क्या है नेहरू-गांधी खानदान का सच, क्या राहुल गांधी के पूर्वज मुस्लिम थे?

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A research based truth of Nehru-Gandhi family

हरिगोविंद विश्वकर्मा

कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खानदान पर लोग अक्सर कमेंट करता रहता है। एक तबके के लोग तो नेहरू-गांधी के पूर्वजों को कश्मीरी पंडित मानना तो दूर की बात हिंदू भी नहीं मानते है। कई लोग तो कुछ तथाकथित इतिहासकारों का हवाला देकर कह देते हैं कि पंडित जवाहर लाल नेहरू एक कोठे पर पैदा हुए थे और नेहरू परिवार असल में मुसलमानों की पैदाइश है। यह भी लिखा जाता है कि असल में नेहरू के दादा का नाम गयासुद्दीन गाज़ी था, जो कि मुगलों के दरबार में कोतवाल था और नेहरू परिवार कश्मीर से नहीं, बल्कि अफगानिस्तान से आया था। आपने यह भी पढ़ा होगा कि दिल्ली दरबार में मुस्लिम सल्तनत के बिखराव और पतन के बाद नेहरू-गांधी के पूर्वजों ने अपना नाम बदलकर हिंदू कर लिया। बहरहाल, यह किंवदंती है, जिसका सच से कोई लेना देना ही नहीं है, क्योंकि नेहरू-गांधी का वंश आज से लगभग 510 साल पहले अठारहवीं सदी से शुरू होता है।

16वीं सदी में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना के बाद मुगल शासक उत्तरोत्तर शक्तिशाली होते गए और कश्मीर समेत पूरा देश मुग़ल वंश के बादशाहों के अधीन आ गया। कट्टरपंथी औरंगज़ेब के बाद मुग़ल साम्राज्य बिखरने लगा और शासक बदलते रहे। मुग़लकाल में कश्मीर में बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित अहम पदों पर थे। कई तो कश्मीर प्रशासन में बहुत प्रभावशाली पोजिशन में भी रहे। 1710 में कश्मीरी पंडित विद्वान पंडित राज नारायण कौल अचानक चर्चा में आए। वह कश्मीरी के साथ साथ अरबी और फारसी के विद्वान थे। उन्होंने गहन अध्ययन करके कश्मीर पर ‘तारीख़ी कश्मीर’ नाम से किताब लिखी। उस किताब की बहुत अधिक प्रशंसा हुई। तीन साल बाद यानी 1713 में दिल्ली के तख़्त पर बादशाह फर्रुखसियर आसीन हुआ। यह वही मुग़ल शासक था, जिसने सबसे पहले 1717 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को देश में व्यापार करने की इजाज़त दी थी।

कहा जाता है कि पंडित राज नारायण कौल की किताब की चर्चा कश्मीर से निकलकर दिल्ली तक पहुंच गई थी। दरबारियों ने भी बादशाह फर्रुखसियर से राज नारायण के विद्वता की चर्चा की। यह बात 1716 की बात है। उस समय की ख़ासियत यह थी कि हर बादशाह अपने राज्य के विद्वानों को मान-सम्मान और अपने दरबार में जगह देते थे। लिहाज़ा, फर्रुखसियर भी राज नारायण के कार्य से प्रभावित थे और उन्होंने उन्हें दिल्ली आकर बसने का न्योता दिया। बादशाह का निमंत्रण मिलने के बाद राज नारायण कश्मीर छोड़कर दिल्ली आ गए। फर्रुखसियर ने उन्हें थोड़ी जागीर और रहने के लिए चांदनी चौक में एक हवेली दे दी। इसके तक़रीबन दो साल बाद ही 1719 में फर्रुखसियर की हत्या कर दी गई। बादशाह भले मार दिए गए, लेकिन राज नारायण कौल को मिली हवेली सही-सलामत रही।

पंडित राज नारायण कौल चांदनी चौक में रहते थे। उस इलाके में और भी कई कश्मीरी परिवार रहा करते थे। मशहूर इतिहासकार बीआर नंदा सहित पंडित जवाहरलाल नेहरू के अधिकतर जीवनीकारों ने उनके पूर्वजों के दिल्ली में चांदनी चौक में नहर के किनारे बसने की बात लिखी है। नंदा ने अपनी किताब ‘द नेहरूज़, मोतीलाल एंड जवाहरलाल’ में नेहरू के वंश पर विस्तृत प्रकाश डाला है। दूसरी कई किताबों में भी नेहरू परिवार के पारिवारिक सरनेम ‘कौल’ से ‘नेहरू’ करने के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। यहां तक कि ख़ुद नेहरू ने अपनी आत्मकथा ‘टूवर्ड फ्रीडम’ में सरनेम कौल से ‘नेहरू’ करने के पीछे यही कारण बताया है। दरअसल, इस हवेली का दिलचस्प किस्सा है। हवेली के नहर के किनारे होने के कारण लोग कौल परिवार को ‘कौल-नेहरू’ कहकर पुकारने लगे। इसलिए कहा जाता है कि नहर के कनेक्शन की वजह से नेहरू नाम आया।

उधर जैसे-जैसे मुगल साम्राज्य की बादशाहत फीकी पड़ रही थी, वैसे-वैसे राजनारायण कौल को मिली जागीर भी घटती जा रही थी। धीर-धीरे उनकी जमींदारी बस कुछ जमीन के टुकड़ों मे सिमट कर रह गई। इन अधिकारों का फायदा पाने वाले आखिरी शख्स थे मंसाराम कौल और साहेबराम कौल। दोनों पंडित राज नारायण कौल के पोते थे। मंसाराम कौल के दो बेटे थे, लक्ष्मी नारायण कौल और गंगाधर कौल।

हालांकि कई इतिहासकार इस कहानी से इत्तिफाक नहीं रखते कि राज नारायण कौल को सुल्तान फर्रुखसियर ने दिल्ली बुलाया था और उन्हें जागीर एवं हवेली दी थी, जिसके चलते उनका सरनेम नेहरू हो गया। ‘कश्मीरनामा’ के लेखक अशोक कुमार पांडेय के मुताबिक जम्मू-कश्मीर के इतिहासकार और पूर्व मुख्यमंत्री शेख़ अब्दुल्ला की जीवनी ‘आतिश-ए-चिनार’ के संपादक मोहम्मद यूसुफ़ टैंग इस थियरी से सहमत नहीं हैं। जम्मू-कश्मीर की कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी के पूर्व सचिव रहे मोहम्मद यूसुफ़ टैंग कहते हैं, “बादशाह फर्रुखसियर कभी कश्मीर आया ही नहीं था। इसलिए राज नारायण कौल पर बादशाह के नज़र पड़ने की कहानी काल्पनिक लगती है। कौल का ज़िक़्र उस दौर के कश्मीरी इतिहासकारों की किताबों में भी नहीं मिलता है। लिहाज़ा, उनके कश्मीर का मशहूर विद्वान होने की संभावना बहुत कम लगती है।”

मोहम्मद यूसुफ़ टैंग कहते हैं, “नेहरू उपनाम कश्मीर की ही पैदाइश हो सकती है। जहां उत्तर भारत में दीर्घ ई से उपनाम जैसे सुल्तानपुर से सुल्तानपुरी, लायलपुर से लायलपुरी, नोमान से नोमानी और दिल्ली से देहलवी आदि बनते थे, वहीं कश्मीर में ऊ से उपनाम जैसे कि सप्रू, काठ से काटजू, कुंज़र से कुंज़रू और और च्रुंग से च्रुंगू वगैरह बनते थे। कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के ऊ से ख़त्म होने वाले कई सरनेम हैं। चूंकि नहर के लिए कश्मीर में कुल या नद शब्द इस्तेमाल होता है, तो नेहरू उपनाम का नहर से कोई रिश्ता नहीं मालूम पड़ता। हां मुमकिन हो या तो नेहरू परिवार श्रीनगर से क़रीब नौर या फिर त्राल के पास के नुहर गांव का रहने वाला हो और शायद इसकी ही वजह से ‘नेहरू’ उनका उपनाम बन गया हो।”

इसी तरह दिल्ली के इतिहासकार सोहैल हाशमी कहते हैं, “अठारहवीं सदी में उस जगह कई कश्मीरी पंडित परिवार रहा करते थे, जहां कौल सपरिवार रहने आया था। शायद उन्हीं में से किसी ने कौल परिवार को नेहरू नाम से पुकारना शुरू किया हो। दरअसल, पंडित राज नारायण कौल के बाद की पीढ़ी ने ‘कौल-नेहरू’ सरनेम अपना लिया था।

फर्रुखसियर से व्यापार करने की इजाज़त मिलने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना पांव पसारना शुरू कर दिया। उधर कौल-नेहरू परिवार दिल्ली में लगभग डेढ़ सदी तक रहा। राजनारायण कौल के पौत्र पंडित मंसाराम कौल-नेहरू भी बड़े विद्वान थे। अंग्रेज़ी की अच्छी जानकारी के चलते उनकी नजदीकी ईस्ट इंडिया कंपनी के दिल्ली में रहने वाले अधिकारियों से हो गई। उनके पुत्र पंडित लक्ष्मी नारायण कौल-नेहरू ने उच्च शिक्षा ग्रहण की और दिल्ली में मुगल दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वकील बन गए थे।

लक्ष्मी नारायण के यहां 1827 में गंगाधर कौल-नेहरू का जन्म हुआ। गंगाधर ने भी उच्च शिक्षा ग्रहण की और पुलिस में भर्ती हो गए। उनकी शादी इंद्राणी जुत्शी के साथ हुई थी और शादी के बाद उनका नाम जियारानी कौल-नेहरू हो गया। दिल्ली में ही गंगाधर और जियारानी के परिवार को पांच बच्चे हुए। पटरानी और महारानी नाम की दो बेटियां और बंसीधर, नंदलाल और मोतीलाल नाम के तीन बेटे थे। 14 अक्टूबर 1842 को बंशीधर कौल-नेहरू का जन्म हुआतो तीन साल बाद 1845 में दूसरे बेटे नंदलाल कौल-नेहरू का जन्म हुआ। इसी बीच गंगाधर कौल-नेहरू बहादुर शाह ज़फ़र के कार्यकाल में दिल्ली के सदर कोतवाल यानी सर्वोच्च पुलिस अधिकारी बना दिए गए।

बहरहाल, 1857 की क्रांति गंगाधर कौल-नेहरू के जीवन में उथल-पुथल लेकर आया। क्रांति के बाद दिल्ली में कोतवाल पद ही समाप्त कर दिया गया। इस तरह गंगाधर दिल्ली के अंतिम कोतवाल थे। गंगाधर को ग़दर में पुलिस सेवा से ही हाथ धोना पड़ा। उनका रुतबा और नौकरी दोनों चली गई। ऊपर से हवेली पर उपद्रवियों ने क़ब्ज़ा कर दिया और उन्हें उनकी सारी प्रॉपर्टी से बेदखल कर दिया। मजबूरी में गंगाधर जियारानी और दोनों बेटों बंशीधर और नंदलाल को लेकर आगरा चले गए। उस समय आगरा में उनके कई रिश्तेदार रहते थे। इस दौरान दुखद घटना यह हुई कि मार्च 1961 में आगरा में 34 वर्ष की आयु में ही गंगाधर का निधन हो गया। उस समय उनकी पत्नी जियारानी गर्भवती थीं। गंगाधर की मृत्यु के क़रीब तीन महीने बाद 6 मई 1861 को जियारानी ने तीसरी संतान मोतीलाल कौल-नेहरू को जन्म दिया। उस समय जियारानी की आर्थिक स्थित बहुत दयनीय थी।

बहरहाल, पिता की असामयिक मौत के बाद घर की ज़िम्मेदारी बड़े बेटे बंशीधर पर आ गई। इस वजह से कह सकते हैं कि मोतीलाल नेहरू का बचपन बहुत अच्छी तरह नहीं गुजरा। नंदलाल पहले स्कूल में पढ़ाते थे। तभी आगरा के पास छोटी सी रियासत खेतड़ी के राजा थे फतेह सिंह ने नंदलाल को अपना प्राइवेट सेक्रटरी बन गए। बाद में राजा ने उनकी वफादारी से प्रसन्न होकर उन्हें अपना दीवान बना लिया। राजा का कोई बेटा नहीं था। जिससे राजा की मौत के बाद नंदलाल और कुछ और वफादारों की नौकरी चली गई। नौकरी जाने के बाद नंदलाल खेतड़ी से अपने भाई के पास आ गए और वकालत की पढ़ाई शुरू कर दी। पढ़ाई पूरी होने के बाद वह भी वकील बन गए।

मोतीलाल कौल-नेहरू का लालन-पालन उनके दोनों बड़े भाइयों ने ही किया। बड़े होकर मोतीलाल ने अपने नाम से ‘कौल’ हटा दिया और केवल ‘नेहरू’ सरनेम ही लिखने लगे। बचपन में अरबी और फ़ारसी में में शिक्षा ग्रहण करने वाले मोतीलाल ने बाद में अंग्रेज़ी की भी शिक्षा ग्रहण की। हालांकि स्नातक की परीक्षा में फेल होने का उनके मानसपटल पर गहरा असर पड़ा। उन्होंने दिन रात मेहनत की और अगले साल वकालत की परीक्षा सर्वोच्च अंक लेकर उन्होंने टॉप किया। कानून की पढ़ाई करने के बाद मोतालाल ने भाई नंदलाल की तरह कानून का पेशा अपना लिया। 1883 में पंडित पृथ्वीनाथ की मार्गदर्शन में वकील के रूप में प्रैक्टिस अभ्यास शुरू कर दिया। वह कानपुर के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में वकालत करते थे। वह लगातार बड़े-बड़े मुक़दमें जीतने लगे और कुछ साल के प्रैक्टिस में ही आगरा शहर के नामी वकील बन गए। उन्हें मुक़मदे में पैरवी करने के लिए मुंह मांगी फीस मिलने लगी।

तीन साल बाद 1886 में हाईकोर्ट इलाहाबाद शिफ्ट होने पर मोतीलाल बड़े भाई नंदलाल के साथ इलाहाबाद चले गए और वहीं हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे। एक साल बाद 1887 में नंदलाल का केवल 42 वर्ष की आयु में निधन हो गया। इससे करियर की आरंभिक दौर में ही मोतीलाल को बड़े परिवार की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी पड़ी। नंदलाल की पत्नी और पांच बेटों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी उन पर ही आ गई। इलाहाबाद में मोतीलाल की बैरिस्टरी चमक गई। वह दीवानी वकील थे। जमींदारों और तालुकेदारों के केस लड़ते थे, जिससे फीस के रूप में बड़ी रकम मिलती थी। शुरुआत में मोतीलाल इलाहाबाद में 9, ऐल्गिन रोड पर रहे। मोतीलाल की बचपन में ही शादी हो गई थी, और उनकी पहली पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया था, लेकिन प्रसव के दौरान पहले पत्नी का निधन हो गया बाद में बालक भी चल बसा। कुछ साल बाद मोतीलाल की स्वरूप रानी थुसू से दूसरी शादी हुई और वह स्वरूप रानी नेहरू बन गईं। 14 नवंबर, 1889 को उनके यहां जवाहरलाल का जन्म हुआ। 1900 में मोतीलाल ने 1 चर्च रोड पर महलनुमा घर खरीदा। मोतीलाल और स्वरूप रानी ने अपने इस घर का नाम आनंद भवन रखा।

1909 में ग्रेट ब्रिटेन के प्रिवी काउंसिल में वकील बनने का अनुमोदन प्राप्त कर वह अपने कानूनी पेशे के शिखर पर पहुंच गए। 1910 में मोतीलाल ने संयुक्त प्रांत की विधान सभा का चुनाव लड़ा और जीत हांसिल की। जलियांवाला बाग़ नरसंहार से आहत हो उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश करने का फैसला किया। उन्होंने विलासितापूर्ण अपनी जीवन शैली, पश्चिमी कपडे और दूसरी वस्तुओं का परित्याग कर दिया और खादी पहनना शुरू कर दिया। 1919 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। 1928 में वह दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बने। मोतीलाल नेहरू को नागरिक अवज्ञा आंदोलन के मद्देनजर 1930 को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी बिगड़ती सेहत को देखते हुए 1931 में उन्हें रिहा कर दिया गया 6 फरवरी 1931 को लखनऊ में मोतीलाल नेहरू का निधन हो गया।

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