द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 11 – दाऊद-साबिर और पठानों में सुलह की हाजी मस्तान की पहल

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
अंडरवर्ल्ड में धाक जमाते ही दाऊद इब्राहिम कासकर ने महसूस किया कि तमाम सावधानी के बावजूद उसके लिए मुंबई सेफ़ नहीं है। मौत के खेल में हर पल ख़तरा रहता है। लिहाज़ा, उसने मौत के कारोबार के साथ-साथ स्मगलिंग में ध्यान देने का निश्चय किया। उसका ध्यान मुंबई के उत्तर में दमन और दीव की ओर गया जो ट्रांज़िस्टर, टेपरिकॉर्डर, घड़ी, अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों और सोने-चांदी की तस्करी का स्वर्ग बन चुका था। उसे पता चला कि वहां पहले से ही कई गिरोह सक्रिय थे। उनमें पठान गिरोह भी था। उनका काफी मज़बूत बेस था वहां। दाऊद के पास ख़ालिद जैसा क़ाबिल सहयोगी था। जो कभी बाशूदादा का राइटहैंड हुआ करता था। तस्करी के नेटवर्क हैंडल करने का उसके पास ख़ासा तज़ुर्बा था। हर सिचुएशन को बुद्धिमानी से टेकल करना उसकी विशेषता थी। दाऊद-ख़ालिद सिंडिकेट ने तस्करी ज़बरदस्त नेटवर्क खड़ा किया। तस्करी में पैसे की बारिश होने लगी। बहरहाल, कस्टम अफ़सरों की सख़्ती ने दाऊद को दमन छोड़ने पर मज़बूर कर दिया। उसे जामनगर की ओर जाना पड़ा। दमन की ज़िम्मेदारी उसने जस्सू पटेल तथा जाखू काटा पर सौंप दी।

गुजरात में कभी सुकूर नारायण बखिया का एकक्षत्र साम्राज्य था। दाऊद उसके लेफ़्टिनेंट लल्लू जोगी से मिला जो बखिया की गिरफ़्तारी से अकेला पड़ गया था। उसे सहयोगी की ज़रूरत थी। दाऊद ने दुबई के हाजी शेख़ अशरफ़ के साथ उसकी मीटिंग करवा दी। क़रार के तहत सोने के जुगाड़ की ज़िम्मेदारी अशरफ़ और माल समुद्र से उतारकर गंतव्य तक पहुंचाने की जवाबदेही जोगी को दी गई। सोना और दूसरे सामान दुबई से गुजरात पहुंचाने का काम दाऊद को मिल गया। उसने गारमेंट, ताज़ा गोश्त का बिज़नेस भी शुरू कर दिया। आपातकाल के बाद तस्करी का कारोबार खूब बढ़ा।

दाऊद ने पुलिस वालों को मोटा नज़राना देने की परिपाटी शुरू की जिससे मुंबई पुलिस में हर जगह उसके ‘आदमी’ बन गए। जो उसके लिए बेहद मददगार साबित हुए। दाऊद पठानों को यहां भी मात देने लगा। ख़ासकर खाड़ी देशों से आने वाले सोने के बिस्किट की तस्करी में। खाड़ी देशों में उसका सिक्का जम गया। कस्टम विभाग में काम करने वाले कोंकणी मुस्लिम अफ़सरों से मधुर रिश्ता बनाकर उम्दा नेटवर्क खड़ा किया। अफ्रीका, ब्रिटेन, उत्तर अमेरिका, दक्षिण-पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया में कोंकणी मुसलमानों की मौजूदगी ने उसका काम आसान कर दिया। उसने ख़ुद खाड़ी देशों की यात्रा की। अरब के शेख़ों से सीधे डील करने से कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। बहरहाल, दाऊद की तरक़्की आमिरज़ादा और आलमज़ेब को बिलकुल रास नहीं आई, जिससे उनके बीच तनातनी और बढ़ गई।

समुद्री मार्ग से तस्करी में महारत हासिल करने के बाद दाऊद की नज़र एयरपोर्ट पर गई। अकूत धन ख़र्च कर मुंबई एयरपोर्ट पर अपने ‘आदमी’ बनाए। लिहाज़ा, हवाई रास्ते से भी सोने के बिस्किट भारत आने लगे। इसके लिए एयरपोर्ट के सफ़ाई कर्मचारियों की मदद ली गई। उसके आदमी एयरपोर्ट पर उतरते ही सोने के बिस्किट मिठाई के डिब्बे में रखकर डस्टबिन में डाल देते थे। सफ़ाईकर्मी तुरंत वहां पहुंचता और डस्टबिन समेत पूरा कचरा बाहर ले आता था। मिठाई का डिब्बा दाऊद के आदमी के हवाले करके बाक़ी कचरा फेंक देता था। इस काम में उसे बहुत अच्छा कमीशन मिलता था। इसे दाऊद सिंडिकेट के लोग ‘कचरापेटी लाइन’ कहकर पुकारते थे।

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सन् 1980 में पठानों की टिप पर 25 लाख रुपए के सोने का बड़ा कन्साइनमेंट एयरपोर्ट पर ज़ब्त कर लिया गया। कचरापेटी लाइन में शामिल सफ़ाईकर्मी अरेस्ट हो गया। कड़ाई से पूछताछ होने पर उसने दाऊद का नाम ले लिया। लिहाज़ा, कंज़रवेशन ऑफ़ फ़ॉरेन एक्सचेंजऐंड प्रिवेंशन ऑफ़ स्मगलिंग ऐक्ट (कोफ़ेपोसा) के तहत दाऊद गिरफ़्तार कर लिया गया। मुक़दमे के दौरान एक-एक करके सभी गवाह मुकर गए जिससे वह 1983 में आरोपमुक्त कर दिया गया। अब डी गैंग की मोडस-अपरेंडी बदल दी गई। दाऊद के आदमी शरीर में सोना छिपाकर लाने लगे। यह तरीक़ा और भी हिट हुआ। खाड़ी देश घूमने जाने वालों के शरीर में सोना फिट कर दिया जाता। उसे तब की एक्सरे मशीन भी डिटेक्ट नहीं कर पाती थी। फिर एयरपोर्ट पर दाऊद के पेरोल पर काम करने वाले उसके ‘आदमी’ की गहन जांच नहीं करते थे। सोना लाने वाले को मोटा कमीशन दिया जाता। दाऊद एक आदमी से यह काम दो-तीन बार से ज़्यादा नहीं करवाता था। मुंबई पुलिस के आला अफ़सर बताते हैं कि अस्सी के दशक में दाऊद का नाम मुंबई अपराध जगत में बहुत तेज़ी से उभरा। उसकी धमक फ़िल्म-जगत से लेकर सट्टे और शेयर बाज़ार तक पहुंच गई।

जुलाई 1980 की भीगी-सी एक शाम थी वह। बादलों की हल्की फुहार के बीच अरब सागर की लहरें किनारों से टकरा रही थी। आसपास का माहौल एकदम रोमैंटिक था, मगर थोड़ा अलसाया हुआ था। समुद्र से चंद मीटर दूर एक अहम घटना हो रही थी। दरअसल, मस्तान के मलबार हिल के आलीशान बंगले पर एक बहुत महत्वपूर्ण या कहें ऐतिहासिक बैठक थी। संभवतः वह मुंबई के अपराध इतिहास की सबसे महत्वपू्र्ण बैठक थी। उस तरह की बैठक न पहले कभी हुई थी और न ही भविष्य में कभी होने वाली थी। निर्धारित समय पर यानी आठ बजे तक सभी लोग वहां पहुंच गए। मुंबई अंडरवर्ल्ड का क़रीब-क़रीब हर दिग्गज मौजूद था। यह बैठक बहुत तनाव भरे माहौल में हो रही थी। बात बिगड़ने पर ख़ून-खराबे का पूरा अंदेशा था। कई लोग मानते हैं कि दाऊद-साबिर और पठान की इस ऐतिहासिक मीटिंग के बाद मुंबई अंडरवर्ल्ड का चेहरा बदलने वाला था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

बैठक में एक तरफ़ दाऊद, साबिर, ख़ालिद, नूरा, अंतुले, अनीस और गिरोह के बाक़ी अपराधी थे तो दूसरी ओर अमीरज़ादा, आलमज़ेब, शाहज़ादा और समद ख़ान थे। बैठक में दोनों गिरोहों में सुलह-सपाटे की पक्षधर सम्मानित महिला जेनाबेन भी मौज़ूद थी। उसे मस्तान बहन मानता था। दाऊद उसे मौसी कहकर पुकारता था। पठान गिरोह का मुखिया करीम लाला नरम गद्दे पर दोस्त मस्तान की बग़ल में बैठा था। दोनों पक्षों में गरमागरम बहस हो रही थी। एक बार तो भी लगा, यहीं ख़ून की होली अब बहने ही वाली है। एक दूसरे को धमकी देते हुए दोनों पक्ष के बंदूकधारियों ने अचानक पोज़िशन भी ले ली थी। बहरहाल, काफ़ी जद्दोजहद के बाद सीज़फ़ायर पर सहमति बनी। एक दूसरे के ख़ून के प्यासे गिरोहों के बीच सुलह कराने के लिए मस्तान ने पवित्र कुरान का वास्ता दिया। दोनों पक्ष के लोगों का हाथ कुरान पर रखवाकर एक दूसरे पर हमला न करने की कसम ली।

दरअसल, इक़बाल नाटिक़ की हत्या के बाद दाऊद का पठान गिरोह से टकराव तीन साल जारी रहा। दोनों गैंग के लोग एक दूसरे के शूटरों की हत्याएं करते रहे। इस दौरान तीन दर्जन से ज़्यादा शूटर मार दिए गए। अंत में इस टकराव को रोकने के लिए मंझे खिलाड़ी मिर्ज़ा मस्तान आगे आए। वह पठानों और दाऊद बंधु में सुलह करना चाहते थे। सो मुस्लिम कार्ड खेला। दोनों गिरोह के शीर्षस्थ लोगों की बातचीत कराने की पहल काफी मेहनत के बाद रंग लाई। दो कट्टर दुश्मन एक दूसरे के सामने बैठने को राजी हो गए।

रोज़-रोज़ की हत्या से तंग आ चुकी मुंबई और उसकी जनता के लिए यह ऐतिहासिक समझौता अमन का पैग़ाम लेकर आया। दाऊद-साबिर और पठान गैंग के एक दूसरे पर हमले पूरी तरह बंद हो गए। दाऊद ने अपना पूरा ध्यान अपने तस्करी के कारोबार की ओर लगाया। हाजी मस्तान मिर्ज़ा की यह पहल सचमुच समझौता थी या साज़िश, इसे बहुत लंबे समय तक न पुलिस वाले समझ पाए, न ही ख़ुद दाऊद। अपराध विशेषज्ञों ने उस घटना पर ख़ूब काग़ज़ काला किया। ढेर सारे बड़े अपराधियों से बातचीत की लेकिन हक़ीक़त उनसे हमेशा दूर ही रही।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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