क्या लालबहादुर शास्त्री की मौत के रहस्य से कभी हटेगा परदा?

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कई मौतें ऐसी होती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी या कहें हमेशा रहस्य ही बनी रहती हैं। ठीक ऐसी ही मौत देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की भी थी। जो क़रीब पांच दशक गुज़र जाने के बाद भी रहस्य ही बनी हुई है। दरअसल, भारत पाकिस्तान के बीच 1965 का युद्ध ख़त्म होने के बाद 10 जनवरी 1966 को शास्त्री ने पाकिस्तानी सैन्य शासक जनरल अयूब ख़ान के साथ तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद शहर में ऐतिहासिक शांति समझौता किया था। हैरानी वाली बात यह रही कि उसी रात शास्त्री का कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।

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बताया जाता है कि समझौते के बाद लोगों ने शास्त्री को अपने कमरे में बेचैनी से टहलते हुए देखा था। उनके साथ ताशकंद गए इंडियन डेलिगेशन के लोगों को भी लगा कि वह परेशान हैं। डेलिगेशन में शामिल उनके इनफॉरमेशन ऑफ़िसर कुलदीप नैय्यर ने लिखा है, “रात में मैं सो रहा था कि किसी ने अचानक दरवाजा खटखटाया। वह कोई रूसी महिला थी। उसने बताया कि आपके पीएम की हालत सीरियस है। मैं जल्दी से उनके कमरे में पहुंचा। वहां एक व्यक्ति ने इशारा किया कि ही इज़ नो मोर। मैंने देखा कि बड़े कमरे में बेड पर एक छोटा-सा आदमी पड़ा था।“

कहा जाता है कि जिस रात शास्त्री की मौत हुई, उस रात खाना उनके निजी सर्वेंट रामनाथ ने नहीं, बल्कि सोवियत में भारतीय राजदूत टीएन कौल के कुक जान मोहम्मद ने बनाया था। कहा जाता है कि आलू पालक और सब्ज़ी खाकर शास्त्री सोने चले गए थे। मौत के बाद शरीर के नीला पड़ने से लोगों ने आशंका जताई थी कि कहीं उन्हें खाने में ज़हर तो नहीं दे दिया गया था। उनका निधन 10-11 जनवरी की रात डेढ़ बजे हुआ। आधी रात में विदेशी मुल्क के पीएम की मौत से भारतीय प्रतिनिधि मंडल सन्नाटे में था। जिस व्यक्ति ने चंद घंटे पहले ऐतिहासिक समझौता किया था, उसकी सहसा मौत से पूरा देश सकते में था।

शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री ने उनके मौत के रहस्य की गुत्थी सुलझाने की सरकार से अपील की थी। सुनील शास्त्री का कहना था कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनकी लाश उन्होंने देखी तो छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे और कई जगह चकत्ते पड़ गए थे। जिन्हें देखकर साफ़ लग रहा था कि उन्हें ज़हर दिया गया है। पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही मानना था कि उनकी मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी। अगर हार्टअटैक आया तो उनका शरीर नीला क्यों पड़ गया था? यहां वहां चकत्ते पड़ गए थे। उनकी मौत का सच फ़ौरन सामने आ जाता, अगर उनका पोस्टमॉर्टम कराया गया होता। लेकिन ताज्जुब की बात कि एक पीएम की रहस्यमय मौत हुई और शव का पोस्टमॉर्टम नहीं कराया गया।

बहरहाल, बाद में बताया जाता है कि उस दिन आधी रात को शास्त्री खुद चलकर सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे में गए, क्योंकि उनके कमरे में घंटी या टेलीफोन नहीं था। वह दर्द से तड़प रहे थे। उन्होंने दरवाजा नॉक कर जगन्नाथ को उठाया और डॉक्टर को बुलाने का आग्रह किया। जगन्नाथ ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लेटा दिया। शास्त्री समेत पूरे इंडियन डेलिगेशन को ताशकंद से 20 किलोमीटर दूर गेस्टहाउस में ठहराया गया था, इसीलिए वक्त पर चिकित्सा सुविधा न मिलने से उनकी मौत हो गई।

शास्त्री की सादगी से हर कोई प्रभावित हो जाता था। उनका जन्म दो अक्टूबर 1904 को रामनगर चंदौली (तब वाराणसी) में हुआ। असली नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। पिता शारदाप्रसाद श्रीवास्तव शिक्षक थे, जो बाद में केंद्र की नौकरी में आ गए। शास्त्री की पढ़ाई हरीशचंद्र डिग्री कॉलेज और काशी विद्यापीठ में हुई। एमए करने के बाद उन्हें ‘शास्त्री’ की उपाधि मिली। स्वतंत्रता के बाद उन्हें उत्तरप्रदेश कांग्रेस का संसदीय सचिव बनाया गया। गोविंदबल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में उन्हें गृहमंत्री बनाया गया। बतौर गृहमंत्री उन्होंने भीड़ नियंत्रित करने के लिए लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग करवाया। परिवहन मंत्री रहते हुए उन्होंने महिला कंडक्टरों की नियुक्ति की।

1951 में प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह कांग्रेस महासचिव बनाए गए। 1952, 57 और 62 के चुनाव में कांग्रेस को मिली भारी विजय का श्रेय शास्त्री को दिया गया। उनकी प्रतिभा और निष्ठा को देखकर ही नेहरू की मृत्यु के बाद 1964 में उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री का पद की शपथ ली। 26 जनवरी 1965 को देश के जवानों और किसानों को अपने कर्म और निष्ठा के प्रति सुदृढ़ रहने और देश को खाद्य के क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया। यह नारा आज भी लोकप्रिय है।

जब देश को भीषण अकाल का सामना करना पड़ा पड़ा तब उनके कहने पर ही देश के लोगों ने एक दिन का उपवास रखना शुरू किया था। उनके कहने पर लोगों ने पाकिस्‍तान से हुए युद्ध के लिए दिल खोलकर दान दिया था। सार्वजनिक जीवन में उनके जैसी ईमानदारी बहुत ही कम देखने को मिलती है। पाकिस्‍तान ने आक्रमण किया तो शास्त्री के आदेश पर भारतीय सेना ने पाकिस्तान के घर में घुसकर मारा था। उनके ही कार्यकाल में भारतीय फौज ने पाकिस्‍तान को जंग का करारा जवाब दिया और लाहौर तक पर अपना झंडा लहराया था। शास्त्री इतने नेकदिल इंसान भी थे कि बाद में जीती हुई सारी भूमि पाकिस्‍तान को वापस कर दी।

सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के तहत उनको 50 रुपए की आर्थिक मदद मिलती थी। एक बार उन्‍होंने पत्‍नी से पूछा कि कितने में घर खर्च चल जाता है। तो उनकी पत्‍नी ने बताया 40 रुपए। उन्‍होंने अपनी आर्थिक मदद कम करने की मांग की थी। शास्‍त्री कभी निजी कार्य के लिए सरकारी कार का इस्‍तेमाल नहीं करते थे। एक बार जब उनके बेटे ने इसका इस्‍तेमाल निजी तौर पर किया तो उन्‍होंने किलोमीटर के हिसाब से पैसा सरकारी खाते में जमा करवाया दिया।

जब वह प्रधानमंत्री बने, तब उनके पास न तो अपना घर था और न ही अपनी कोई कार। बैंक खाते में इतने पैसे भी नहीं थे कि कार खरीद सकें। बाद में बच्‍चों के कहने पर बैंक से लोन लेकर कार खरीदी थी। इस कार का ऋण पूरा उतार भी नहीं पाए थे कि उनका तााशकंद में देहांत हो गया। इसके बाद तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनका ऋण माफ करने की सिफारिश की थी, लेकिन उनकी पत्‍नी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वह हर निणर्य सोच-विचार कर ही लेते थे। कई जानकार मानते हैं कि शास्त्री का ताशकंद समझौते पर दस्तख़त करना ग़लत फ़ैसला था। यह बात उन्हें महसूस होने लगी थी जिससे उन्हें दिल का दौरा पड़ा। कुछ लोग बताते हैं कि देश तब घोर आर्थिक संकट से घिरा था। शास्त्री उसे हल करने में सफल नहीं हो रहे थे। लिहाज़ा, उनकी आलोचना होने लगी थी।

शास्त्री अकसर कहते थे, “हम चाहे रहें या न रहें, हमारा देश और तिंरगा झंडा सदा ऊंचा रहना चाहिए।” वह उन नेताओं में थे जो अपने दायित्व अच्छी तरह समझते थे। छोटे क़द और कोमल स्वभाव वाले शास्त्री को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कभी वह सफल प्रधानमंत्री बनेंगे। एक बार उन्हें रेलमंत्री बनाया गया, एक ट्रेन हादसे के बाद उन्होंने रेलमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। वह ऐसे राजनेता थे जो अपनी ग़लती को सभी के सामने स्वीकार करते थे। बताया जाता है कि जब 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर शाम 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया तब तीनों रक्षा अंगों के चीफ़ ने पूछा कि क्या किया जाए। तब शास्त्री ने कहा, “आप देश की रक्षा कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है?”

बेटे सुनील शास्त्री ने अपनी किताब ‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’ में लिखा है मां शास्त्रीजी के कदमों की आहट से उन्हें पहचान लेती थीं और प्यार से धीमी आवाज़ में कहती थीं ‘‘नन्हें, तुम आ गये?” शास्त्री का अपनी मां इतना लगाव था कि वह उनका चेहरा देखे बिना नहीं रह पाते थे। किसी ने सच ही कहा है कि वीर पुत्र को हर मां जन्म देना चाहती है। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए मरणोपरांत 1966 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। शास्त्री उन्हीं वीर पुत्रों में हैं जिन्हें आज भी भारत की माटी याद करती है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा