हरिगोविंद विश्वकर्मा
खाड़ी देश दुबई की 85 फ़ीसदी आबादी बाहरी लोगों की है। भारतीयों के लिए तो दुबई की इमैज शुरू से ऐसे शहर की रही है, जहां कोई भी बेशुमार दौलत कमा सकता है। शानो-शौकत की ज़िदगी भरपूर जी सकता है। विशाल रेगिस्तानी इलाक़ा, गहरे नीले पानी वाला समंदर, आसमान चूमती इमारतें और रात में चकाचौंध कर देने वाली रौशनी इस शहर की ख़ासियत रही है। दाऊद इब्राहिम कासकर की नज़र में दुबई तस्करी के कारोबार में उतरने के बाद आया था। वैसे अस्सी के दशक में वह ख़ालिद पहलवान के साथ कई बार दुबई आया था, तब इस शहर को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था। दरअसल, वह पठान गैंग को मात देने पर आमादा था। लिहाज़ा, इसके लिए उसने अरब शेख़ों से सीधे डील करने की परिपाटी शुरू की। उसके बाद तो यह शहर उसे मुंबई की तरह ही खींचने लगा था।
अमेरिकन सेंटर फ़ॉर इंटरनैशनल पॉलिसी स्टडीज़ के रिसर्च के मुताबिक रूसी और अफ्रीकी सेक्स-वर्कर दुबई में दुनिया के किसी भी हिस्से के मुक़ाबले ज़्यादा हैं। दुबई में भारतीय सेक्स-वर्कर्स का नेटवर्क भी काफ़ी मज़बूत है। वस्तुतः फ़्लेश-ट्रेड क्राइम के लिए सबसे अनुकूल माना जाता रहा हैं। इसका टेस्यट अंडरवर्ल्ड को भी ख़ूब मैच करता रहा है। लचर क़ानून-व्यवस्था के चलते दुबई दाऊद इब्राहिम के जयराम पेशे के लिए स्वर्ग बनने वाला था। यहां शिफ़्ट होने से पहले ही डॉन इसे अपना अड्डा बनाना शुरू कर दिया था। दाऊद इब्राहिम को जानने वालों का मानना है कि जिस तरह उस पर पुलिस का शिकंज़ा दिनों दिन कसने लगा था, तभी उसे लग गया कि अब मुंबई उसके लिए महफ़ूज़ ठिकाना नहीं रही। अपने शहर के मुक़ाबले दुबई उसके और उसके कारोबार के लिए ज़्यादा सेफ़ और अनुकूल लग रहा था।
दाऊद को गृह मंत्रालय और मुंबई पुलिस में बैठे अपने रसूखदार अफसरों से सही समय पर सूचना मिल गई और वह मुमबई पुलिस नेट में फंसने से बाल-बाल बच गया। फ़िलहाल, दिल्ली से उड़ा प्लेन दुबई लैंड कर गया। डॉन विमान में पूरी यात्रा के दौरान पता नहीं किस उधेड़बुन में खोया रहा। वह यह भी सोच रहा था कि पता नहीं फिर कब मुंबई लौटेगा या लौटेगा भी या नहीं। इससे पहले वह कई बार दुबई की धरती पर लैंड कर चुका था लेकिन हर बार उसे उम्मीद रहती थी कि वापस लौटेगा। परंतु इस बार कारोबार के सिलसिले में नहीं, बल्कि बसने और साम्राज्य जमाने के लिए दुबई जा रहा था। सो, अब की बार वह शहर को दूसरी नज़र से देख रहा था। दुबई इंटरनैशनल एयरपोर्ट पर इमिग्रेशन संबंधी फ़ॉर्मैलिटीज़ पूरी करने के बाद दाऊद बाहर निकला। उसके तस्कर पार्टनर शेख़ युसूफ़ ने अपने ख़ास मेहमान को लेने अपने ख़ास आदमियों को एयरपोर्ट पर भेजे थे, जो महंगी कार लेकर रिसीव करने आए थे। दाऊद उनकी कार में बैठा और रवाना हो गया। वह कार में भी अपनी भावी योजनाएं बना रहा था।
थोड़ी देर में दाऊद को बताया गया कि वह अपने ठिकाने पर पहुंच गया है। शेख़ यूसुफ के आदमी ने अदब से दरवाज़ा खोला तो सामने बड़े भूखंड में फैला बंगला देखकर एकदम से दाऊद हैरान रह गया। उसे उस समय यक़ीन नहीं हुआ कि टेमकर मोहल्ले के लकड़ियों की सीढ़ी वाले जर्जर मुसाफ़िरखाना में रहने के बाद अचानक वह मार्बल से बने राजसी ठाट-बाट वाले स्वर्ग जैसे महल में पहुंच गया है। जहां फूलों और ख़ूबसूरत पौधों वाला विशाल गार्डन है, रंग-बिरंगी फ़ाउंटेन है, और घास का शानदार मखमली लॉन है। फ़िलहाल, स्थायी व्यवस्था होने तक उसका यही ठिकाना है। दाऊद ने तय कर लिया कि उसका बंगला इससे भी बड़ा और इससे भी शानदार होगा।
बहरहाल, लंच करने के बाद दाऊद ने थोड़ा आराम किया। उसके बाद वह काम पर लग गया। कई घंटे अपने लोगों से बातचीत करता रहा। अपने गिरोह के सिपहसालारों एवं साथियों के साथ बातचीत की। अपने हमदर्दों के साथ भी बातचीत की। संरक्षण देने वाले प्रमुख राजनेताओं के साथ बातचीत की, क़रीबी और मददगार पुलिस अफ़सरों और समर्थकों से भी बातचीत की। तब मोबाइल का दौर नहीं था। लिहाज़ा, दुबई पहुंचने के बाद ही उसे पता चला कि उसके निकलते ही मुसाफ़िर खाना में मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच का छापा पड़ा था। दाऊद को आसार ठीक नहीं लगे थे। लिहाज़ा, उसने अपने लेफ़्टिनेंट्स को मुंबई का कारोबार समेटकर दुबई पहुंचने के लिए कहा।
दुबई में दाऊद के पास सबसे पहले पहुंचने वालों में उसके छोटे भाई अनीस और नूरा थे। फिर तो उसके गुर्गों की भी दुबई पहुंचने की लाइन-सी लग गई। अली अंतुले, सुनील सावंत और अनिल परब जैसे अपराधी दुबई की धरती पर पहुंच गए। हालांकि दो सबसे सक्षम वफ़ादार अभी तक मुंबई में ही अटके पड़े थे। ये थे सदाशिव निखलजे उर्फ छोटा राजन उर्फ नाना और शकील अहमद बाबू उर्फ छोटा शकील। छोटा राजन मुंबई में दाऊद के ज़ुर्म का गैरक़ानूनी कारोबार संभाल रहा था, जबकि छोटा शकील मुंबई से निकलने की औपचारिकताएं पूरी कर रहा था। 1987 में छोटा राजन भी दुबई पहुंच गया और 1988 ख़त्म होते होते छोटा शकील भी दाऊद के नवरत्नों में शामिल हो गया।
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दाऊद इब्राहिम ने आलीशान घर में रहने के अपने सपने को जल्द ही साकार कर लिया। बंगला ‘ह्वाइट हाऊस’ के तैयार होते ही वह उसमें शिफ़्ट हो गया। दरअसल, दाऊद ख़ुद को अमेरिकी राष्ट्रपति से कम ताक़तवर नहीं समझता था। इसीलिए, उसने जहां भी ठिकाना बनाया, चाहे वह दुबई हो, लंदन हो या फिर कराची हो, हर जगह उसने अपने आशियाने का नाम ह्वाइट हाऊस ही रखा। दुबई लैंड करते ही छोटा राजन को डी-गैंग का कामकाज सौंप दिया गया। वह अघोषित तौर पर डी-सिंडिकेट में नंबर दो की हैसियत पा गया। डी-गैंग में उसकी तूती बोलती थी। उसने नए-नए लड़कों की भर्ती शुरू कर दी। साधु शेट्टी, मोहन कोटियन, गुरु साटम, रोहित वर्मा, भारत नेपाली और ओमप्रकाश सिंह जैसे बेहद निर्मम हत्यारे छोटा राजन के रिजिम में ही दाऊद गैंग से जुड़े। जल्द ही डी-कंपनी में गुंडों की तादाद पांच हज़ार तक पहुंच गई। गैंग के विस्तार से कारोबार बहुत ज़्यादा बढ़ गया। छोटा राजन ने प्रोटेक्शन मनी यानी हफ़्ता वसूलने का काम भी शुरू कर दिया। जिसका भुगतान करने से इनकार करने वाले को जान से हाथ धोना पड़ता था। लिहाज़ा, उसके ख़ौफ़ से हर छोटा-बड़ा व्यवसायी या फ़िल्म निर्माता एक फ़िक्स्ड अमाउंट का भुगतान हर महीने गिरोह को करने लगा। अस्सी के दशक के अंत तक डी-कंपनी का ख़ौफ़ हर जगह देखा जाने लगा।
गिरोहबाज़ों पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राजन उर्फ नाना ने डी-कंपनी के कामकाज को कॉरपोरेट कंपनी में तब्दील कर दिया था। ख़ुद दाऊद भी उसके काम करने के तौर-तरीक़ो का कायल हो गया था। डी-कंपनी का कोई भी ऑपरेशन उससे पूछे या उसके अप्रूवल के बिना नहीं होता था। चोटा राजन ने डी-कंपनी को दुनिया का सबसे संपन्न, ताक़तवर और ख़तरनाक क्राइम सिंडिकेट में तब्दील कर दिया था। उसकी वजह से डी-कंपनी की ताक़त इतनी ज़्यादा बढ़ गई थी कि समकालीन रशियन और इज़राइल माफिया गिरोहों से भी अधिक मज़बूत हो गई। दुबई में बैठकर रिमोट कंट्रोल से छोटा राजन मुंबई अंडरवर्ल्ड में स्मगलिंग, हफ़्ता वसूली, हवाला लेनदेन और कान्ट्रेक्ट किलिंग के काले कारोबार को चलाने लगा। डी-सिंडिकेट ड्रग और हथियार तस्करी के धंधे में भी था, लेकिन हफ़्ता वसूली और रीयल इस्टेट से सबसे तो मानो पैसे बरस रहे थे।
जैसा कि आमतौर पर हर जगह होता है, तरक़्की करने वाले हर शख़्स से कोई न कोई जलने वाला ज़रूर पैदा हो जाता है। ऐसा छोटा राजन के साथ भी हुआ। छोटा शकील के दुबई पहुंचते ही दोनों का टकराव शुरू हो गया। छोटा शकील की मौजूदगी के चलते छोटा राजन का विरोध करने वालों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने लगी। शरद शेट्टी और सुनील सावंत सावत्या जैसे सहयोगियों को नाना का बढ़ता क़द बिल्कुल रास नहीं आ रहा था। लिहाज़ा वे मिलकर उसके ख़िलाफ़ सेठ यानी दाऊद इब्राहिम का कान भरने लगे। हालांकि दाऊद पर इसका कुछ भी असर नहीं हुआ क्योंकि छोटा राजन उसका सबसे वफादार साथी था। दोनों में एक तरह से भावानात्मक रिश्ता भी था।
बताया जाता है, इस बीच, दाऊद थोड़े समय परेशान भी रहा, क्योंकि मुंबई पुलिस उसके भाई अनीस के पीछे हाथ धोकर पड़ी थी। एक केस में ज़मानत मिलती तो तुरंत दूसरे ज़ुर्म में गिरफ़्तार कर लेती। उसमें ज़मानत मिलने पर दूसरी धारा लगा दी जाती थी। बहरहाल, कई लोग यह भी दावा करते हैं कि दाऊद भाई इक़बाल की शादी और पिता इब्राहिम के इंतकाल में मुंबई आया था। तमाम सावधानी एवं तैयारियों के बावजूद मुंबई पुलिस उसपर हाथ नहीं डाल सकी। पुलिस और अपराध से सरोकार रखने वाले कई लोग कहते हैं, पुलिस में दाऊद ने गहरी पैठ बना ली थी। कई अफ़सर उसके पेरोल पर काम करते थे। वह उन्हें भरपूर आर्थिक मदद देता था और बदले में उसे ज़रूरी और गोपनीय सूचनाएं मुहैया करा दी जाती थीं। यही कारण रहा कि उसके मुंबई आने की भनक उन पुलिस वालों को भी नहीं लग सकी जो सचमुच उसे गिरफ़्तार करने की पोज़िशन में थे।
हालांकि दाऊद के दुबई पलायन के बाद शहर में वापस आने की पुष्टि के लिए किसी तरह का लिखित दस्तावेज या आधिकारिक बयान नहीं हैं। दक्षिण मुंबई में लंबे समय तक तैनात रहे पुलिस अफ़सर शमशेर ख़ान पठान तो यहां तक दावा करते हैं कि एक बार दुबई जाने के बाद दाऊद कभी मुंबई लौटा नहीं। पठान तो यह भी दावा करते हैं कि साबिर अहमत की मौत के बाद 1982 में ही दाऊद दुबई चला गया था, क्योंकि उसे भय था कि कहीं पठान साबिर की तरह उसका भी काम तमाम न कर दें। बदला लेने के लिए सभी हत्याएं उसने वहीं से अपने आदमियों से करवाई। यह भी दावा किया जाता है, एक बार तो दाऊद ने आत्मसमर्पण की योजना बनाई थी, लेकिन अचानक गैंगवार ने पलटा खाया और सुकून की ज़िदंगी जीने के उसके मंसूबे धरे के धरे रह गए।
(The Most Wanted Don अगले भाग में जारी…)
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