शव में तब्दील भारत की जनता

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पार्थिव जनता। जी हां, पार्थिव केवल मानव शरीर नहीं होता, बल्कि कभी-कभी पार्थिव जनता भी हो जाती है। पार्थिव जनता का मतलब शव में तब्दील हो चुकी जनता। किसी शव के साथ आप जैसा चाहें वैसा व्यवहार कर सकते हैं। उसे डंडे से पीटिए, उसे गोली मार दीजिए या फिर उसे चाकू से बोटी-बोटी कर दीजिए। वह कोई भी रिएक्शन नहीं देगा। वह न तो चिल्लाएगा, न ही रहम की भीख मांगेगा, क्योंकि वह शव है। उसमें जान ही नहीं बची है। उसमें कोई संवेदना ही नहीं बची है। इसलिए उसके साथ चाहे जितना जुल्म कर लीजिए, वह उफ् तक नहीं करेगा। कहने का मतलब अगर आदमी का शरीर शव में तब्दील नहीं हुआ है, तो कष्ट देने वाली बातों का विरोध करेगा। मसलन, वह चिल्लाएगा, लेकिन अगर वह शव में तब्दील हो चुका है तो वह कुछ बोलेगा ही नहीं। आप चाहे जा करें।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की जनता का आजकल यही हाल है। कांग्रेस ने अपने शासन काल में जनता को वैश्विकरण, उदारीकरण, निजीकरण और कॉन्ट्रैक्ट लेबर सिस्टम का टेबलेट देकर उसे पहले गंभीर रूप से बीमार बनाया था, फिर उसे पंगु कर दिया था। तब जनता केवल पंगु हुई थी, लेकिन शव में तब्दील नहीं हुई थी। लिहाज़ा, कभी-कभार वह सरकार का विरोध कर देती थी। विरोध करते हुए देश की जनता ने 2014 में देश की बाग़डोर कांग्रेस से छीन कर देशभक्त पार्टी के हवाले कर दिया। मगर देशभक्त सरकार ने देश की पंगु जनता को देशभक्ति और जयश्रीराम का टेबलेट देकर सीधे उसे कोमा में डाल दिया। यानी उसकी विरोध करने की क्षमता ही ख़त्म कर दी।

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रही-सही कसर चीन के वुहान से निकले कोरोना वायरस की महामारी ने पूरी कर दी। कोविड 19 ने अपने प्रकोप से इस देश की लाचार जनता को शव में बदल दिया। अब यह देशभक्त सरकार शव में तब्दील हो चुकी इस जनता के साथ अपनी सुविधानुसार व्यवहार कर रही है। कह लीजिए कि वह जनता की कुटाई कर रही है। परंतु शव में तब्दील हो चुकी जनता है कि कुछ रिएक्ट ही नहीं कर रही है। यही वजह है कि पिछले कुछ महीने से पेट्रोल और डीज़ल के दाम दैनिक आधार पर बढ़ाए जा रहे हैं। इस दौरान प्रति लीटर पेट्रोल लगभग सौ रुपए और डीज़ल नब्बे रुपए के आसपास पहुंच चुका है, लेकिन जनता का कोई रिएक्शन देखने को नहीं मिल रहा है।

पहले जहां पेट्रोल और डीज़ल के दाम में महज़ कुछ पैसे बढ़ा देने से देश में भारी विरोध शुरू हो जाता था। लोग सड़क पर आ जाते थे, जगह-जगह आंदोलन करने लगते थे। इससे कभी-कभी सरकार को अपना फ़ैसला वापस लेना पड़ता था। वहीं आज पूरे देश में पेट्रोल और डीज़ल के दाम में रोज़ाना वृद्धि हो रही है, लेकिन कहीं कोई विरोध नहीं हो रहा है। हर जगह सन्नाटा पसरा है। ऐसा लगता है पूरे देश में मातम है। जीवन में कभी ऐसा भी दौर कभी आएगा, यह तो किसी ने सोचा नहीं था। पहले सरकार अस्पताल, बांध, पुल, सड़क और नहर के निर्माण पर अकूत धन ख़र्च करती थी। आजकल सरकार बड़ी-बड़ी मूर्तियां और मंदिर-मस्जिद बनवाने में व्यस्त है।

कह लीजिए कि जनता पहले से ही बेजार थी। कोरोना संक्रमण की मार ने पहले उसकी रोज़ी-रोटी छीनी। केंद्र औ राज्य के सरकारी कर्मचारियों को छोड़ दें, तो देश का हर कामकाजी नागरिक कोरोना वायरस का शिकार हो गया। यह कोरोना वायरस जनता के विनाश का सामान लेकर आया। इस वैश्विक महामारी को रोकने के लिए 25 मार्च को लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। पहले लगा यह पखवारे या महीने भर चलेगा। लेकिन कोरोना का विस्तार लगातार होने से सरकारी लॉकडाउन अब भी बरकरार है। इससे जो कामकाज ठप तो है, लेकिन लोगों की आमदनी ज़रूर ठप है। काम देने वालों ने कह दिया, ‘काम नहीं तो पैसे नहीं’, लेकिन पेट तो रोज़ाना दो जून की रोटी मांगता है।

कोरोना ने सबसे पहले निचले तबक़े यानी शारीरिक श्रम करने वाले मजदूर वर्ग पर हमला किया। लोग भूखे मरने लगे। लिहाज़ा, उस जगह के लिए पलायन करने लगे, जहां भोजन मिलने की गुंजाइश थी। भोजन देने के मामले में शहर के मुक़ाबले गांव ज़्यादा उदार होता है, इसीलिए गांव में ज़िंदा रहने की संभावना शहर से अधिक होती है। लिहाज़ा, जिसे जो भी साधन मिला, वह उसी से गांव की ओर पलायन कर गया। जिन्हें कोई साधन नहीं मिला, वे पैदल ही गांव की ओर भाग खड़े हुए।

कोरोना की मार उसके बाद निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ी। जो नौकरी करके अपना और अपने परिवार का पेट भर रहा था। लेकिन लॉकडाउन की लंबी अवधि के दौरान अधिकतर लोगों की नौकरी चली गई। अब न तो उनके पास नौकरी रह गई न ही कोई रोज़गार रहा। यूं तो सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते देश की कंपनियों और कारोबारियों से अपील की थी कि लॉकडाउन के दौरान किसी कर्मचारी को न तो नौकरी से निकालें और न ही उनका वेतन काटें। केवल मुनाफ़े में विश्वास करने वाली कंपनियों ने सरकार की अपील को कूड़ेदान में डाल दिया।

जो कंपनियां कर्मचारियों के बल पर करोड़ों रुपए का मुनाफ़ा कर रही थीं, लेकिन कभी भी अपने मुनाफ़े का थोड़ा सा भी हिस्सा कर्मचारियों से शेयर नहीं किया, आजकल वे कंपनियां अपने घाटे को कर्मचारियों से शेयर कर रही हैं। सरकार की अपील के बावजूद या तो कर्मचारियों को निकाल बाहर कर रही हैं या उन्हें नाममात्र का वेतन दे रही हैं। वेतन इतना कम हो गया है, कि खाने के बाद कुछ बच ही नहीं रहा है। फिर घर का किराया कैसे दें?

यही हाल मध्यम वर्ग का है। उसके पास काम तो नहीं है, लेकिन कुछ सेविंग थी, उसी से दो जून की रोटी जुटा रहे थे। इस वर्ग की सबसे बड़ी समस्या थी, कर्ज़ कि किस्तें कैसे भरें, क्योंकि इस वर्ग के अधिकतर लोगों ने कर्ज़ ले रखा है। ज़्यादातर लोग होम लोन लेकर फंस गए हैं। सरकार उन्हें मारने के लिए कर्ज़ स्थगन यानी मोरेटोरियम नाम की स्कीम लेकर आई। यानी लॉकडाउन में छह महीने कर्ज़ की किस्त मत भरिए। यह भी बैंकों या वित्तीय संस्थानों को कोई आदेश नहीं था, उनसे रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने अपील की थी।

कर्ज़दाता बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने आरबीआई की अपील मान ली। कर्ज़ लेने वालों से कहा, “संकट की इस घड़ी में हम भी आपके साथ हैं। आप आर्थिक संकट में हैं तो छह महीने तक ईएमआई मत भरिए। हां, ब्याज माफ़ नहीं किया जा सकता। लिहाज़ा, ब्याज जारी रहने से कर्ज़ के भुगतान की अवधि छह महीने आगे खिसक जाएगी। इसके अलावा आपको ब्याज के रूप में तीन महीने की अतिरिक्त किश्त देनी होगी।” यानी मातम के मौसम में भी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के दोनों हाथ में लड्डू रहा। बैंकवाले कोरोना को धन्यवाद दे रहे हैं कि कोरोना उनके लिए कमाने का अवसर लेकर आया।

अभी तो कोरोना से लोगों की मौत हो रही है। अब कर्ज़ अदा न कर पाने से बड़ी तादाद में लोग डिफॉल्टर घोषित किए जा रहे हैं। जिन्होंने होम लोन ले रखा है, उनके घर सील होने के कगार पर हैं। अब उनके पास न रहने के लिए घर होगा, न करने के लिए काम होगा और न ही दो जून की रोटी नहीं होगी। इसके चलते लोग सामूहिक रूप से आत्महत्या करना शुरू करेंगे, क्योंकि उनके पास मौत को गले लगाना ही एकमात्र विकल्प होगा। कई जगह से तो मरने की ख़बर भी आने लगी है।

बदहाल यानी शव में तब्दील हो चुकी जनता बुरी तरह पराश्रित हो गई है। सरकार के लिए शव में तब्दील हो चुकी जनता से पैसे बनाने का ज़बरदस्त मौक़ा हाथ लग गया है। इसीलिए जून 2020 के पहले हफ़्ते से पेट्रोल डीजल के दाम रोज़ाना बढ़ाए जा रहे हैं। कभी किसी ने कल्पना की थी, कि ऐसा भी समय आएगा। ऐसे समय जब लोगों जीने रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन पर और बोझ डालने का काम किया जाएगा।

दरअसल, मानवता का तक़ाज़ा यह है कि जहां लोग बड़ी तादाद में मर रहे हों, वहां कोई भी संवेदनशील आदमी या संस्थान न तो राजनीति करता है और न ही सौदेबाज़ी करता है, लेकिन देशभक्त सरकार मातम के माहौल में भी अपनी तिजोरी भर रही है। लोग हैरान हैं कि सरकार जनता की पीड़ा महसूस क्यों नहीं कर रही है। कई लोगों का मानना है कि जनता की पीड़ा, जनता का दुख वही महसूस कर सकता है, जिसे दुनियादारी का अनुभव होता है। जिसे दुनियादारी का कोई अनुभव ही नहीं है, वह लोगों के दुख-दर्द नहीं समझ सकता। कोई असंवेदनशील आदमी ही मातम के इस दौर में जब लोग रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, किसी वस्तु के दाम में वृद्धि करने की सोचेगा। यहां तो रोज़ाना पेट्रोल-डीज़ल कीमत रोज़ बढ़ाए जा रहे हैं, जिनका असर निश्चित तौर पर बाक़ी वस्तुओं की क़ीमत पर पड़ेगा।

हां, जो लोग राज्य सरकार या केंद्र सरकार में मुलाज़िम हैं, उन्हें नियमित रूप से वेतन मिल रहा है। यानी उनका पेट भरा है। सुबह नाश्ता, दोपहर लंच और शाम को डिनर कर रहे हैं। उन्हें न तो आज रोटी की कोई किल्लत है और न ही कल होने वाली है। ऐसे लोग ज़रूर सोशल मीडिया पर देशभक्ति का ज्ञान बांट रहे हैं। कई लोग भगवान श्री राम के मंदिर के लिए चंदा जुटाने में मस्त हैं। कहना न होगा कि आज़ादी मिलने का बाद आम नागरिक के लिए यह सबसे कठिन समय है। ऐसे में यही कहा जा सकता है, ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे और प्रकृति मजलूम लोगों की रक्षा करे।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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