हरिगोविंद विश्वकर्मा
आज यानी 29 जून से रोमांचक अमरनाथ यात्रा शुरू हो गई है। क़ुदरती कहर के बावजूद हिमालय की गोद में स्थित पवित्र शिवलिंग तक पहुंचने की श्री अमरनाथ यात्रा लगभग दो महीने चलती रहती है। श्रद्धालुओं के जोश में कोई कमी नहीं आती है। यह कहना अतिरंजनापूर्ण नहीं होगा कि जिसने कभी अमरनाथ की रोमांचक यात्रा नहीं की, वह धरती के स्वर्ग के ख़ास आनंद से वंचित रह गया। इतना ही नहीं, अमरनाथ यात्रा पर न जाने वाला व्यक्ति बड़ी नैसर्गिक खुशी भी मिस कर देता है। तमाम असुविधाओं, कठिनाइयों, बाधाओं और ख़तरों के बावजूद मॉनसून के दौरान दो महीने चलने वाली पवित्र यात्रा सुखद एहसास होती है। यही वजह है कि दिनोंदिन इसे लेकर उत्साह बढ़ता ही जा रहा है।
दरअसल, अनुच्छेद 370 और 35 ए को ख़त्म करने से पहले स्थानीय जम्मू कश्मीर की राज्य सरकार यात्रा की उपेक्षा करती थी, लेकिन श्रद्धालुओं का उत्साह कम कभी नहीं होता था। अब तो अमरनाथ यात्रा धार्मिक यात्रा से बढ़कर राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गई है। जम्मू बेस कैंप से जब श्रद्धालुओं का जत्था निलता है तो ‘जय भालेनाथ’ ‘बम-बम भोले’ और ‘हर-हर महादेव’ के साथ साथ ‘वंदे मातरम्’ ‘जय हिंद’ और ‘भारत माता की जय’ के भी सुर निकलते हैं। यही वजह है कि इस यात्रा पर इस बार अभूतपूर्व प्राकृतिक प्रकोप का भी कोई असर नहीं पड़ा। जम्मू से लेकर श्रीनगर, पहलगाम-बालटाल ही नहीं, पूरी यात्रा के दौरान जगह-जगह गैरसरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। लोग खाते-पीते धूनी रमाए भोलेनाथ के दर्शन के लिए आगे बढ़ते रहते हैं।
प्राकृतिक हिम से बनने के कारण ही इसे स्वयंभू ‘हिमानी शिवलिंग’ या ‘बर्फ़ानी बाबा’ भी कहा जाता है। जो देखने में आंखों को भी सुकून देता है। गुफा में ऊपर से पानी की बूंदें टपकने से हिमलिंग बनता है। दुनिया में यह इकलौती जगह है, जहां हिम बूंदों से क़रीब दस फ़िट ऊंचा शिवलिंग बनता है। चंद्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ बर्फ़ के लिंग का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। सावन की पूर्णिमा को यह पूर्ण आकार में हो जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा हो जाता है। हैरान करने वाली बात है कि शिवलिंग ठोस बर्फ़ का होता है, जबकि आसपास आमतौर पर कच्ची और भुरभुरी बर्फ़ ही होती है।
आषाढ़ पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक चलने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों हिंदू श्रद्धालु अमरनाथ यात्रा पर जाते हैं। हिमालय की गोद में स्थित अमरनाथ हिंदुओं का सबसे ज़्यादा आस्था वाला पवित्र तीर्थस्थल है। पवित्र गुफा श्रीनगर से 135 किलोमीटर दूर और समुद्र तल से 13 हज़ार फ़ीट ऊंचाई पर स्थित है। पवित्र गुफा की लंबाई (भीतरी गहराई) 19 मीटर, चौड़ाई 16 मीटर और ऊंचाई 11 मीटर है। अमरनाथ गुफा की ख़ासियत है कि हर साल पवित्र गुफा में बर्फ़ का नैसर्गिक शिवलिंग बनता है। भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है।
मान्यता है कि इस गुफा में शंकर ने पार्वती को अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुन सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गए। गुफा में आज भी कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई देता है, जिन्हें अमर पक्षी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों का जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव-पार्वती दर्शन देते हैं और मोक्ष प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने ‘अनीश्वर कथा’ पार्वती को गुफा में ही सुनाई थी। इसीलिए यह गुफा बहुत पवित्र मानी जाती है। शिव की सुनाई कथा में भी यात्रा और मार्ग में पड़ने वाले स्थलों का वर्णन मिलता था। इसीलिए यह कथा अमरकथा नाम से विख्यात हुई।
कई विद्वानों का मत है कि शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ दिया। माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतार दिया। अन्य पिस्सुओं को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ दिया था। आधुनिक इतिहास की बात करें तो अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाध में एक मुसलमान गड़ेरिए बूटा मलिक को चला था। आज भी एक चौथाई चढ़ावा बूटा मलिक के वंशजों को मिलता है। यह एक ऐसा तीर्थस्थल है, जहां फूल-माला बेचने वाले मुसलमान होते हैं। अमरनाथ गुफा एक नहीं है, बल्कि अमरावती नदी पर आगे बढ़ते समय और कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखती हैं। सभी बर्फ़ से ढकी रहती हैं। मूल अमरनाथ से दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
अमरनाथ जाने के दो मार्ग हैं। पहला पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग होकर बालटाल से। जम्मू या श्रीनगर से बस या छोटे वहन के ज़रिए पहलगाम या बालटाल पहुंचना पड़ता है। उसके बाद आगे पैदल ही जाना पड़ता है। कमज़ोर और वृद्धों के लिए खच्चर और घोड़े की व्यवस्था रहती है। पहलगाम से जानेवाला रास्ता लंबा किंतु सरल और सुविधाजनक है। बालटाल से पवित्र गुफा की दूरी हालांकि केवल 14 किलोमीटर है, परंतु यह सीधी चढ़ाई वाला बहुत दुर्गम रास्ता है, इसलिए सुरक्षा की नज़रिए से सेफ नहीं माना जाता है। लिहाज़ा, यात्रियों को पहलगाम से जाने की सलाह दी जाती है। हालांकि रोमांच और ख़तरे से खेलने के शौकीन इस मार्ग से जाना पसंद करते हैं। इस रास्तें से जाने वाले लोग अपने रिस्क पर यात्रा करते हैं। किसी अनहोनी की ज़िम्मेदारी सरकार नहीं लेती है।
श्रीनगर से पहलगाम 96 किलोमीटर दूर है। यह वैसे भी देश का मशहूर पर्यटन स्थल है। यहां का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। लिद्दर और आरू नदियां इसकी ख़ूबसूरती में चार चांद लगाती हैं। पहलगाम का यात्री बेस केंप छह किलोमीटर दूर नुनवन में बनता है। पहली रात भक्त इसी अस्थायी आवास में बिताते हैं। दूसरे दिन यहां से 10 किलोमीटर दूर चंदनबाड़ी पहुंचते हैं। चंदनबाड़ी से आगे नदी पर बर्फ़ का पुल है। यहीं से पिस्सू घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। कहा जाता है कि पिस्सू घाटी में देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें राक्षसों की हार हुई। यात्रा में पिस्सू घाटी जोख़िम भरा स्थल है। यह समुद्रतल से 11,120 फ़ीट ऊंचाई पर है।
पिस्सू घाटी के बाद अगला पड़ाव 14 किलोमीटर दूर शेषनाग में पड़ता है। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यात्रा बहुत कठिन होती है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और ख़तरनाक है। यात्री शेषनाग पहुंचने पर भयानक ठंड का सामना करते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की ख़ूबसूरत झील है। इसमें झांकने पर भ्रम होता है कि आसमान झील में उतर आया है। झील क़रीब डेढ़ किलोमीटर व्यास में फैली हुई है। कहा जाता है कि शेषनाग झील में शेषनाग का वास है। 24 घंटे में शेषनाग एक बार झील के बाहर निकलते हैं, लेकिन दर्शन ख़ुशनसीबों को ही नसीब होता है। तीर्थयात्री यहां रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।
शेषनाग से पंचतरणी 12 किलोमीटर दूर है। बीच में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे पार करने पड़ते हैं, जिनकी समुद्रतल से ऊंचाई क्रमश: 13.5 हज़ार फ़ीट व 14.5 हज़ार फ़ीट है। महागुणास चोटी से पंचतरणी का सारा रास्ता उतराई का है। यहां पांच छोटी-छोटी नदियों बहने के कारण ही इसका नाम पंचतरणी पड़ा। यह जगह चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी बहुत ज़्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहां सुरक्षा के इंतज़ाम करने पड़ते हैं। सांस के मरीज़ों के लिए यह रिस्क वाली जगह मानी जाती है।
पवित्र अमरनाथ की गुफा यहां से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती है। रास्ते में चारों ओर बर्फ़ ही बर्फ़ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नज़दीक पहुंचकर भी लोग रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा-अर्चना करके पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग वापस पहुंच जाते हैं। रास्ता काफी कठिन है, लेकिन पवित्र गुफा में पहुंचते ही सफ़र की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
दरअसल, जब चंदनवाड़ी या बालटाल से श्रद्धालु निकलते हैं, तो रास्ते भर उन्हें प्रतिकूल मौसम का सामना करना पड़ता है। पूरा बेल्ट यानी चंदनवाड़ी, पिस्सू टॉप, ज़ोली बाल, नागा कोटि, शेषनाग, बैववैल टॉप, महागुणास टॉप, पबिबाल, पंचतरिणी, संगम टॉप, अमरनाथ, बराड़ी, डोमेल, बालटाल, सोनमर्ग और आसपास का इलाक़ा साल के अधिकांश समय बर्फ़ से ढका रहता है। इससे इंसानी गतिविधियां महज कुछ महीने रहती हैं। बाक़ी समय यहां का मौसम इंसान के रहने लायक नहीं होता। गर्मी शुरू होने पर यहां बर्फ पिघलती है और अप्रैल से यात्रा की तैयारी शुरू की जाती है।
पवित्र गुफा की ओर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए चंदनवाड़ी से अमरनाथ और बालटाल के बीच ठहरने या विश्राम करने का कोई अच्छा ठिकाना नहीं है। 30 किलोमीटर से अधिक लंबे रास्ते में अकसर तेज़ हवा के साथ कभी हलकी तो कभी भारी बारिश होती रहती है और श्रद्धालुओं के पास भीगने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। बचने के लिए कहीं कोई शेड नहीं है, सो बड़ी संख्या में श्रद्धालु बीमार भी पड़ जाते हैं। यही वजह है कि कमज़ोर शरीर के यात्री शेषनाग की हड्डी ठिठुराने वाली ठंड सहन नहीं कर पाते और उनकी मौत तक हो जाती है। इसीलिए मेडिकली अनफिट लोगों को अमरनाथ यात्रा पर नहीं जाने की सलाह दी जाती है।
कश्मीर में आतंकवाद और धमकियों के बावजूद लोगों, का जम्मू कश्मीर आना-जाना कम होने की बजाय दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। वजह वैष्णोदेवी धाम, अमरनाथ गुफा, शिवखोड़ी मंदिर, खीर भवानी मंदिर और बुड्ढा अमरनाथ मंदिर जैसे धार्मिक स्थल हैं। पहले वैष्णोदेवी की चढ़ाई लोकप्रिय हुई, फिर अमरनाथ यात्रा। देश भर से अमरनाथ गुफा जाने वालो की संख्या लगातार बढ़ ही रही है। श्रद्धालुओं को हतोत्साहित करने के लिए कभी लिंग के पिघलने तो कभी कृत्रिम लिंग लगाने का विवाद खड़ा किया गया, परंतु श्रद्धा कम नहीं हुई।
लोगों की बढ़ती भीड़ को देखकर सन् 2000 में श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड की भी स्थापना की गई। श्रद्धालुओं की इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए केंद्र के आग्रह पर 2008 में तत्कालीन राज्य सरकार ने श्रीअमरनाथजी श्राइन बोर्ड को बालटाल के पास डोमेल में वन विभाग की 800 कनाल यानी 40 हेक्टेयर ज़मीन आवंटित की थी, ताकि यात्रियों की सुविधा के लिए अस्थाई शिविर यानी टेंपररी स्टील शेड बनाए जा सकें। प्रस्तावित शेल्टर में नहाने, खाने और रात में ठहरने की सुविधा हो थी। लेकिन कट्टरपंथी मुसलमानों के भारी विरोध के चलते ज़मीन का आवंटन रद करना पड़ा। इस तरह अमरनाथ की कठिन यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए उनके अपने देश में ही शिविर बनाने का सपना साकार नहीं हो सका।
वैसे अथाई स्टील शेड की ज़रूरत बालटाल ही नहीं, डोमेल, संगम टॉप, अमरनाथ, पंचतरिणी, पिस्सू टॉप, चंदनवाड़ी और नुनवन में भी है, क्योंकि कपड़े के टेंट में हल्की से ज़्यादा बारिश होने पर श्रद्धालु भीग जाते हैं। जिस देश की जनता इस राज्य के लिए इतना कुछ करती है, उस देश के श्रद्धालुओं के लिए अस्थाई सेल्टर नहीं बनाने दिया गया। यह सुनकर हैरानी और दुख होता है। जबकि होना यह चाहिए कि हर जगह श्रद्धालुओं के लिए व्यवस्था होना ही चाहिए। भारत में हर धर्म के लोग रहते हैं, हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख हों या ईसाई हों, केंद्र या राज्य सरकारें सभी महत्वपूर्ण धर्मथलों पर बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से बंगाल तक कहीं भी ज़मीन आवंटित करने का अधिकार होना चाहिए ताकि जो लोग कहीं जाते हैं, उन्हें बेहतर सुविधाएं दी जा सकें।
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