घर की चौखट से विलुप्त हो जाएगी गाय

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किसी की अतिरिक्त परवाह भी कभी-कभी उसके लिए परेशानी का सबब बन जाती है। भारत में गाय के साथ कमोबेश यही हो रहा है। गोवंश को लेकर की गई अतिरिक्त परवाह अब इन बेजुबान जानवरों के लिए अच्छी ख़ासी परेशानी का सबब बन रही है। कल तक जो किसान गाय को माता कहकर पूजता था, वही आजकल लाठी लेकर गाय के पीछे दौड़ रहा है। कहने का मतलब जो गाय पहले दरवाज़े की शोभा बढ़ाती थी, वही गाय आजकल खदेड़ी जा रही है। इससे गाय के घर की चौखट से ही विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया है, क्योंकि गाय पालकों की संख्या दिनोंदिन घट रही है। लोग गाय की बजाय अब भैंस पालने पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं, क्योंकि भैंस के नर बछड़े और बूढ़ी भैंस को बेचने या काटने में कोई जोखिम नहीं है।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गाय की रक्षा के लिए गोवंश संरक्षण अधिनियम 2017 बनाया गया। गाय के अस्त्तित्व पर मौजूदा संकट दरअसल, इस कठोर क़ानून के चलते ही आया है। देश भर में हर जगह गाँवों में गोवंश सिरदर्द बन गए हैं। उत्तर प्रदेश की हालत सबसे दयनीय है। योगी आदित्यनाथ सरकार ने जब से अवैध बूचड़खानों पर प्रतिबंध लगाया है, तब से छुट्टा पशुओं की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। गोवंश यानी गाय, बछड़े और बैल-साँड़ मुसीबत बन गए हैं। इनमें सबसे ज़्यादा संख्या बछड़ों और सांड़ों की है। हर जगह खेतों और नुक्कड़ों पर सैकड़ों गोवंश डेरा जमाए मिलते हैं। फ़सल बचाने के लिए खेतों में तार लगवाए गए हैं। ये पशु किसान को बेचारा बना रहे हैं, क्योंकि लोगों का सारा ध्यान इनसे फ़सल बचाने पर होता है।

वस्तुतः महँगाई के इस दौर में मवेशियों के लिए चारे का इंतज़ाम विकराल समस्या बन गई है। कोई भी आदमी दूध न देने वाली गाय और उसके नर बछड़े को मुफ़्त में चारा नहीं खिलाना चाहता। सो, लोग ऐसी गाय और उसके बछड़े को हज़ार दो हज़ार रुपए देकर रात में दूर किसी दूसरे गांव में छोड़वा देते हैं। मज़ेदार पहलू यह है कि यही काम दूर के गांव में रहने वाले किसान भी कर रहे हैं। इसके चलते अकेले उत्तर प्रदेश में, 12 वीं पशुगणना के मुताबिक, कुल छुट्टा गोवंश की संख्या 12 लाख को भी पार कर गई है। आने वाले दिनों में इसके और अधिक बढ़ने का अंदेशा है। खुद किसान मानते है कि गाय समस्या बन गई हैं। गाय और गोवंश उनके लिए उपयोगी नहीं रहे। इसलिए गाय के प्रति पहले जैसी आस्था भी नहीं रही।

वैसे गाय का अस्तित्व तब से है जब से मानव का अस्तित्व है। यह आर्टियोडेक्टाइला ऑर्डर यानी समरूप खुर वाले स्तनधारी की श्रेणी में आती हैं जो जुगाली भी करती है। इसका वैज्ञानिक नाम बोस टौरस है और यह ऑरोचिस की उपनस्ल है, जो आज से 20 लाख वर्ष पहले अस्तित्व में आई। भारत की ज़ेबू गाय इससे ही पैदा हुई। प्रारंभिक काल में गाय गरम रेगिस्तानी क्षेत्रों में विचरण करती थीं। भारत में गाय को लगभग 9000 ईसा पूर्व यानी आज से 10000 से 11000 साल पहले पालतू बनाया गया। लगभग 8000 साल पहले भारतीय गायें भारत जैसे गर्म क्षेत्र से यूरोप के ठंडे क्षेत्रों में चली गई और पूरे यूरेशिया में लोग गाय पालने लगे। ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी भारत आने वाले भारोपीय पशुपालक थे। गाय आम खेती वाले जानवरों की सीरीज़ में रखा गया। भारत में रेड सिंधी साहीवाल, गीर, देवनी, थारपारकर आदि नस्लों समेत दुधारू गायों की कुल 28 नस्लें मिलती हैं।

वैदिक काल से ही गाय का धार्मिक एवं पौराणिक महत्व महत्त्व रहा है। भविष्य पुराण के अनुसार गाय की पीठ में ब्रह्मा, गले में भगवान विष्णु और मुख में शिव विराजते हैं। मध्य भाग में सभी देवताओं का वास होता है। गाय के रोम में सारे महर्षि, पूंछ में अनंत नाग और खुरों में पर्वत हैं। गोमूत्र में गंगा और लक्ष्मी, नेत्रों में सूर्य और चंद्र वास करते हैं। गाय को पृथ्वी, ब्राह्मण और देव का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए गाय देवत्व और प्राकृतिक कृपा की प्रतिनिधि मानी जाती है। गाय का बछड़ा नंदी यानी बैल शिव का वाहन है। इंद्र के पास कामधेनु थी, तो कृष्ण भी गाय-पालक थे। इसीलिए गाय को देवी एवं मातृ तुल्य माना जाता है।

महाभारत, मनुस्मृति और ऋग्वेद में दुधारू गाय ‘अवध्य’ कही गई है। आश्वमेधिक पर्व का ज़िक्र है कि गाय के गोबर से लीपने से सभा-भवन, घर और मंदिर भी शुद्ध हो जाते हैं। कुल मिलाकर धार्मिक दृष्टि से गाय पवित्र मानी जाती रही है। इसीलिए आरंभिक वैदिक काल से गाय की रक्षा एवं उसे पूजने पर ज़ोर दिया जाता रहा है। कर्मकांड एवं विभिन्न संस्कार आदि में भी गोदान को ही अहमियत दी जाती थी। गोदान सबसे बड़ा दान और गो हत्या को महापाप माना जाता था। गोवध की तुलना महापातक पापों से की जाती थी। हिंदू गाय की पूजते हैं। गो पूजा के लिए गोपाष्टमी का त्योहार पूरे देश मनाया जाता है।

यह भी सच है कि प्राचीन भारत में गाय और बैल की बलि दी जाती थी। लोग गोमांस भक्षण करते थे। कालांतर में गाय अहिंसक उदारता के जीवन का प्रतीक बन गई। उसे सबसे पहले ब्राह्मण यानी पुरोहित वर्ग के साथ जोड़ा गया। गाय को मारना ब्रह्म हत्या जैसा निंदनीय कार्य माना जाने लगा। ईसा की पहली शताब्दी के मध्य में गुप्तवंश के राजा चंद्र गुप्त द्वितीय ने दुधारू गायों की बलि पर रोक लगा दी। उसने गाय की हत्या पर मृत्युदंड का प्रावधान कर दिया। वेदों और दूसरे ग्रंथों में गाय को माता का दर्जा दिया गया है। अभी पिछले कुछ साल पहले तक घर में बनने वाली पहली रोटी गाय को दी जाती थी।

कई वैज्ञानिक तथ्य भी गाय को महत्वपूर्ण बनाते हैं। गाय से उत्तम किस्म का दूध मिलता है, जिसमें स्वर्ण तत्व होता है, जो उसे हल्के पीले रंग का बनाता है। स्वर्ण शरीर को शक्तिशाली बनाता है। भोजन आसानी से पचाकर आंतों की रक्षा करता है और दिमाग़ भी तेज़ करता है। गाय के दूध, दही और घी में भैंस की तुलना में पोषक तत्व होते हैं। गाय के दूध में वसा की मात्रा भैंस के दूध से बहुत कम होती है। गाय का गोबर खाद के रुप में इस्तेमाल करने पर जमीन की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है। गोमूत्र में हृदय रोगों के लिए लाभकारी तत्व होते हैं। गोमूत्र में पोटेशियम, सोडियम, नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिया, यूरिक एसिड होते हैं। दूध देते समय हुए गोमूत्र में लेक्टोज की मात्रा का अधिक होती है, जो चिकित्सीय दृष्टि से लाभकारी है।

गाय के इन गुणों को देखकर ही आज़ादी के बाद भारतीय संविधान में गोवंश की सुरक्षा का प्रावधान किया गया। संविधान का अनुच्छेद 48 गाय को ही समर्पित है, जिसमें देश भर में गाय और उसके बछड़े हत्या को रोकने का प्रावधान किया गया। वैसे भी सभ्यता के आरंभिक काल में व्यक्ति की समृद्धि, संपन्नता गोधन से ही आंकी जाती थी। जिसके पास जितनी गाय होती थी वह उतना ही संपन्न होता था। प्राचीन काल में तो व्यापार एवं विनिमय में गाय उपयोग होता था। परिवार का भरण पोषण गाय पर ही निर्भर करता था। खेत जोतने वाले बैल गाय से ही मिलते थे। दूध, दही और घी गाय से मिलती ही थी। गोमूत्र और गोबर भी उपयोगी माने जाते थे। मनुष्य के जीवन स्तर को समृद्ध बनाने में गाय अहम भूमिका निभाती थी। आज हालात पूरी तरह बदल चुके हैं।

गाय के विवादित मुद्दे पर जिस तरह की चर्चा होनी चाहिए, वह नहीं हो रहा है। चर्चा यह होनी चाहिए कि अब बैलों का कोई उपयोग नहीं रहा, क्योंकि जिन बैलों से खेत जोतने के लिए कई दिन लग जाते थे, उसी खेत को अब ट्रैक्टर कुछ मिनट या घंटे में जोत देते हैं। सो दूध न देने वाली गाय और उसके बछड़े किसी काम के नहीं रह गए। यहाँ इस बात पर भी गौर करना होगा कि किसी बीमारी या हादसे में न मरने पर गाय साधारणतः पर 15 साल और बैल 20 जिंदा रहते हैं। एक गाय पर चारा, पानी और मेहनत को जोड़कर औसतन 90 से 95 रुपए खर्च होता है। इस तरह एक गाय पर साल भर में लगभग 35 हज़ार और 20 साल में लगभग सात लाख रुपए ख़र्च आता है। बैलों और साँड़ो का आकार बड़ा होता है तो उन पर यह ख़र्च और ज़्यादा होगा।

इन अनुपयोगी जानवरों पर इतना ख़र्च करना और उन्हें ज़िंदगी भर चारा खिलाना न तो किसी ग्रामवासी के लिए संभव है और न ही सरकार के लिए। ऐसे हालात में क्या करना चाहिए? यह भी कटु सच है कि देश में कुपोषण बड़ी समस्या है। इंसान को ही भोजन नहीं मिल रहा है, तो पशु के भोजन को कितनी अहमियत दी जाए। सदियों से मानव के लिए भोजन महत्वपूर्ण मसला रहा है। लिहाज़ा, चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि गोमांस खाने वाले मुसलमान और ईसाई सस्ते प्रोटीन के बड़े स्रोत से वंचित हो रहे हैं। वे कम पौष्टिक भैंस का मांस खाते हैं। इसीलिए ग्लोबल बीफ बाजार में इसका हिस्सा महज़ 25 फ़ीसदी है। भैंस के मांस में प्रोटीन भी बहुत कम है। देश में पहले से ही प्रति व्यक्ति प्रोटीन की खपत अन्य कई देशों से बहुत कम है। तो क्यों न अनुत्पादक गायों और उनके बछड़े को काटने और उसके मांस को खाने की इजाज़त दी जानी चाहिए। इस मुद्दे पर जनमत सर्वेंक्षण भी कराया जा सकता है।

पशुधन किसानों के लिए नकदी का स्रोत रहे हैं। किसानों को जब भी पैसे की ज़रूरत होती है, वह अपनी गाय, बछड़ा, बैल या भैंस बेच कर नकदी प्राप्त कर लेते हैं। किसान अनुत्पादक मवेशियों को कसाइयों को बेचकर नकद धन प्राप्त करते रहे हैं। गाय, बैल और सांड का चमड़ा और हड्डी उपयोग में लाई जाती है। इसलिए अब किसानों की इस पूरक आय पर असर पड़ रहा है। इससे भी अनुपयोगी जानवरों का प्रतिशत बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है और चारा मंहगा हो गया है। कोई सौ वर्ष पहले, महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में लिखा था कि गाय की सबसे बड़ी दुश्मन गोशालाएँ और गोरक्षा समितियाँ हैं। गोवध पर रोक से गोवध घटेगा नहीं, बल्कि और बढ़ेगा। वह जानते थे कि गाय को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धर्माधारित विवाद का मुद्दा बनाना ख़तरनाक है। वह केवल हिंदुओं को ख़ुश करने के लिए किसी को बीफ खाना बंद करने पर मजबूर करने के ख़िलाफ़ थे। उनका कहना था कि मनुष्यों के खिलाफ हिंसा, गाय काटने और उसे खाने से भी बुरी है। राष्ट्रपिता की धार्मिक सहिष्णुता और किसी के साथ जबरदस्ती न करने की उनकी सीख के विरुद्ध थी।

देश सरकार भले ही गोशालाओं को उबारने की बात कर रही हो, लेकिन बड़ी संख्या में गायें लावारिस अवस्था में घूम रही हैं। अगर आप आवारा पशुओं को किसी स्थान पर रखना चाहें तो यह बहुत खर्चीला और मुश्किल काम होगा। जिस देश में लाखों की संख्या में ग़रीब और सामाजिक दृष्टि से वंचित लोग मूलभूत सुविधाओं के बगैर जीने को बाध्य हैं, वहां आवारा व अनुपयोगी पशुओं पर देश के सीमित संसाधन बर्बाद करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। आवारा पशु जिस तरह से खेती नष्ट कर रहे हैं, उससे लोगों के समक्ष आजीविका का संकट खड़ा हो गया है। ऐसे में गाय और नागरिकों के व्यापक हित में सरकार को गाय नीति पर विचार करना चाहिए।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

 

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