द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 30 – सीरियल ब्लास्ट से दहला दाऊद, वकील राम जेठमलानी से जताई आत्मसमर्पण की इच्छा

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
यह दुखद संयोग है कि जिम मुंबई की गलियों में दाऊद इब्राहिम बढ़ा-पला वहीं उसने सैकड़ों लोगों का खून बहाया। हालांकि की पैरोकार मीडिया रिपोर्ट में कहा यह भी जाता है, 12 मार्च 1993 का विनाश देखकर ख़ुद दाऊद इब्राहिम कासकर भी दहल गया था। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि उसकी मदद इतनी भयानक तबाही मचाने के लिए ली गई थी। इधर, भारत में दाऊद इब्राहिम को गद्दार कहा जाने लगा। उसके ही कई लोगों ने उसे फोन किया और बहुत भला-बुरा कहा। दाऊद लगा कि असली अपराधी उसे ही ठहराया जा रहा है, जबकि उसका रोल सीमित था। उसके शुभचिंतकों ने उसे सलाह दी कि भारतीय अदालतों में उसे इस केस में अपना बचाव करना चाहिए। लिहाज़ा उसने सरेंडर की योजना बनाई। मशहूर वकील राम जेठमलानी को उसने फोन भी किया। जेठमलानी को उसने बताया कि वह सरेंडर कर मुक़दमे का सामना करना चाहता है। साथ में उसने यह शर्त रख दी कि ब्लास्ट के अलावा उस पर चल रहे बाक़ी केसेज़ ड्रॉप कर दिए जाएं और मुक़दमे के दौरान गिरफ़्तार न करके उसे घर में नज़रबंद रखा जाए।

इसके बाद देश में सरगर्मियां अचानक से बहुत तेज़ हो गईं। पीवी नरसिंह राव की अगुवाई वाली भारत सरकार ने तर्क दिया कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहां न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से काम करती है। लिहाज़ा, दाऊद चाहे तो समर्पण कर सकता है, पर उसकी कोई भी शर्त नहीं मानी जा सकती है। इस तरह डॉन के भारत लौटने की संभावना पर विराम लग गया। बहरहाल, महाराष्ट्र गृह मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी, जो बाद में शिवसेना-भाजपा के कार्यकाल में मुंबई की पुलिस कमिश्नर बना, ने एक्प्रेस समूह के हिंदी अखबार ‘जनसत्ता’ के चीफ़ रिपोर्ट अनिल सिन्हा को 1994 में बताया कि टाइगर मेमन की कराची में हत्या हो गई और दाऊद इब्राहिम भारत लाया जा चुका है। अनिल सिन्हा राजनीतिक संवाददाता थे, इसके बावजूद उन्होंने दाऊद के भारत लाने और डाइगर की हत्या की ख़बर फ़ाइल कर दी जो जनसत्ता के सभी संस्करणों में बैनर के रूप में छपी। उस ख़बर के बाद उन राजनेताओं की हालत ख़राब हो गई, जिसका दाऊद से क़रीबी संबंध था। उन्हें लगा कि उनका पोल खुल जाएगी। बहरहाल, बाद में पता चला, आईपीएस अधिकारी के हवाले से अनिल सिन्हा ने जो ख़बर लिखी थी वो पूरी तरह ग़लत और बेबुनियाद थी। हालांकि, दाऊद के भारत आने की चर्चा थमने से उन राजनेताओं और पुलिस अधिकारियों ने बड़ी राहत की सांस ली, जो उसके यहां आने से मुश्किल में पड़ सकते थे।

मुंबई ब्लास्ट के बाद दाऊद आईएसआई का चहेता बन गया। अब उसके लिए दुबई महफ़ूज़ जगह नहीं थी क्योंकि भारत ने यूएई सरकार पर प्रत्यर्पण संधि करने और दाऊद को सौंपने की मांग शुरू कर दी थी। पाक गुप्तचर एजेंसी को लगा कि डॉन को दुबई से निकालना चाहिए, वरना भारतीय एजेंसियां उस तक पहुंच जाएंगी। लिहाज़ा 1994 में दाऊद रातोरात कराची शिफ़्ट किया गया। पॉश एरिया क्लिफ़्टन रोड पर विशाल बंगला दिया गया। जिसका नाम ह्वाइट हाऊस रखा। पड़ोस में बड़े भूखंड पर बेटे मोइन के नाम से दो मंज़िला मोइन पैलेस के बनने तक वह ह्वाइट हाऊस में ही रहा। पड़ोस में पूर्व राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी (बेनज़ीर भुट्टो के पति) का आवास है। दाऊद पर नज़र रखने वाले मुंबई पुलिस लोग बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ग गज से ज़्यादा बड़े भूखंड पर बने भव्य महल में हर सुविधाएं उपलब्ध हैं। कई चीफ़ मिनिस्टर्स, नौकरशाह, सेना और आईएसआई अफ़सर उससे मिलने के लिए रिसेप्शन पर घंटों इतज़ार करते हैं। आईआईएसआई और पाकिस्तानी रेंजर्स की सुरक्षा में वह कभी-कभार बाहर मूवमेंट करता है।

बहरहाल, मुंबई बमकांड ने भारत-पाक संबंध के साथ अंडरवर्ल्ड के भी समीकरण बदल दिए। अपराधी धर्म के आधार पर बंट गए। दाऊद को गद्दार कहता हुआ छोटा राजन अलग हो गया। देश-विदेश में फैले साथियों को ऑपरेशन दाऊद का काम बंद करने और अपने लिए काम करने का निर्देश दे दिया। छोटा राजन, अरुण, गवली और अमर नाईक मुंबई में हिंदू डॉन के रूप में उभरे जबकि दाऊद की इमैज पाकिस्तानपरस्त मुस्लिम डॉन की बन गई। बहरहाल, 1994 में दाऊद ने राजन के कई गुंडों की हत्या करवा दी। इससे बौखलाए नाना ने डी-कंपनी के पांच वफादारों की एक-एक करके मरवा दिया। करियन्ना शेट्टी की हत्या में शामिल रहे साधु शेट्टी ने छोटा राजन का साथ दिया।

कहा जाता है कि छोटा राजन ने डी-कंपनी को ख़त्म करने की सौंगध खाई। दोनों डॉन एक दूसरे की कमजोरियां बखूबी जानते थे। दाऊद जहां दूसरों पर निर्भर था, वहीं राजन खुद शार्प शूटर था। दाऊद के कराची जाने के बाद राजन मलेशिया के कुआलालंपुर से अपना कारोबार कंट्रोल करने लगा। दो साल के भीतर उसने डी-कंपनी के 18 शूटरों की हत्या करवा दी। सभी मुंबई ब्लास्ट के आरोपी थे। अब दोनों डॉन आमने-सामने थे। दाऊद की तरफ़ से मोर्चा संभाले था, उसका नया मुंबई कमांडर अबू सालेम जबकि शॉर्प शूटर रोहित वर्मा छोटा राजन का प्रतिनिधि बना हुआ था। एक दूसरे से लड़ते-लड़ते दोनों पक्ष पस्त भी हो गए थे। इस दौरान शहर में अनगिनत राजनीतिक हत्याएं भी हुईं। बीजेपी के प्रेमकुमार शर्मा और रामदास नायक, शिवसेना के रमेश मोरे और बाल ठाकरे के बेहद क़रीबी जयंत जाधव की हत्या कर दी गई। इतना ही नहीं, महालक्ष्मी रेसकोर्स के सिग्नल पर खटाऊ मिल के मालिक सुमित खटाऊ का ख़ून कर दिया गया। ट्रेड यूनियन नेता दत्ता सामंत को भी छोटा राजन के शूटरों मार डाला।

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नब्बे के दशक में अमर नाईक ख़तरनाक डॉन के रूप में उभरा। वह इतना निर्मम थी कि उसे मुंबई का रावण कहा जाने लगा। 1995 आते आते अरुण गवली और अमर नाईक गिरोह की दुश्मनी शबाब पर पहुंच गई। दोनों गिरोह के कई लोग राजनीति मे आ गए। कहा जाता है कि 1980 के दशक में अगर और उसके भाई सड़कों पर सब्जी का ठेला लगाते थे। उस वक्त भी वहां सड़क छाप गुंडों का आतंक हुआ करता था। एक दिन ठेले पर सब्जी बेच रहे अमर के भाई पर कुछ बदमाशों ने हमला कर दिया। यह देख अगर आगे आया और हाथ में चाकू उठाया और पांचों से भीड़ गया। उसने बदमाशों को वहां से भगा दिया। इसके बाद अमर उस इलाके में सब्जी बेचने वालों के लिए एक बड़ा नाम बन गया।

उस समय शायद किसी ने यह नहीं सोचा था कि अमर नाईक 1990 के दशक में मुंबई अंडरवर्ल्ड का बेताज बादशाह बन जाएगा। शुरू में ग़रीब दुकानदारों से रंगदारी वसूले जाने के खिलाफ लड़ने के लिए अमर नाईक ने अपने कुछ भरोसेमंद दोस्तों की टोली बना ली। साल 1985 तक अमर नाईक मुंबई अंडरवर्ल्ड की दुनिया में बड़ा नाम बन चुका था और उसके बाद एक से बढ़कर एक महंगे हथियार थे। हालांकि कुछ ही दिनों बाद अमर के छोटे भाई अश्विन नाईक को अरुण गवली गिरोह के कुछ बदमाशों ने किडनैप कर लिया। अश्विन किसी तरह किडनैपर्स के चंगुल से छूट कर भाग गया और फिर यहां से शुरू हुई अरुण गवली और अमर नाईक गैंग के बीच दुश्मनी की कहानी।

कहा जाता है कि अमर नाईक के पास गैंग तो था लेकिन उसके पास उस वक्त के खतरनाक गैंगस्टर अरुण गवली से लड़ने के लिए हथियार नहीं थे। पुलिस सूत्रों के मुताबिक अमर नाईक ने राम भट नाम के स्थानीय गैंगस्टर से हाथ मिला लिया। इसके बाद इन दोनों ने मिलकर मुंबई में अपराध का बड़ा साम्राज्य खड़ा किया था। अमर नाईक के गैंग में आलजी, पालजी जैसे कुख्यात हत्यारे थे तो वहीं उसकी पहुंच इतनी ऊपर तक बन गई थी कि वो श्रीलंका से हथियार भी ला कर रखता था।  कहा जाता है कि अमर नाईक ने अपराध की दुनिया से मोटी कमाई भी की। उसने पुणे, पनवेल, परेल और दादर में संपत्ति भी खरीदी थी। उस वक्त मुंबई में दाऊद गिरोह भी अपने पांव पसारने की कोशिश कर रहा था। कहा जाता है कि उस वक्त पुलिस के लिए दाऊद गिरोह के गुर्गों को पकड़ना आसान था, लेकिन अमर नाईक की कोई जानकारी पुलिस के पास नहीं होती थी।

एक बार तो अमर नाईक ने कुमार पिल्लई के साथ मिलकर दाऊद को मारने की साजिश रची थी। उसने दाऊद को दुबई में मारने के लिए जाल बिछाया था। इसके लिए चार शूटर भी भेजे गए थे, लेकिन साजिश कामयाब नहीं हो पाई। ये बात प्रत्यार्पित होने के बाद मुबई लाए गए अपराधी कुमार पिल्लई ने जांच अफसरों को बताई। पिल्लई ने जांच अफसरों को यह भी बताया कि उसे जानकारी मिली थी कि दाऊद दुबई के शारजाह स्टेडियम में आनेवाला है। इसके बाद उसे मारने के लिए चार शूटरों को स्टेडियम के आसपास तैनात किया गया था, लेकिन ज्यादा भीड़भाड़ के चलते शूटर उसे निशाना नहीं बना सके।

18 अप्रैल 1994 को अरुण गवली के शार्पशूटर रवींद्र सावंत ने अमर नाईक के भाई अश्विन नाईक पर अदालत परिसर में गोली चलाई। गोली उसकी खोपड़ी में घुस गई पर वह बच गया। अश्विन तो बच गया, लेकिन अमर ने पलट वार किया। बहरहाल, 10 अगस्त 1996 को मदनपुरा मे आधी रात को कुछ लोग छिपकर बेठे थे। वहाँ अमर नाईक के आने की सूचना मिली थी। जैसे ही अमर अपनी गाड़ी से उतरा तो दूर खड़े एक आदमी ने आवाज लगाई। “काय रे अमर, तू इथे?” जैसे ही अमर ने वहा देखा तो सामने इनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर नज़र आए। छिपकर बैठी सालास्कर की टीम ने अमर पर फायरिंग शुरू कर दी। इस तरह मुंबई का रावण मुठभेड़ में मार दिया गया। उस वक्त अमर नाईक दाऊद इब्राहिम के समकक्ष गैंगस्टर बन गया था। अमर नाईक पुलिस के लिए सिरदर्द बन चुका था। लिहाजा वो लगातार पुलिस के निशाने पर था। कुछ साल बाद अश्विन नाईक भी गिरफ़्तार हुआ। जेल में रहते ही शिवसेना के टिकट पर नगरसेवक चुनी गई उसकी पत्नी नीता नाईक की हत्या कर दी गई। हत्या का आरोप अश्विनी नाईक पर लगा। कहा जाता है, अश्विनी को शक था कि नीता नाईक का एक पुलिस वाले से शारीरिक संबंध है। बहरहाल, दस वर्ष तक जेल में गुज़ारकर अश्विन रिहा हो गया। आजकल वह मुंबई में रहता है।

कुल मिलाकर 1994 से 97 का तीन साल का समय बेहद ख़ून-खराबे वाला रहा। मनीष शाह, दिलीप वलेछा और नटवर शाह जैसे बिल्डर भून दिए गए। करीम मरेडिया और वल्ल्भ ठक्कर की भी दिन-दहाड़े हत्या हो गई। दाऊद ने छोटा राजन के दोस्त रमानाथ पय्यादे को मरवा दिया जबकि राजन ने सुनील सांत सावत्या की दुबई के हयात रिजेंसी होटल में हत्या करवा दी। छोटा राजन के फ़ाइनेंसर बिल्डर ओमप्रकाश कुकरेजा की उनके चेंबूर दफ्तर में गोली मार दी गई। शकील के शूटरों ने राजन के क़रीबी फिल्मकार मुकेश दुग्गल की भी हत्या कर दी। बदले में 1997 में बांद्रा में दाऊद के साथी और ईस्ट-वेस्ट एयरलांइस के प्रमुख तकीउद्दीन वाहिद की हत्या रोहित वर्मा ने कर दी। अगले साल राजन ने दाऊद के ख़ास नेपाली सांसद मिर्ज़ा दिलशाद बेग की काठमांडू के पास सिफल में मरवा दिया। शकील ने रूपम के मालिक और व्यापारी भारत शाह की क्राफर्ड मार्केट के पास हत्या करवा दी।

छोटा राजन के अलग होने के बाद डी-कंपनी के सभी ऑपरेशन्स छोटा शकील देखने लगा। हालांकि दाऊद के दुबई छोड़ने के बाद भी वहां दफ़्तर बरक़रार रखा। कहा जाता है कि शकील दुबई का सिमकार्ड इस्तेमाल करता है। उसने डी-कंपनी में बड़ी संख्या में बेरोज़गार युवकों की भर्ती की। हथियार चलाना और हत्याएं करना सिखाया। वह उनको पॉकेट मनी भी देने लगा। ख़तरनाक शूटर फ़िरोज़ सरगुरोह उर्फ फ़िरोज़ कोंकणी ऐसा ही युवक था। कट्टर मुस्लिम परिवार का कोंकणी शकील की खोज माना जाता है। मुंबई में दोबारा दंगे शुरू होने की वजह कोंकणी था। उसने डोंगरी में 5 जनवरी की रात 4 मथाड़ी कामगारों का गला काट डाला था और मुंबई हिंसा की चपेट में आ गई। बांद्रा में 25 अगस्त 1994 को बीजेपी नेता रामदास नायक की हत्या के बाद वह और कुख्यात हो गया। गिरफ़्तारी से पहले शकील के लिए उसने दो दर्जन हत्याएं की। शकील डी-सिंडिकेट में नंबर दो था। हालांकि अनीस की उसके साथ नहीं बनती थी, फिर भी अपनी क़ाबिलियत से वह दाऊद का ब्लूआई परसन बना रहा।

संजय दत्त की गिरफ़्तारी के बाद बमकांड में अबू सालेम का नाम आया। अनीस की सलाह पर वह मुंबई से फरार हो गया। सबसे पहले अपने गांव आजमगढ़ के मीरसराय गया। वहां से लखनऊ होता हुआ दुबई पहुंच गया। अनीस चाहता था कि भाई सालेम को बड़ी ज़िम्मेदारी दे। लिहाज़ा दुबई में बैठकर सालेम डी-कंपनी के लिए काम करने लगा।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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