पक्का।”
“हां-हां।”
“मैं तो तुम्हारी फिल्मों का शौक़ीन हूं। इसीलिए जब यूसुफ साहब का फोन आया तो मैंने तुरंत कह दिया, भेजिए मैडम को, उनका दीदार भी कर लूंगा। अच्छा बताओ, क्या प्राब्लम है तुम्हारी।”
“वही, मेरे पैसे नहीं दे रहा है।”
“क्या नाम बताया था बंदे का?”
“पीएन अरोड़ा।”
“आपका हसबैंड था न।”
“हां, पर अब कोई रिलेशन नहीं।”
“तलाक़ हो गया।”
“बस होने वाला ही है।”
“उसका नंबर बताओ।”
“नक़ाबपोश महिला एक नंबर देती है।”
“रशीद! उस व्यक्ति ने आवाज़ लगाई, -समद को बुलाओ।”
“जी भाई, बुलाता हूं।”
क़रीब पांच मिनट बाद एक हट्टा-कट्टा जवान अंदर आया।
“समद, ये हेलन हैं। इनका पैसा एक बंदे ने हड़प लिया है। फोन करके समझा दो उसे।”
“जी चाचा।”
समद ने वहीं बैठकर फोन लगाया।
“तू पीएन अरोड़ा बोल रहा है?”
… उधर से कोई आवाज आई।
“माद..द एक बात सुन, तेरा जो लेन-देन का लफड़ा है न। तो हेलन मैडम के पैसे वापस कर दे। नहीं तो आकर टपका दूंगा। दिमाग़ में बात आई या नहीं। ये मत पूछ कौन बोल रहा हूं। बस, अपना बाप समझ। मुझे पता है तू फिल्म-विल्म बनाता है।”
….
“और सुन हरामी, ये फर्स्ट एंड लॉस्ट कॉल है। कलीच का कलीच पैसे वापस करना है। शाम तक अपुन दोबारा फोन करेगा। ओके।”
उधर से आवाज़ आई।
“ओके मैडम। हो गया आपका काम।”
“शुक्रिया करीम भाई।” हेलन ने कहा और वापस हो लीं।
यह फिल्मों की मशहूर डांसर हेलन थी, जो 1960-70 के डॉन करीम लाला से मदद मांगने उसके अड्डे पर गईं थीं।
दरअसल, मायानगरी मुंबई पर राज करने का सपना बहुत से लोगों का रहा था। करीम लाला इन्हीं लोगों में से एक था। उसके बारे में कहा जाता है कि वह ग़रीब और ज़रूरतमंद लोगों की मदद किया करता था। कुछ लोग उसे रॉबिनहुड मानते थे तो कुछ अपराधी। करीम लाला का असली नाम अब्दुल करीम शेर खान था। वह 1911 में अफगानिस्तान के कुनर प्रांत में पैदा हुआ था। कई लोग कहते हैं कि करीम के पूर्वज पश्तून समुदाय का आखिरी राजा थे। वह अमीर था और जमींदार परिवार से ताल्लुक रखता था। बहरहा, कुल मिलाकर वह खाते-पीते घर का युवक पश्तो भाषी करीम लाला पठान यानी पश्तून था। वह 1930 के दशक में 21 साल की उम्र में अपने बड़े परिवार के साथ कुनर से पेशावर होता हुआ मुंबई (तब बॉम्बे) आया था। उसका परिवार दक्षिण मुंबई में भिंडी बाज़ार के सबसे घनी आबादी वाले और गरीब मुस्लिम बस्ती में बस गया।
मुंबई में कुछ समय काम करने के बाद, वह पठान जाति के एक गिरोह में शामिल हो गया। वह गिरोह उन दिनों मारवाड़ी और गुजराती धन उधारदाताओं, जमींदारों और व्यापारियों के लिए अवैध वसूली एजेंटों के रूप में काम करता था। इन धन उधारदाताओं और जमींदारों ने बलवान पठानों को नियोजित किया, जिनके लंबे शरिरिक आकार और धमकाने वाले आचरण ने कर्जदारों द्वारा दक्षिण मुंबई के डिफ़ॉल्टर्स तथा किरायेदारों और मालिकों को उनकी महंगी प्रमुख संपत्तियों से बेदखल करने के काम को आसान कर दिया। वह बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हुआ करता था।
पत्रकार शीला रावल ने अपनी किताब ‘गॉडफादर्स ऑफ क्राइमः फेस टू फेस पिद इंडियाज मोस्ट वॉन्टेड’ और लंबे समय तक क्राइम रिपोर्टर रहे एस हुसैन जैदी ने ‘डोगरी टू दुबई’ में करीम लाला के अपराध और उसके कारोबार के बारे में विस्तार से लिखा है। दरअसल, करीम लाला की कद काठी और दमदार आवाज से लोग डरा करते थे। शुरू में वह छोटा मोटा गुंडा था और वसूली भी करता था लेकिन वक्त बीतने के साथ-साथ उसका कद बढ़ने लगा। डॉकयार्ड के आस पास के इलाके में उसकी हुकूमत चलने लगी और उसका गैंग बड़ा होता गया। मुंबई अंडरवर्ल्ड की शुरुआत डॉक से ही हुई थी क्योंकि यहां से तस्करी की जाती थी। दाना बाजार, कपड़ा बाजार जैसे इलाकों पर लाला का राज चलता था। मनीष बाजार में तो तस्करी का माल खुलेआम मिलता था। रेडियो से लेकर घड़ियों तक की समग्लिंग की जाती थी। डॉकयार्ड के आस पास के इलाके में लाला का कब्जा था।
करीम लाला 1940 के दशक से वह बहुत ज़्यादा सक्रिय हो गया। वह डॉक पर तस्करी का किंग बन चुका था। दक्षिण बंबई में ग्रांट रोड स्टेशन के पास किराए के मकान में उसने 1944 में सोशल क्लब नाम से जुए का अड्डा खोला। उसका क्लब बहुत कम समय में ही शहर का नामी क्लब बन गया और वह करीम लाला के नाम से कुख्यात हुआ। जुआघर से बेशुमार दौलत कमाने के बाद करीम लाला डॉन के रूप में उभरा। उसके बाद उसने मुंबई में कई जगहों पर जुए और दारू के अड्डे भी शुरू कर दिए। पूरी मुंबई में करीम लाला और उसके पठान गैंग की तूती बोलने लगी। उसकी सरपरस्ती में ढेर सारे गुंडे दक्षिण मुंबई में सक्रिय थे। उसे माफिया डॉन कहा जाने लगा। वह बंबई का पहला माफिया डॉन बन गया। इसके बाद करीम लाला सोने-चांदी की तस्करी करने लगा और जल्द ही तस्करी के धंधे का किंग बन गया।
वह भारत में साठ के दशक से लेकर अस्सी के दशक तक दो दशकों से अधिक समय तक भारत में मुंबई के तीन “माफिया डोंस” में से एक के रूप में बदनाम था। अन्य दो लोग मस्तान मिर्जा उर्फ हाजी मस्तान और वरदराजन मुदलियार थे। करीम अंडरवर्ल्ड के पहले डॉन हाजी मस्तान मिर्ज़ा से भी पहले का डॉन था। तमिलनाडु से आए हाजी मस्तान, वरदराजन और करीम लाला ने मिलकर मुंबई को आपस में बांट लिया था। सब कुछ ठीक चल रहा था और लाला मुंबई पुलिस के लिए गैंगस्टर बन चुका था जो पठान गैंग का सुप्रीमो था। इसी सब के बीच मुंबई के डोंगरी इलाके से निकले एक शख्स ने ठान लिया था कि वो मुंबई पर अकेला ही राज करेगा।
दो दशकों से अधिक समय तक, वह खूंखार “पठान गैंग” का नेता रहा, जो गैंग दक्षिण मुंबई के डोंगरी, नागपाड़ा, भिंडी बाज़ार और मोहम्मद अली रोड जैसे दुर्बल और अपराध से प्रभावित मुस्लिम गुटों का संचालन करता था। पठान गैंग अवैध जुआ (सट्टा) और शराब की तस्करी, अवैध धन की वसूली, अवैध भूमि बेदखली, अपहरण, संरक्षण रैकेट (हफ्ता), कॉन्ट्रैक्ट किलिंग (सुपारी), नशीले पदार्थों के वितरण और जाली मुद्रा के वितरण जैसे अपराधो में शामिल था।
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1950 के दशक में आम ज़रूरत की चीज़ों का देश में ज़्यादा उत्पादन नहीं होता था, लिहाज़ा से कपड़े लेकर घड़ी, ट्रांज़िस्टर, टेपरिकॉर्डर और सोना चांदी, हर सामान विदेश से आता था। भारी भरकम ड्यूटी लगने से सामान बहुत महंगा हो जाता था। ऐसे में हर चीज़ चोरी-छिपे लाने की परंपरा शुरू हुई, जिसे आजकल तस्करी या स्मगलिंग कहा जाता है। बताते हैं, पचास के दशक में बॉम्बे और आसपास के इलाक़ों में गवंडीराम, गफ़ूर सुपारीवाला, इब्राहिम पटेल, हाज़ी मस्तान, सुकूरनारायण बखिया, यूसुफ़ पटेल और मनु नारंग जैसे तस्कर कुख्यात हुए। साठ के दशक में अपराधी मूल रूप से तस्करी ही करते थे। प्रतिबंधित चीज़ों की तस्करी करके भारत लाते और बेचते थे।
1970 के दशक में मुंबई अपराध जगत में में करीम लाला के अलावा हाजी मस्तान और वरदाराजन मुदलियार का भी वर्चस्व था। जल्द ही करीम लाला ने इन दोनों को पीछे छोड़ कर अपना दबदबा बना लिया। करीम लाला ने इसके बाद अगले 30 साल तक पूरे दक्षिण मुंबई में अपनी बादशाहत बनाए रखी। दक्षिण मुंबई, ख़ासकर डोंगरी, नागपाड़ा, जेजे अस्पताल और टिमकर स्ट्रीट जैसी गलियां मौत के ख़ूनी मंज़र की गवाह बनने लगीं। उस ख़ूनखराबे को देखकर आम इंसान की रूह तक कांप जाती थी। करीम लाला के भतीजे समद ख़ान, आमीरज़ादा और आलमज़ेब शहर में हत्याएं करने और आतंक और बढ़ाने लगे। एक वक्त तो ऐसा था कि लाला अदालत लगाने लगा था और लोगों के विवाद सुलझाने लगा था। लाला को बॉलीवुड पसंद था और उसके मुंबई आने की सबसे बड़ी वजह फिल्में ही थीं। बहरहाल, उस दिन उसकी अदालत में हेलन पहुंची थीं।
बहरहाल, कुछ देर में बाहर बैठा हट्टा-कट्टा युवक अंदर आया।
“भाई, कुछ बात करनी है।” उसने धीरे से कहा।
“बोलो।” करीम लाला ने इशारे से ही बोलने को कहा।
“भाई। एक छोकरा मचमच कर रहेला। अक्खा कमाठीपुरा में प्राब्लम कर रहा है।”
“कौन है वह छोकरा?” करीम लाला की भौंहें तन गई।
“पुलिस वाले का लड़का है भाई। इब्राहिम भाई का लड़का। मारपीट भी करता है अपने बड़े भाई के साथ।”
“क्या नाम है?”
“दाऊद और साबिर। मार दो दोनों सालों को। देख लूंगा।”
“ठीक है भाई। दोनों को टपका देते हैं।”
“सुनो।” हट्टा-कट्टा व्यक्ति बाहर निकलने वाला था कि करीम ने वापस बुलाया।
“हां, भाई।”
“दोनों को यही बुला लो कल ही।”
तलब करने पर दूसरे दिन दाऊद और साबिर करीम लाला के अड्डे पर गए और उनका आदमी बनकर वापस लौटे। उस समय दाऊद अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ चाल मुसाफ़िरखाना की दूसरी मंज़िल पर रहता था। बहरहाल, दाऊद और साबिर करीम के लिए काम करने लगे। दोनों तब तक पठान गैंग के लिए काम करते रहे, जब तक पठान गैंग का दूसरे गिरोहों से टकराव नहीं हुआ था।
(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)
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