देवेंद्र फडणवीस महाराष्ट्र के निर्विवाद नए चाणक्य, शरद पवार युग समाप्त

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

महाराष्ट्र की राजनीति में 2 जुलाई 2023 को जो कुछ भी हुआ उसे देखकर यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ही छत्रपति शिवाजी महाराज की धरती के असली चाणक्य हैं और निःसंदेह कभी मराठा के क्षत्रप रहे शरद पवार का युग लगभग-लगभग समाप्त हो चुका है, इसे पवार साहब को स्वीकार करना चाहिए। उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि 2019 के विधान चुनाव में मुख्यमंत्री बनने का जनादेश पाने वाले फडणवीस को मुख्यमंत्री बनने से रोकने और बालासाहेब ठाकरे के अयोग्य उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी आड़ में राज्य में सत्ता के संचालन की उनकी कोशिश अंततः नाकाम हो गई। इसका नतीजा जून 2022 में शिवसेना के विभाजन और जुलाई 2023 में एनसीपी के विभाजन के रूप में सामने आई।

शरद पवार की इमैज जहां आज भी वर्ष 1978 के उस राजनेता की है, जिसने मुख्यमंत्री वंसतदादा पाटिल के साथ छल-कपट किया और उनके विधायकों को तोड़कर राज्य की सत्ता हथिया ली थी। पवार आज भी अपनी उस तिकड़मी छवि से बाहर नहीं आ सके हैं। लेकिन दूसरी ओर फडणवीस की इमैज 2014 से तमाम राजनीतिक बवंडर के बावजूद जेंटलमैन राजनेता की बनी रही। पहले एकनाथ शिंदे से बगावत करवाया, लेकिन उस विद्रोह को शिवसेना का अंदरूनी मामला करार दे दिया। अब एनसीपी में बग़ावत करवाया और उसे एनसीपी का अंदरूनी मामला करार देते हुए अजित पवार को उप-मुख्यमत्री पर की शपथ दिलवा दी। शिवसेना और एनसीपी में बगावत करवा करके फडणवीस ने पवार और उद्धव दोनों को उन्हीं की स्टाइल में करारा जवाब दिया। चतुर राजनेता की चतुर नीति से सांप भी मर गया और लाठी भी अक्षुण्ण रही। एक तरह से जून 2022 और जुलाई 2023 की घटनाओं को 2019 का भूल-सुधार भी कहा जाएगा।

अब महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी की दो पार्टियां भाजपा के साथ आ गई हैं। सेक्यूलर का राग आलापने वाली कांग्रेस अकेली पार्टी रह गई है। कहा तो यह जा रहा है कि कांग्रेस के भी कई नेता भाजपा में जाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो अगले लोकसभा और विधान सभा में भाजपा वॉकओवर पाने के मोड में रहेगी। बहरहाल, रविवार की अवकाश की दिन मीडिया के लिए खलबली वाला दिन रहा। पहले अजित पवार अपने आठ विधायकों के साथ उप मुख्यमंत्री पद की शपथ की और बाद में शरद पवार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की लेकिन उसमें वह असाय नज़र आए। उनको भी लग रहा है कि वह जिस तरह की राजनीति जीवन भर करते रहे अब जीवन की अंतिम बेला में उसी तरह की राजनीति उनके साथ भी हो रही है।

पिछले साल जून में शिवसेना में बगावत होने के बाद सोशल मीडिया पर हैशटैग मी पुनः येईन मतलब मैं फिर से आऊंगा, ट्रेंड करने लगा था। यह वर्ष 2019 में फडणवीस का चर्चित श्लोगन था, जो उन्होंने अपनी जनादेश यात्रा के दौरान दिया था। बैशक उस समय वह ओवर कॉन्फिडेंट के शिकार हो गए थे और उद्धव ठाकरे पर भरोसा करके उनके चक्रव्यूह में फंस गए थे। इसीलिए नवंबर 2019 में जब बाल ठाकरे की ठाकरे परिवार के चुनाव की राजनीति से दूर रखने की परंपरा को तोड़ते हुए शरद पवार ने शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे राज्य को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलवाई तो फडणवीस के श्लोगन मी पुनः येईन का मज़ाक उड़ाया जाने लगा था।

बहरहाल, सत्ता हाथ से जाने के बाद फडणवीस ने बहुत कुछ सीखा। पहले तो अपनी ग़लती स्वीकार की कि ठाकरे परिवार और पवार परिवार पर भरोसा करना उनके राजनीतिक जीवन के दो ब्लंडर थे। पहला 2019 में चुनाव से पहले भाजपा के विन-विन पोज़िशन में रहने के बावजूद शिवसेना से गठबंधन करना और दूसरे चुनावी नतीजे आने के बाद अजित पवार पर भरोसा करना और एकदम अल-सुबह राजभवन में उनके साथ मुख्यमंत्री पद का शपथ लेना, उनकी राजनीतिक भूल थी। विधान सभा में विपक्ष का नेता बनने के बाद फडवीस राजनीति रूप से अधिक परिपक्व हुए। उन्हें शिद्दत से एहसास हुआ कि कौन उनका असली साथी है और कौन हाथ में कटार लेकर उनके साथ है। इसके बाद विरोधियों को किस तरह उन्हीं की स्टाइल में जवाब दिया जाए, इस स्किल को अपने अंदर विकसित किया।

बतौर विपक्षी नेता देवेंद्र फडणवीस कभी घर नहीं बैठे। यहां तक कि जब अनिच्छा से मुख्यमंत्री पद स्वीकार करने वाले उद्धव ठाकरे कोरोना महामारी के कारण माताश्री से बाहर ही नहीं निकलते थे, वहीं फडणवीस राज्य का दौरा करते रहे और लोगों का दुख-दर्द बांटते रहे। कोंकण जैसी आपदा समेत कई जगह तो फडणवीस या उनके लोग सरकार से पहले पहुंच जाते थे। इससे राज्य की जनता का फडणवीस में भरोसा बढ़ता ही गया। राज्य के लोग भी मानने लगे कि 2019 के चुनाव में जिसे उन्होंने मुख्यमंत्री बनाने के लिए गठबंधन को वोट दिया था, उसे राजनीति साज़िश के तहत भले सत्ता नहीं मिल पाई लेकिन वह नेता उनसे कटा नहीं है।

कोरोना वायरस के संक्रमण के दौरान फडणवीस उतने ही सक्रिय रहे, जितने सक्रिय वह राज्य का मुख्यमंत्री रहते हुए थे। उनकी सक्रियता का आलम यह था कि वह दो-दो बार वह कोरोना से संक्रमित हुए, लेकिन जनता की सेवा करने के अपने इरादे से विचलित नहीं हुए। यही बात फडणवीस के पक्ष में जाती है। देश की राजनीति में फडणवीस का ग्राफ बहुत तेज़ी से बढ़ा है। राजनीतिक पंडित मानने लगे हैं कि फडणवीस में भाजपा की अगली पीढ़ी के शीर्ष नेता बनने की पूरी कूवत है और जब नरेंद्र मोदी राजनीति से संन्यास की घोषणा करेंगे तो उनके उत्तराधिकारियों की फेहरिस्त में फडणवीस प्रमुख तीन लोगों में होंगे।

मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बारे में यही कहा जा सकता है कि पवार के झांसे में आकर सेक्यूलर बनने का उनका फैसला ब्लंडर साबित हुआ और इस चक्कर में उन्होंने पिता की विरासत भी गंवा दिया। राजनीतिक हलकों में 22 जून से ही कहा जा रहा है कि वर्षा छोड़ते समय उद्धव सीएम पद भी छोड़ दिए होते तो थोड़ी सहानुभूति मिलने की गुंजाइश रहती। उद्धव को 10 जून 2022 को राज्यसभा चुनाव में एहसास हो गया था कि शिवसेना से उनकी पकड़ ढीली पड़ गई है और बगावत के दूसरे दिन ही उद्धव को पता चल गया था कि बग़ावत करने वाले शिवसेना विधायक किसी भी कीमत पर वापस नहीं लौटेंगे, क्योंकि उन्हें संदेह है कि सेक्यूलर पॉलिटिक्स से वे दोबारा विधायक चुने जा सकेंगे।

वर्ष 2019 में चुनावी राजनीति में उतरने से पहले उद्धव ठाकरे को जेंटलमैन पॉलिटिशियन माना जाता था। वह अपने पिता की तरह आक्रामक स्वभाव के नहीं, बल्कि विनम्र राजनेता थे। इसीलिए जब बाल ठाकरे ने पुत्रमोह में पड़कर राज ठाकरे की जगह उद्धव को अपना उत्तराधिकारी बनाया तभी राजनीति के टीकाकारों को लगा कि सीनियर ठाकरे ने एक अदूरदर्शी और घातक फ़ैसला ले लिया और कमज़ोर व्यक्ति एवं अपरिपक्व व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। इसका नतीजा 2014 के चुनाव में ही देखने को मिला, जब राज्य के भारतीय जनता पार्टी के साथ भगवा गठबंधन में शिवसेना बड़े भाई से छोटी बहन की भूमिका में आ गई। यह शिवसेना के पतन की शुरुआत थी।

दरअसल, उद्धव ठाकरे ने अगर अपने पिता की विरासत को गंवा दी तो उसके लिए वह उसी तरह ज़िम्मेदार हैं, जिस तरह 2014 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने के लिए भाजपा नेतृत्व को ज़िम्मेदार माना था और चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बारे में इस तरह का कमेंट किया था, जिससे आम तौर पर परिपक्व नेता बचता है। 2014 के चुनाव प्रचार में उद्धव के भाषण से साफ़ हो गया था कि उन्हें भविष्य जब भी मौक़ा मिलेगा, वह भाजपा से बदला ज़रूर लेंगे। यहां फडनवीस उनकी मंशा भांपने में असफल रहे। बहरहाल, 2019 में जब भाजपा की विधान सभा में विधायक संख्या 122 से घटकर 106 होते ही उन्हें अपने अपमान का बदला लेने का सही मौक़ा मिल गया।

उद्धव ने भाजपा के सामने ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री के कार्यकाल की शर्त रख दी, जबकि भगवा गठबंधन ने फडणवीस के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था। इसके बाद ज़ाहिर तौर पर फडणवीस को दोबारा पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर चुकी भाजपा ने उद्धव ठाकरे की शर्त सिरे से ख़ारिज कर दी और गठबंधन टूट गया। भाजपा को सबक सिखाने के चक्कर में उद्धव पवार के चक्रव्यूह में फंस गए। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ मिल कर महाविकास अघाड़ी का गठन किया। सीनियर ठाकरे की परंपरा से हटकर मुख्यमंत्री बने और बेटे को भी मंत्री बना दिया। सीएम बनने के बाद तो हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की शिवसेना सेक्यूलर सिवसेना के रूप में ट्रांसफॉर्म होने लगी।

उद्धव ने शिवसेना को ऐसी सेक्यूलर राजनीतिक दल बना दिया जो हिंदू विरोधी कार्य करती दिख रही थी। जो ज़िंदगी भर शिवसैनिक राग हिंदू आलापता था, वह समझ ही नहीं पाया कि उद्धव साहेब यह क्या कर रहे हैं। वे देख रहे थे कि हिंदूवादी शिवसेना सरकार हिंदुत्व के पैरोकारों की ही ऐसी की तैसी कर रही है। ढाई साल में शिवसेना हिंदू-विरोधी पार्टी बन गई। इससे शिवसेना विधायकों की हवाइयां उड़ने लगी। उन्हें साफ दिखने लगा कि उद्धव की हिंदू विरोधी नीति से उनका राजनीतिक करियर ख़त्म हो जाएगा। यही वजह है कि जब एकनाथ शिंदे ने उद्धव का विरोध करने की पहल की तो तो तिहाई से ज़्यादा विधायक उनके साथ हो लिए। अब तो भविष्य में उद्धव के साथ रहने वाले 10-12 विधायक और राज्य भर में शाखा प्रमुख के भी शिंदे खेमे में चले जाएं तो हैरानी नहीं होगी।

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