विज्ञान व्रत : शायरी के कैनवास पर शब्दों से चित्र बनाने वाला शायर

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मुस्तहसन अज़्म 

आज एक ऐसे शायर की शायरी के हवाले से बात करने का मौक मिला है जो ना सिर्फ़ एक बा कमाल शायर हैं बल्कि एक बेहतरीन मुसव्विर भी हैं, जिनकी पेंटिंग की नुमाइश हिंदुस्तान ही में नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में हो चुकी है। उनका नया ग़ज़ल संग्रह ‘बाहर धूप खड़ी है‘अभी प्रकाशित हुआ है।

शायरी की बात करें तो ग़ज़ल की फ़िज़ा उन्हें इतनी रास आई कि उनकी ग़ज़लों के कई मजमुए मंज़रे-आम पर आ चुके हैं,  उन्होंने ग़ज़लों की जुल्फ़ें खूब संवारी हैं और उन्हें अपना महबूब बना लिया है।

ग़ज़ल की विधा के बारे में रशीद अहमद सिद्दीकी ने कहा था- “ग़ज़ल एक ऐसी सिन्फ़ है जो आसान भी है और मुश्किल भी” उनका यह जुमला काफ़ी तहदार है, जहां तक मैं समझता हूं… उनके कहने का मतलब यह है कि ग़ज़ल का शेर अपनी कशिश, अपनी बुनावट, अपने मिज़ाज और अपने बयान की वजह से लोगों को आसान लगता है लेकिन ग़ज़ल के शेर को उसकी बुनावट, उसके मिज़ाज, उसकी नज़ाकत,  उसकी तमाम बंदिशों और बारीक़ियों के साथ बरतना आसान नहीं होता।

हम जब विज्ञान व्रत जी की ग़ज़लों को पढ़ते हैं तो उनके शेर शायरी के तमाम लवाज़िम, नज़ाकत और बारीक़ियों को निभाते हुए नज़र आते हैं। उनके शेर बज़ाहिर आसान होते हैं लेकिन उनमें तहदारी होती है। उनके कुछ अश्आर देखें—

पापा घर मत लेकर आना
रात गए बातें दफ्तर की

बस अपना ही ग़म देखा है
तू ने कितना कम देखा है

खुद को ही खो बैठे हैं
हम घर के सामानों में

खुद को ढूंढ़ न पाए तुम
ऐसा भी खो जाना क्या

एक दफ़ा मिल जाए जीवन
जीवन भर फिर मरना सीखूं

उसका कौन पता बतलाए
जो मुझको घर तक ले आया

बाहर धूप खड़ी है कब से
खिड़की खोलो अपने घर की

दिन का साथ निभाने को
सूरज रोज ढला करता है

जनाब विज्ञान व्रत की ग़ज़लों से गुज़रते हुए एक बात शिद्दत से महसूस की जा सकती है और वह है ख़ुद की तलाश… मुझे लगता है यह तलाश उन खोई हुई क़दरों की तलाश है… पामाल रिश्तों की तलाश है… तभी तो वो तमाम दर्द को समेटते हुए ज़हनी आसूदगी का सामान मुहैया करते हैं… लोगों का बहुरूप… गिरती हुई है ग़ैरत का एहसास उनके दिल को सालता रहता है तभी तो वह कहते हैं—

साथ उड़ी थी लाखों नज़रें
पंछी जब आकाश चढ़ा था

पहले जैसा गांव नहीं है
पेड़ बहुत हैं छांव नहीं है

सहरा है यह कहना मान
इस बस्ती की खाक न छान

तुमने जो पथराव जिए
हमने उनके घाव जिए

गुम सुम भी रह पाना मुश्किल
गूंगा भी कहलाना मुश्किल

इस बस्ती में एक नियम है
सूरत ज़्यादा सीरत कम है

मैं कुछ बेहतर ढूंढ रहा हूं
घर में हूं घर ढूंढ रहा हूं

मैं तो अपने साथ रहूं
उसके साथ ज़माना है

विज्ञान व्रत की ग़ज़लों में जिंदगी के हर शोबे से ताल्लुक रखने वाले बेशुमार अश्आर मौजूद हैं… गांव और शहर के बीच के रिश्ते को उन्होंने बखूबी निभाया है… उसका चित्रण खूबसूरत अंदाज़ में किया है… कच्ची आंखों में सपने का आना लाज़मी है जिनकी ताबीरें शहरों से जुड़ी हैं… उन्हें पूरा करने का रास्ता कच्ची आंखों को शहरों तक ले जाता है… यह अपने गांव में अभाव की ऐसी खाई है जिसे पुश्तों से पाटने की कोशिश की जा रही है। वह कहते हैं—

ताबीरे शहरों में हैं
सपने सारे गांव में

शहर में आकर सपने सच भी हो जाते हैं और ख़्वाबों को ताबीरें भी मिल जाती हैं लेकिन एक अनजाना दर्द जो साथ चलता रहता है जिसका मदावा नहीं होता… यही वजह है कि कामयाबी की बुलंदियों से गांव की वो कच्ची सड़क दिखती है जो गांव के बाज़ारों तक जाती है… वो खेत खलिहान दिखते हैं जिनसे यादें जुड़ी होती है जो किसी न किसी बहाने से बुलाती रहती हैं… इसी दर्द का इज़हार विज्ञान व्रत के शेरों में उभर आता है—

शहरों में आकर देख चुका हूं
अब तो मेरा गांव बुलाए

गांव में जो घर होता है 
शहरों में नंबर होता है

दर्द शायरी का वो असासा है जिसके बगैर मुकम्मल शायरी का तसव्वुर मुमकिन नहीं… विज्ञान व्रत की शायरी में दर्द के साथ-साथ उम्मीद है, दिलकशी है, जिंदगी का फ़लसफ़ा है, अपने आप को साबित करने की ज़िद है, ख़ुदको और बेहतर करने की लगन और तड़प है—

ख़ुद से शर्त लगा कर देखूं
ख़ुद को आज हरा कर देखूं

एक शक्ल में ढल जाने तक
कितनी बार पिघलना होगा

अपने माहौल से हद दर्जा लगाव उनकी शायरी की ख़ूबी है… उनके यहां मज़मून की फ़रावानी है, शेर कहने का हुनर है, आसान लफ़ज़ों से मानी पैदा करने की कला है… यूं कहा जाए कि उनकी शायरी में वह तमाम लवाज़िम मौजूद हैं जो कामयाब शायरी की अलामत हैं… उनके अश्आर आसान होते हुए तहदार हैं… हम उन्हें जितनी बार पढ़ते हैं हम पर उनकी उतनी ही परतें खुलती जाती हैं।

{मुस्तहसन अज़्म (mustahsan.azm@gmail.com) मशहूर शायर हैं। उनके दो ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।}

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