जहां चार यार: रिश्तों की एक सरल विरल रेखा

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सरोज कुमार
सरल, सुगम और मिठास भरा हो, वहीं रिश्ता है। खासतौर से पुरुष और स्त्री के बीच का रिश्ता। या कहे यही गुण रिश्ते की बुनियाद हैं। इन्हीं से रिश्ते बनते हैं, उनका संसार बनता है, व्यापक होता है। परिवार, समाज बनता है। ये गुण न हों तो भला रिश्ता कहेंगे भी कैसे, और क्यों? लेकिन इन दिनों हो ये रहा कि ये गुण रिश्तों में गौण हो चले हैं। पुरुष प्रधान समाज में रिश्ते के बीच दबा-छिपा अहं, वहम का अनुलोम अब विलोम बन रहा है। एकाकीपन, उकताहट और इससे बाहर निकलने की छटपटाहट इसका एकमात्र हासिल है। रिश्ते का हर धागा छिन्न-भिन्न खुद को चक्की में टूटता, पिसता महसूस कर रहा है। सबकुछ टूट, बिखर रहा है। इसे बचाने, सहेजने की जरूरत है। मानव जीवन की आज यही सबसे बड़ी जरूरत है।
’जहां चार यार’ मानवीय रिश्ते की इसी जटिल, अनछुई समस्या को सरल, मगर विरल तरीके से पेश करती है। रिश्तों के घनघोर जंगल में फंसे मन-जीवन को आईना दिखाती है, और वहां से निकलने, बचने का रास्ता भी सुझाती है। रिश्तों में बन आए उस गड्ढे को दिखाती है, जहां हर किसी की सांसें टूट रही हैं। यह फिल्म फिल्मकार और कलाकारों की सकारात्मक सोच से भी परिचय कराती है। उन्होंने महानगर बन चुके गांवों में देसी शहर बसाने का जो काम किया है। हो सकता है इसमें उन्हें उतनी व्यावसायिक सफलता न मिले, लेकिन पत्थर पर लकीर खींचने के लिए वे सभी साधुवाद के पात्र हैं।
फिल्म का कथानक चार मध्यवर्गीय घरेलू महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमता है। चारों शादी से पहले सहेली थीं। उन्होंने अपना सहेलीपन शादी के बाद भी सहेज कर और सींच कर रखा हुआ है। चारों अपने वैवाहिक जीवन में अलग-अलग भले ही घुटन, कुढ़न, उकताहट और कमजोरी महसूस करती हैं, लेकिन जब वे एकजुट होती है तो हर मुश्किल को हाशिए पर धकेल देती हैं। वे चाहती हैं, कामना करती हैं कि उनके सहेलीपन में जो सहजता, सरलता और मिठास है, कुछ वैसा ही उनके घरों में भी लौट आए। लेकिन ऐसा होता नहीं। रिश्तों की, जीवन की मूल समस्या यही है।
इस फिल्म की भी समस्या यही है। चारों रिश्ते की इसी मिठास का पाने के लिए अक्सर एकजुट होने की कोशिश करती हैं। यही कोशिश उन्हें घर के चूल्हे-चौके से बाहर निकाल कर गोवा तक ले जाती है, कुछ दिन के लिए ही सही। लेकिन वहां उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है। यह फिल्म बताती है कि जीवन का अर्थ न सिर्फ चूल्हा-चौका है, और न सिर्फ गोवा ही। जीवन का रिश्ता दोनों के बीच कहीं बसता, बनता है। उसी बिंदु को तलाशने और उसके साथ एकाकार हो जाने की जरूरत है। यानी संतुलन ही मानवीय रिश्ते का दीर्घकालीन आयाम है।
विनोद बच्चन ने इस विषय पर फिल्म बनाकर समाज पर बड़ा उपकार किया है। ’तनु वेड्स मनु’, ’मेरी शादी में जरूर आना’ के बाद उन्होंने ’जहां चार यार’ के जरिए मानवीय रिश्ते के एक अनछुए पक्ष पर रोशनी डालने का काम किया है। बिलकुल साफ-सुथरे, निर्दोष तरीके से। फिल्म के निर्देशक, लेखक कमल पांडे ने देसी कहानी को गोवा तक ले जाकर देसी और आधुनिक दोनों तरह के दर्शकों को साधने की कोशिश की है। तकनीकी अनुप्रयोगों से अलग यह फिल्म लगभग हर महिला के जीवन का आईना है, जिसमें पुरुष भी अपना चेहरा देख सकते हैं।
चारों महिला किरदार फिल्म का हीरो हैं। लेकिन स्वरा भास्कर चारों में लीड करती दिखाई देती हैं। उनका अभिनय बिलकुल सुर में, सधा हुआ, स्वाभाविक है। वह किरदार के साथ पूरी तरह जुगलबंदी करती हुई दिखाई देती हैं। उन्होंने हमेशा की तरह इस फिल्म में भी अपनी अभिनय क्षमता को साबित किया है। शिखा तलसानिया, पूजा चोपड़ा, और मेहेर विज ने भी अपने-अपने किरदार के साथ न्याय किया है। ऐसा लगता है चारों महिला कलाकारों ने अपने किरदार में काफी मेहनत की है। वे गौरवान्वित महसूस करती दिखाई देती हैं।
गिरीश कुलकर्णी ने पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में अभिनय का एक अलग रंग डाला है। फिल्म को एक लाइन में व्याख्यायित किया जाए तो यह मानवीय रिश्तों की एक सरल मगर विरल रेखा प्रस्तुत करती है। जटिल विषय का मनोरंजक सरलीकरण है। खासतौर से महिलाओं के लिए यह फिल्म बुखार में क्रोसीन की गोली की तरह है। जिसे हर कोई आजमाना पसंद करता है, और उसे राहत भी मिलती है।
(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)