सरोज कुमार
आफत फारसी का शब्द है, और फारसी पर हिंदी में एक पुराना मुहावरा है -पढ़े फारसी बेचे तेल। लेकिन फारसी को ऊंचा और तेल को नीचा दिखाने वाला यह मुहावरा आज उलट गया है। तेल नया मुहावरा गढ़ रहा है। जमीन का तेल आसमान पहुंच चुका है, और इसकी ऊंचाई का पता हर किसी को लग चुका है। नहीं लगा होगा तो जल्द लग जाएगा, क्योंकि तेल का भाव हर दिन सब्र की नई सीमा पार कर रहा है। तेल का सहोदर गैस भी पीछे नहीं है। दोनों साथ-साथ कदमताल कर रहे हैं। कुल मिलाकर सिर पर ईंधन की आफत है, और हमें अपनी शराफत का इम्तहान देना है।
ईंधन का भाव ऊंचा होने के दो मुख्य कारण हैं। पहला अंतर्राष्ट्रीय और दूसरा घरेलू। दोनों कारण समस्या के निवारण के लिए तैयार नहीं हैं। अपनी घरेलू सरकार कहती है कि वह बाहरी तेल उत्पादक देशों से कच्चे तेल के दाम घटाने और आपूर्ति बढ़ाने के लिए बात कर रही है। लेकिन वह स्वयं दाम घटाना नहीं चाहती। यह तो वही बात हुई कि कोई बनिया दूसरे बनिया से कहे कि मुझे मुनाफा कमा लेने दो, लेकिन तुम मुनाफा नहीं कमाओ। अब इस बात पर हंसना है या रोना, आप जानिए। सरकार निर्विकार है, उसे किसी के हंसने-रोने से फर्क नहीं पड़ता।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत लगभग 85 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई है, जो साल भर पहले 42.5 डॉलर प्रति बैरल थी। यह 2018 के बाद कच्चे तेल का सर्वोच्च स्तर है। महामारी के मंद पड़ने से दुनिया भर में आर्थिक गतिविधियां तेज हुई हैं और ईंधन की मांग बढ़ी है। लेकिन तेल उत्पादक देशों ने मांग के अनुरूप उत्पादन बढ़ाने से इंकार कर दिया है। मध्य पूर्व के देशों ने प्रीमियम शुल्क हटाने के भारत सरकार के अनुरोध को भी अनसुना कर दिया है। एशियाई देशों के लिए कच्चे तेल पर अलग से प्रीमियम शुल्क का प्रावधान है। परिणामस्वरूप एशियाई देशों को आपूर्ति होने वाला कच्चा तेल महंगा हो जाता है। सऊदी अरब हल्के कच्चे तेल की बेंचमार्क कीमत पर अभी भारत से 1.30 डॉलर प्रीमियम वसूल रहा है। जबकि यूरोप के लिए उसने 2.4 डॉलर की छूट दे रखी है। ऐसी परिस्थिति में निकट भविष्य में तेल की कीमत में कमी की उम्मीद बेमानी है। अलबत्ता मांग बढ़ रही है तो कीमत ऊपर ही जाएगी। कम से कम नवंबर तक तो इस बात की गारंटी है। यानी सौ रुपये के पार जा चुके पेट्रोल, डीजल की कीमत का सर्वोच्च आना अभी बाकी है।
तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक प्लस समूह की हालिया बैठक में सदस्य देशों ने अपने रुख को दोहराया है कि वे नवंबर में कच्चे तेल की कुल आपूर्ति सिर्फ चार लाख बैरल प्रति दिन तक ही बढ़ाएंगे। शीर्ष तेल उत्पादक देशों सऊदी अरब, रूस, इराक, संयुक्त अरब अमीरात, और कुवैत का उत्पादन नवंबर की वृद्धि के बाद भी सामान्य से 14 फीसद कम रहेगा। यानी मांग के मुकाबले आपूर्ति नहीं होगी। परिणामस्वरूप कीमत हर हाल में ऊपर जानी है। हमें अपने सब्र का स्तर भी ऊंचा बनाए रखना है। दरअसल, तेल उत्पादक देश महामारी के दौरान हुए नुकसान की भरपाई ऊंची कीमत के जरिए करना चाहते हैं। वे यह भी देख लेना चाहते हैं कि तेल आयातक देश कितने पानी में हैं और ऊंची कीमत का बोझ वे कबतक ढो पाते हैं।
ठीक इसी तरह का इम्तहान अपना देश भी अपने नागरिकों से ले रहा है। इम्तहान देना आम नागरिक की मजबूरी है। हर रोज तेल की कीमतें बढ़ रही हैं और सरकार इस बात से खुश है कि पेट्रोल की खपत बढ़ गई है। उसे कर न घटाने का एक बहाना मिल गया है। यानी जबतक खपत घटने न लगे, सरकार कर घटाने वाली नहीं है। पिछले साल महामारी के दौरान पेट्रोल पर तेरह रुपये और डीजल पर सोलह रुपये विशेष शुल्क लगाया गया था। कम से कम इस शुल्क को सरकार वापस ले ले तो गरीब जनता गंगा नहा लेगी, लेकिन फिलहाल ऐसा लगता नहीं है। तर्क यह कि मुफ्त राशन और मुफ्त टीकाकरण के लिए पैसों की जरूरत है। और इस जरूरत के नाम पर आम जनता से तेल की कुल कीमत का आधा से अधिक हिस्सा कर के रूप में वसूला जा रहा है।
महामारी की दूसरी लहर की भयावहता देख चुके लोग आवाजाही में शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए निजी वाहनों का उपयोग अधिक कर रहे हैं। इससे पेट्रोल की खपत बढ़ गई है। पिछले महीने सितंबर में पेट्रोल की खपत साल भर पहले के मुकाबले नौ फीसद अधिक रही। पेट्रोल की खपत में वृद्धि लोगों की मजबूरी के कारण हुई है। इसी मजबूरी का लाभ सरकार उठा रही है और इसे अर्थव्यवस्था में सुधार का सबूत बता रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था में सुधार का सबूत पेट्रोल की खपत से नहीं, डीजल की खपत से मिलता है। डीजल की खपत पिछले साल के मुकाबले 6.5 फीसद घटी हुई है। देश में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत में डीजल की हिस्सेदारी लगभग 38 फीसद है। उद्योग और कृषि जैसे अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्रों में डीजल की ही जरूरत होती है। सरकार की सोच में यह तथ्य शायद शामिल नहीं है।
गैस की आफत तेल से कम नहीं है। खाना पकाने में इस्तेमाल होने वाली गैस हो, या इंजन और टरबाइन चलाने के काम आने वाली गैस, कीमत में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस साल पहली जनवरी से लेकर अब तक 14.2 किलोग्राम के रसोई गैस सिलिंडर की कीमत 205 रुपये बढ़ चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्राकृतिक गैस की कीमत में तीव्र उछाल के बाद सरकार ने घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत अक्टूबर के प्रारंभ में 62 फीसद बढ़ा दी। हालांकि 2019 के बाद प्राकृतिक गैस की कीमत पहली बार बढ़ी है, लेकिन वृद्धि का समय कहीं से सही नहीं है। हर तरफ हाहाकार है और आम उपभोक्ता की कमर पहले से टूटी हुई है। इस वृद्धि के बाद सीएनजी, पीएनजी के दामों में लगातार वृद्धि हो रही है। इससे बिजली उत्पादन, उर्वरक उत्पादन और माल ढुलाई की लागत बढ़ेगी, और इसका बोझा अंत में आम जनता को ही उठाना होगा।
भारत अपनी जरूरत का लगभग 45.3 फीसद प्राकृतिक गैस आयात करता है, और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्राकृतिक गैस की कीमत में तीव्र उछाल है। वैश्विक तपन से निपटने के लिए दुनिया के देशों में बिजली बनाने के लिए कोयले के स्थान पर गैस के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है। इसके कारण गैस की मांग बढ़ी है। दूसरी ओर यूरोप में प्राकृतिक गैस का उत्पादन इधर कुछ वर्षों में काफी घट गया है, क्योंकि कई देशों ने पर्यावरण संबंधी चिंताओं के कारण गैस फील्ड बंद कर दिए हैं। यूरोप का प्राकृतिक गैस उत्पादन जो 2005 में 300 अरब घनमीटर था, वह 2021 में घटकर 200 अरब घनमीटर हो गया है। अब यूरोप गैस के लिए रूस पर निर्भर है।
प्राकृतिक गैस उत्पादक देशों पर आपूर्ति का दबाव बढ़ गया है, जिसके कारण कीमतों में भारी उछाल आया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के अगस्त के एक आकड़े के अनुसार, प्राकृतिक गैस की कीमत 2008 की मंदी के बाद से अबतक के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी है। आगे यह और ऊपर जाने वाली है। ब्लूमबर्ग की 24 सितंबर की एक रपट के अनुसार, प्राकृतिक गैस की कीमत में जिस गति से वृद्धि हो रही है, अमेरिका के कई उपभोक्ताओं को मजबूरन गैस छोड़ तेल की तरफ लौटना होगा। जबकि अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस उत्पादक है। ऐसे में भारत के लिए प्राकृतिक गैस की राह आगे कठिन ही होने वाली है। आम उपभोक्ताओं को पेट्रोल और डीजल के साथ एलपीजी, सीएनजी और पीएनजी की ऊंची कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना होगा। लेकिन इससे अर्थव्यवस्था का गणित गड़बड़ा सकता है। अर्थव्यवस्था के बहुत बड़े हिस्से की खरीदी क्षमता जमीन पर आ जाएगी और समाज में असमानता बढ़ेगी। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के गवर्नर शक्तिकांत दास भी पेट्रोल-डीजल की ऊंची कीमत के संभावित खतरे से सरकार को आगाह कर चुके हैं।
लेकिन सरकार आम उपभोक्ताओं को राहत देने की मनस्थिति में नहीं दिखती है, परिस्थिति तो अपनी जगह है ही। हां, खास उपभोक्ता उसके लिए मायने रखते हैं। कॉरपोरेट के लिए एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष कर छोड़ना इस बात का प्रमाण है। यानी जो कर चुका सकते हैं राहत उन्हीं के लिए है, जिन्हें कर चुकाने में हर रोज मरना है उनके लिए भला कैसी राहत! आफत मोल लेना एक मुहावरा था, आज यह मजबूरी बन गया है।
(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)