चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए!

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सुनील मेहरोत्रा

जगजीत सिंह जी द्वारा गाया एक गीत मैं जब-तब गुनगुनाता रहता हूं—

चिट्ठी ना कोई संदेश …
जाने वो कौन सा देश
जहाँ तुम चले गए

करीब तीन महीने पहले सोनी टीवी पर ‘इंडियन आइडल’ में जब यह गीत एक बार फिर गाया गया, तो उस पूरी रात मैं सो नहीं पाया। बड़े चाचा, मैं बेड रूम से बाहर कमरे में आया। चटाई बिछाई और उस रात मैंने इस गीत की एक-एक लाइन को यू ट्यूब पर बार-बार सुना। हर लाइन में मुझे सिर्फ और सिर्फ आपका चेहरा दिखाई दिया। आज भी इस गीत को सुनकर आंखें डबडबा जाती हैं। जगजीत सिंह बहुत ही बड़े गायक रहे हैं। कई लोगों का कहना है कि इस गीत में उनका दर्द इसलिए भी बहुत ज्यादा झलक रहा था, क्योंकि कई साल पहले एक सड़क दुर्घटना में उन्होंने अपना जवां बेटा खो दिया था। लेकिन मैंने उस रात इस गाने में अपना दर्द, परिवार का दर्द, … और यादों में बार-बार सिर्फ आपका ही चेहरा देखा।

बड़े चाचा, मुझे अच्छी तरह याद है कि राकेश भइया के कॉल आने के बाद दो साल पहले आज ही के दिन 31 अक्टूबर को मैं मुंबई में सुबह साढ़े दस की फ्लाइट में शाहजहांपुर आपसे मिलने के लिए बैठ गया था। आपको लगभग रोज फोन करता था। पर उस दिन जानबूझकर फोन नहीं किया। इसके पीछे कई कारण थे। पहली वजह तो यही थी कि अपनी बिगड़ी तबीयत की वजह से शायद आप ठीक से बात न कर पाएं। आपको उन दिनों फोन पर सुनाई भी बहुत कम पड़ रहा था …और दूसरा, कारण आपको सीधे सरप्राइज देने का भी था, लेकिन दोपहर साढ़े बारह बजे जैसे ही प्लेन लखनऊ में लैंड हुआ, मेरा फोन लगातार घनघनाने लगा। पता चला आप खुद दुखद सरप्राइज दे बैठे। बिना मुलाकात किए आप ऐसी दुनिया में चले गए, जहां अब न कोई चिट्ठी लिखी जा सकती है, न कोई संदेश।

आज जब दो साल पहले के 31 अक्टूबर को याद करता हूं तो बार-बार सोचता हूं कि मुंबई एयरपोर्ट पर पहुंचकर काश उस दिन मुझे आपको फोन कर लेना चाहिए था। मेरा अब दिल कहता है कि उस दिन यदि मेरी एक -दो हैलो भी आपके कान तक पहुंच गई होतीं, तो शायद आप शाम शाहजहांपुर पहुंचने का मेरा इंतजार जरूर करते।

जगजीत सिंह ने ‘चिट्ठी ना कोई संदेश’ गीत में बीच में बहुत गहरी बात कहीं हैं। बड़े चाचा, जरा उनकी इन लाइनों पर गौर करिए—

एक आह भरी होगी
हमने ना सुनी होगी
जाते जाते तुमने
आवाज़ तो दी होगी
हर वक़्त यही है गम
उस वक़्त कहाँ थे हम

इन लाइनों को सुनने के बाद ये चार लाइनें अब और भी तकलीफ देती हैं-

अब यादों के कांटे
इस दिल में चुभते हैं
ना दर्द ठहरता है
ना आंसू रुकते हैं

बड़े चाचा, अगले पखवाड़े फिर शाहजहांपुर जा रहा हूं-आप और बड़ी चाची द्वारा बनाए गए घर में, आप लोगों द्वारा बसाए गए घर में। साल में तीन से चार बार वहां जाता ही हूं। जब भी आपकी किताबों भरी आलमारियों को खोलता हूं, इन किताबों को छत पर धूप दिखाने के लिए ले जाता हूं, आपकी आवाज गूंजने लगती है। जब भी कपड़ों भरा संदूक खोलता हूं, किचन में बर्तनों को ढूंढता हूं, पानी की मोटर चलाता हूं, बड़ी चाची का चेहरा सामने आ जाता है। शाहजहांपुर के 136 बक्सरियां घर में जब आप दोनों थे, बहुत आवाजें आती थीं। इन आवाजों में आप दोनों के झगड़ों का भी शोर था, टाइपराइटर के ‘की- बोर्ड’ पर आपकी उंगलियों की खट-खट की गूंज थी, घोर सर्दियों में भी रात तीन बजे आपके अकेले किचन पहुंचने और फिर भगोने में चाय को खौलाने की गर्माहट थी, छोटे चाचा की खिड़की से डाक और डाकिए का लंबा इंतजार था, कटोरदान में लड़डू या कोई भी मीठा ढूंढने की आपकी बेचैनी थी और इन सबके बीच भयंकर गुस्से के बावजूद बच्चों जैसी आपकी हंसी थी। आपकी जिंदगी कभी भी खामोश नहीं थी। उसमें हमेशा एक जिम्मेदारी थी, एक शोर था। यह शोर जब कभी गुस्से में बदलता था, यह सच है मुझे तब बहुत बुरा लगता था। पर सच यह भी है कि इस शोर में गुस्से से ज्यादा आपकी पीड़ा भी थी, बहुत शिकायतें भी थीं। आप समझते थे कि आप जिस पहचान के हकदार थे, वह आपको नहीं मिली। आपकी यह शिकायत जायज भी है। लेकिन बड़े चाचा,कई बार मुझे ऐसा भी लगता है कि शाहजहांपुर शहर, जहां आपका साहित्यिक सफर शुरू हुआ, जहां रहकर आपने तीन दर्जन से ज्यादा कहानी संग्रह, आत्मकथा, उपन्यास लिखे , जहां आपने अपनी मृत्यु से 24 और 14 दिन पहले तक दो कहानियां लिखी, जो ‘कथाक्रम’ और ‘नया ज्ञानोदय’ में बाद में छपीं भी, जहां रहकर आपको साहित्य के कई बड़े प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले, यदि उस शहर में लोगों के बीच आप अपने साहित्यिक नाम—हृदयेश– के रूप में जाने जाते हैं, तो हम तो यही कहेंगे, कि इस शहर को तमाम अन्य बड़ी हस्तियों के साथ आपने भी एक पहचान दी। यह पहचान सिर्फ शहर को ही नहीं मिली, परिवार को भी मिली, बच्चों को भी मिली । मैं आपके बारे में इतना कुछ लिख पा रहा हूं, तो इसकी वजह भी सिर्फ आप ही हो, क्योंकि आप मुझे लिखने का ककहरा सिखा कर गए, राकेश भइया को डॉक्टर बना कर गए। आर्थिक तंगी में भी आपने प्रेम भइया का आईआईटी से पढ़ाई करने और अमेरिका तक पहुंचने का ख्वाब पूरा किया। यह आप ही थे, जिन्होंने रेखा दीदी का एक अच्छे, पढ़े लिखे परिवार में रिश्ता करवाया।

अक्सर परिवारों में मां की भूमिका की बहुत बात होती है, चर्चा होती है। सच है कि मां का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। उनके प्यार का, उनके दुलार का, उनकी खुशियों का, उसके आंसूओं का, बच्चों को बड़ा करने का, उन्हें खिलाने-पिलाने का, बच्चों को कोई कष्ट न हो, इसकी दुआ करने का। बिना स्वार्थ 24 घंटे सेवा करने वाली सिर्फ मां ही होती है। लेकिन पिता के रोल को हम अक्सर उस तरह देख ही नहीं पाते, देखने की कोशिश भी नहीं करते। पिता के हम सिर्फ गुस्सैल चेहरे को देखते हैं—खासतौर से पुराने पिताओं के । हम उनकी डांट को याद करते हैं, उनकी मार को याद रखते हैं। बच्चों के ख्वाबों को पूरा करने के लिए पिता के कर्ज, उनकी आर्थिक तंगियों, उनके संघर्ष को हम देखते ही नहीं । बड़े चाचा ‘गर्दिश के दिन’ से लेकर ‘जोखिम’ तक आपकी संघर्ष भरी जिंदगी एक खुली किताब की तरह है। मैं झूठ नहीं बोलता, जब तक मां जिंदा रहीं, मैंने मां को ही ज्यादा प्यार किया। झूठ नहीं बोलता, जब तक आप जिंदा रहे, मैं आपको उतना दे नहीं पाया, जितना मुझे बनाने, मेरा जीवन संवारने और मुझे इस मुकाम तक पहुंचाने में आपने संघर्ष किया। कुछ दो शहरों के बीच दूरियां जिम्मेदार रहीं, कुछ पहले की मेरी आर्थिक तंगियां। बाद में सैलरी ठीक ठाक हो गई। मैं हवा में भी उड़ने लगा, फ्लाइट में भी बैठने लगा, लेकिन जिसने जमीन से आसमान तक मुझे पहुंचाया, बड़े चाचा, वह आप हो। जिसने आसमान दिखाकर भी मुझे अभी भी जमीनी इंसान बने रहने दिया, बड़ी चाची, वह आप हो। लेकिन दुख यही है कि जब हमारे अच्छे दिन आए, तब आप लोग उस दुनिया में चले गए, जहां से अब आपकी न कोई चिट्ठी आ सकती है, न कोई संदेश।

बड़े चाचा, कल ही मुंबई में परिदृश्य प्रकाशन से वसुधा मैगजीन लाया हूं, जिसके संस्थापक संपादक हरिशंकर परसाई थे और जिसके वर्तमान संपादक राजेंद्र शर्मा हैं। इसमें आपकी आखिरी कहानी छपी है। मुझे अच्छी तरह याद है यह कहानी आपने नवंबर, 2015 में लिखी थी, जब आप शाहजहांपुर से मुंबई आने को थे। आपने इस कहानी का शीर्षक दिया है—‘हृदयेश का मरकर जीवित होना।‘ कई बार ऐसा लगता है कि कहानी के इस शीर्षक की तरह काश, जीवन में भी यह चमत्कार हो जाता।

(लेखक साहित्यकार हृदयेश जी के पुत्र और नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ अपराध संवाददाता हैं। यह लेख उन्होंने दो साल पहले अपने पिता श्री की पुण्यतिथि पर लिखी थी।)

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