हरिगोविंद विश्वकर्मा
जेजे शूटआउट में पूरी तरह दरकिनार किए जाने से छोटा राजन उर्फ नाना बहुत हैरान था। हालांकि मौक़े की नज़ाकत समझते हुए वह चुप ही रहा। डी-कंपनी के साम्राज्य की हिफ़ाज़त के लिए उसे गवली गैंग समेत सभी सरगनाओं से लोहा लेना पड़ रहा था। गवली के साथ सदा पावले, विजय तांडेल, सुनील घाटे और गणेश कोली जैसे ख़तरनाक शूटर थे। उन दिनों दशरथ रोहणे और तान्या कोली जैसे ख़तरनाक अपराधी भी मध्य मुंबई में सक्रिय थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, परंतु जेजे एपिसोड और चंद दूसरी घटनाक्रमों से छोटा राजन को लगा, भाई और उसके रास्ते अलग दिशा में जा रहे हैं। संभवतः उन दोनों का साथ साथ काम करना यही तक लिखा हुआ था। निश्चित रूप से आगे उनकी राह और मंज़िल अलग-अलग होने वाली थी।
दाऊद और राजन के रिश्ते में संदेह की दीवार सबसे पहले उस समय खड़ी हो गई, जब नाना ने शिवसेना नगरसेवक खीमबहादुर थापा की हत्या दाऊद से मंज़ूरी लिए बिना ही करवा दी। दरअसल, थापा ने पुलिस अफ़सर दशरथ अवट को नाना की टिप दे दी थी। डी-कंपनी के सीईओ के मन में बनी गांठ बड़ी होती रही। साधु शेट्टी के साथ-साथ छोटा राजन शुरू से दाऊद का वफादार था, लेकिन रिश्ते में पड़ा अविश्वास का बीज पहले पौधा बना फिर बढ़ने लगा। अंततः वटवृक्ष बन गया। इस बीच 1992 में साधु कर्नाटक चला गया। वहां डकैत नागराज उर्फ मणि नागू की हत्या के बाद वह लोकल पुलिस की राडार पर आ गया। उसे गिरफ़्तार कर लिया गया, टाडा लगाया गया और पांच साल की सज़ा हुई। इधर, सुनील सावंत उर्फ़ सावत्या और गुरु साटम के बीच गंभीर मतभेद हो गया। शकील ने सावत्या का पक्ष लिया तो राजन साटम का साथ दिया।
बहरहाल, 1992 में दाऊद और राजन के बीच फासला और ज़्यादा गहराने लगा। दाऊद जुर्म की दुनिया का बेताज बादशाह ज़रूर बन गया था, पर उसे हमेशा डर लगा रहता था कि कहीं अपनों से मात न खा जाए। इस बीच एक और घटना ने दोनों के बीच की खाई और चौड़ा कर दिया। राजन के ख़ास तैय्यब भाई को दाऊद के शूटरों ने मार डाला। नाना को बताया गया कि तैय्यब को बग़ाबत की सज़ा दी गई। दाऊद ने राजन से मुंबई की बजाय दुबई का कारोबार देखने को कहा पर नाना तैयार न हुआ। दरअसल, दाऊद मुंबई में हिंदू नहीं, बल्कि कट्टर मुस्लिम कमांडर चाहता था। लिहाज़ा राजन को साइडलाइन्ड कर अबू सलेम को यह दायित्व दे दिया। राजन समझ गया, कोई बड़ा गेम होने वाला है। लिहाज़ा, वह नया विकल्प तलाशने लगा। वह दुबई में तो था लेकिन दाऊद से दूर हो गया। किसी अज्ञात जगह चला गया।
इस बीच 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवादित संरचना ढहाए जाने के फौरन बाद पूरे मुंबई में हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मुंबई में दंगे की चिंगारी तब भड़की, जब हिंदू मस्जिद ठहाने का जश्न मना रहे थे। इससे पायधुनी के मीनारा मस्जिद पर मुसलमान जुट गए। बस दोनों एक दूसरे पर टूट पड़े। दंगा वीपी रोड तक फैल गया। सांप्रदायिक हिंसा की आग ने रात भर में पूरे शहर को अपनी आगोश में ले लिया। हर जगह से हिंसा की ख़बर आने लगी। यह तांडव 12 दिसंबर तक चला। जहां मुसलमान ज़्यादा थे, वहां हिंदू मारे गए। जिस जगह हिंदू आबादी अधिक थी, वहां मुसलमानों का कत्ल-ए-आम हुआ। 12 दिसंबर से 5 जनवरी तक तनावपूर्ण शांति रही। फिर भी छिटपुट हिंसा, आगजनी और हत्याएं होती रहीं।
5 जनवरी की रात डोंगरी में चार मथाड़ी कामगारों का गला काटने और जोगेश्वरी में मराठी परिवार के छह लोगों को ज़िदा जलाने से दंगा दोबारा भड़क उठा। नेताओं के भड़ाऊ भाषणों और कुछ समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग ने आग में घी का काम किया। कत्लेआम 25 जनवरी तक चलता रहा। दहिसर से नरीमन पॉइंट और मुलुंड और मानखुर्द से कोलाबा तक, हर जगह शहर जलता रहा। पुलिस मूकदर्शक बनी रही। करोड़ों रुपए की प्रॉपर्टीज़ जला दी गई। कहा जाता है दंगे से संजय दत्त विचलित हो गया और सुरक्षा के लिए अनीस से एके-56 राइफ़ल मांगी। संजय बांद्रा की पॉश पाली हिल में रहता है, जहां दंगा हुआ ही नहीं। दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि स्लम्स में हुए। यानी कम से कम संजय दत्त को किसी तरह का ख़तरा नहीं था। दंगे, दरअसल, मुस्लिम इलाकों से शुरू हुए और मारकाट में सबसे जानमाल का नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय को ही उठाना पड़ा।
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हिंदू मुसलमान के खून के प्यासे थे तो मुसलमान हिंदुओं का गला काट रहे थे। दंगा शांत हुआ तो पता चला, 575 मुसलमानों और 275 हिंदुओं समेत लगभग हज़ार लोग जान से हाथ धो चुके थे। पुलिस की गोली से 356 मरे, 347 चाकूबाजी में, 91 ज़िंदा जलाए गए, 80 को हिंसक भीड़ ने मार डाला। आरोप लगा कि दंगे के समय तत्कालीन रक्षामंत्री शरद पवार मुंबई आकर बैठ गए। लिहाज़ा, मुंबई में दो-दो पॉवर सेंटर हो गए। पुलिस इस बात को लेकर दुविधा में थी कि मुख्यमंत्री सुधाकरराव नाईक और शरद पवार में से किसका आदेश माने। दंगा ख़त्म होते ही सुधाकरराव नाईक की कुर्सी चली गई और पवार नए सीएम बनाए गए। दंगों की जांच के लिए श्रीकृष्ण आयोग का गठन किया गया। बहरहाल, श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट आते आते राज्य में शिवसेना-बाजपा की सरकार बन गई थी। आयोग की रिपोर्ट लंबे समय तक भगवा सरकार ने दबाए रखा। जब रिपोर्ट राज्य विधान सभा में पोश की गई तो उसमें तत्कालीन सीपी श्रीकांत बापट, सीएम सुधाकरराव नाईक, शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे समेत कई राजनेताओं और पुलिस अफ़सरों को कठघरे में खड़ा किया गया था। इस बिना पर मनोहर जोशी सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को नामंजूर कर दिया।
कहा जाता है दिसंबर के मुंबई दंगों के बाद दाऊद को दबई में नीले-लाल रंग की चूड़ियों के पार्सल भेजे गए। साथ में बहन की रक्षा न कर पाने वाले संदेश लिखे गए थे। मसलन, ‘अपनी बहनों की इज़्ज़त की हिफ़ाज़त न कर पाने वाले भाई को चूडियों का यह तोहफ़ा मुबारक़ हो।’ इन संदेशों को पढ़कर दाऊद का ख़ून खौल उठा। उसी समय उसने आईएसआई का आग्रह स्वीकार कर लिया और कह दिया, उसके नेटवर्क के ज़रिए हथियार और गोला-बारूद मुंबई भेजे जा सकते हैं। उसने टाइगर मेमन, अनीस इब्राहिम, एजाज़ पठान, मोहम्मद डोसा, मुस्तफा डोसा उर्फ मजनूं के साथ अहम बैठक की। हथियार और अन्य सामान पहुंचाने की ज़िम्मेदारी टाइगर और डोसा को सौंपी गई।
मुंबई सीरियल ब्लास्ट की कोर्ट में पेश की गई चार्जशीट के मुताबिक, 300 सौ से ज़ादा चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 और सैकड़ों की संख्या में ग्रेनेड, मैगज़िन, गोलियां और कई सौ क्विंटल आरडीएक्स मुंबई भेजे गए। कन्साइनमेंट्स रायगड़ के दिघी और शेखाड़ी जेट्टी पर 9 जनवरी से 9 फ़रवरी 1993 के दौरान रात 11 से 3 बजे के बीच उताते गए। लोकल मछुआरों की बड़ी नौकाएं किराए पर ली गईं और 40 मज़दूर काम पर लगाए गए। टाइगर और डोसा की देखरेख में हुए कार्य में टाइगर के राइटहैंड जावेद चिकना और 16 अन्य मुस्लिम साथियों ने मदद की। दिग्घी, शेखाड़ी के लैंडिंग एजेंट दाऊद फनसे उर्फ टकल्या ने अहम रोल निभाया।
खुफिया एजेंसियों ने जनवरी में ही आगाह कर दिया था कि हथियारों और विस्फोटकों का बहुत बड़ा कन्साइनमेंट कोंकण, गोवा, वसई या दमन के रास्ते महाराष्ट्र भेजा जाने वाला है। राजस्व ख़ुफिया निदेशालय को भी ख़बर थी कि 21 और 24 जनवरी 1993 के बीच रायगड़ के रोहिणी और दिग्घी जेटी और वसई तट पर कन्साइनमेंट की लैंडिंग होनी है। यह रायगड़ के पुलिस प्रमुख टीएस भाल और कस्टम अफ़सरान के भी संज्ञान में थी। डीआईआर के एसपीएस पुंढीर और वीएम देओलकर, कस्टम कलेक्टर एसके भारद्वाज भी अवगत थे। दुर्भाग्य से कस्टम के एसएस तलवाडेकर, आरके सिंह, एसएन थापा और विभाग के ढेर सारे लोग मददगार बन गए थे। असलहे मुंबई लाए गए। आरडीएक्स भिवंडी में छिपा दिया गया। हथियारों से भरा ट्रक जंगल के रास्ते गुजरात भेज दिया गया। कस्टम ने उसे ट्रैप भी किया लेकिन रिश्वत लेकर जाने दिया। सामान भरुच के बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में रखा गया। हथियार लोगों तक पहुचाने की ज़िम्मेदारी अबू सालेम पर थी। 9 एके-56, 100 से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर वह कार से मुंबई आया और एक राइफ़ल संजय दत्त को दे दी।
सवाल था, हथियार और विस्फोटक तो आ गए। तबाही कैसे मचाई जाए? लिहाज़ा बम बनाने और राइफ़ल चलाने की ट्रेनिंग के लिए 19 मुस्लिम युवकों को तीन खेप में टाइगर दुबई के रास्ते पाकिस्तान ले गया। सभी को 10 दिन की ट्रेनिंग मिली। वे पाकिस्तान से लौटे तो आतंकवादी थे। 12 मार्च 1993 को देश की आर्थिक राजधानी को दहलाने के लिए एक के बाद एक 13 धमाके हुए । पहला धमाका 1.28 बजे स्टॉक एक्सचेंज में और आख़िरी धमाका 3.25 बजे सेटूर होटेल में हुआ। इस बीच रीजनल पॉसपोर्ट ऑफ़िस, एयर इंडिया बिल्डिंग, सीरॉक और सेंटूर होटेल, शिवसेना भवन के पेट्रोल पंप, प्लाज़ा सिनेमा समेत 11 जगह और धमाके हुए।
जिसमें 257 निर्दोष मारे गए और 700 से ज़्यादा घायल हुए। सुप्रीम कोर्ट ने दाऊद और अनीस को साज़िशकर्ता माना। दाऊद भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की नजरों में मोस्टवॉन्टेड आतंकवादी बन गया। बमकांड में याकूब मेमन को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई। कई लोग उम्रक़ैद या उससे कम सज़ा काट रहे हैं। शांति के पुजारी सुनील दत्त का बेटे फ़िल्म अभिनेता संजय दत्त को हथियार रखने के ज़ुर्म में पुणे के यरवड़ा जेल में सज़ा भोग रहा है। दाऊद का काला धंधा दुबई में चमक रहा था। तभी आया काला शुक्रवार, जिसने उसे ग्लोबल आतंकवादी बना दिया।
(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)
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