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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 29 – मुंबई का भयावह सीरियल ब्लास्ट, दाऊद बन गया मोस्टवॉन्टेड टेररिस्ट

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
जेजे शूटआउट में पूरी तरह दरकिनार किए जाने से छोटा राजन उर्फ नाना बहुत हैरान था। हालांकि मौक़े की नज़ाकत समझते हुए वह चुप ही रहा। डी-कंपनी के साम्राज्य की हिफ़ाज़त के लिए उसे गवली गैंग समेत सभी सरगनाओं से लोहा लेना पड़ रहा था। गवली के साथ सदा पावले, विजय तांडेल, सुनील घाटे और गणेश कोली जैसे ख़तरनाक शूटर थे। उन दिनों दशरथ रोहणे और तान्या कोली जैसे ख़तरनाक अपराधी भी मध्य मुंबई में सक्रिय थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, परंतु जेजे एपिसोड और चंद दूसरी घटनाक्रमों से छोटा राजन को लगा, भाई और उसके रास्ते अलग दिशा में जा रहे हैं। संभवतः उन दोनों का साथ साथ काम करना यही तक लिखा हुआ था। निश्चित रूप से आगे उनकी राह और मंज़िल अलग-अलग होने वाली थी।

दाऊद और राजन के रिश्ते में संदेह की दीवार सबसे पहले उस समय खड़ी हो गई, जब नाना ने शिवसेना नगरसेवक खीमबहादुर थापा की हत्या दाऊद से मंज़ूरी लिए बिना ही करवा दी। दरअसल, थापा ने पुलिस अफ़सर दशरथ अवट को नाना की टिप दे दी थी। डी-कंपनी के सीईओ के मन में बनी गांठ बड़ी होती रही। साधु शेट्टी के साथ-साथ छोटा राजन शुरू से दाऊद का वफादार था, लेकिन रिश्ते में पड़ा अविश्वास का बीज पहले पौधा बना फिर बढ़ने लगा। अंततः वटवृक्ष बन गया। इस बीच 1992 में साधु कर्नाटक चला गया। वहां डकैत नागराज उर्फ मणि नागू की हत्या के बाद वह लोकल पुलिस की राडार पर आ गया। उसे गिरफ़्तार कर लिया गया, टाडा लगाया गया और पांच साल की सज़ा हुई। इधर, सुनील सावंत उर्फ़ सावत्या और गुरु साटम के बीच गंभीर मतभेद हो गया। शकील ने सावत्या का पक्ष लिया तो राजन साटम का साथ दिया।

बहरहाल, 1992 में दाऊद और राजन के बीच फासला और ज़्यादा गहराने लगा। दाऊद जुर्म की दुनिया का बेताज बादशाह ज़रूर बन गया था, पर उसे हमेशा डर लगा रहता था कि कहीं अपनों से मात न खा जाए। इस बीच एक और घटना ने दोनों के बीच की खाई और चौड़ा कर दिया। राजन के ख़ास तैय्यब भाई को दाऊद के शूटरों ने मार डाला। नाना को बताया गया कि तैय्यब को बग़ाबत की सज़ा दी गई। दाऊद ने राजन से मुंबई की बजाय दुबई का कारोबार देखने को कहा पर नाना तैयार न हुआ। दरअसल, दाऊद मुंबई में हिंदू नहीं, बल्कि कट्टर मुस्लिम कमांडर चाहता था। लिहाज़ा राजन को साइडलाइन्ड कर अबू सलेम को यह दायित्व दे दिया। राजन समझ गया, कोई बड़ा गेम होने वाला है। लिहाज़ा, वह नया विकल्प तलाशने लगा। वह दुबई में तो था लेकिन दाऊद से दूर हो गया। किसी अज्ञात जगह चला गया।

इस बीच 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवादित संरचना ढहाए जाने के फौरन बाद पूरे मुंबई में हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मुंबई में दंगे की चिंगारी तब भड़की, जब हिंदू मस्जिद ठहाने का जश्न मना रहे थे। इससे पायधुनी के मीनारा मस्जिद पर मुसलमान जुट गए। बस दोनों एक दूसरे पर टूट पड़े। दंगा वीपी रोड तक फैल गया। सांप्रदायिक हिंसा की आग ने रात भर में पूरे शहर को अपनी आगोश में ले लिया। हर जगह से हिंसा की ख़बर आने लगी। यह तांडव 12 दिसंबर तक चला। जहां मुसलमान ज़्यादा थे, वहां हिंदू मारे गए। जिस जगह हिंदू आबादी अधिक थी, वहां मुसलमानों का कत्ल-ए-आम हुआ। 12 दिसंबर से 5 जनवरी तक तनावपूर्ण शांति रही। फिर भी छिटपुट हिंसा, आगजनी और हत्याएं होती रहीं।

5 जनवरी की रात डोंगरी में चार मथाड़ी कामगारों का गला काटने और जोगेश्वरी में मराठी परिवार के छह लोगों को ज़िदा जलाने से दंगा दोबारा भड़क उठा। नेताओं के भड़ाऊ भाषणों और कुछ समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग ने आग में घी का काम किया। कत्लेआम 25 जनवरी तक चलता रहा। दहिसर से नरीमन पॉइंट और मुलुंड और मानखुर्द से कोलाबा तक, हर जगह शहर जलता रहा। पुलिस मूकदर्शक बनी रही। करोड़ों रुपए की प्रॉपर्टीज़ जला दी गई। कहा जाता है दंगे से संजय दत्त विचलित हो गया और सुरक्षा के लिए अनीस से एके-56 राइफ़ल मांगी। संजय बांद्रा की पॉश पाली हिल में रहता है, जहां दंगा हुआ ही नहीं। दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि स्लम्स में हुए। यानी कम से कम संजय दत्त को किसी तरह का ख़तरा नहीं था। दंगे, दरअसल, मुस्लिम इलाकों से शुरू हुए और मारकाट में सबसे जानमाल का नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय को ही उठाना पड़ा।

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हिंदू मुसलमान के खून के प्यासे थे तो मुसलमान हिंदुओं का गला काट रहे थे। दंगा शांत हुआ तो पता चला, 575 मुसलमानों और 275 हिंदुओं समेत लगभग हज़ार लोग जान से हाथ धो चुके थे। पुलिस की गोली से 356 मरे, 347 चाकूबाजी में, 91 ज़िंदा जलाए गए, 80 को हिंसक भीड़ ने मार डाला। आरोप लगा कि दंगे के समय तत्कालीन रक्षामंत्री शरद पवार मुंबई आकर बैठ गए। लिहाज़ा, मुंबई में दो-दो पॉवर सेंटर हो गए। पुलिस इस बात को लेकर दुविधा में थी कि मुख्यमंत्री सुधाकरराव नाईक और शरद पवार में से किसका आदेश माने। दंगा ख़त्म होते ही सुधाकरराव नाईक की कुर्सी चली गई और पवार नए सीएम बनाए गए। दंगों की जांच के लिए श्रीकृष्ण आयोग का गठन किया गया। बहरहाल, श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट आते आते राज्य में शिवसेना-बाजपा की सरकार बन गई थी। आयोग की रिपोर्ट लंबे समय तक भगवा सरकार ने दबाए रखा। जब रिपोर्ट राज्य विधान सभा में पोश की गई तो उसमें तत्कालीन सीपी श्रीकांत बापट, सीएम सुधाकरराव नाईक, शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे समेत कई राजनेताओं और पुलिस अफ़सरों को कठघरे में खड़ा किया गया था। इस बिना पर मनोहर जोशी सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को नामंजूर कर दिया।

कहा जाता है दिसंबर के मुंबई दंगों के बाद दाऊद को दबई में नीले-लाल रंग की चूड़ियों के पार्सल भेजे गए। साथ में बहन की रक्षा न कर पाने वाले संदेश लिखे गए थे। मसलन, ‘अपनी बहनों की इज़्ज़त की हिफ़ाज़त न कर पाने वाले भाई को चूडियों का यह तोहफ़ा मुबारक़ हो।’ इन संदेशों को पढ़कर दाऊद का ख़ून खौल उठा। उसी समय उसने आईएसआई का आग्रह स्वीकार कर लिया और कह दिया, उसके नेटवर्क के ज़रिए हथियार और गोला-बारूद मुंबई भेजे जा सकते हैं। उसने टाइगर मेमन, अनीस इब्राहिम, एजाज़ पठान, मोहम्मद डोसा, मुस्तफा डोसा उर्फ मजनूं के साथ अहम बैठक की। हथियार और अन्य सामान पहुंचाने की ज़िम्मेदारी टाइगर और डोसा को सौंपी गई।

मुंबई सीरियल ब्लास्ट की कोर्ट में पेश की गई चार्जशीट के मुताबिक, 300 सौ से ज़ादा चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 और सैकड़ों की संख्या में ग्रेनेड, मैगज़िन, गोलियां और कई सौ क्विंटल आरडीएक्स मुंबई भेजे गए। कन्साइनमेंट्स रायगड़ के दिघी और शेखाड़ी जेट्टी पर 9 जनवरी से 9 फ़रवरी 1993 के दौरान रात 11 से 3 बजे के बीच उताते गए। लोकल मछुआरों की बड़ी नौकाएं किराए पर ली गईं और 40 मज़दूर काम पर लगाए गए। टाइगर और डोसा की देखरेख में हुए कार्य में टाइगर के राइटहैंड जावेद चिकना और 16 अन्य मुस्लिम साथियों ने मदद की। दिग्घी, शेखाड़ी के लैंडिंग एजेंट दाऊद फनसे उर्फ टकल्या ने अहम रोल निभाया।

खुफिया एजेंसियों ने जनवरी में ही आगाह कर दिया था कि हथियारों और विस्फोटकों का बहुत बड़ा कन्साइनमेंट कोंकण, गोवा, वसई या दमन के रास्ते महाराष्ट्र भेजा जाने वाला है। राजस्व ख़ुफिया निदेशालय को भी ख़बर थी कि 21 और 24 जनवरी 1993 के बीच रायगड़ के रोहिणी और दिग्घी जेटी और वसई तट पर कन्साइनमेंट की लैंडिंग होनी है। यह रायगड़ के पुलिस प्रमुख टीएस भाल और कस्टम अफ़सरान के भी संज्ञान में थी। डीआईआर के एसपीएस पुंढीर और वीएम देओलकर, कस्टम कलेक्टर एसके भारद्वाज भी अवगत थे। दुर्भाग्य से कस्टम के एसएस तलवाडेकर, आरके सिंह, एसएन थापा और विभाग के ढेर सारे लोग मददगार बन गए थे। असलहे मुंबई लाए गए। आरडीएक्स भिवंडी में छिपा दिया गया। हथियारों से भरा ट्रक जंगल के रास्ते गुजरात भेज दिया गया। कस्टम ने उसे ट्रैप भी किया लेकिन रिश्वत लेकर जाने दिया। सामान भरुच के बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में रखा गया। हथियार लोगों तक पहुचाने की ज़िम्मेदारी अबू सालेम पर थी। 9 एके-56, 100 से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर वह कार से मुंबई आया और एक राइफ़ल संजय दत्त को दे दी।

सवाल था, हथियार और विस्फोटक तो आ गए। तबाही कैसे मचाई जाए? लिहाज़ा बम बनाने और राइफ़ल चलाने की ट्रेनिंग के लिए 19 मुस्लिम युवकों को तीन खेप में टाइगर दुबई के रास्ते पाकिस्तान ले गया। सभी को 10 दिन की ट्रेनिंग मिली। वे पाकिस्तान से लौटे तो आतंकवादी थे। 12 मार्च 1993 को देश की आर्थिक राजधानी को दहलाने के लिए एक के बाद एक 13 धमाके हुए । पहला धमाका 1.28 बजे स्टॉक एक्सचेंज में और आख़िरी धमाका 3.25 बजे सेटूर होटेल में हुआ। इस बीच रीजनल पॉसपोर्ट ऑफ़िस, एयर इंडिया बिल्डिंग, सीरॉक और सेंटूर होटेल, शिवसेना भवन के पेट्रोल पंप, प्लाज़ा सिनेमा समेत 11 जगह और धमाके हुए।

जिसमें 257 निर्दोष मारे गए और 700 से ज़्यादा घायल हुए। सुप्रीम कोर्ट ने दाऊद और अनीस को साज़िशकर्ता माना। दाऊद भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की नजरों में मोस्टवॉन्टेड आतंकवादी बन गया। बमकांड में याकूब मेमन को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई। कई लोग उम्रक़ैद या उससे कम सज़ा काट रहे हैं। शांति के पुजारी सुनील दत्त का बेटे फ़िल्म अभिनेता संजय दत्त को हथियार रखने के ज़ुर्म में पुणे के यरवड़ा जेल में सज़ा भोग रहा है। दाऊद का काला धंधा दुबई में चमक रहा था। तभी आया काला शुक्रवार, जिसने उसे ग्लोबल आतंकवादी बना दिया।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 28 – छोटा शकील की सुपारी और बृजेश सिंह, सुभाष ठाकुर की जेजे अस्पताल में खून की होली

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
डी-कंपनी में किसी भी ऑपरेशन के लिए छोटा राजन उर्फ नाना से अप्रूवल लेना छोटा शकील, शरद शेट्टी अन्ना और सुनील सावंत सावत्या को बहुत नागवार लगता था। वे लोग दाऊद से नाना की शिकायत करते तो सेठ हंसकर टाल देता और कहता, “नहीं, आपका आकलन सही नहीं है। नाना यक़ीनन सही और ईमानदारी से काम कर रहा है।” लिहाज़ा, राजन के विरोधी लंबे समय से मौक़ा तलाश रहे थे। इब्राहिम इस्माइल की हत्या का बदला लेना उनके लिए एक अवसर बनकर आया था, क्योंकि डेढ़ महीने से ज़्यादा वक़्त गुज़र जाने तक छोटा राजन कोई एक्शन नहीं ले सका। विरोधी फिर सेठ के पास पहुंचे और कहा, “भाई, जीजाजी के हत्यारों को दंडित करने को लेकर नाना सीरियस नहीं है।” शकील ने ज़ोर दिया कि बदला लेने का कम से कम एक मौक़ा उसे दिया जाए। दाऊद कुछ पल सोचता रहा, फिर पहली बार छोटा राजन से बिना पूछे ही उन्हें ‘गो अहेड’ कह दिया।

भाई की इजाज़त मिलते ही छोटा शकील के ख़ास शरद अन्ना और सावत्या मुंबई रवाना हो गए। गवली गैंग से बदला लेने और दाऊद के प्रति वफादारी साबित करने का यह सुनहरा मौक़ा था। महज़ दो दिन के अंदर शैलेश हल्दनकर और बिपिन शेरे को मारने की साज़िश को अंतिम रूप दे दिया गया। वारदात से पहले अस्पताल के अंदर और बाहर कई बार रेकी की गई। इस रेकी के दौरान शकील को पता चला था कि बिपिन शेरे का इलाज अस्पताल की पहली मंजिल के चार नंबर वार्ड में चल रहा है, जबकि शैलेश हलदनकर तीसरी मंजिल पर 18 नंबर वार्ड में भर्ती है। दोनों जगह पुलिस का सख्त पहरा है। रेकी के दौरान शूटरों ने नोट किया कि पहली मंजिल की खिड़की के बाहर कुछ दूरी पर नारियल का एक बड़ा पेड़ है। उन्होंने तय किया कि इस पेड़ पर चढ़कर पहले बिपिन शेरे का काम तमाम करेंगे और फिर नीचे से सीधे तीसरी मंजिल पर शैलेश हलदनकर के वार्ड में घुस जाएंगे।

ऑपरेशन के लिए हथियार-गोली और बाक़ी ज़रूरी सामान का इंतज़ाम कर लिया गया। 12 सितंबर, 1992 को सबसे पहले डेढ़ बजे दो लोगों जेजे अस्पताल परिसर में सुरक्षा का जायजा लेने प्रवेश किया। रैकी करने के बाद वापस चले गए और एक घंटे बाद फिर वापस आए। दरअसल, शैलेश और बिपिन को अलग-अलग वार्ड में शिफ़्ट कर दिया गया था। पौने चार बजे बृजेश सिंह, सुभाष ठाकुर, बच्ची पांडेय, सुनील सावत्या, श्याम गरिकापट्टी, श्रीकांत राय और विजय प्रधान जैसे ख़तरनाक शूटर जेजे अस्पताल में दाखिल हो गए। वे लोग ऑपरेशन को प्लान के अनुसार कार्यान्वित करना चाहते थे, लेकिन पहली मंजिल पर भर्ती एक मरीज ने उनकी सारी रणनीति पर पानी फेर दिया। दरअसल, उस दिन तेज हवा चल रही थी, इसलिए शायद मरीज ने हवा से बचने के लिए खिड़की का परदा गिरा दिया। लिहाज़ा, शूटरों को अंदर का कुछ दिखाई नहीं पड़ा। इस कारण अत्याधुनिक हथियारों से लैस शूटर सीधे तीसरी मंजिल पर वार्ड 18 में घुस गए। वहां तैनात सबइंस्पेक्टर कृष्ण अवतार गुलाब सिंह ठाकुर से उनका सामना हुआ। उस वार्ड में पूरे 50 सेकेंड तक अंधाधुंध गोलीबारी होती रही।

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शूटआउट में कभी आरोपियों की तरफ से, तो कभी पुलिस की तरफ से गोलियां चल रही थीं। शूटरों में कम से कम दो बुलेट प्रूफ जैकेट पहने हुए थे। बुलेट प्रूफ जैकेट की कहानी इसलिए पता चली, क्योंकि वार्ड 18 में सबइंस्पेक्टर कृष्ण अवतार गुलाब सिंह ठाकुर ने जब एक शूटर को महज़ एक फीट की दूसरी से गोली मारी, तब भी वह घायल नहीं हुआ। शूटरों के पास सिर्फ बुलेट प्रूफ जैकेट ही नहीं थे, बल्कि कई लोगों के हथियार में साइलेंसर भी लगे थे, ताकि गोलियों की तड़तड़हट सुनाई ही न पड़े। पुलिस की ओर से हमलावरों का कड़ा विरोध किया गया लेकिन डी-कंपनी के शूटरों के पास आधुनिक हथियार होने के कारण पुलिस को शिकस्त झेलनी पड़ी। शैलेश का शरीर गोलियों से छलनी हो गया। गोलीबारी में दो पुलिस वाले भी मारे गए। 10 लोग गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुए जिनमें मरीज़, नर्स और पुलिसकर्मी भी शामिल थे।

सबइंस्पेक्टर कृष्ण अवतार गुलाब सिंह ठाकुर के साथ इस केस के बाद बहुत बुरा बर्ताव किया गया। वह गंदी पॉलिटिक्स के शिकार हुए। नवभारत टाइम्स में छपी सुनील मेहरोत्रा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ठाकुर का नाम पहले गैंलेंट्री अवॉर्ड के लिए प्रस्तावित किया गया था, परंतु बाद में उनकी फाइल पुलिस मुख्यालय में ही रोक ली गई। उन्हें उनकी बहादुरी के लिए राज्य सरकार की ओर उन्हें एक लाख रुपए का इनाम देने की भी घोषणा की गई थी, परंतु बाद में पुरस्कार राशि घटाकर 25 हज़ार रुपए कर दी गई। इसके बाद ठाकुर ने यह पुरस्कार लेने से ही मना कर दिया। मुकदमे के दौरान उन्हें कोर्ट में हॉस्टाइल घोषित कर दिया गया, फिर उन्हें पुलिस की नौकरी से निकाल दिया। उन्होंने सरकार से अपील की और अपना पक्ष रखा, तो उन्हें नौकरी में वापस रख दिया गया। अगस्त, 2013 में वह पुलिस सर्विस से रिटायर हो गए।

कुछ लोग तो बताते हैं कि डी-कंपनी के कुल 24 शूटर ऑपरेशन में शामिल थे। इसी बात पर छोटा राजन ने कड़ी आपत्ति जताई कि इन लोगों ने इतना तामझाम किया और केवल एक हत्यारे को ही मारा जा सका जबकि दूसरे का बाल भी बांका नहीं हुआ। मुंबई में यह पहला हत्याकांड था, जिसमें एके 47 राइफ़ल, माउज़र और 9 एमएम पिस्तौल का इस्तेमाल किया गया। दोनों ओर से कुल 500 राउंड गोलियां चलीं। ऑपरेशन में दाऊद गैंग को भिवंडी-निज़ामपुर के मेयर जयंत सूर्याराव, तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय के भतीजे वीरेंद्र राय और उल्हासनगर के कांग्रेस विधायक पप्पू कालानी से लॉजिस्टिक सपोर्ट मिला।

जेजे शूटआउट में कुल 24 लोग आरोपी बनाए गए थे। 9 अभी भी वॉन्टेड हैं। इस केस के आरोपी सुनील सावंत उर्फ सावत्या की दुबई में हत्या हो गई, जबकि सुभाष सिंह ठाकुर और बच्ची पांडेय को आजीवन कारावास की सजा हुई। यूपी के डॉन बृजेश सिंह और वीरेंद्र राय बरी कर दिए गए। कई आरोपी इसलिए भी बरी कर दिए गए, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि मुकदमे के दौरान कई गवाहों को अंडरवर्ल्ड से धमकी भरे फोन आते थे। खुद सबइंस्पेक्टर कृष्ण अवतार गुलाब सिंह ठाकुर को भी धमकी भरे फोन कॉल आते थे। टाडा कोर्ट में मुंबई पुलिस इनके ख़िलाफ़ पुख़्ता सबूत दे पाने में नाकाम रही। बृजेश सिंह 14 साल बाद पुलिस के हाथ लगा था। उसे दिल्ली और उड़ीसा पुलिस ने 24 जनवरी 2008 को भुवनेश्वर से गिरफ्तार किया था। आजकल वो उत्तर प्रदेश विधान परिषद का सदस्य है। 2022 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का उम्मीदवार बन सकता है।

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 27 – दाऊद की बहन हसीना पारकर के पति इब्राहिम पारकर की दिन-दहाड़े हत्या

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
26 जुलाई 1992 को दोपहर ढाई बजे का वक़्त था। स्थान नागपाड़ा की अरब गली। वहीं होटेल क़ादरी के सामने सड़क पर इब्राहिम इस्माइल पारकर अपने ड्राइवर सलीम पटेल के साथ बातचीत में मशग़ूल था। अचानक दो मोटर साइकल से चार लोग वहां पहुंचे और इब्राहिम पर अंधाधुंध फ़ायर कर दिया। अचानक से हुए इस हमले में कई गोलियां इब्राहिम के जिस्म में समा गईं। इब्राहिम तो वहीं गिर पड़ा। संभवतः इतनी गोली लगने से घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। उसके ड्राइवर को जेजे अस्पताल ले जाया गया, जहां उसने भी दम तोड़ दिया। चारों हमलावर गवली गैंग के शूटर थे जिनमें शार्प शूटर शैलेश हल्दनकर और बिपिन शेरे भी शामिल थे।

दरअसल, 1990 के आस-पास दाऊद इब्राहिम अरुण गवली के शूटरों को चुन-चुनकर मरवा रहा था। दाऊद बेदह मजबूत था, क्योंकि उसका सिंडिकेट पेशेवर तरीक़े से ऑर्गनाइज्ड था। ऐसे में गवली गैंग को कोई सुराग मिल ही नहीं रहा था, जिसे पकड़कर वो दाऊद तक पहुंच सके। इसी सिलसिले में जब दाऊद ने अरुण गवली के भाई पापा गवली को मरवा दिया, तो अरुण और उसका गैंग फट सा पड़ा। वस्तुतः मुंबई की क्रिमिनल इंडस्ट्री में एक अघोषित नियम यह रहा है कि दो अपराधियों की दुश्मनी के बीच घरवाले और रिश्तेदार कभी नहीं आते है। आपकी जिससे दुश्मनी है, आप उससे ही निपटिए। पैसे का मामला हो या वर्चस्व का, आप सामने वाले के घरवालों पर हाथ नहीं डालेंगे। मजेदार बात यह है कि मुंबई पुलिस भी इस अघोषित नियम का अपराधियों की तरह ही पालन करती है।

पापा गवली की हत्या करके दाऊद इब्राहिम ने इस अघोषित नियम को तोड़ दिया था। पापा गवली की सरेआम हत्या से बौखलाए गवली ने भी इस नियम को तोड़ने का फ़ैसला किया दिया। पापा और अशोक जोशी की हत्या गवली के लिए सदमे से कम नहीं थी। जब अरुण को पता चला कि गाड़ी का मालिक मनोज कुलकर्णी है तो उसने चार लोगों को उसके घर भेजा। वे लोग खुद को क्राइम ब्रांच का अधिकारी बताकर मनोज से साथ चलने के लिए कहने लगे। बाद में गवली के इनक्वायरी रूम में मनोज का मर्डर कर दिया गया। बहरहाल, गवली इतने से शांत नहीं हुआ। उसने भी दाऊद को ऐसी चोट देने की योजना बनाई जिससे वास्तव में दाऊद रोए और भावनात्मक रूप से ज़ख्मी हो जाए और जिंदगी भर कराहता रहे। पश्चाताप करता रहे। लिहाज़ा, गवली ने दाऊद की पांच बहनों में सबसे प्यारी हसीना पारकर के शौहर इब्राहिम का गेम बजाने की योजना बनाई।

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1959 में पैदा हुई हसीना दाऊद से छोटी और 12 भाई-बहनों में सातवें नंबर पर थी। इब्राहिम कासकर के सारे बच्चे महाराष्ट्र के रत्नागिरि में पैदा हुए थे। दाऊद ने भाई साबिर के साथ डी-कंपनी शुरू की थी। उसकी पाँच बहनें सईदा, फरजाना, मुमताज, जैतून और हसीना थीं, लेकिन उसके धंधे में उसकी किसी बहन के लिए जगह नहीं थी। उसमें भी हसीना दाऊद की सबसे चहेती थी। ज़ाहिर है, सबसे प्रिय बहन के शौहर की हत्या से दाऊद को उसी तरह का दर्द होगा, जैसा दर्द गवली को उसके भाई की हत्या के बाद हुआ। इब्राहिम होटेल क़ादरी का मालिक था। लंबा, सुगठित शरीर वाला पारकर भी कोंकणी मुस्लिम समुदाय का था। वह पार्टटाइम ऐक्टिंग भी कर लेता था। वह जूनियर फिल्म आर्टिस्ट था, लेकिन बताते हैं कि बाद में उसने होटल का धंधा कर लिया। हसीना से उसका निकाह दाऊद की मर्जी से हुआ था।

इब्राहिम इस्माइल की हत्या की ख़बर से दाऊद परिवार और डी गैंग में उसी तरह हाहाकार मचा जैसे साबिर की हत्या से मचा था। दुबई में बैठे दाऊद ने सोचा भी नहीं था, कोई उसके बहनोई की ओर आंख उठाकर देख भी सकता है। यह हत्या उसके लिए बहुत बड़ा निजी आघात था। डॉन ने बदला लेने की कसम खाई। गवली गिरोह के लोग इतने पर नहीं रुके। जो भी हो डॉन की बहन हसीना जिसकी 17 साल में शादी हुई, पति की मौत के बाद अपराध की दुनिया की मल्लिका बन गई। आगे चलकर हसीना पारकर को मुंबई की ‘गॉडमदर’ बनी। उसका दक्षिण मुंबई ही नहीं संपूर्ण मुंबई और आसपास के इलाक़े में काफी दबदबा कायम हो गया। कहतें हैं कि उनकी मर्जी के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता था. यही कारण था कि लोग उसे लेडी डॉन और पता नहीं किस किस नाम से भी बुलाते थे। हसीना के धंधे में आने की कहानी एकदम फिल्मी है। हसीना पारकर पर ‘गॉडमदर’ फिल्म भी बनी थी, जिसमें हसीना का किरदार श्रद्धा कपूर ने निभाया था।

हैरान करने वाली बात यह रही कि 30 अगस्त 1992 की रात शैलेश, शेरे, राजू बटाटा और संतोष पाटिल ने फिर धावा बोला। कुंभारवाड़ा में दाऊद के ख़ास आदमी पर फ़ायर कर दिया। दो दिन बाद 2 सितंबर की सुबह वे दोनों फिर उस इलाक़े में देखे गए। इस बार भी वे लोग दाऊद के किसी ख़ासमख़ास को मारने की फिराक में थे। बहरहाल, उनकी मूवमेंट की सूचना किसी ने नागपाड़ा पुलिस को दे दी। पुलिस वहां पहुंची और शैलेश और विपिन को दौड़ाकर पकड़ लिया। तीसरा अपराधी राजू वहां से सिर पर पैर रखकर भागने में सफल रहा। गिरफ़्तारी के बाद स्थानीय लोगों ने दोनों गुंडों को पुलिस से छीन लिया और उनकी जमकर पिटाई की। इतना मारा कि दोनों अपराधी अधमरे हो गए। सीरियस हालत में उन्हें जेजे अस्पताल भेजा गया। वे तीसरी मंज़िल पर वार्ड 18 में भर्ती कराए गए। सुरक्षा के लिए एक पीएसआई समेत चार पुलिस वालों की ड्यूटी लगा दी गई।

सुपर बॉस के जीजा की हत्या का फ़ौरन बदला लेने की पूरी और इकलौती ज़िम्मेदारी गैंग में नंबर दो होने के नाते छोटा राजन की थी। उसने मुंबई में अपने शार्प शूटरों से कह दिया था कि हत्यारों की जल्द से जल्द गेम बजाकर उसे सूचित करें, लेकिन उसके शूटरों के लिए जेजे अस्पताल के घेरे को तोड़ पाना मुश्किल हो रहा था। उनके लिए शैलेश तक पहुंचना बहुत कठिन हो रहा था। छोटा राजन ने वफ़ादार सिपाही की हैसियत से कहा, “भाई जीजाजी की हत्या का बदला मैं ख़ुद लूंगा।” उसने डॉन को बताया कि हत्यारे फिलहाल जेजे अस्पताल में एडमिट हैं और वहां फिलहाल बहुत कड़ी सिक्यूरिटी लगी हुई है। जिससे शूटर उन तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। राजन ने भरोसा दिया कि जिस दिन शैलेश और बिपिन डिस्चार्ज होंगे, वह दिन उनका आख़िरी दिन होगा। इसके अलावा राजू बटाटा और संतोष पाटील को भी फॉलो किया जा रहा है, उनका गेम कभी भी बज सकता है।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 26 – गैंगस्टर माया डोलस और बहुचर्चित लोखंडवाला एनकाउंटर

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

मुंबई पुलिस कमिश्नर रहे भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी जूलियो फ्रांसिस रिबेरो के कार्यकाल में मुंबई में अपराधियों का सफाया करने के लिए शुरू की गई पुलिस मुठभेड़ यानी अतिरिक्त न्यायिक हत्या यानी एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग का सिलसिला इस सदी के आरंभ तक जारी रहा। इस दौरान पुलिस ने मुठभेड़ के नाम पर हजारों अपराधियों को मार गिराया।चूकिं पुलिस समाजविरोधी तत्वों का सफाया करने में जुटी हुई थी, इसलिए इस अतिरिक्त न्यायिक हत्या का जनता ने विरोध भी नहीं किया। सबसे अहम बात पुलिस इन हत्याओं को मुठभेड़ करार देती रही है। लेकिन मुंबई पुलिस के इतिहास में केवल एक एनकाउंटर ऐसा हुआ, जिस पर कभी कोई विवाद नहीं खड़ा हुआ, क्योंकि वह इकलौता इनकाउंटर था और वह था लोखंडवाला इनकाउंटर। सबसे अहम बात यह रही कि लोखंडवाला मुठभेड़ की भी टिप दाऊद इब्राहिम कासकर ने बगावत करने वाले अपने शूटरों को ख़त्म करने के लिए दी थी।

दरअसल, दगड़ी चॉल पहले दाऊद इब्राहिम और उसके गिरोह डी-कंपनी के साथ था, लेकिन बाबू रेशिम और रमाकांत नाईक की हत्या के बाद दाऊद से अरुण गवली और गवली गैंग की दूरी अचानक बहुत ज़्यादा बढ़ गई। इसी दौरान डी-कंपनी ने गवली के भाई किशोर गवली उर्फ पापा की माहिम के शीतलादेवी मंदिर के पास हत्या करवा दी। इसके बाद तो गवली दाऊद का कट्टर दुश्मन हो गया। गवली के साथी अशोक जोशी ने रमाकांत और पापा की हत्या का बदला लेने की शपथ ली। चार महीने बाद 21 नवंबर 1988 को भायखला चौराहे पर दाऊद के ख़ास आदमी सतीश राजे की कार में हत्या कर दी गई। सतीश दाऊद गैंग का मुंबई चीफ़ था और दाऊद के भाई नूरा से मिलने जा रहा था।

सतीश राजे की हत्या डी कंपनी की रीढ़ पर वार जैसी थी। इससे दाऊद तिलमिला उठा और चार दिन बाद 25 नंवबर को गवली के ख़ास अरविंद ढोलकिया मार डाला गया। दो दिन बाद होटलियर मनु करमचंदानी की हत्या कर दी गई। 12 दिन बाद 3-4 दिसंबर 1988 की रात पुणे जाते समय छोटा राजन, माया डोलस, भाई ठाकुर और सुनील सावंत सावत्या ने पनवेल के पास अशोक जोशी, सतीश शंकर सावंत, दिलीप लांडगे और करूपाकर हेगड़े को एक 47 राइफल से छलनी कर दिया। बहरहाल, महीने भर माफिया गिरोह आपस में खून की होली खेलते रहे। जिसमें ढेर सारे अपराधी मारे गए। बाबू रेशिम और रमाकांत के बाद ब्रा गैंग में केवल गवली बचा। विरोधियों और पुलिस से बचता हुआ वह दाऊद के समांतर डॉन बनकर उभरा।

वैसे डी-कंपनी की मुख़ालफ़त करने वालों में अमर नाईक, दशरथ रोहणे और तान्या कोली भी थे। ये लोग हफ्ता वसूली, अपहरण और सुपारी हत्याएं कर रहे थे। छोटा राजन के दाऊद के साथ होने के कारण ये लोग उसकी जान के भी दुश्मन बने हुए थे। बहरहाल, दाऊद गैंग और गलवी गिरोह के बीच हुए गैंगवार में ढेर सारे अपराधियों का अपने आप सफ़ाया हो गया। यह पुलिस के लिए एक तरह से सकारात्मक बात थी, लेकिन शहर में दिन दहाड़े हो रही इन हत्याओं से पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे। इसी दौरान 16 नवंबर 1991 को एक ऐसी घटना हुई जो आज भी लोगों के जेहन में तरोताज़ा है। वह घटना थी लोखंडवाला एनकाउंटर। कई लोग कहते हैं कि मुंबई पुलिस ने अब तक केवल एक ही ऐसा इनकाउटर किया जिसे सही मायने में इनकाउंटर कहा जा सकता है।

इनकाउंटर का शतक लगाने वाले प्रदीप शर्मा, विजय सालास्कर और दया नायक जैसे इनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स ने भी जितने इनकाउंटर किए जब फिलिंग द ब्लैंक जैसे थे। मसलन, पुलिस को टिप मिली कि अमुक गिरोह का अमुक अपराधी किसी काम के सिलसिले में या किसी से मिलने के लिए अमुक समय पर अमुक जगह आने वाला है। इसके बाद पुलिस ने उस जगह ट्रैप लगा दिया। जैसे ही अपराधी वहां पहुंचा पुलिस टीम ने उसे हथियार डालने की निर्देश दिया, लेकिन अपराधी ने पुलिस टीम पर फायर कर दिया। लिहाज़ा, पुलिस टीम को आत्मरक्षा में न चाहते हुए भी जवाबी फ़ायरिंग करनी पड़ी। जवाबी गोलीबारी में अपराधी बुरी तरह घायल हो गया। घायल अवस्था में उसको फौरन अमुक अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे डेड बीफोर एडमिशन घोषित कर दिया।

वह 16 नवंबर 1991 की सुबह थी। मुंबई में सर्दियां अभी शुरू नहीं हुई थीं। अडिशनल कमिश्नर (नॉर्थ जोन) आफताब अहमद ख़ान कार्टर रोड, बांद्रा पश्चिम दफ़्तर में बैठे थे। उनको सूचना मिली, डी कंपनी का ख़तरनाक अपराधी दिलीप बुआ लोखंडवाला की एक इमारत में कई दिन से देखा जा रहा है। एए खान ने सूत्रों से इस जानकारी को वेरीफ़ाई किया तो सूचना सही निकली। प्रत्यक्षदर्शी ने उन्हें बताया कि आरटीओ के पास स्वामी समर्थ नगर के अपना घर सोसाइटी में बड़ी महंगी गाड़ियां खड़ी हैं। फ़्लैट में रहने वाले लोग अपराधी प्रवत्ति के लग रहे हैं। उन दिनों एस राममूर्ति मुंबई के पुलिस कमिश्नर थे। बस क्या था, पुलिस मुख्यालय से एक टीम अंधेरी के लिए रवाना कर दी गई जिसे बांद्रा में एए ख़ान ने बतौर लीडर जॉइन कर लिया।

दिलीप बुवा का जन्म 1966 में मुंबई के कांजूरमार्ग में हुआ था। कांजूरमार्ग और घाटकोपर शुरू से ही अपराधियों के लिए ऊर्वर भूमि रही हे। वहा से एक से बढकर एक अपराधी निकले। यही से दिलीप बुवा कम उम्र में ही अपराधियो के संगत में आ गया और धीरे धीरे उस दौर का सबसे बड़ा शार्प शूटर बन गया। 1980 के दशक के आखिरी चरण में बुवा से बड़ा कोई शूटर मुंबई में नही था। उसके निशाने को देखकर रमा नाईक ने उसे अपना बॉडीगार्ड रख लिया था और लंबे समय तक वह रमा के साथ ही रहा था। दिलीप बुआ के ख़िलाफ़ कई सारे केस विभिन्न पुलिस स्टेशनों में दर्ज थे। का तो यह भी जाता है कि रमा के सैलून में होने की टिप दिलीप ने ही दाऊद को दी थी। बहरहाल, एए ख़ान, तीन इंस्पेक्टर्स, छह एसपीआई और सात कॉन्सटेबल्स की पुलिस टीम ने अपना घर सोसाइटी के परिसर में प्रवेश किया। उत्तर-पश्चिमी कोने की स्वाति अपार्टमेंट के ए-विंग में ग्राउंड फ़्लोर पर फ़्लैट नंबर पांच में दिलीप बुआ के होने की ख़बर थी। दो दरवाज़े वाला यह इकलौता फ़्लैट था। उत्तरी दरवाजा सीढ़ी के पास खुलता था, दक्षिणी दरवाज़ा बाहर कॉम्प्लेक्स की ओर। सामने दो मारुति इस्टीम कारें खड़ी थीं, जिन्हें देखकर लग गया कि यहां दिलीप बुआ तो है ही, उसके साथ और भी कई लोग हैं।

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पुलिस के लोग जानते थी कि बुआ मारुति इस्टीम कार से ही चलता है। आम आदमी के लिए तब मारुति 800 कार खरीदना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। मारुति इस्टीम की बात करें तो वह कार विरला लोगों के पास ही हुआ करती थी। बहरहाल, इंस्पेक्टर एमए क़ावी ने इलाक़े का मुआयाना करके ऑपरेशन का एक अचूक रोडमैप तैयार किया। रोपमैप ऐसा था कि कोई भी अपराधी भागकर निकल न सके। पुलिस की दो टीमें दोनों दरवाज़ों से फ्लैट में घुसने वाली थीं। बाक़ी लोग कवर देने के लिए बाहर विभिन्न जगह पोजिशन लेने वाले थे।

एमए क़ावी के नेतृत्व में पूरी तैयारी के साथ पुलिस का ऑपरेशन एक बजे शुरू हो गया। कावी एक पुलिस वाले के साथ दरवाज़े पर पहुंचे तो पता चला कि तेज़ वॉल्यूम पर फ़िल्म चल रही है। क़ावी ने दरवाज़े को धक्का मारकर अंदर प्रवेश किया। दिलीप बुआ सामने बैठा दिखा। उसकी रिवॉल्वर तिपाई पर रखी थी। उसने फ़ौरन रिवॉल्वर उठाई और फ़ायर कर दिया। गोली सीधे सबइंपेक्टर झुंझर राव घरल के सीने में लगी। घरल वहीं गिर पड़े। आसपास ख़ून फैल गया। क़ावी ने कवर फ़ायर करते हुए उन्हें बाहर खींच लिया, लेकिन इसी दौरान उन्हें भी गोली लग गई। अंदर केवल बुआ ही नहीं, बल्कि कई और अपराधी थे। लिहाज़ा, हेडक्वार्टर से अतिरिक्त पुलिस फ़ोर्स मंगाई गई।

उस समय प्राइवेट टीवी न्यूज़ नहीं शुरू हुए थे और न ही लाइव टेलीकास्ट का दौर नहीं था। वरना मुंबई ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया उस एनकाउंटर का लाइव टेलीकास्ट देखती। उस समय मोबाइल या एसएमएस अथवा वॉट्सअप भी नहीं थे,  इसके बावजूद पूरी मुंबई में ख़बर घूमने लगी। प्रिंट मीडिया में ख़बर पहुंच गई कि लोखंडवाला में लाइव एनकाउंटर चल रहा है। मीडिया के लोग वहां पहुंचने लगे। दो बजे तक अपना घर परिसर किसी किले में तब्दील हो गया। ब्रेकिंग न्यूज़ यह थी कि डी-कंपनी का ख़तरनाक शूटर महेंद्र डोलस उर्फ माया डोलस भी फ़्लैट में मौज़ूद था। दरअसल, नब्बे के दशक के आरंभ तक माया बेहद ख़तरनाक अपराधी बन गया। वह दाऊद के लिए काम करता था। बहुत जल्दी ही मुंबई में वह दाऊद का बिज़नेस संभालने लगा था।

माया डोलस का जन्म मुंबई के प्रतीक्षा नगर मे हुआ था। उसे सब माया के नाम से बुलाते थे। माया अपने पिता बिठोबा डोलस और मां रत्न प्रभा के छ: संतानों में से एक था। उसने मैट्रिक के बाद मुंबई के एक संस्थान से आईटीआई कर लिया, लेकिन नौकरी नहीं की। 22 साल कि उम्र मे ही वह अशोक जोशी गैग शामिल हो गया। थोड़े ही दिनों में इस धंधे में उसने अपनी धाक जमा ली। डोलस अशोक जोशी गैंग के लिए कंजूर गांव से अपने सारे कारोबार को संचालित करता था। जल्द ही वह गैग का टॉप शूटर बन गया। पनवेल शूटआउट में अशोक जोशी के मारे जाने के बाद छोटा राजन ने माया डोलस को दाऊद गैंग में शामिल कर लिया और अब माया दाऊद के लिए काम करने लगा। उसने जल्दी ही मुंबई में वह अपनी मर्जी से बिल्डरों धमकाने और उनसे फिरौती वसूलने लगा।

कुछ दिन बाद ही माया डोलस और दिलीप बुआ दोनों ने दाऊद से विद्रोह कर दिया। दाऊद का कोई आदमी बग़ावत करे, यह दाऊद को मंजूर नहीं। रमाकांत नाईक ने भी दाऊद से बग़ावत की तो दाऊद ने पुलिस को उसकी टिप दे दी। अब माया डोलस और दिलीप बुआ ने दाऊद से बग़ावत की तो डॉन ने पुलिस को उनकी भी टिप दे दी। माया डोलस उस समय तक शहर का सबसे ख़तरनाक अपराधी बन चुका था। वह कई लोगों की हत्या कर चुका था और बेख़ौफ़ हफ़्ता वसूली कर रहा था। उसी साल माया 14 अगस्त को पुलिस टीम पर हमला करके पुलिस हिरासत से फ़रार हो गया था। उसने अशोक जोशी के मारे जाने से पहले भांडुप के गणपति पंडाल में उसकी हत्या की कोशिश की थी, उसी आरोप में वह गिरफ़्तार किया गया था।

बहरहाल, पुलिस की सूचना के अनुसार फ़्लैट में दूसरे शूटर गोपाल पुजारी, अनिल खूबचंदानी, राजू नादकर्णी और अनिल पवार थे। एए ख़ान लाउडस्पीकर के ज़रिए अपराधियों को आत्मसमर्पण कर देने की सलाह दे रहे थे। उसी समय दिलीप बुआ एक अज्ञात युवक के साथ दक्षिणी दरवाज़े से कार की ओर भागा, लेकिन दोनों के जिस्म को गोलियों से छलनी कर दिया गया। उसके बाद गोपाल और राजू ने सीढ़ियों की ओर बढ़ने की कोशिश की। गोपाल को पुलिस ने पहली मंज़िल पर पहुंचते-पहुंचते मार गिराया जबकि राजू और ऊपर गया लेकिन दूसरी मंज़िल पर वह भी ढेर कर दिया। पुलिस ने बहुत देर तक इंतज़ार किया लेकिन अनिल खूबचंदानी नहीं दिखा। मान लिया गया कि उसका भी काम तमाम हो गया।

अंत में माया डोलस और अनिल पवार कमरे से निकले और सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगे। ऊपर जाने की कोशिश के दौरान दोनों अपराधी पुलिस द्वारा मार गिराए गए। मुंबई के इतिहास में उस समय तक वह पहला और इकलौता गैरविवादित मुठभेड़ था। छह अपराधियों के साथ-साथ एक पुलिस वाला जो ऑपरेशन कर रही पुलिस टीम का हिस्सा नहीं था, भी मारा गया। उसकी शिनाख़्त 28 साल के विजय चाकोर के रूप में की गई। वह यरवड़ा जेल में सिपाही था। पुलिस समझ नहीं पाई कि वह फ़्लैट में किसलिए आया था? बहरहाल, इस सफलता के बाद पुलिस कमिश्नर एस राममूर्ति को हटाने की चर्चा थम गई।
(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 25 – सब-इंपेक्टर राजन कटधरे ने सैलून में रमा नाईक का किया एनकाउंटर

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
बाबू गोपाल रेशिम की लॉकअप में हुई हत्या से रमाकांत गिरोह का सबसे मज़बूत स्तंभ ढह गया। अब गैंग में केवल दो डॉन रमाकांत नाईक और अरुण गवली बचे थे। कहा जाता है कि हालांकि बाबू रेशिम की हत्या में अप्रत्यक्ष रूप से दाऊद इब्राहिम की अहम भूमिका थी। इसलिए बाबू की हत्या की घटना के बाद अरुण गवली का दाऊद पर से भरोसा बिल्कुल ही उठ गया था। हालांकि गैंग का सरगना रमाकांत नाईक इसके बावजूद दाऊद को अपना दोस्त मानता रहा। बताया जाता है, रमाकांत नाईक का शरद शेट्टी उर्फ अन्ना के साथ पश्चिमी उपनगर मालाड में एक बड़े भूखंड को लेकर विवाद हो गया था। दोनों ही अपराधी दाऊद के ख़ासमख़ास थे।

अपराध और हफ्ता वसूली के बाद ड्रग और सोने-चांदी की तस्करी से दाऊद को सबसे अधिक पैसे आते थे। शरद अन्ना तस्करी के कारोबार में दाऊद का दाहिना हाथ माना जाता था। शरद अन्ना की बदौलत ही दाऊद का तस्करी का कारोबार बहुत अधिक बढ़ गया था। इसलिए एक तरह से दाऊद का मेन फाइनेंसर बन गया था। इसी तरह रमाकांत नाईक बचपन से दाऊद के साथ खेला-खाया था। वह उसका दोस्त ही नहीं, बल्कि अपराध-जगत में उसका क़रीबी सहयोगी भी था। कई मौक़े पर वह दाऊद के लिए बहुत अधिक उपयोगी साबित हुआ था। समद ख़ान को मारने के लिए बाबू रेशिम के साथ उसने ख़ुद दाऊद का साथ दिया था। इस तरह दाऊद का वह बहुत महत्वपूर्ण सहयोगी बन गया था।

लिहाज़ा, दाऊद दोनों में से किसी को नाराज़ या दुखी नहीं करना चाहता था। वह चाहता था कि कोई एक स्वेच्छा से अपना दावा छोड़ दे, जिससे भूखंड का वह विवाद सुलझ जाए। जब टेलीफोन पर मामला हल नहीं हुआ तो दोनों को दुबई बुलाया गया। दाऊद ने ह्वाइट हाऊस में ही दोनों की बात ध्यान से सुनी। दाऊद को शरद अन्ना का दावा ज़्यादा सही लगा। उसने रमाकांत से कहा कि मालाड का वह भूखंड वह अन्ना को दे दे। रमाकांत को ऐसी उम्मीद नहीं थी, उसे विश्वास था कि भाई उसके पक्ष में फ़ैसला देगा। उसे दाऊद का फ़ैसला एकतरफ़ा लगा। इससे वह ख़ासा नाराज़ भी हुआ लेकिन नाराज़गी ज़ाहिर किए बिना दुबई से वापस लौट आया। गवली ने उसे समझाया कि दाऊद पर अब और भरोसा करना ठीक नहीं है। दाऊद समय के साथ पूरी तरह बदल गया है। लिहाज़ा, रमाकांत नाईक ने भी दाऊद का समझौता ही मानने से ही इनकार कर दिया।

दाऊद दुबई में बैठकर संपूर्ण मुंबई के अंडरवर्ल्ड को कंट्रोल कर रहा था। ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी ने उसकी बात मानने से खुले तौर पर इनकार किया हो। दाऊद ने सोचा भी नहीं था कि रमाकांत महज़ एक भूखंड के लिए उसके साथ बचपन की दोस्ती ख़त्म कर सकता है। उसकी बात मानने से इनकार कर सकता है। लेकिन यहां ऐसा ही हुआ। रमाकांत ने शरद अन्ना को बता दिया कि भूखंड पर उसका दावा बरकरार है। वह दाऊद का समझौता नहीं मानता है। अपने आदेश का उल्लंघन दाऊद बिलकुल सहन नहीं कर पाता था। वह तुरंत कोई न कोई एक्शन करता था। रमाकांत के मामले में भी वही हुआ। रमाकांत की बग़ावत दाऊद के लिए बहुत सीरियस और ख़तरे की घंटी थी। दाऊद के मुंह से निकला, “कुछ तो करना पड़ेगा बाप।”

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21 जुलाई 1988 की सुबह नागपाड़ा पुलिस स्टेशन में तैनात सब-इंपेक्टर राजन कटधरे जैसे ही पुलिस स्टेशन पहुंचे। ऑफिस के फोन की घंटी ने उनका स्वागत किया। उन्होंने रिसीवर उठाया तो आवाज़ साफ़ नहीं आ रही थी। फोन में ऐसा डिस्टर्बेंस तब होता था, जब कॉल विदेश से आया हो। फोन करने वाला बहुत तहज़ीब से बातें कर रहा था। दोनों के बीच क्या बात हुई? यह तो किसी को पता नहीं। लेकिन फोन रखते ही राजन कठधरे को एक्शन में देखा गया। चुनिंदा पुलिस वालों की टीम को लेकर वह थाने से फौरन निकल दिया। उनकी पुलिस जीप हवा से बात करती हुई उत्तर-पूर्व की ओर भागी जा रही थी। कटधरे जैसा बता रहे थे, ड्राइवर वैसा ही चला रहा था।

जीप में पीछे बैठे पुलिसवालों को पता नहीं था, वे कहां जा रहे हैं। बहरहाल, जीप चेंबूर पहुंच गई और एक हैयर कटिंग सैलून के सामने रुक गई। पुलिस का ब्रेक सुनते ही सैलून में हरकत हुई। अंदर से किसी ने फ़ायर कर दिया। जवाब में पुलिसवालों ने पोज़िशन ले ली। दोनों तरफ़ से फायरिंग शुरू हो गई। इससे पूरे इलाक़े में ख़ौफ़ पसर गया। राजन कटधरे ने हिम्मत दिखाई और आगे बढ़कर बहुत क़रीब से फ़ायर किया। गोली अंदर से फायरिंग कर रहे व्यक्ति को लग गई। वह ज़ोर से चीख पड़ा। उसके बाद अंदर से फ़ायरिंग बंद हो गई। सूचना पाकर स्थानीय चेंबूर पुलिस स्टेशन की पुलिस फौरन वहां पहुंच गई। सैलून के दरवाज़े पर हमलावर ज़मीन पर गिरा पड़ा था। उसके शरीर में हरकत हो रही थी। अंततः राज़ खुला कि वह तो बेहद ख़तरनाक अपराधी रमा नाईक है। वह इस सैलून में बाल कटाने अकसर आता था, क्योंकि बग़ल में उसकी प्रेमिका हिल्डा काम करती थी।

चेंबूर पुलिस स्टेशन की ओर से एक रिपोर्ट तैयार की गई। वह इस प्रकार थीः 21 जुलाई 1988 को सुबह पुलिस को सूचना मिली कि वांछित अपराधी रमाकांत नाईक चेंबूर के एक सैलून में बाल कटवा रहा है। नागपाड़ा पुलिस स्टेशन में तैनात सब-इंपेक्टर राजन कटधरे के नेतृत्व में नागपाड़ा पुलिस फ़ौरन चेंबूर के लिए रवाना हुई। पुलिस जैसे ही सैलून के पास रुकी, रमाकांत नाईक ने अंदर से पुलिस टीम पर फायर कर दिया। आत्मरक्षा में पुलिस टीम को न चाहते हुए भी जवाबी फ़ायरिंग करनी पड़ी। जवाबी गोलीबारी में रमाकांत बुरी तरह घायल हो गया। घायल अवस्था में रमा को फौरन राजावड़ी अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे डेड बीफोर एडमिशन घोषित कर दिया। बाद में यह मुठभेड़ के बारे में पुलिस का यह प्रेस रिलीज मॉडल प्रेस रिलीज बन गई।

बहरहाल, दूसरे दिन अख़बारों में छपी रिपोर्ट्स में एनकाउंटर पर गंभीर संदेह जताया गया। एक राष्ट्रीय अख़बार में क्राइम संवाददाता ने यहां तक दावा किया कि दरअसल, रमाकांत नाईक की हत्या दाऊद के चाचा अहमद अंतुले और डैनी ने मिलकर धोथे से जुहू में कर दी थी। उसे मारने के बाद उसकी बॉडी राजन कटधरे को सौंप दी गई। इस तरह राजन ने रमाकांत को मार गिराने का क्रेडिट ख़ुद ले लिया। कई अख़बारों में यह रिपोर्ट भी छपी कि दाउद के इशारे पर ही राजन कटधरे ने चेंबूर जाकर रमा नाईक का एनकाउंटर किया। हक़ीक़त यह है कि वह नागपाड़ा पुलिस स्टेशन में पोस्टेड था और चेंबूर का इलाक़ा उसके ज्यूरिडिक्शन में भी नहीं आता। फिर वह चेंबूर क्यों और कैसे पहुंच गया? मुठभेड़ और कटधरे की भूमिका की मजिस्ट्रेट जांच हुई।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 24 – कंजरी छोकरे विजय उटकर ने की ‘ब्रा गैंग’ के डॉन बाबू रेशिम की पुलिस लॉकअप में हत्या

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
दाऊद इब्राहिम कासकर के मुंबई से दुबई शिफ़्ट होने के बावजूद उसकी विरोधियों के साथ तनातनी बनी रही। पठान गैंग और दाऊद गैंग के बीच संघर्ष शुरू हुआ गैंगवार बहुत भयानक चरण में पहुंच गया था। दोनों गिरोह के लोग एक दूसरे के आदमियों के खून के प्यासे थे और जहां मिलते थे, वहीं टपका देते थे। उस समय दक्षिण-मध्य मुंबई का बेहद ख़तरनाक हत्यारा माने जाने वाले बाबू गोपाल रेशिम की दुस्साहसपूर्ण डंग से हुई अप्रत्याशित हत्या से सब के सब हैरान रह गए थे। 1970 के दशक में रमाकांत नाईक, बाबू रेशिम और अरुण गवली अंडरवर्ल्ड के डॉन बन चुके थे। तीनों साथ काम करते थे और रमाकांत नाईक गैंग का सरगना था। गैंग में बाबू रेशिम नंबर टू था और अरुण गवली तीसरे नंबर पर था। उनके गिरोह को ब्रा गैंग कहा जाता था। ब्रा मतलब बीआरए था।

इन तीनों अपराधियों का मझगांव, भायखला और मुंबई सेंट्रल, के अलावा महालक्ष्मी, चिंचपोकली और परेल जैसे इलाक़े में दबदबा था। दुकानदार और व्यापारी इन तीनों को हफ़्ता दिया करते थे। बाबू रेशिम 12 साल की उम्र से ही अपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो गया था। वह पहले एक होटल में बर्तन साफ़ करने का काम करता था। बाद में उसे मज़गांव डॉक की कंटीन में नौकरी मिल गई। कई साल तक उसने वहां काम किया, लेकिन अचानक एक गंभीर अपराध में उसका नाम आने पर उसे पुलिस उठाकर ले गई। इस घटना के बाद उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया।

बाबू रेशिम के आपराधिक जीवन में निर्णायक मोड़ तब आया जब उसे 1982-83 में दत्ता सामंत के आह्वान पर हुई मिल हड़ताल को तोड़ने के लिए जेल से बाहर लाया गया। उसे जेल से बाहर लाने में कांग्रेस से संबद्ध मजदूर संगठन राष्ट्रीय मिल मजदूर संघ की अहम भूमिका थी। जेल से बाहर आते ही रेशिम ने मजदूरों को धमकाना शुरू किया। रेशिम के आदमी मजदूरों से मारपीट भी करने लगे। इससे खटाऊ मिल के मजदूरों में भय का माहौल बन गया। गुंडगर्दी की बदौलत बाबू रेशिम खटाऊ मिल के कर्मचारी को मनाकर काम पर बुलाने में सफल भी रहा। उस समय वह अचानक से लाइमलाइट में आ गया था। वह एक पेशेवर अपराधी था, किसी पार्टी का लेबल उसे पसंद नहीं था।

मुंबई अपराध पर नज़र रखने वाले कहते हैं, बाबू रेशिम ने पठानों से लड़ने के लिए दाऊद को सहयोग दिया था, लेकिन उसी बाबू रेशिम को मारने के लिए दाऊद के ख़ास लोग ही सामने आए थे। दाऊद के बेहद क़रीबी महेश ढोलकिया और शरद शेट्टी उर्फ़ अन्ना जैसे लोगों ने कंजरी समुदाय के छोकरे विजय उटकर को बाबू रेशिम की हत्या की सुपारी दे दी। कई जानकार दावा करते हैं, छोटा राजन ने भी बाबू को मारने में विजय उटकर को मदद की पेशकश की थी और जिस हथियार से उसने रेशिम की हत्या की उसे वह हथियार छोटा राजन ने ही दिए थे।

दाऊद इब्राहिम की संपूर्ण कहानी पहले एपिसोड से पढ़ने के लिए इसे क्लिक करें…

दरअसल, भायखला के पास कंजरवाड़ा में बाबू रेशिम ने एक कमसिन कंजरी लड़की से छेड़छाड़ कर दी थी। उस समय कंजरी समाज के युवक विजय उटकर ने अपने समाज की लड़की को सबसे सामने छेड़ने का ज़ोरदार विरोध किया तो बाबू रेशिम ने उसे बुरी तरह पीट दिया था। इससे विजय बहुत आहत हुआ। उसने उसी समय सबके सामने बाबू से बदला लेने की सौगंध खा ली। वह ऐन-केन-प्रकारेण बाबू की जान लेना चाहता था। बस वह मौक़े की तलाश करने लगा और इसके लिए ज़रूरी हथियार जुटाने लगा। ठीक उस समय ब्रा गैंग के राइवल श्रीधर शेट्टी के भाइयों अप्पू और जयंत शेट्टी ने उसकी मदद की। एक दिन विजय उटकर ने रवि ग्रोवर के साथ बाबू रेशिम पर तब हमला कर दिया, जब वह अपने पंटरों के साथ सात रास्ता, महालक्ष्मी के एक शराबखाने में बैठा शराब पी रहा था। उस हमले में हालांकि बाबू रेशिम बाल-बाल बच गया।

विजय उटकर किसी भी क़ीमत पर बाबू रेशिम की हत्या करने के फ़िराक़ में था। लोग बताते हैं कि उसके ऊपर मानो रेशिम की जान लेने का भूत-सा सवार हो गया था। वह उसे मार पाता, उससे पहले ही अग्रीपाड़ा की पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर मधुकर झेंडे ने बाबू रेशिम को गिरफ़्तार कर लिया। दरअसल, बाबू ने राजा करमरकर नाम के अपराधी को पीटकर अधमरा कर दिया था। लिहाज़ा, उस पर हत्या का प्रयास करने का आरोप गया और उसी के तहत उसकी गिरफ़्तारी हुई। इसके बाद उसे दक्षिण मुंबई के जेकब सर्किल पुलिस लॉकअप में बंद कर दिया गया। मगर उटकर को उसकी रिहाई तक इंतज़ार करना भी उसे मंज़ूर नहीं था। वह किसी भी तरह उससे अपमान का बदला लेना ही चाहता था। उसने बाबू को लॉकअप में मार डालने की ख़तरनाक योजना बनाई।

5 मार्च 1987 तड़के 3.30 बजे को विजय उटकर ने अपने साथियों के साथ जेकब सर्किल पुलिस लॉकअप पर धावा बोल दिया। उस दिन 7 पुलिस वाले ड्यूटी पर थे, उनमें से दो ही जाग रहे थे, बाक़ी लोग खा-पीकर सो रहे थे। पुलिस लॉकअप का हेड कॉन्टेबल खुद ग़ायब था। हमलावरों ने पुलिस वालों को हटाने के लिए मेनगेट के पास देसी बम फेंक दिया। इससे पूरे लॉकअप में भगदड़ मच गई। इसका फ़ायदा उठाकर विजय अंदर घुस गया। बाबू के सेल में ताला लगा हुआ था, विजय ने हथौड़े से उस ताले को तोड़ डाला और उस तक पहुंच गया। उसे देखते ही रेशिम कांपने लगा लेकिन विजय ने उसे बिना एक पल गंवाए गोलियों से भून डाला। इस दुस्साहसिक फ़ायरिंग में दो पुलिस वाले भी मारे गए।

बाबू रेशिम की लॉकअप में हत्या से मुंबई पुलिस की जमकर किरकिरी हुई। ड्यूटी से गैरहाज़िर हेड कॉन्टेबल को तत्काल प्रभाव से सस्पेंड कर दिया गया। बाबू की हत्या की ख़बर फैलने पर खटाऊ मिल और मझगांव डॉक के कर्मचारियों ने काम बंद कर दिया। मझगांव, भायखला, महालक्ष्मी, मुंबई सेंट्रल, चिंचपोकली और परेल में दुकानदारों ने अपना दुकानें बंद रखीं। रेशिम की अंतिम यात्रा में मुंबई के तत्कालीन महापौर छगन भुजबल, कांग्रेस एमएलसी बाबूराव भापसे, यूनियन नेता दत्ता प्रधान और मथाड़ी कामगार के नेता बाबूराव रमिस्थे शामिल हुए। अगर बाबू की हत्या नहीं हुई होती तो मुंबई की कई मजदूर यूनियनों पर उसका वर्चस्व हो जाता और यूनियन नेता बनने वाला वह पहला अंडरवर्ल्ड डॉन होता।

बाबू रेशिम की हत्या आज भी मुंबई में पुलिस के ठिकाने पर किसी अपराधी द्वारा किया गया सबसे दुस्साहसपूर्ण आक्रमण माना जाता है। हालांकि, बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना कि रेशिम के हमले में आला पुलिस अफ़सरों की भी मिली भगत थी। बहरहाल, रेशिम की हत्या का बदला उसके दोस्त रमाकांत नाईक ने महीना पूरा होने से पहले ले लिया। उसने महेश ढोलकिया की उसके घर के पास दिन-दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी। लॉकअप पर हमले के बाद पुलिस की राडार पर वियज उटकर आ गया। कुछ महीने बाद एक दिन पुलिस को टिप मिली की विजय एलफिंटन रोड के पास आने वाला है। पुलिस वहां पहुंची तो विजय तेजी से दादर की ओर भाग निकाला। पीछा करती हुई उसे दादर में ही एनकाउंटर में मार गिराया। बाक़ी हमलावरों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चला और सज़ा हुई।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 23 – लचर कानून-व्यवस्था के चलते दुबई दाऊद इब्राहिम के जयराम पेशे के लिए बना स्वर्ग

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
खाड़ी देश दुबई की 85 फ़ीसदी आबादी बाहरी लोगों की है। भारतीयों के लिए तो दुबई की इमैज शुरू से ऐसे शहर की रही है, जहां कोई भी बेशुमार दौलत कमा सकता है। शानो-शौकत की ज़िदगी भरपूर जी सकता है। विशाल रेगिस्तानी इलाक़ा, गहरे नीले पानी वाला समंदर, आसमान चूमती इमारतें और रात में चकाचौंध कर देने वाली रौशनी इस शहर की ख़ासियत रही है। दाऊद इब्राहिम कासकर की नज़र में दुबई तस्करी के कारोबार में उतरने के बाद आया था। वैसे अस्सी के दशक में वह ख़ालिद पहलवान के साथ कई बार दुबई आया था, तब इस शहर को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था। दरअसल, वह पठान गैंग को मात देने पर आमादा था। लिहाज़ा, इसके लिए उसने अरब शेख़ों से सीधे डील करने की परिपाटी शुरू की। उसके बाद तो यह शहर उसे मुंबई की तरह ही खींचने लगा था।

अमेरिकन सेंटर फ़ॉर इंटरनैशनल पॉलिसी स्टडीज़ के रिसर्च के मुताबिक रूसी और अफ्रीकी सेक्स-वर्कर दुबई में दुनिया के किसी भी हिस्से के मुक़ाबले ज़्यादा हैं। दुबई में भारतीय सेक्स-वर्कर्स का नेटवर्क भी काफ़ी मज़बूत है। वस्तुतः फ़्लेश-ट्रेड क्राइम के लिए सबसे अनुकूल माना जाता रहा हैं। इसका टेस्यट अंडरवर्ल्ड को भी ख़ूब मैच करता रहा है। लचर क़ानून-व्यवस्था के चलते दुबई दाऊद इब्राहिम के जयराम पेशे के लिए स्वर्ग बनने वाला था। यहां शिफ़्ट होने से पहले ही डॉन इसे अपना अड्डा बनाना शुरू कर दिया था। दाऊद इब्राहिम को जानने वालों का मानना है कि जिस तरह उस पर पुलिस का शिकंज़ा दिनों दिन कसने लगा था, तभी उसे लग गया कि अब मुंबई उसके लिए महफ़ूज़ ठिकाना नहीं रही। अपने शहर के मुक़ाबले दुबई उसके और उसके कारोबार के लिए ज़्यादा सेफ़ और अनुकूल लग रहा था।

दाऊद को गृह मंत्रालय और मुंबई पुलिस में बैठे अपने रसूखदार अफसरों से सही समय पर सूचना मिल गई और वह मुमबई पुलिस नेट में फंसने से बाल-बाल बच गया। फ़िलहाल, दिल्ली से उड़ा प्लेन दुबई लैंड कर गया। डॉन विमान में पूरी यात्रा के दौरान पता नहीं किस उधेड़बुन में खोया रहा। वह यह भी सोच रहा था कि पता नहीं फिर कब मुंबई लौटेगा या लौटेगा भी या नहीं। इससे पहले वह कई बार दुबई की धरती पर लैंड कर चुका था लेकिन हर बार उसे उम्मीद रहती थी कि वापस लौटेगा। परंतु इस बार कारोबार के सिलसिले में नहीं, बल्कि बसने और साम्राज्य जमाने के लिए दुबई जा रहा था। सो, अब की बार वह शहर को दूसरी नज़र से देख रहा था। दुबई इंटरनैशनल एयरपोर्ट पर इमिग्रेशन संबंधी फ़ॉर्मैलिटीज़ पूरी करने के बाद दाऊद बाहर निकला। उसके तस्कर पार्टनर शेख़ युसूफ़ ने अपने ख़ास मेहमान को लेने अपने ख़ास आदमियों को एयरपोर्ट पर भेजे थे, जो महंगी कार लेकर रिसीव करने आए थे। दाऊद उनकी कार में बैठा और रवाना हो गया। वह कार में भी अपनी भावी योजनाएं बना रहा था।

थोड़ी देर में दाऊद को बताया गया कि वह अपने ठिकाने पर पहुंच गया है। शेख़ यूसुफ के आदमी ने अदब से दरवाज़ा खोला तो सामने बड़े भूखंड में फैला बंगला देखकर एकदम से दाऊद हैरान रह गया। उसे उस समय यक़ीन नहीं हुआ कि टेमकर मोहल्ले के लकड़ियों की सीढ़ी वाले जर्जर मुसाफ़िरखाना में रहने के बाद अचानक वह मार्बल से बने राजसी ठाट-बाट वाले स्वर्ग जैसे महल में पहुंच गया है। जहां फूलों और ख़ूबसूरत पौधों वाला विशाल गार्डन है, रंग-बिरंगी फ़ाउंटेन है, और घास का शानदार मखमली लॉन है। फ़िलहाल, स्थायी व्यवस्था होने तक उसका यही ठिकाना है। दाऊद ने तय कर लिया कि उसका बंगला इससे भी बड़ा और इससे भी शानदार होगा।

बहरहाल, लंच करने के बाद दाऊद ने थोड़ा आराम किया। उसके बाद वह काम पर लग गया। कई घंटे अपने लोगों से बातचीत करता रहा। अपने गिरोह के सिपहसालारों एवं साथियों के साथ बातचीत की। अपने हमदर्दों के साथ भी बातचीत की। संरक्षण देने वाले प्रमुख राजनेताओं के साथ बातचीत की, क़रीबी और मददगार पुलिस अफ़सरों और समर्थकों से भी बातचीत की। तब मोबाइल का दौर नहीं था। लिहाज़ा, दुबई पहुंचने के बाद ही उसे पता चला कि उसके निकलते ही मुसाफ़िर खाना में मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच का छापा पड़ा था। दाऊद को आसार ठीक नहीं लगे थे। लिहाज़ा, उसने अपने लेफ़्टिनेंट्स को मुंबई का कारोबार समेटकर दुबई पहुंचने के लिए कहा।

दुबई में दाऊद के पास सबसे पहले पहुंचने वालों में उसके छोटे भाई अनीस और नूरा थे। फिर तो उसके गुर्गों की भी दुबई पहुंचने की लाइन-सी लग गई। अली अंतुले, सुनील सावंत और अनिल परब जैसे अपराधी दुबई की धरती पर पहुंच गए। हालांकि दो सबसे सक्षम वफ़ादार अभी तक मुंबई में ही अटके पड़े थे। ये थे सदाशिव निखलजे उर्फ छोटा राजन उर्फ नाना और शकील अहमद बाबू उर्फ छोटा शकील। छोटा राजन मुंबई में दाऊद के ज़ुर्म का गैरक़ानूनी कारोबार संभाल रहा था, जबकि छोटा शकील मुंबई से निकलने की औपचारिकताएं पूरी कर रहा था। 1987 में छोटा राजन भी दुबई पहुंच गया और 1988 ख़त्म होते होते छोटा शकील भी दाऊद के नवरत्नों में शामिल हो गया।

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दाऊद इब्राहिम ने आलीशान घर में रहने के अपने सपने को जल्द ही साकार कर लिया। बंगला ‘ह्वाइट हाऊस’ के तैयार होते ही वह उसमें शिफ़्ट हो गया। दरअसल, दाऊद ख़ुद को अमेरिकी राष्ट्रपति से कम ताक़तवर नहीं समझता था। इसीलिए, उसने जहां भी ठिकाना बनाया, चाहे वह दुबई हो, लंदन हो या फिर कराची हो, हर जगह उसने अपने आशियाने का नाम ह्वाइट हाऊस ही रखा। दुबई लैंड करते ही छोटा राजन को डी-गैंग का कामकाज सौंप दिया गया। वह अघोषित तौर पर डी-सिंडिकेट में नंबर दो की हैसियत पा गया। डी-गैंग में उसकी तूती बोलती थी। उसने नए-नए लड़कों की भर्ती शुरू कर दी। साधु शेट्टी, मोहन कोटियन, गुरु साटम, रोहित वर्मा, भारत नेपाली और ओमप्रकाश सिंह जैसे बेहद निर्मम हत्यारे छोटा राजन के रिजिम में ही दाऊद गैंग से जुड़े। जल्द ही डी-कंपनी में गुंडों की तादाद पांच हज़ार तक पहुंच गई। गैंग के विस्तार से कारोबार बहुत ज़्यादा बढ़ गया। छोटा राजन ने प्रोटेक्शन मनी यानी हफ़्ता वसूलने का काम भी शुरू कर दिया। जिसका भुगतान करने से इनकार करने वाले को जान से हाथ धोना पड़ता था। लिहाज़ा, उसके ख़ौफ़ से हर छोटा-बड़ा व्यवसायी या फ़िल्म निर्माता एक फ़िक्स्ड अमाउंट का भुगतान हर महीने गिरोह को करने लगा। अस्सी के दशक के अंत तक डी-कंपनी का ख़ौफ़ हर जगह देखा जाने लगा।

गिरोहबाज़ों पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राजन उर्फ नाना ने डी-कंपनी के कामकाज को कॉरपोरेट कंपनी में तब्दील कर दिया था। ख़ुद दाऊद भी उसके काम करने के तौर-तरीक़ो का कायल हो गया था। डी-कंपनी का कोई भी ऑपरेशन उससे पूछे या उसके अप्रूवल के बिना नहीं होता था। चोटा राजन ने डी-कंपनी को दुनिया का सबसे संपन्न, ताक़तवर और ख़तरनाक क्राइम सिंडिकेट में तब्दील कर दिया था। उसकी वजह से डी-कंपनी की ताक़त इतनी ज़्यादा बढ़ गई थी कि समकालीन रशियन और इज़राइल माफिया गिरोहों से भी अधिक मज़बूत हो गई। दुबई में बैठकर रिमोट कंट्रोल से छोटा राजन मुंबई अंडरवर्ल्ड में स्मगलिंग, हफ़्ता वसूली, हवाला लेनदेन और कान्ट्रेक्ट किलिंग के काले कारोबार को चलाने लगा। डी-सिंडिकेट ड्रग और हथियार तस्करी के धंधे में भी था, लेकिन हफ़्ता वसूली और रीयल इस्टेट से सबसे तो मानो पैसे बरस रहे थे।

जैसा कि आमतौर पर हर जगह होता है, तरक़्की करने वाले हर शख़्स से कोई न कोई जलने वाला ज़रूर पैदा हो जाता है। ऐसा छोटा राजन के साथ भी हुआ। छोटा शकील के दुबई पहुंचते ही दोनों का टकराव शुरू हो गया। छोटा शकील की मौजूदगी के चलते छोटा राजन का विरोध करने वालों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने लगी। शरद शेट्टी और सुनील सावंत सावत्या जैसे सहयोगियों को नाना का बढ़ता क़द बिल्कुल रास नहीं आ रहा था। लिहाज़ा वे मिलकर उसके ख़िलाफ़ सेठ यानी दाऊद इब्राहिम का कान भरने लगे। हालांकि दाऊद पर इसका कुछ भी असर नहीं हुआ क्योंकि छोटा राजन उसका सबसे वफादार साथी था। दोनों में एक तरह से भावानात्मक रिश्ता भी था।

बताया जाता है, इस बीच, दाऊद थोड़े समय परेशान भी रहा, क्योंकि मुंबई पुलिस उसके भाई अनीस के पीछे हाथ धोकर पड़ी थी। एक केस में ज़मानत मिलती तो तुरंत दूसरे ज़ुर्म में गिरफ़्तार कर लेती। उसमें ज़मानत मिलने पर दूसरी धारा लगा दी जाती थी। बहरहाल, कई लोग यह भी दावा करते हैं कि दाऊद भाई इक़बाल की शादी और पिता इब्राहिम के इंतकाल में मुंबई आया था। तमाम सावधानी एवं तैयारियों के बावजूद मुंबई पुलिस उसपर हाथ नहीं डाल सकी। पुलिस और अपराध से सरोकार रखने वाले कई लोग कहते हैं, पुलिस में दाऊद ने गहरी पैठ बना ली थी। कई अफ़सर उसके पेरोल पर काम करते थे। वह उन्हें भरपूर आर्थिक मदद देता था और बदले में उसे ज़रूरी और गोपनीय सूचनाएं मुहैया करा दी जाती थीं। यही कारण रहा कि उसके मुंबई आने की भनक उन पुलिस वालों को भी नहीं लग सकी जो सचमुच उसे गिरफ़्तार करने की पोज़िशन में थे।

हालांकि दाऊद के दुबई पलायन के बाद शहर में वापस आने की पुष्टि के लिए किसी तरह का लिखित दस्तावेज या आधिकारिक बयान नहीं हैं। दक्षिण मुंबई में लंबे समय तक तैनात रहे पुलिस अफ़सर शमशेर ख़ान पठान तो यहां तक दावा करते हैं कि एक बार दुबई जाने के बाद दाऊद कभी मुंबई लौटा नहीं। पठान तो यह भी दावा करते हैं कि साबिर अहमत की मौत के बाद 1982 में ही दाऊद दुबई चला गया था, क्योंकि उसे भय था कि कहीं पठान साबिर की तरह उसका भी काम तमाम न कर दें। बदला लेने के लिए सभी हत्याएं उसने वहीं से अपने आदमियों से करवाई। यह भी दावा किया जाता है, एक बार तो दाऊद ने आत्मसमर्पण की योजना बनाई थी, लेकिन अचानक गैंगवार ने पलटा खाया और सुकून की ज़िदंगी जीने के उसके मंसूबे धरे के धरे रह गए।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 22 – गिरफ्तारी से कुछ मिनट पहले दाऊद का डोंगरी से दुबई पलायन

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

टेबल पर पड़ी एशट्रे में रखी महंगे ब्रांड की सिगरेट के जलते हिस्से से धुंआ लगातार निकल रहा था। सिगरेट की तीक्ष्ण गंध सहज महसूस की जा सकती थी। कमरे का एसी भी चल रहा था। कमरे में सब कुछ सलीके से था। बस वहां धूसर सन्नाटा पसरा था। यह दाऊद इब्राहिम का दफ़्तर-ए-ख़ास था। जो चाल मुसाफ़िर खाना की पहली मंज़िल पर था। साफ़ लगा, डॉन अभी चंद मिनट पहले तक यहीं पर था। दरअसल, मुंबई पुलिस में मौजूद दाऊद के ख़ास सूत्रों ने उसे सूचित कर दिया कि क्राइम ब्रांच उसके यहां रेड करने वाली है। इसके बाद वह नौ दो ग्यारह हो गया। पुलिस को दाऊद अपने अड्डे पर नहीं मिला। पूरे मुसाफ़िर खाना की सघन तलाशी ली गई लेकिन दाऊद कहीं नहीं मिला। दाऊद वहां था ही नहीं तो मिलता कैसे। वैसे रात भर दाउद के संभावित ठिकानों पर छापेमारी होती रही लेकिन डॉन का कुछ अता-पता नहीं चला।

दरअसल, मुंबई पुलिस पर शुरू से दाऊद को लेकर बहुत नरम रवैया अपनाने और डॉन को सूचनाएं लीक करने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। यह सही भी था। 1981 से 85 के बीच दक्षिण मुंबई के क़रीब-क़रीब सभी पुलिस थानों के लिए दाऊद जाना पहचाना नाम बन चुका था। वह मुंबई पुलिस का ब्लूआई परसन होने के कारण ही पठानों को कुचलने में कामयाब ही नहीं हुआ बल्कि मुंबई अंडरवर्ल्ड का शहंशाह यानी डॉन बन गया। इस दौरान वह समद ख़ान की हत्या समेत दो मर्डर केसेज़ में बतौर आरोपी पुलिस की गिरफ़्त में आया भी लेकिन मई 1984 में जब पीरज़ादा नवाब ख़ान मर्डर केस में उसे अंतरिम ज़मानत मिली तो वह फ़रार हो गया और अंडरग्राउंड ही रहा।

इस बीच उसके शार्प शूटर सुहैल ख़ान ने समद ख़ान के पिता और करीम लाला के छोटे भाई रहीम लाला की हत्या कर दी। उस हत्याकांड में भी दाऊद का नाम आया। नतीजतन, पुलिस रहीम मर्डर केस में भी उसकी तलाश कर रही थी। कहा जाता है, मुंबई पुलिस के कई अफसरों हमेशा को पता रहता था कि दाऊद कहां है। इसके बावजूद डॉन को गिरफ़्तार नहीं किया गया। जब-जब उसे पकड़ने की योजना बनी, तब-तब सूचना पहले उस तक पहुंचा दी गई। लिहाज़ा हर बार वह बच निकलता रहा। दरअसल, उसका नेटवर्क पुलिस में कई लेयर पर था। हर सूचना आला पुलिस अफ़सरों से पहले उस तक पहुंच जाती थी। यह भी आरोप लगते रहे हैं कि कई नामचीन एन्काऊंटर स्पेशलिस्ट केवल दाऊद की टिप्स पर ही अपराधियों को पकड़ते है या मारते हैं।

बहरहाल, भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी जुलियो रिबेरो के बाद मुंबई पुलिस कमिश्नर का पद ग्रहण करने वाले डीएस सोमण ने पुलिस में दाऊद के कनेक्शन ख़त्म करने और उसे पकड़कर डी-कंपनी का साम्राज्य ध्वस्त करने का फ़ैसला किया। अपराधियों के सफ़ाए के लिए उन्होंने जांबाज़ अफ़सर मधुकर झेंडे को पूरी छूट दी। जहां करीम लाला और हाजी मस्तान जैसे बड़े डॉन क़ानून के साथ सहयोग कर रहे थे, वहीं दाऊद पुलिस और अदालत दोनों को ठेंगा दिखा रहा था। ज़मानत रद होने पर भी उसने ख़ुद को क़ानून के हवाले नहीं किया।

दाऊद इब्राहिम की संपूर्ण कहानी पहले एपिसोड से पढ़ने के लिए इसे क्लिक करें…

ऐसे में लाइलाज़ हो चुके डॉन दाऊद का तत्कालीन पुलिस कमिश्नर सोमण ने स्थाई इलाज़ करने का फ़ैसला किया। उसे पकड़ने के लिए एक स्पेशल टीम बनाई। उस टीम को बता दिया गया कि अगर दाऊद गिरफ़्तारी का विरोध करे तो बेख़ौफ़ होकर बल प्रयोग किया जाए। यानी डॉन अगर एनकाउंटर में मारा जाता तो पुलिस उसके लिए भी पूरी तरह तैयार थी। दाऊद के ख़िलाफ़ कार्रवाई को बहुत गोपनीय रखा गया। जानकारी बहुत सीमित लोगों को ही थी। 1986 को अचानक देर रात दाऊद के अपने मुसाफ़िर खाना ऑफ़िस में होने की पक्की ख़बर मिली।

पुलिस की टीम फौरन रवाना हो गई। लेकिन पांच मिनट पहले दाऊद वहां से भी निकल चुका था। जब कमिश्नर को बताया गया कि दाऊद फ़रार हो गया और अब आसपास भी नहीं मिल रहा है तो सोमण स्तंभित रह गए। उनकी समझ में ही नहीं आया कि इतनी गोपनीय सूचना दाऊद तक कैसे पहुंची। वह ख़ासे नाराज़ हुए। उन्होंने केवल चार बहुत भरोसेमंद पुलिसवालों की टीम बनाई थी। ऑपरेशन की जानकारी केवल उन्हीं अफ़सरों को थी। बहरहाल, दूसरे दिन ख़ुफ़िया ख़बर आई कि दाऊद ने मुंबई ही नहीं, देश भी छोड़ दिया है। डॉन अब दुबई पहुंच चुका है। यह मुंबई पुलिस के लिए संभवतः बहुत बुरी ख़बर थी।

पुलिस कमिश्नर ने अपनी केबिन में आपात बैठक बुलाई। सीधे स्पेशल टीम से सवाल किया, “इतनी पक्की इन्फ़ॉर्मेशन के बावजूद हम दाऊद को पकड़ नहीं पाए। क्यों? क्या पुलिस के बहुत भरोसेमंद लोग दाऊद के हमदर्द या मोल हैं? या मुंबई पुलिस फ़ोर्स में हर लेवल पर उसके जासूस मौजूद हैं?”

पुलिस टीम के पास अपने कप्तान के सवाल का कोई जवाब नहीं था। स्पेशल टीम का हिस्सा रहे विनोद भट्ट ने कहा, “सर हम लोग जब मुसाफ़िर खाना पहुंचे, उससे दस मिनट पहले उसे हमारे प्लान की जानकारी मिली और वह तत्काल फ़रार हो गया। मुसाफ़िर खाना से वह सीधे सांताक्रुज़ एयरपोर्ट गया और वहां से दिल्ली पहुंच गया। दिल्ली एयरपोर्ट पर खाड़ी देश जाने वाली फ़्लाइट पकड़कर वह दुबई की धरती पर उतर गया।”

स्पेशल टीम के मुखिया ने दावा किया कि उनकी टीम के किसी सदस्य से यह सूचना लीक नहीं हुई, “दाऊद को एनी अदर चैनल से इन्फॉर्मेशन मिली सर!”

“वॉट डू यू मीन बाई एनी अदर चैनल?” कमिश्नर ने सवाल किया। वह सोचने लगे, अगर पुलिस से सूचना लीक नहीं हुई, तब कहां से हुई?

फौरन उनका ध्यान गृह मंत्रालय की ओर गया, क्योंकि दाऊद के ख़िलाफ़ संभावित कार्रवाई की जानकारी गृह मंत्रालय के कुछ लोगों के पास भेजी गई थी, जिनमें कई बड़े नेता और शीर्ष नौकरशाह भी थे। तो क्या दाऊद के तार मंत्रालय तक जुड़े थे। इसकी पूरी संभावना थी कि ऑपरेशन के बारे में दाऊद को पॉलिटिकल चैनल से आगाह किया गया। दाऊद पुलिस को छका रहा था।

हताश सोमण ने व्यंग्यात्मक लहज़े में पूछा, “दाऊद का ज़ब्त पॉसपोर्ट पुलिस के पास सुरक्षित है, या पुलिस से अधिक स्मार्ट डॉन उसे भी अपने साथ ले गया।”

इस पर सोमण को बताया गया, ‘नहीं, दाऊद का पॉसपोर्ट मुंबई पुलिस के पास सेफ़ है। राजा तंबत के लॉकर में जस का तस रखा हुआ है।’ दरअसल, कुछ महीने पहले अंतरराष्ट्रीय अपराधी चार्ल्स शोभराज को ट्रैप करने वाले सोमण दाऊद के भागने की ख़बर पचा नहीं पा रहे थे। उनके ही निर्देश पर मधुकर झेंडे ने 10 अप्रैल 1986 को शोभराज को गोवा से गिरफ़्तार किया था।

असली पॉसपोर्ट पुलिस के लॉकर में होने के बावजूद दाऊद के भागने में सफल रहने का मतलब हुआ, डॉन फ़र्ज़ी पॉसपोर्ट की सहायता से दुबई गया। पठान गिरोह को कंट्रोल करने के लिए जिस दाऊद को मुंबई पुलिस ने खड़ा किया वह दाऊद अब मुंबई पुलिस से भी बड़ा हो गया। इतना बड़ा कि दुनिया की सबसे स्मार्ट मानी जानी वाली पुलिस असहाय थी। इस तरह मेहज़बीन से निकाह करने के दो हफ़्ते बाद दाऊद देश छोड़कर दुबई चला गया।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 21 – दाऊद का जुबीना जरीन उर्फ मेहजबीन से निकाह

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
सन् 1986 का वक़्त। डोंगरी का एक भव्य हॉल। इब्राहिम भाई, नूरा और अनीस समेत दाऊद इब्राहिम के सभी भाई-बहन मेहमानों का इस्तक़बाल कर रहे थे। इब्राहिम कासकर परिवार की ओर से शहर के कुछ बेहद चुनिंदा लोगों को ही निकाह का दावतनामा भेजा गया था। जलसा बहुत गोपनीय तरीक़े से हो रहा था। स्टेज पर दाऊद और मेहज़बीन के निकाह की रस्म हो रही थी।

काज़ी ने परिजनों के सामने ज़ुबीना ज़रीन उर्फ़ मेहज़बीन से पूछा, “आपको दाऊद से निकाह क़बूल है?”

मेहज़बीन ने हौले से मुस्कराकर कहा, “हां, क़बूल है…!”

दाऊद का मेहज़बीन से इस्माली रीति से निकाह हो गया। लोग तालियां बजाने लगे।

दरअसल, दाऊद की ज़ुबीना ज़रीन उर्फ़ मेहज़बीन से मुलाक़ात का सिलसिला कुछ ही माह पहले शुरू हुआ। वह मनीष मार्केट में दुकान में बैठा था, तभी उसके दोस्त का फोन आया। उसने बताया, मुमताज़ भाई नाम का एक आदमी बस आने ही वाला है, एक अर्जेंट काम के सिलसिले में। हो सके तो उसका काम करवा दे। कुछ देर में मुमताज़ पहुंच भी गया। काम, दरअसल, शॉप खाली कराने का था। मनीष मार्केट में उसकी शॉप दुकानदार खाली नहीं कर रहा था। दोस्त ने मदद के लिए कहा था। लिहाज़ा, दाऊद ख़ुद वहां गया। सारा सामान बाहर फेंक कर शटर गिरा दिया। उसका इतना ख़ौफ़ था कि कोई सामने ही नहीं आया। मुमताज़ का काम दस मिनट में हो गया।

उस घटना के बाद दाऊद की मुमताज़ भाई से अच्छी जान-पहचान हो गई। वह कभी-कभार उसकी शॉप पर जाने लगा। एक दिन मुमताज़ ने शिष्टाचार बस उसे दोपहर के भोजन पर अपने घर बुलाया था। दोनों खाना खाने पर बैठे थे और एक युवती खाना लेकर आ जा रही थी।

दाऊद ने ज़रीन को देखा तो देखता ही रह गया। पता नहीं ऐसा क्या था उसमें कि युवती पहली नज़र में ही सीधे उसके दिल में उतर गई। दाऊद को लगा वह कोई सपना देख रहा है। उसे यक़ीन ही नहीं हुआ, जो कुछ देख रहा है वह सच है। उसकी नज़र बेक़ाबू हो गईं। लाख कोशिश के बावजूद बार-बार उधर ही जा रही थी। उसकी मुस्कान ही ऐसी थी कि लड़कियों से दूर रहने का दाऊद का सारा संकल्प रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर पड़ा।

युवती बेहद सलीके से खाना परोस रही थी। दाऊद को लगा, वह मुमताज़ की बेटी है, लेकिन वह उसकी साली निकली। उसका नाम ज़ुबीना ज़रीन उर्फ मेहज़बीन था। दाऊद असहज़ हो गया। वह खाना खा ही नहीं पा रहा था। मुमताज़ तो नहीं, मेहज़बीन ने ताड़ लिया कि जनाब की परेशानी की सबब उसका हुस्न है। वह मन ही मन मुस्कराने लगी। उधर दाऊद अपने ऊपर हैरान था कि वह इतना असहज़ क्यों महसूस कर रहा है। खाना नहीं खा पा रहा है। उसकी नज़र थी कि लाख कोशिश करने के बाद भी मेहज़बीन की ओर ही जा रही थी।

“दाऊदभाई आप खा नहीं रहे हैं।” मुमताज़ भाई ने पूछा।

“खाना अच्छा नहीं बना है क्या?” मेहज़बीन ने भी सवाल दाग़ दिया।

दरअसल, दाऊद की बहादुरी और दबदबे से ज़ुबीना ज़रीन ख़ासी प्रभावित थी। चाहती थी, जीवसाथी के रूप में उसे कोई ऐसा मर्द मिले जिसका लोहा दुनिया मानती हो। और, डॉन दाऊद इब्राहिम उसके अपने शौहर की परिभाषा में एकदम फ़िट बैठता था। उसकी आवाज़ दाऊद को इतनी मधुर लगी कि उसे सुजाता की भी आवाज़ कभी इतनी भली नहीं लगी थी।

“नहीं-नहीं, अच्छा है। खाना बहुत अच्छा है। बल्कि इतना टेस्टी गोश्त तो मैंने आज तक खाया नहीं। बहुत बढ़िया जायका है।” दाऊद के मुंह से ख़ुद-ब-ख़ुद निकल गया।

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दरअसल, सुजाता को दाऊद इतना चाहने लगा था कि उसकी बेवफ़ाई से बुरी तरह टूट गया था। उसे लड़कियों से नफ़रत-सी हो गई थी। उसने प्रतीज्ञा कर ली थी कि लड़कियों के चक्कर में कभी न पड़ेगा। सुजाता के कारण दर्द भरे जिस माहौल से वह गुज़रा था, उस पीड़ा से वह दोबारा नहीं गुज़रना चाहता था, इसीलिए उसने तीन साल तक किसी लड़की की ओर नज़र उठाकर देखा तक नहीं। सारा ध्यान अपना एंपायर खड़ा करने में लगा दिया। इस दौरान बहुत बार एक से एक ख़ूबसूरत लड़कियों से उसका सामना हुआ लेकिन उसने किसी को भी लिफ़्ट नहीं दी। उसे लगा, जब भी प्यार और परिवार में से किसी एक को चुनने की बात आती है, तब हर लड़की, चाहे वह कितना भी प्यार करने का दावा करती हो, अपने परिवार को चुनती है। अपने प्यार को लात मार देती है।

लेकिन यहां दाऊद पहली नज़र में ज़ुबीना ज़रीन उर्फ मेहज़बीन से क्लीनबोल्ड हो गया। सो मुमताज़ भाई जब भी बुलाता, वह मना नहीं कर पाता था, लिहाज़ा उसकी मेहजबीन से अकसर मुलाकात होने लगी। धीरे-धीरे उसकी सुसुप्त भावनाएं फिर से उभरने लगीं। मेहज़बीन को वह जिस दिन न देख पाता अजीब-सी बैचैनी होती। मन ही नहीं लगता था। उसकी हालत फिर वैसी ही हो गई, जैसी सुजाता के साथ रिश्ते के समय थी। उसे पता चला, मेहज़बीन कभी व्यापारी रहे सलीम कश्मीरी की बेटी है। बहरहाल, रफ़्ता-रफ़्ता वे एक दूसरे में अंदर तक इन्वॉल्व होते गए। एक दिन दाऊद के आग्रह पर मेहज़बीन ख़ुद को रोक नहीं सकी और उसकी बाइक पर बैठ ही गई। दाऊद उसे लेकर चौपाटी की ओर फुर्र हो गया। दोनों रेत पर बैठे दुनिया भर की बात करते रहे। रात को दाऊद मेहज़बीन को उसके घर ड्रॉप करता हुआ निकल गया। उनका प्यार परवान चढ़ने लगा।

मेहज़बीन अब दाऊद के साथ क़रीब-क़रीब रोज़ाना बाहर जाने लगी। जब मुमताज को पता चल गया कि दाऊद और मेहज़बीन एक दूसरे को पसंद करने लगे हैं। उसने बिल्कुल विरोध नहीं किया। वह ख़ुद चाहता था, दोनों का रिश्ता हो जाए। लेकिन बात जब मेहज़बीन के पिता सलीम कश्मीरी तक पहुंची तो उन्होंने साफ़-साफ़ मना कर दिया। दक्षिण मुंबई का हर मुसलमान दाऊद की रेपुटेशन से वाक़िफ़ था। वह जानते थे कि दाऊद ऐसे पेशे में है, जहां किसी भी समय पुलिस या विरोधी गिरोहों के हाथ जान गंवा सकता है। जब मेहज़बीन को पता चला कि अब्बा जान उसके सपनों के राजकुमार को पसंद नहीं करते तो उसने उनसे ख़ुद बात की। मगर अब्बा उसकी भी बात मानने को तैयार न हुए। वह बार-बार ज़ोर देते रहे, दाऊद एक वॉन्टेड अपराधी है। पुलिस उसे कभी भी मार सकती है या उसके विरोधी ख़त्म कर सकते हैं। तब उसका क्या होगा?

मेहज़बीन वापस अपने कमरे में चली गई। अचानक से वह बहुत दुखी हो गई थी। उसे कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था। वह दाऊद से बेइंतहां मोहब्बत करने लगी थी। उसके बिना ज़िदगी की कल्पना ही नहीं करती थी। वह ख़ुद दाऊद को ज़बान दे चुकी थी कि निकाह करेगी तो केवल उसके साथ। अगर घर वाले, ख़ासकर उसके अब्बू जान दाऊद से निकाह के लिए तैयार नहीं हुए तो वह ताज़िंदगी निकाह ही नहीं करेगी और तन्हा ही रहेगी। उसके पिता उसे अपने घर ले गए और वह दाऊद से अलग कर दी गई। एक बार फिर दाऊद मोहब्बत की वजह से परेशान था। उसे लगने लगा कि मोहब्बत उसके नसीब में ही नहीं है, वरना कश्मीर साहब क्यों इनकार करते।

दाऊद के घर वाले किसी ङभी क़ीमत पर दाऊद का निकाह मेहज़बीन से करना चाहते थे। उन लोगों ने सलीम कश्मीरी से बातचीत की। उन्हें इब्राहिम भाई की मुंबई पुलिस में साख़ के बारे में बताया। बहुत मान-मनोव्वल के बाद आख़िरकार सलीम मेहज़बीन का हाथ दाऊद के हाथ में देने को तैयार हो गए। यानी दाऊद के बेटर हॉफ़ के उसके जीवन में आने की राह साफ़ हो गई। यह वह दौर था जब दाऊद पूरी तरह सुजाता के प्रभाव से निकलकर केवल और केवल मेहज़बीन के बारे में सोच रहा था। उसे मौसम फिर से बेहद सुहाना लगने लगा था। वह आंख मूंदकर केवल और केवल मेहज़बीन के ख़यालों में खोया रहना चाहता था। केवल उसी के बारे में सोचना चाहता था। बस वह उस लमहे का इंतज़ार करने लगा जब मेहज़बीन काज़ी के सामने कहेगी।। क़बूल है।

बहरहाल, दाऊद इब्राहिम और मेहज़बीन उर्फ़ ज़ुबीना ज़रीन के जीवन में वह पल आ भी गया। दोनों जीवनसाथी बन गए।

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द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 20 – प्रेमिका की बिल्डिंग में दाउद-राजन ने की समद खान की हत्या

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
वीपी रोड गिरगांव के सिक्का नगर बिल्डिंग का परिसर। दाऊद इब्राहिम के हथियारों से लैस आधा दर्जन से ज़्यादा शूटरों ने पोज़िशन संभाल रखी थी। दाऊद टीम की अगुआई कर रहा था। उसके सिर पर ख़ून सवार था। वह किसी भी कीमत पर समद ख़ान को मारना चाहता था। नूरा के दर्द का बस यही इंतक़ाम था। उसके साथ उसका सबसे भरोसेमंद साथी छोटा राजन, चचेरा भाई अली अंतुले और बाक़ी शूटर थे। वे समद ख़ान की राह देख रहे थे जो इमारत से नीचे उतरने ही वाला था।

यह 4 अक्टूबर 1984 का दिन था। समुद्र के पास होने के कारण सिक्का नगर बिल्डिंग परिसर के इलाके का मौसम बेहद ख़ुशनुमा और कुछ-कुछ गुलाबी था। समद ख़ान अपनी प्रेमिका शिल्पा जवेरी के साथ सातवीं मंज़िल पर उसके फ़्लैट में था। शिल्पा ने उसका सुबह से दोपहर तक इंतज़ार किया था। लंच दोनों साथ ही करने वाले थे। शिल्पा ने खाना बनाकर रखा था। फ़िलहाल दोनों साथ में एक ही बिस्तर पर निजी लम्हात में थे । यूं तो अन्य अपराधियों की तरह समद के भी अनगिनत महिलाओं से रिश्ते थे लेकिन उसके सबसे अच्छे लम्हात शिल्पा के साथ होते थे। शिल्पा भी उसे टूटकर चाहती थी और समद भी उस पर फिदा था। समद उस दिन प्रेमिका के साथ क़रीब दो घंटे रहा। बाद में दोनों विस्तर से उठ गए। लंच करने के समद फटाफट नीचे उतर गया।

समद जैसे ही लिफ़्ट से बाहर आया तो उसका एनकाउंटर सामने खड़े दाऊद एंड कंपनी से हो गया। इतने अधिक शूटरों को देखकर वह हैरान रह गया। उसे तो मारो काठ सा मार गया। वह कुछ समझ पाता या उसका हाथ अपनी गन तक पहुंच पाता, उससे पहले उस पर फ़ायर हो गया। गोलियों की बौछार हो गई। हर कोई उस पर गौली ही चला रहा था। चंद मिनट तक उस पर अनवरत गोली चलती रही। उसका पूरा का पूरा जिस्म गोलियों से छलनी हो गया और उसकी तत्काल वहीं मौत हो गई।

बाद में खुलासा हुआ कि दाऊद ने उसकी प्रेमिका शिल्पा जवेरी को ही ख़रीद लिया था। पुलिस में कई सूत्र यह भी बताते हैं कि समद की हत्या में रमा नाईक और उसके शूटर भी शामिल हुए थे। जो भी हो, समद ख़ान की मौत करीम लाला के लिए बहुत बड़ा आघात था। करीम ने दुनिया को बताने के लिए भले ही समद ख़ान को बेदख़ल कर दिया था लेकिन सच तो यह था कि करीम समद को अपने प्राण से भी ज़्यादा प्यारा था। लिहाज़ा, करीम लाला ने भतीज़े की मौत का बदला लेने का संकल्प लिया। वह कोई क़दम उठा पाता उससे पहले किसी अन्य अपराध में गिरफ़्तार कर लिया गया। ज़मानत पर छूटते ही फिर उसे रासुका में उठा लिया गया। उस पर भिवंडी और दक्षिण मुंबई में दंगा भडकाने के भी आरोप लगे थे।

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हालांकि, समद ख़ान की हत्या के पीछे एक और कहानी बताई जाती है। कहा जाता है कि अनीस की शादी में समद ने फ़ायरिंग की थी जिसमें इक़बाल कासकर घायल हो गया था। उसके बाद उसे ख़त्म करने की साज़िश रची गई। दिल्ली से एक ख़ूबसूरत कश्मीरी लड़की नसीम को बुलाया गया। समद नसीम के जाल में फंस गया और उसके यहां आने-जाने लगा। बस क्या था, एक दिन जैसे ही नसीम के पास गया। बाहर दाऊद के साथ रमाकांत नाईक, बाबू रेशिम, छोटा राजन, संजय रग्गड़, दिलीप बुआ और सुनील सावंत ने हथियार के साथ पोज़िशन ले ली। जैसे ही समद नसीम के साथ वक़्त गुज़ार कर नीचे आया उसे भून दिया गया। बाद में अजीज दलीप ख़ान के बंगलोर में रहने वाले बेटे हमीद दलीप ख़ान ने समद की हत्या कराने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। अजीज ख़ान की हत्या समद ने 1983 में कर दी थी।

इस बीच नाना उर्फ छोटा राजन उर्फ अंडरवर्ल्ड डॉन राजेंद्र सदाशिव निखलजे की ओर से राजन अन्ना की हत्या के सूत्राधार अब्दुल कुंजू को मारने की कई बार कोशिश हुई, लेकिन हर बार वह बच ही गया। 1984 में छोटा राजन, संजय रग्गड़ और साधु शेट्टी ने कुंजू को मारने की फूलप्रूफ़ प्लानिंग कर दी। चार बार मौत के क़रीब से गुज़रने से कुंजू बहुत डर गया था। उसे हर जगह हर वक़्त अपनी मौत ही नज़र आती थी। उसने अपनी गिरफ़्तारी भी करवाई, परंतु मौत का साया उसका पीछा करता ही रहा। हालांकि साल भर ख़ामोश रहने से उसे लगने लगा कि दाऊद गैंग ने शायद उसे माफ़ कर दिया। अब्दुल कुंजू 4 मई 1985 को चेंबूर में बच्चों के क्रिकेट मैच देख रहा था। वह खुश था कि दाऊद ने उसे माफ़ कर दिया। जब मैदान में मैच चल ही रहा था उसी दौरान कई और खिलाड़ी यूनीफ़ॉर्म पहनकर मैदान में प्रवेश करते दिखे। इनमें छोटा राजन, साधु शेट्टी और संजय रग्गड़ को अब्दुल कुंजू ने फौरन पहचान लिया। सभी लोग मैदान में घुस गए और कुंजू की जमकर पिटाई की। कुंजू चिल्लाता रहा। बाद में उसके जिस्म को गोलियों से छलनी कर दिया गया।

आमिरज़ादा को कोर्ट में जज के सामने मारने वाला डेविड परदेसी आर्थर जेल में दो साल बंद रहने के बाद 12 दिसंबर 1985 को रहस्यमय ढंग से फ़रार हो गया। उधर दाऊद गिरोह को तितर-बितर करने के मक़सद में आलमज़ेब अब भी लगा था और पूरी कोशिश भी कर रहा था कि दाऊद को मार दे। उसने इक़बाल टैंपो के साथ मिलकर दाऊद के ख़ास आदमी रशीद अरबी पर महालक्ष्मी पेट्रोल पंप के पास हमला किया। इस तरह उसने दाऊद के एक और क़रीबी साथी की हत्या कर दी। इसके बाद वह सीधे दाऊद की नज़र में आ गया। दरअसल, साबिर के हत्यारों में अब सिर्फ़ आलमज़ेब ही बचा था। दाऊद ने अभी तक अपने भाई के किसी भी हत्यारे को मारने के लिए ख़ुद हथियार नही उठाया था। इस बार भी ज़रूरत नहीं पड़ी। उसने एक बार फिर निशाना साधा और आलमज़ेब भी मारा गया।

दरअसल, 29 दिसंबर 1985 को आलमज़ेब सूरत के बाहरी इलाके में एक फ्लैट में मुठभेड़ में तब मारा गया, जब वह किसी युवती से ज़ोर-ज़बरदस्ती कर रहा था। भारती नाम की युवती की चीख सुनकर पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दे दी। सब-इंसपेक्टर दलसुखभाई पारधी ने फ़्लैट में छापा मारा। उसी दौरान एनकाउंटर में आलमज़ेब मारा गया। दरअसल, कहा जाता है कि भारती को आलमज़ेब के मनोरंजन के लिए फुसलाकर लाया गया था। असलियत पता चलने पर वह विरोध करने लगी। आलमज़ेब के ज़बरदस्ती करने पर ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगी। आलमज़ेब की मौत के बाद चर्चा गरम रही कि यह सब दाऊद इब्राहिम का ही किया-धरा था। उसने ही भारती को उसके पास भेजा और अपने परिचित सब-इंस्पेक्टर दलसुखभाई पारधी को सूचना दी। आलमज़ेब जैसे ख़तरनाक अपराधी को मारने के लिए पारधी को राष्ट्रपति से मेडल भी मिला। इस तरह दाऊद के इंतक़ाम का आख़िरी चरण भी पूरा हो गया और उसका बाल भी बांका नहीं हुआ। कहना अतिरंजनापूर्ण नहीं होगा कि दाऊद ने पुलिस की मदद से करीम लाला के अपराध का साम्राज्य ही ध्वस्त कर दिया।

उधर आर्थर जेल से फ़रार डेविड परदेसी तीन महीने तक आज़ाद रहा, फरवरी 1986 में पुलिस ने उसे मुठभेड़ में मार गिराया। इधर आलमज़ेब का ख़तरनाक साथी कालिया अंथोनी भी पुलिस के हाथ मारा गया। बांद्रा से लेकर अंधेरी के बेल्ट पर उसका बड़ा आतंक था। पुलिस को दोनों की टिप्स दाऊद इब्राहिम ने ही दी थी। बहरहाल, नब्बे के आख़िरी दशक में करीम लाला उमरा करने सउदी अरब गया। वहां उसकी दाऊद से मुलाक़ात हुई। दोनों ने कुरान की कसम ली कि एक दूसरे के आदमियों पर अब हमले नहीं कि जाएंगे। इस तरह दाऊद की पठानों से परंपरागत दुश्मनी ख़तम हो गई।

(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)

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