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गलवान घाटी में शहीद सैनिकों के सम्मान में स्मारक बना

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भारतीय थल सेना ने पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में 15 जून 2020 को चीनी सैनिकों के साथ झड़प में शहीद हुए अपने 20 जवानों के सम्मान में एक स्मारक बनाया है। यह स्मारक पूर्वी लद्दाख के पोस्ट 120 में स्थित है और इस हफ्ते की शुरूआत में इसका अनावरण किया गया था। इस पर ‘स्नो लियोपार्ड’ (हिम तेंदुआ) अभियान के तहत ‘गलवान के वीरों’ के बहादुरी भरे कारनामों का उल्लेख किया गया है।

स्मारक पर यह उल्लेख भी किया गया है कि किस तरह से भारतीय सैनिकों ने चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को झड़प में भारी नुकसान पहुंचाते हुए इलाके को मुक्त कराया। चीन ने अपने मारे गए जवानों की संख्या सार्वजनिक नहीं की। हालांकि उसने अपने पांच सैनिकों के हताहत होने की बात आधिकारिक रूप से स्वीकार की है। एक अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक चीन के 35 सैनिक हताहत हुए थे। श्योक-दौलत बेग ओल्डी मार्ग पर स्थित पोस्ट 120 पर बने स्मारक पर थल सेना के सभी 20 शहीद कर्मियों के नाम लिखे गए हैं। झड़प में शहीद हुए जवानों में कर्नल बी संतोष बाबू भी शामिल थे जो 16 वीं बिहार रेजीमेंट से थे।

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स्मारक पर 20 सैन्य कर्मियों की सूची में तीन नायब सूबेदार, तीन हवलदार और 12 सिपाही शामिल हैं। रक्षा मंत्रालय ने कर्नल बाबू और अन्य सैनिकों के नाम दिल्ली स्थित राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर भी उकेरने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। गलवान झड़प के बाद चीन से लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर दोनों देशों के बीच पैदा हुआ गतिरोध अब भी कायम है। हालांकि, दोनों देशों के बीच कूटनीतिक एवं सैन्य वार्ता हुई है लेकिन गतिरोध समाप्त करने के लिये अब तक कोई सफलता नहीं मिल सकी है।

लद्दाख के गलवान वैली सीमा पर चीनी सैनिकों के साथ 15 जून 2020 झड़प में 20 भारतीय सेनिकों के शहीद हो गए थे। भारत के आधिकारिक बयान के मुताबिक सीमा से पीछे हटने के दौरान हुई झड़प में सेना के एक अधिकारी और दो सैनिकों की मौत हो गई थी, कई सैनिक घायल हुए थे, उनमें 17 की मौत हो गई। इस तरह इस झड़प में कुल 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए। समाचार एजेंसियों ने कहा है कि इस झड़प में 43 चीनी सैनिकों की भी मौत हुई थी।

दोनों देशों के सैनिकों के बीच गोलीबारी तो नहीं हुई, लेकिन खूनी संघर्ष हुआ, जिसमें भारत के 20 सैनिक शहीद हो गए थे।संकरी पहाड़ी पर संघर्ष के दौरान कुछ भारतीय सैनिक नदी में गिर गए। भारत और चीनी सैनिकों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हिंसक झड़प को लेकर विदेश मंत्रालय ने कहा कि 15 जून को चीन की ओर से स्थिति बदलने के प्रयास के फलस्वरूप ऐसा हुआ। हालांकि इसमें दोनों पक्षों को नुकसान हुआ, जिससे बचा जा सकता था। कहा गया था कि झड़प में 43 चीनी सैनिकों की मौत हुई थी। हालांकि चीन सरकार ने अपने 43 सैनिकों के मारे जाने की पुष्टि नहीं की थी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने कहा है कि झड़प में 5 चीनी सैनिक मारे गए।

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चीन के सैनिक पहले से ही पूरी तरह तैयार होकर आए थे,भारतीय सैनिकों पर अचानक कर दिया और शुरुआत में भारतीय कर्नल सहित 3 जवान शहीद हुए। सूत्रों के अनुसार चीन बड़ी सेना लेकर करीब 800 सैनिक के साथ एलएसी पर आ धमका, जबकि भारत के सिर्फ़ 50 से 60 जवान थे। चीनियों ने एकाएक हमला किया,कई भारतीय सैनिकों को अगवा कर लिया,उनको छुड़ाने गए जवानों पर अग्रेसिव हमला किया। तभी तक भारत की और सेना की टुकड़ी पहुंची और चीनियों को खदेड़ना शुरू किया, जिसमें करीब कई चीनी सैनिक घायल हुए।

चायनीज़ पीपल लिबरेशन आर्मी के जवान अपने साथ रोड,कंटीले तार और नुकीले पत्थर लेकर आए थे।

सीमा प्रबंधन को लेकर जिम्मेदार रवैये के मद्देनजर भारत सभी काम एलएसी में अपनी सीमा के अंदर ही करता है। चीन से भी ऐसी ही उम्मीद रखता है। भारत सीमा पर शांति बनाए रखने और बातचीत के माध्यम से मतभेदों के समाधान को लेकर आश्वस्त है। भारत अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए दृढ़ता से प्रतिबद्ध है। सीमा पर जारी तनाव के बीच पेइंचिंग में चीनी उप विदेश मंत्री लुओ झाओहुई से भारतीय राजदूत विक्रम मिसरी ने मुलाकात की थी।

शहीदों की पूरी सूची

  1. कर्नल बिकुमल्ला संतोष बाबू (हैदराबाद)
  2. नायब सूबेदार नुदूराम सोरेन (मयूरभंज)
  3. नायब सूबेदार मनदीप सिंह (पटियाला)
  4. नायब सूबेदार सतनाम सिंह (गुरदासपुर)
  5. हवलदार (गनर) के. पलानी (मदुरै)
  6. हवलदार सुनील कुमार (पटना)
  7. हवलदार बिपुल रॉय (मेरठ सिटी)
  8. नायक दीपक कुमार (रीवा)
  9. सिपाही राजेश ओरांग (बीरभूम)
  10. सिपाही कुंदन ओझा (साहिबगंज)
  11. सिपाही गणेश राम (कांकेर)
  12. सिपाही चंद्रकांत प्रधान (कंधमाल)
  13. सिपाही अंकुश (हमीरपुर)
  14. सिपाही गुरबिंदर (संगरूर)
  15. सिपाही गुरतेज सिंह (मनसा)
  16. सिपाही चंदन कुमार (भोजपुर)
  17. सिपाही कुंदन कुमार (सहरसा)
  18. सिपाही अमन कुमार (समस्तीपुर)
  19. सिपाही जयकिशोर सिंह (वैशाली)
  20. सिपाही गणेश हंसदा (पूर्वी सिंहभूम)
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आवाज दे कहां है दुनिया मेरी जवां है…

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हैंडसम पुरुषों की ओर बरबस खिंचती चली जाती थीं नूरजहां

हिंदी और उर्दू फिल्म में अपनी दिलकश आवाज़ और अदाकारी से कई दशक तक अपने कद्रदानों के दिलों पर राज करने वाली बेनजीर गायिका-अभिनेत्री ‘मल्लिका-ए-तरन्नुम’ नूरजहां का दिल बड़ा चंचल था। ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाली नूरजहां को हैंडसम पुरुष आकर्षित करते थे। यही वजह है कि उनकी ज़िंदगी में ख़ूबसूरत लम्हों के साथ-साथ बदसूरत लम्हें भी आए। अनगिनत प्रेम संबंध बनाने वाली नूरजहां ने कई पुरुषों से निकाह किया और कई पुरुषों को तलाक़ दिया। ज़िंदगी के सफ़र में उनके कितने आशिक रहे यह तो अंत तक पहेली ही रही। किंतु इतना सच है कि मोहब्बत करने का शगल उन्हें बचपन से था और यह ताउम्र बना रहा।

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रोमांस के बारे नूरजहां का 1990 के दशक में पाकिस्तान के एक नामी पत्रकार राजा तजम्मुल हुसैन को दिया गया एक बोल्ड इंटरव्यू बहुत अधिक चर्चित हुआ था। सबसे बड़ी बात उस इंटरव्यू में राजा तजम्मुल हुसैन ने हिम्मत करके नूरजहां से उनके अफेयर्स की संख्या के बारे पूछा था। इससे नूरजहां नाराज़ नहीं हुई, बल्कि बेतकल्लुफ होकर अपने रोमांसों को गिनाते हुए पंजाबी में बोली थीं कि अब तक 16 अफ़ेयर। नूरजहां ने कहां, “हाय अल्लाह! ना-ना करदियां वी 16 हो गए ने!” नूरजहां ने बड़ी साफ़गोई से स्वीकार किया कि उन्हें हैंडसम पुरुष बहुत अधिक पसंद थे। वह पंजाबी में बोली थीं, “जदों मैं सोहना बंदा देखती हां, ते मैन्नू गुदगुदी हुंदी है।”

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1969-70 में नूरजहां का रोमांस पाकिस्तान के तानाशाह राष्ट्रपति जनरल याह्या खान के साथ हुआ। हालांकि, न तो याह्या और न ही नूरजहां ने अपने रिश्ते को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं किया। कहा जाता हैं कि नूरजहां को याह्या नूरी और नूरजहां उन्हें सरकार कहकर बुलाते थे। याह्या से नाम जुड़ने के बाद नूरजहां को ‘मैडम’ पुकारा जाने लगा। एक बार याह्या ने अपने हममैकदे जनरल हमीद से कहा, “हैम, अगर में नूरी को चीफ़ ऑफ़ द स्टॉफ़ बना दूं, तो वह तुम लोगों से बेहतर काम करेगी।” जनरल याह्या के बेटे अली ख़ान के निकाह में नूरजहां ने गाने भी गाए थे। याह्या का शासन दो साल में ख़त्म हो गया लेकिन नूरजहां मरते दम तक पूरे मुल्क की ‘मैडम’ बनकर ही रहीं।

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नूरजहां के रोमांस का सिलसिला वर्ष 1942 में पंचोली पिक्चर के बैनर तले बनी फिल्म ‘खानदान’ से शुरू हुआ। इस फिल्म में नूरजहां अभिनय के साथ साथ गाने गा रही थीं। फिल्म का गाना कौन सी बदली में मेरा चांद है आ जा उनके स्वर में रिकॉर्ड हुआ जो बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘खानदान’ में अभिनय के दौरान ही नूरजहां फिल्म के निर्देशक शौकत हुसैन रिज़वी को दिल दे बैठीं। दोनों का रोमांस ख़ासा चर्चित रहा और दोनों एक दूसरे पर जान छिड़कते थे। बहरहाल, नूरजहां की मोहब्बत परवान चढ़ी और शौकत हुसैन के साथ उनका निकाह हो गया। हालांकि उनका नाम उस समय हिंदी सिनेमा के एक बड़े अभिनेता से भी रोमांस हुआ।

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नूरजहां का सबसे चर्चित इश्क पाकिस्तान के लिए टेस्ट क्रिकेट में पहली गेंद खेलने और पहला टेस्ट शतक लगाने वाले महान सलामी बल्लेबाज नज़र मोहम्मद से रहा। कहा जाता है कि 1953 में एक बार पति शौक़त हुसैन रिज़वी की अनुपस्थिति नज़र में नूरजहां से मिलने उनके घर पहुंच गए। दोनों अंदर थे कि अचानक डोरबेल बजी। आनन-फानन में नूरजहां ने आईहोल से देखा तो सामने शौहर खड़े थे। उस दिन वह अचानक सरप्राइज करते हुए घर पहुंच गए थे। लिहाज़ा, हड़बड़ी में नज़र घर की खिड़की से कूद गए और उनके बाईं बांह और बाएं पांव की हड्डियां टूट गईं। हालांकि वह लंगड़ाते हुए भाग गए थे। नज़र तब पाकिस्तानी के हीरो थे और केवल पांच ही टेस्ट खेले थे। लेकिन चोट के बाद उनका चमकता करियर वक़्त से पहले ही ख़त्म हो गया।

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हालांकि कई लोग कहते हैं कि यह वाकया नूरजहां के घर में नहीं, बल्कि होटल के कमरे में हुई थी। जहां दोनों एक ही कमरे में रुके थे। उनके ठहरने की खबर शौकत हुसैन रिज़वी को लग गई और वह पिस्तौल लेकर होटल कमरे में घुस गए। उनके हाथ में बंदूक देखकर नज़र मोहम्मद डर गए और जान बचाने के लिए खिड़की से कूद गए। इस मुद्दे पर शौक़त और नूरजहां में भारी विवाद हुआ और इसके चलते 1954 में उनका तलाक़ भी हो गया। तब नूरजहां उनके तीन संतानों की मां थीं। पंजाबी फिल्म ‘पाटे खान’ के निर्माण के दौरान नूरजहां हैंडसम दिखने वाले फिल्म वितरक मोहम्मद नसीम की ओर खिंच गईं। इस दौरान उनकी कई फिल्में फ्लॉप रहीं और नसीम से उनका रिश्ता किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले ही ख़त्म हो गया। 1959 में वह अपने से 14 साल छोटे अभिनेता एजाज़ दुर्रानी को दिल दे बैठीं। लंबे रोमांस के बाद उनके साथ से निकाह पढ़ लिया। दुर्रानी से भी उनके तीन बच्चे पैदा हुए। फिर 1970 में उनसे भी तलाक़ हो गया।

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हिंदी सिनेमा और संगीत पर कई किताबें लिखने वाले डिप्लोमेट प्राण नेविल की किताब ‘सेंटिमेंटल जर्नी टू लाहौर’ नूरजहां के इस शौक़ भी जिक्र मिलता है। किताब के मुताबिक, “नूरजहां, उसी जलसे में जाती थीं, जहां स्मार्ट पुरुष बुलाए जाते थे। 1978 में सिएटल में प्राण भारत के काउंसल जनरल थे। लोग उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाना चाहते थे। नूरजहां से इजाज़त मांगी गई, तो उन्होंने कहा कि शख़्स हिंदुस्तानी हो या पाकिस्तानी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। मेरी केवल एक शर्त है कि देखने में अच्छा होना चाहिए। बदशक्ल पुरुष देखकर मेरा मूड ऑफ़ हो जाता है। जब उन्हें बताया गया कि लाहौर में जन्में प्राण देखने में बुरे नहीं हैं। तो वह तैयार हो गईं। प्राण ने लगा है मिस्र का बाज़ार देखो की फ़रमाइश की तो उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई।”

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नूरजहां और गायिका फ़रीदा ख़ानम दोनों जिगरी दोस्त थीं और दोनों हैंडसम युवकों को देखने के लिए लालायित रहती थीं। पाकिस्तान के लाहौर के गवर्नमेंट और लॉ कालेज के बाहर मुख्य सड़क पर पर फ़रीदा ख़ानम अपनी लंबी कार पर नूरजहां के साथ बहुत तेज़ी से निकला करती थीं। लेकिन सबसे बड़ी बात, जब इनकी कार इन लड़कों के सामने से गुज़रने लगती थी तो उसकी रफ़्तार अचानक एकदम से धीमी हो जाया करती थी। कहा जाता है कि दोनों मशहूर गायिकाएं उन नौजवान छात्रों को देखते हुए गुजरा करती थीं। इस तरह दोनों उसी समय उस सड़क से गुज़रती थीं, जब सड़क पर लड़कों की आवाजाही अधिक रहती थी।

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दरअसल, नूरजहां 21 सितंबर 1926 को लाहौर से लगभग 50 किलोमीटर दूर उस छोटे से कसूर कस्बे में पैदा हुईं, जहां की फ़िज़ाओं में ही रूमानियत और रोमांस घुली हुई है। मशहूर सूफ़ी दार्शनिक बुल्ले शाह की मज़ार वहीं है। शहर की आबोहवा ही जीनियस है। यही वजह है कि यहां से कई बड़े फ़नकार निकले, जिनमें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के बड़े नाम और पटियाले घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उनके भाई उस्ताद बरकत अली खान शामिल हैं। दरअसल, नूरजहां उस दौर में मौसिक़ी की दुनिया में आईं, जब संगीत बेशक अमीर था, लेकिन फ़नकार ग़रीब हुआ करते थे। इसीलिए उनका फ़न आसाधारण होता था।

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कहा जाता है कि जब नूरजहां पैदा हुई थीं तो उनके रोने की आवाज़ सुनकर उनकी बुआ ने उनके पिता मदद अली से कहा था- “भाईजान, इस बच्ची के रोने में भी संगीत की लय आ रही है। आप भी सुनिए, यह लड़की तो रो भी सुर में रही है। देख लेना यह आगे चलकर यह बहुत बड़ी गायिका बनकर आपका नाम रौशन करेगी।” बुआ झूठ नहीं बोल रही थीं, वाक़ई नन्हीं बच्ची तरन्नुम में ही रो रही थी। आगे बुआ की बात सच साबित हुई और नूरजहां बड़ी गायिका बन गईं। उनकी गायकी में वह जादू था कि स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने जब अपने करियर का आगाज़ किया तो उनके गायन पर नूरजहां की गायकी का प्रभाव साफ़ दिखता था।

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मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी नूरजहां का असली नाम अल्लाह वसाई था। वह अपने माता-पिता की 11 संतानों में एक थीं। उनके पिता मदद अली और माता फतेह बीबी संगीत के अलावा थिएटर से भी जुड़े थे। घर का माहौल संगीतमय होने से बाल्यावस्था से ही उनका रुझान संगीत की ओर हो गया। वह किसी भी गीत को सुनते ही याद कर लिया करती थीं। इसलिए मां ने उन्हें संगीत की तालीम दिलाने का इंतजाम किया। नूरजहां ने बाल्यावस्था से ही बड़ी गायिका बनने के सपने देखने लगी। संगीत की शुरुआती हुनर कज्जनबाई से सिखने का बाद शास्त्रीय संगीत की तालीम उस्ताद गुलाम मोहम्मद और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान से ली थी। उस दौरान उनकी बड़ी बहन पहले से ही नृत्य और गायन का प्रशिक्षण ले रही थीं।

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1920-30 के दौरान कलकत्ता थिएटर का गढ़ था। मदद अली के परिचित दीवान सरदारी लाल ने कलकत्ता के एक थिएटर में पैसा लगाया था। लिहाज़ा, वह नूरजहां और उसकी दो बड़ी बहनों को कलकत्ता ले गए। वहीं नूरजहां ने फिल्मों में क़दम रखा। उनका नाम अल्लाह वसाई से नूरजहां कर दिया गया। चार साल की उम्र में फिल्मी सफ़र की शुरुआत इंडियन पिक्चर के बैनर तले बनी मूक फिल्म ‘हिंद के तारे’ में अभिनय से की। क़रीब दर्जन भर मूक फिल्मों मे अभिनय करने के बाद उन्होंने बतौर बाल कलाकार अपनी पहचान बना ली। बोलती फिल्मों का दौर शुरू होने पर नूरजहां की 1932 में आई फिल्म ‘शशि पुन्नु’ पहली टॉकी फिल्म थी।

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1935 में नूरजहां ने ‘मदान थियेटर्स’ की फिल्म ‘गैबी गोला’ के बाद ‘मिस्र का सितारा’, ‘फ़ख्रे इस्लाम’ और ‘तारणहार’ में काम किया। 1936 में आई ‘शीला’ (उर्फ़ पिंड दी कुड़ी) में उन्होंने पहली बार अभिनय के साथ गाना भी गाया। इस बीच लाहौर में कई स्टूडियो अस्तित्व में आ गए। गायकों की बढ़ती मांग के चलते नूरजहां 1937 में वापस लाहौर आ गईं। वहां उनकी मुलाकात उस वक़्त के बड़े संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती उर्फ लाहौर बाबा से हुई। कहा जाता है कि चिश्ती उस दौर में स्टेज शो में संगीत देते थे। वह नूरजहां को प्रति गाने साढ़े सात आने देने लगे। साढ़े सात आने उन दिनों अच्छी ख़ासी रकम मानी जाती थी। उसके बाद वह नियमित रूप से चिश्ती के साथ स्टेज शो में गाने लगीं।

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कोलकाता प्रवास में में उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता दलसुख पंचोली से हुई थी। उनको नूरजहां के अंदर सिनेमा की उभरती अदाकारा-गायिका दिखी। उन्होंने ‘गुल-ए-बकवाली’ फिल्म में उनको ले लिया। फिल्म में नूरजहां ने अपना पहला गाना साला जवानियां माने और पिंजरे दे विच रिकार्ड करावाया। फिल्म 1939 में रिलीज हुई और ज़बरदस्त सफल रही। नूरजहां की चर्चा मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में होने लगी। इसके बाद उनकी फिल्म ‘सजनी’ (1940) और ‘रेड सिग्नल’ (1941) आई। इसके बाद उन्होंने ‘रणजीत मूवीटोन’ की ‘ससुराल’, ‘उम्मीद’, ‘चांदनी’, ‘धीरज’ और ‘फ़रियाद’ जैसी फिल्मों में गाना गाने के साथ अभिनय भी किया।

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1942 में ही आई पंचोली पिक्चर की फिल्म ‘खानदान’ ने नूरजहां का डंका बजा दिया। ग़ुलाम हैदर की धुन पर गाना कौन सी बदली में मेरा चांद है आ जा बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘खानदान’ की सफलता के बाद वह हिंदी सिनेमा में स्थापित हो गईं। 1943 में वह बंबई में शिफ़्ट हो गईं। उसी वर्ष ‘नादान’ के रौशनी अपनी उमंगों की मिटाकर चल दिए, और या अब तो नहीं दुनिया में कहीं ठिकाना जैसे गाने काफी लोकप्रिय हुए। उनके फ़िल्मी सफ़र को आगे बढ़ाने में सज्जाद हुसैन का योगदान रहा। उनकी धुन पर ‘दोस्ती’ के गाने बदनाम मुहब्बत कौन करे, कोई प्रेम का दे संदेसा, अब कौन है मेरा, जैसे गाने हिट हुए। 1944 में ‘दुहाई’ और 1945 में ‘बडी मां’ रिलीज हुई। ‘बड़ी मां’ में उनके साथ लता और आशा भोसले ने भी अभिनय किया। उसी साल ‘विलेज गर्ल’ आई। इस दौरान शौकत हुसैन रिज़वी के निर्देशन में नूरजहां ने ‘नौकर’ और ‘जुगनू’ जैसी फिल्मों मे अभिनय किया। इन फिल्मों की कामयाबी से उनकी धाक जम गई।

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बंबई में महज चार साल में नूरजहां अपने समकालीनों से आगे निकल गईं। 1945 में पहली बार किसी महिला की आवाज़ में कव्वाली रिकॉर्ड की गई। ‘जीनत’ की कव्वाली आहें ना भरी शिकवे ना किए को उन्होंने गायिका कल्याणी, जोहराबाई अंबालेवाली और अमीरबाई कर्नाटकी के साथ गाया। वह साल उनके लिए कामयाबी का साल था। उनकी चार सुपरहिट फिल्में रिलीज़ हुईं। श्यामसुंदर तीसरे संगीतकार थे जो नूरजहां को बुलंदी तक ले गए। उनकी धुन पर ‘गांव की गोरी’ में नूरजहां ने किस तरह से भूलेगा दिल, और सजन बलम परदेसी जैसे यादगार गाने गाए। उनकी आवाज़ की रसीली मुरकियां अपने उतार-चढ़ावों के ज़रिए सुननेवालों पर ग़ज़ब का असर छोड़ती हैं। इस फिल्म का गाना बैठी हूं तेरी याद का ले करके सहारा कर्णप्रिय है। लोग ‘लाल हवेली’, और ‘मिर्ज़ा साहिबां’ जैसी उनकी क्लासिक फिल्मों के आज भी दीवाने हैं।

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1946 में आई मेहबूब ख़ान की सुपरहिट फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ ने नूरजहां को दुनिया भर में मशहूर कर दिया। इस के गानों ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले। सुरेंद्र और सुरैया के साथ नूरजहां की यह फ़िल्म भी हिट थी। तनवीर नक़वी के दिल को छीने वाले भावनापूर्ण गीतों को कालजयी संगीतकार नौशाद ने धुन में ढाला। वैसे तो फिल्म के सभी गाने सुपरहिट हुए, लेकिन नूरजहां के गाए गीत आवाज़ दे कहां है, जवां है मोहब्बत और मेरे बचपन के साथी तो इतने लोकप्रिय हुए कि तीनों गाने आज भी लोगों की जुबां पर हैं। 1947 में विभाजन के बाद वह पति शौक़त के साथ बंबई को छोड़कर लाहौर चली गईं। अभिनेता दिलीप कुमार ने उनसे भारत में ही रहने की गुज़ारिश की तो उन्होंने बड़ी बेरुखी के साथ कहा था ‘मैं जहां पैदा हुई हूं वहीं जाऊंगी।’

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लाहौर में नूरजहां ने ‘शाहनूर’ स्टूडियो की नींव रखी और 1950 में ‘चन्न वे’ का निर्माण किया। इसका निर्देशन करके वह पाकिस्तान की पहली महिला निर्देशक बन गईं। फिल्म ने बॉक्स आफिस पर खासी कमाई की। इसका गाना तेरे मुखड़े पे काला तिल वे पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय हुआ। इसका संगीत फ़िरोज़ निज़ामी का था। इसी बीच उनकी ‘जुगनू’ भी सफल रही। बाद में ‘दुपट्टा’ फिल्म आई, जिसके गाने तुम ज़िंदगी को ग़म का फ़साना बना गए, जिगर की आग से इस दिल को जलता देखते जाओ और चांदनी रातें…चांदनी रातें सरहद के दोनों पार सराहे गए। उधर, ग़ुलाम हैदर ने भी पाकिस्तान का रुख कर लिया था। उनकी और नूरजहां की जोड़ी ने ‘गुलनार’ फ़िल्म में हिट गाने दिए। उनमें सखी री नहीं आये सजनवा और लो चल दिए वो हमको तसल्ली दिए बगैर बेहद लोकप्रिय हुए।

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इस बीच नूरजहां ने ‘फतेखान’, ‘लख्ते जिगर’ और ‘इंतेजार’ अभिनय किया। पाकिस्तान में गायिका के रूप में उनकी पहली फिल्म 1858 की ‘जान-ए-बहार’ थी। इसका कैसा नसीब लाई गाना काफी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद उन्होंने अनारकली, परदेसियां और कोयल और 1961 में मिर्जा ग़ालिब जैसी सफल फिल्मों में अभिनय किया। उनकी आख़िरी फिल्म बतौर अभिनेत्री ‘बाजी’ थी जो 1963 में रिलीज़ हुई। पारिवारिक दायित्वों के कारण उन्हें उसी साल अभिनय को अलविदा करना पड़ा। हालांकि, उन्होंने गायन जारी रखा, लेकिन 1996 में संगीत और गायन से भी संन्यास ले लिया। उसी साल आई पंजाबी फिल्म ‘सखी बादशाह’ में नूरजहां ने अपना अंतिम गाना कि दम दा भरोसा गाया।

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हिंदी सिनेमा में स्थापित होने के बावजूद नूरजहां अपनी आवाज़ में नित्य नए प्रयोग किया करती थीं। गाना रिकॉर्ड करते समय उसमें अपना दिल, आत्मा और दिमाग़ सब कुछ झोंक देती थीं। इतनी मेहनत करने से रिकॉर्डिंग के समय उन्हें बहुत अधिक पसीना होता था। अपनी इन ख़ूबियों की वजह से वह ठुमरी गायकी की महारानी कहलाने लगीं। महानतम गायिकाओं में शुमार की जाने वाली नूरजहां को लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। फिल्मों में उनकी आवाज का जादू श्रोताओ के सर चढ़कर बोलता था। आज हर उदीयमान गायक की वह प्रेरणास्रोत हैं।

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1965 की भारत-पाकिस्तान जंग में नूरजहां ने पाकिस्तानी फौजियों की हौसला अफज़ाई के लिए कई गाने गाए। मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग उन्होंने फिल्म ‘कैदी’ में गाई थी। ख़ुद नूरजहां से मुत्तासिर फैज़ ने क़ुबूल किया कि इस नज़्म को नूरजहां से बेहतर कोई नहीं गा सका। फैज़ उस वक़्त मशहूर नाम थे। अपनी नज़्म के मशहूर होने के बाद वह नूरजहां के दीदार के लिए बिना बताए उनके घर पहुंच गए। हमेशा सजी संवरी रहने वाली नूरजहां को जब उनके खादिम ने बताया कि कोई फैज़ अहमद नाम का बंदा मिलने आया है, तो वह नंगे पैर, बिना किसी मेकअप के दरवाज़े पर उनसे मिलने दौड़ी चली गईं।

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नूरजहां फ़ैज़ का बेहद सम्मान करती थीं। एक जलसे में मलिका पुखराज ने फ़ैज़ को ‘भाई’ कहा तो नूरजहां ने कहा, “मैं फ़ैज़ को भाई नहीं, बल्कि महबूब समझती हूं।” इसी तरह एक मुशायरे में फ़ैज़ से उनकी नज़्म मुझसे सुनाने की मांग हुई तो वह बोले, “भाई वह नज़्म तो अब नूरजहां की हो गई है। अब उस पर मेरा कोई हक़ नहीं रहा।” करियर के शिखर पर भी पहुंचने के बावजूद भी उनकी मानवीय मूल्यों में आस्था कम न हुई। उन पर किताब लिखने वाले एजाज़ गुल कहते हैं, नूरजहां घर पर रिहर्सल करती थीं। एक बार संगीतकार निसार बज़्मी उनके घर गए और चाय देते चाय की कुछ बूंदें प्याली से छलक कर बज़्मी के जूते पर गिर गईं। नूरजहां फ़ौरन झुकीं और अपनी साड़ी के पल्लू से चाय को साफ़ करने लगीं। निसार ने रोका तो उन्होंने कहा, “आप जैसे लोगों की वजह से ही मैं इस मुक़ाम तक पहुंची हूं।”

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हमेशा यह बहस होती रही है कि नूरजहां और लता मंगेशकर में बेहतर कौन है? ‘नौशादनामा’ के लेखक राजू भारतन के अनुसार, बेशक नूरजहां लता से बेहतर थीं। ‘स्वरों की यात्रा’ में पंकज राग लिखते हैं, “उनकी असाधारण गायकी में जितनी रेंज व विविधता थी वैसा किसी गायिका में नहीं थी। उनकी रागदार आवाज़ में ग़ज़ब की तेज़ी और कशिश थी। वह बिजली-सी कौंधती थी। आरोह-अवरोह में उन्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती थी।” नौशाद के अनुसार “पाकिस्तान जाने से नूरजहां का नुकसान हुआ। वहां तब बड़े संगीतकार नहीं थे। इससे वह पंजाबी गायन तक सिमटकर रह गईं। जबकि लता के साथ तकरीबन हर भाषा के संगीतज्ञ थे और वह बेशुमार गाने गातीं।” दोनों का फ़िल्मी कैरियर संवारने वाले ग़ुलाम हैदर के अनुसार, “लता हिंदुस्तान की आवाज़ बनने के लिए ही बनी थीं। और नूरजहां पाकिस्तान की।”

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वर्ष 1982 में इंडिया टॉकी के गोल्डेन जुबली समारोह में नूरजहां को भारत आने को न्योता मिला। फ़रवरी की वह शाम बेहद यादगार शाम थी। दिलीप कुमार ने उनका इस्तकबाल करते हुए कहा था, “नूरजहां जी, जितने बरस के बाद आप हमसे मिलने आईं हैं, ठीक उतने ही बरस हम सबने आपका इंतज़ार किया है।” सुनकर वह उनके गले लगकर भावुक हो उठीं। उन्होंने सिर्फ एक गाना ही गया और वह था, ‘आवाज़ दे कहां है, दुनिया मेरी जवां है।’ गीत के दर्द को हर किसी ने महसूस किया। उन्होंने कहा, “मैं भी अल्लाह से दुआ मांगती रहीं कि एक बार मरने से पहले हिंदुस्तान के दोस्तों से मिलवा दे।”

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हिंदी फिल्मों के अलावा नूरजहां ने पंजाबी, उर्दू और सिंधी फिल्मों में भी अपनी आवाज़ से श्रोताओं को मदहोश किया। उन्होंने कुल 10 हजार गाने गाए। पाकिस्तान में 14 फिल्में बनाईं जिसमें 10 उर्दू फिल्में थीं। उन्हें मल्लिका-ए-तरन्नुम (क्वीन ऑफ मेलोडी) सम्मान से नवाजा गया। 1966 में उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र में पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान ‘तमगा-ए-इम्तियाज़’ दिया गया था। 74 साल की उम्र में 23 दिसंबर 2000 को दिल का दौरा पड़ने से नूरजहां का निधन हो गया।

रिसर्च और लेख – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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नूरजहां की गायिकी का दुर्लभ विडियो

 

मुंबई में लोकल रेल सेवा करीब तीन महीने बाद 15 जून 2020 से बहाल

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मुंबई में लोकल रेल सेवा करीब तीन महीने बाद 15 जून 2020 से बहाल

करीब तीन महीने के लंबे अंतराल के बाद मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली उपनगरीय रेल सेवा सोमवार (15 जून से 2020) आंशिक रूप से बहाल कर दी गई है। यह सेवा वैश्विक महामारी कोरोना वाइरस के प्रकोप के चलते लागू किए गए लॉकडाउन के कारण 22 मार्च से बंद कर दी गई थी।

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पश्चिम रेलवे और मध्य रेलवे के मुख्यजन संपर्क अधिकारी रवींद्र भाकर और शिवाजी सुतार ने अपील की है कि शुरुआती दौर में लोकल सेवा केवल राज्य सरकार के उन कर्मचारियों के लिए है, जो अति आश्यक सेवा से जुड़े हुए हैं। स्टेशन में प्रवेश केवल परिचय पत्र देखकर दिया जाएगा। रेलवे ने आम लोगों के अपील की है कि वे अनावश्यक रूप से स्टेशन पर न पहुंचें।

रेलवे की अंग्रेज़ी प्रेस विज्ञप्ति का हिंदी अनुवाद

पश्चिम रेलवे एवं मध्य रेलवे की संयुक्ति प्रेस विज्ञप्ति

पश्चिम रेलवे और मध्य रेलवे ने अपनी उपनगरीय रेल सेवाओं को सेवाएं आंशिक तौर पर आज से बहाल कर दिया है। यह सेवा आम नागरिकों के लिए नहीं, बल्कि केवल राज्य सरकार के आवश्यक सेवा से जुड़े हुए कर्मचारियों के लोगों के लिए है।

पश्चिम रेलवे

पश्चिम रेलवे चर्चगेट और दहाणु रोड के बीच अपनी 12 कोच की उपनगरीय सेवाओं में रोज़ाना कुल 120 अर्थात 60 अप और 60 डाउन गाड़ियों का संचालन करेगा। यह सेवा आज सुहब यानी सोमवार, 15 जून, 2020 से शुरू हो गई है। यह सेवा केवल आवश्यक सेवाओं की ड्यूटी पर लगे राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए है।

ये ट्रेनें 15 मिनट के अंतराल पर सुबह 5.30 बजे से रात 11.30 बजे तक चल रही हैं।

अधिकतम सेवाएं चर्चगेट और विरार के बीच चल रही है। लेकिन कुछ ही ट्रेन डहाणु रोड तक चल रही हैं।

ये ट्रेन चर्चगेट और बोरिवली के बीच तेज लोकल और बोरिवली के आगे धीमी चल रही हैं।

मध्य रेल

मध्य रेल ने राज्य सरकार के आवश्यक कर्मचारियों के लिए मुंबई डिवीजन (मध्य रेल) की लोकल सेवा को आंशिक रूप से बहाल कर दिया है।

  • रोज़ाना कुल 200 ट्रेन सेवाएं चलेंगी जिनमें 100 अप और 100 डाउन ट्रेन होंगी।
  • छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस से कसारा/कर्जत/कल्याण/ठाणे के बीच 130 सेवाएं (65 अप और 65 डाउन) शुरू हो गई है।
  • छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस से पनवेल के बीच 70 ट्रेन सेवाएं (35 अप और 35 डाउन) शुरू हो गई है।
  • सभी गाडियां फास्ट हैं और केवल प्रमुख स्टेशनों पर रुक रही हैं।
  • बाहर से आनेवाली गाड़ियां छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस पर सुबह 7 बजे, 9 बजे, 10 बजे, दोपहर 3 बजे, रात 9 बजे और रात 11 पहुंचेंगी और छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस से सुबह 7 बजे, 9 बजे, दोपहर 3 बजे, शाम 6 बजे, रात 9 बजे, 11 बजे रवना होंगी।
  • राज्य सरकार नोडल अथारिटी होगी।
  • राज्य सरकार की आवश्यक सेवाओं में लगे पश्चिम रेलवे पर चलने वाले 50 हजार कर्मचारियों सहित लगभग
  • 25 लाख कर्मचारी इन ट्रेनों से यात्रा करेंगे।
  • यह विशेष उपनगरीय सेवाएं सेवा सामान्य यात्रियों या जनता के लिए नहीं होंगी और केवल राज्य सरकार के आवश्यक सेवा कर्मचारियों के लिए ही होगी। इसका सख्ती से पालन किया जाएगा।
  • इसके लिए हर स्टेशन पर रेलवे की टिकट खिड़की को खोल दिया गया है।
  • आवश्यक सेवा से जुड़े रेलवे कर्मचारियों पहले से चल रही गाड़ियां चलती रहेंगी।
  • विभिन्न स्टेशनों पर रेलवे सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है।
  • फूड (खाद्य सामग्री) स्टॉल नहीं खोले जाएंगे।
  • स्टेशन में प्रवेश केवल परिचय पत्र के आधार पर दिया जाएगा।
  • हर ट्रेन में 700 यात्री ही यात्रा कर सकेंगे।
  • यात्रियों की स्टेशन में प्रवेश करने से पहले बुखार वगैरह की स्क्रिनिंग की जाएगी।
  • सभी यात्रियों को केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश मसलन मास्क, और सोशल डिस्टेंसिग का पालन करना होगा।

विशेष अपील

आम लोगों से यह अनुरोध किया जाता है कि कोविड़-19 के चलते अनावश्यक रूप से स्टेशनों पर न जाएं और चिकित्सा और सोशल दूरी जैसे प्रोटोकॉल का पालन न करें।

रवींद्र भाकर/ शिवाजी सुतार
मुख्यजन संपर्क अधिकारी

पश्चिम रेलवे/मध्य रेलवे

 

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क्या अपने प्यार को कभी भूल ही नहीं पाए सुशांत?

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जिस स्टारडम, जिस शोहरत, जिस कामयाबी, जिस धन-दौलत या जिस ऐशो आराम को हासिल करने के लिए कोई इंसान ज़िंदगी भर भागता रहता है। तो क्या ये तमाम उपलब्धियां भी उसे अंततः संतुष्ट नहीं कर पाती है? तो क्या स्टारडम, शोहरत, कामयाबी, धन-दौलत या ऐशो आराम संतुष्टि की गारंटी नहीं होता? यानी इंसान इनसे भी संतुष्ट नहीं होता है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के असल में मौत को गले लगा लेने के बाद हर कोई यही सवाल कर रहा है और अपने ढंग से जवाब खोज रहा है।

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कोरोना संक्रमण और लोग-बाग़ अपनी या अपने परिजन की मौत को भूल कर यही सवाल कर रहे हैं। कुछ लोग यह सवाल मित्रों से कर रहे हैं, कुछ लोग यह सवाल ख़ुद से तो मीडिया वाले यही सवाल ग्लैमर दुनिया के लोगों से कर रहे हैं। कुछ लोग यह सवाल सोशल मीडिया पर कर रहे हैं। तो कुछ लोग सदमे में आकर यह सवाल कर रहे हैं। और यह सवाल जितना किया जा रहा है, उतना ही जटिल होता जा रहा है। मशहूर पटकथा लेखक संजय मासूस ने इसी तरह का सवाल फेसबुक पर किया है।

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दरअसल, किसी के समझ में ही नहीं आ रहा है कि आख़िर यह अचानक क्या हो गया। जिस अभिनेता से बॉलीवुड में लोग बहुत लंबी पारी खेलने की उम्मीद कर रहे थे, उसका महज 34 साल में अपने जीवन से मोहभंग कैसे हो गया? आख़िर ऐसा क्या हो गया, जिससे पल भर में सुशांत को लगा कि जीवन ही बेकार है, नश्वर है। उन्हें क्यों लगा कि जो जीवन वह जी रहे हैं, वह जीवन नहीं, जो कुछ वह कर रहे हैं, वह कार्य नहीं है, जो कुछ वह हासिल कर रहे हैं, उसे तो उन्होंने हासिल करने की सोची ही नहीं।

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यानी भले लोग स्टारडम, शोहरत, कामयाबी धन-दौलत या ऐशो आराम को ही अपना जीवन मान लें, लेकिन सुशांत ने नहीं माना। उनके लिए यह सब कुछ हासिल करना जीवन नहीं था। फिर सुशांत के लिए जीवन क्या था? सांस लेना ही जीवन नहीं था? किसी का साथ जीवन नहीं था? या संबंध जीवन नहीं था, तब आख़िर सुशांत के लिए जीवन क्या था? क्या वह जीवन में बहुत अकेले हो गए थे। क्या यही अकेलापन ने अंततः उन्हें अपनी इहलीला ख़त्म करने के लिए मजबूर कर दिया?

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बिहार के पूर्णिया के रहने वाले सुशांत ने 2008 से कैमरे के सामने अभिनय की शुरुआत की। ‘किस देश में है मेरा दिल’ नाम के धारावाहिक में छोटे पर्दे पर करियर की शुरुआत की थी। बालाजी फिल्म्स की एकता कपूर की ज़ी टीवी पर प्रसारित धारावाहिक ‘पवित्र रिश्ता’ से उन्हें समर्थ अभिनेता की अलग पहचान मिली। उन दिनों एक्टिंग के साथ-साथ सुशांत और अंकिता के रिलेशनशिप के भी चर्चे होते थे। दोनों की जोड़ी को टीवी दर्शकों ने खूब पसंद किया था।

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बड़े परदे पर अपने करियर की शुरुआत सुशांत ने फिल्म ‘काय पो चे!’ से की। उस फिल्म में सुशांत मुख्य अभिनेता थे और उनके अभिनय की बहुत तारीफ़ भी हुई थी। सुशांत रूपहले परदे पर दूसरी बार शुद्ध देसी रोमांस में वाणी कपूर और परिणीति चोपड़ा के साथ दिखे थे। सुशांत ने सबसे ज्यादा चर्चा, कामयाबी और शोहरत भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान एम एस धोनी का किरदार निभा कर बटोरी थी। निर्देशक नीरज पांडे की एम एस धोनी की बायोपिक सुशांत के करियर की पहली फिल्म थी, जिसने सौ करोड़ रुपए का कलेक्शन किया। इसके अलावा सुशांत ने फिल्म ‘सोनचिड़िया’ और ‘छिछोरे’ जैसी फिल्मों में काम किया। उनकी अंतिम फिल्म ‘केदारनाथ’ थी जिसमें वे सारा अली खान के साथ दिखे थे। उनकी अपकमिंग फिल्म किजी और मैनी थी। कुछ समय पहले इस फिल्म का फर्स्ट लुक भी रिलीज हुआ था। कभी-कभी हम क्या सोचते हैं और हो कुछ और जाता है। संभवतः सुशांत ने भी जो कुछ सोचा होगा, उस हिसाब से कुछ घटित नहीं हुआ।

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सुशांत की रोमांस की बात करें तो भले पिछले कुछ दिनों से अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती के साथ उनका नाम जोड़ा जा रहा था, लेकिन अपनी पहली कोस्टार अंकिता लोखंडे को संभवतः सुशांत कभी भूल ही नहीं सके। दरअसल, अंकिता ने भी ‘पवित्र रिश्ता’ से ही अपने अभिनय रूपी सफर की शुरुआत की थी। माना जाता है कि दोनों के बीच बहुत लंबे समय तक रिश्ता रहा। दोनों लिव-इन रिलेशन में रहते थे।

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बहरहाल, ब्रेकअप के बाद सुशांत अपनी गर्लफ्रेंड अंकिता से रिश्ता भले ख़त्म हो गया हो, लेकिन सुशांत अंकिता को भूल नहीं सके। वह अंकिता को बुरी तरह मिस करते थे। एक बार सुशांत से अंकिता के बारे में पूछा गया, तो सुशांत भावुक हो गए थे। सुशांत ने ट्विटर पर 16 अप्रैल 2016 को एक भावुक स्टेटस भी शेयर किया था। इससे साफ पता लगा कि अंकिता से ब्रेकअप के बावजूद सुशांत उस रिश्ते से कभी बाहर नहीं आ पाए।

यह संयोग या दुर्योग है कि कुछ दिन पहले ही सुशांत की पूर्व मैनेजर रहीं दिशा सालियान ने भी ख़ुदकुशी कर ली थी। दिशा मुंबई के मालाड में अपने मॉडल-एक्टर मंगेतर रोहन राय के साथ रहती थी और उसी इमारत की 14वीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी।

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और कुछ दिन बाद ख़ुद सुशांत भी आत्महंता बन गए। क्यों कहते हो आत्महंताओं को कायर, सबको पड़ेगा लगाना फांसी एक दिन।

लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा

चीन जानता है, चीनी सामान के बिना नहीं रह सकते भारतीय

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WhatsApp-Image-2020-06-16-at-10.26.08-PM-287x300 चीन जानता है, चीनी सामान के बिना नहीं रह सकते भारतीय

क्या आपको पता है, भारत के लोग चीनी अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं। हर साल चीनी कंपनियां भारत से 5 लाख 60 हजार करोड़ रुपए का मुनाफा कमा कर अपने देश चीन ले जाती हैं। भारत में मोबाइल फोन के बाजार में चीनी कंपनियों की हिस्सेदारी 72 फ़ीसदी है। इसी तरह आटोमोबाइल सेक्टर में चीन की भागीदारी 40 फीसदी है। इसी तरह फ्रिज-एयरकंडिशन आदि क्षेत्र में चीनी कंपनियां भारत में बड़ा कारोबार कर रही है।

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चीन से संबंधित मामलों पर नज़र रखने वाले दुनिया भर के विशेषज्ञ आम राय से मानते हैं कि भारतीय नागरिकों की फितरत ही ऐसी होती है कि वे सस्ते सामान की ओर दुनिया के दूसरे देशों के नागरिकों की तुलना में बहुत अधिक आकर्षित होते रहे हैं और एक तरह से सस्ते सामान के बिना रह ही नहीं सकते हैं। विश्व में सबसे सस्ते सामान बनाने वाला चीन भारतीयों की इस मानसिकता का ही फायदा उठा रहा है और भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने की हिमाक़त करता रहा है। यही वजह है कि चीन और भारत के सैनिकों की झड़प हो रही है।

 

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चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के मुखपत्र “ग्लोबल टाइम्स” ने चीन पर नज़र रखने वाले कई विशेषज्ञों से बातचीत के बाद इस बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन में निर्मित सामान और चीनी सॉफ्टवेयर भारतीय नागरिकों के लिए ऑक्सीजन की तरह हैं। भारतीयों को चीन में बने सामान न मिले तो वे ज़िंदा ही नहीं रह पाएंगे। इसलिए चीनी सरकार को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि भारत से संबंध ख़राब होने पर चीनी कंपनियों के भारत में हो रहे लाखों करोड़ रुपए के मुनाफ़े पर कोई असर पड़ेगा।

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संभवतः यही वजह है कि जब चीन ने आतंकवादी मौलाना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की मांग को वीटो किया था, तभी से भारत में देशभक्ति का राग आलापने वाले लोग पिछले गला फाड़-फाड़ कर चाइनीज़ प्रॉडक्ट के इस्तेमाल को बंद करने की अपील कर रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त में चीनी प्रॉडक्ट के व्यसनी हो चुके भारतीय नागरिक अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। हालत यह है कि पिछले साल चीनी कंपनियों का भारत में कारोबार दिन दूना-रात चौगुना बढ़ता हुआ 5 लाख 60 हज़ार करोड़ रुपए के फीगर को पार कर गया।

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चीन के अस्तित्व को अगर मानवता ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता के लिए ख़तरा कहा जाए तो न तो अतिशयोक्तिपूर्ण होगा और न ही किसी तरह की ग़लत बयानबाज़ी। यही वजह है कि चीन जहां है, वहां विवाद से उसका नाता रहा है। चीन 1949 से तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर रखा है। हांगकांग में कत्लेआम शुरू कर दिया है। दक्षिण चीन सागर के बारे में तो चीन ने अंतरराष्ट्रीय अदालत का फ़ैसला ही मानने से इनकार कर दिया। चीन का भारत ही नहीं बल्कि जापान, वियतनाम, दक्षिण कोरिया

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इन सबके लिए चीन की मध्यकाल वाली विस्तारवादी सोच ही ज़िम्मेदार है। चीन की इसी नीति के चलते आज सीमा पर कमोबेश यह युद्ध जैसे हालात हैं। चीन की सेना भारत के लद्दाख में कई किलोमीटर अंदर तक आ गई हैं। इसके बावजूद भारत में चीनी कंपनियों के कारोबार का ग्राफ बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है।

यही वजह है कि भारत और चीन के तनावपूर्ण सीमा विवाद के बीच रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता शिक्षविद सोनम वांगचुक का चीनी सामानों और सॉफ्टवेयर्स का बहिष्कार करने वाला वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ। योगगुरु बाबा रामदेव समेत अनेक नामचीन लोगों ने इस वीडियो में सोनम की कही बातों का समर्थन करते हुए चीनी सामान और सॉफ्टवेयर्स के वहिष्कार की अपील की। लेकिन इसके बावजूद चीन निर्मित सामनों और सॉफ्टवेटर का इस्तेमाल जस का तस है।

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चीनी उत्पाद के बायकॉट के आह्वान के बावजूद चीनी कंपनी बाइटडांस का सॉफ्टवेयर टिकटोक भारत में लोकप्रियता के शिखर पर है। इस सॉफ्टवेयर ने भारत में यू-ट्यब को भी पीछे छोड़ दिया है। इस ऐप को आज भी तक़रीबन हर भारतीय ख़ासकर युवाओं के मोबाइल में देखा जा सकता है। इसी तरह शेयर इट के ऐप भारत में बेहद लोकप्रिय हैं। चीनी मोबाइल फोन और टैब बनाने वाली शाओमी एमआई के उत्पाद भारत में सैमसंग को पीछे छोड़ चुके हैं।

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चीनी मोबाइल फोन ओप्पो, विवो, वनप्लस, हुवेई, कूलपैड, मोटोरोला, लीइको, लेनेवो, मीज़ू, टेक्नो, होनोर, जियोनी, जीफाइव और टीसीएल भारतीय बाज़ार में छाए हुएं हैं। इनका इस्तेमाल जिस तरह लोग कर रहे हैं, उससे यह तय है कि लाख अपील की जाए, लेकिन भारतीय नागरिक कभी इनसे मुक्त नहीं हो सकते। भारत में लोकप्रिय कई स्वदेसी और गैरचीनी कंपनियों में चीनी कंपनियों ने निवेश कर रखा है। मसलन पेटीएम और स्नैपडील में अलीबाबा, हाइक मेसेंजर, मेक माई ट्रिप और फ्लिकार्ट में चीनी कंपनी टेंसेंट होल्डिंग्स का भारी निवेश है। इसी तरह ओला का बड़ा स्टैक चीन की दीदी चूइंग ने ले रखा है।

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चायनीज इंस्टिट्यूट ऑफ़ कन्टेम्पोरेरी इंटरनेशनल रिलेशन से संबंध साउथ एशियन स्टीज़ के उपनिदेशक लॉऊ चुन्हावो कहते हैं, चीनी उत्पादों के ख़िलाफ़ भारत में यह कोई पहला अभियान नहीं है। जब भी चीन ऐसा कुछ करता है, तो भारत के हितों के प्रतिकूल जाता है, तब तब चीनी सामानों के बहिष्कार की बात की जाती है, लेकिन मामला थोड़े दिन में टांयटांय फिस्स हो जाता है। चीनी सामानों के बिना जीवन-यापन भारत के लोगों के लिए बहुत मुश्किल है।

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चुन्हावो कहते हैं कि चीनी बाज़ार में चीनी मोबाइल कंपनियों की बागीदारी 72 फीसदी है। इसे खत्म करना असंभव है। चुन्हावो आगे कहते हैं कि स्मार्ट टीवी कारोबार में चीनी कंपनियों का हिस्सेदारी 45 फीसदी है। फिर चीनी टीवी दूसरे ब्रांडों से 20 से 45 फीसदी सस्ता होता है। इसके अलावा चीन में बने रेफ्रिजरेटर, घड़ी, कैलकुलेटर और अन्य सामानों से भारतीय बाज़ार भरे पड़े हैं। इसके अलावा दूसरे ढेर सारे क्षेत्र में भी चीनी उत्पादों पर भरात की बुरी तरह निर्भरता है। भारत में स्वदेशी उत्पादन का देश के जीडीपी में हिस्सेदारी केवल 16 फीसदी है। ऐसे में भारतीय कंपनियां चीन का स्थान लेने की हालत में नहीं हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कफनचोर बीएमसी – 300 रुपए के बॉडी बैग का टेंडर 6719 रुपए में दे दिया

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मानवता का तकाजा यह है कि जहां लोग बड़ी तादाद में मर रहे हों, वहां कोई भी संवेदनशील आदमी या संस्थान न तो राजनीति करता है और न ही उस मुद्दे पर कोई सौदेबाजी करता है, लेकिन शिवसेना शासित बृहन्मुंबई महानगर पालिका के अधिकारी और नगरसेवक मातम के माहौल में भी मुंबई की जनता को चूना लगा रहे हैं।

Iqbal-Singh-Chahal-300x149 कफनचोर बीएमसी – 300 रुपए के बॉडी बैग का टेंडर 6719 रुपए में दे दिया

कोरोना संक्रमण काल में मुंबई भारत का न्यूयॉर्क बन गई है। अस्पतालों में लोगों को भर्ती करने के लिए जगह नहीं है। मुरदाघरों में शवों को रखने के लिए जगह नहीं बचा है। कहने का मतलब यहां हर नागरिक ज़िंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। लेकिन देश की आर्थिक राजधानी में बृहन्मुंबई महानगर पालिका के अफसरान शव को लपेटने वाले बॉडी बेग के लिए मनमाना टेंडर मंजूर करके मोल लगाकर अपनी जेब भरने में लगे हैं।

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सबसे बड़ी बात कोरोना से मरने वाले मरीजों के शव को कवर करने वाले प्लास्टिक बॉडी बैग की कीमत बाज़ार में केवल 200 रुपए से 300 रुपए के बीच में है। बड़े पैमाने पर खरीदारी करने पर बॉडी बैग की कीमत केवल 150 रुपए तक पड़ती है। लेकिन बीएमसी प्रति बॉडी बैग 6719 रुपए कीमत वाले टेंडर को मंजूर किया है।

Uddhav-Thackeray-300x300 कफनचोर बीएमसी – 300 रुपए के बॉडी बैग का टेंडर 6719 रुपए में दे दिया

सबसे अहम बीएमसी ने बॉडी बैग की आपूर्ति करने का टेंडर वेदांत इन्फोटेक प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी को दिया है। मजेदार बात यह है कि वेदांत इन्फोटेक प्लास्टिक का सामान बनाती ही नहीं, बल्कि यह कंपनी मेटल कास्टिंग का काम करती है।

KEM-dead-bodies-300x175 कफनचोर बीएमसी – 300 रुपए के बॉडी बैग का टेंडर 6719 रुपए में दे दिया

बीएमसी में हुए इस कथित बॉडीबैग घोटाले के बाद बीएमसी कमिश्नर इकबाल सिंह चहल और महापौर किशोरी पेंडणेकर सवालों के घेरे में आ गए हैं। कमिश्नर ने कहा है कि इस सौदे को रद कर दिया गया है। हालांकि राज्य के हेल्थ मिनिस्टर राजेश टोपे ने कहा है है कि उन्होंने बीएमसी कमिश्नर इकबाल सिंह चहल को इस पूरे मामले की जांच कराने और धांधली करने वाले अधिकारी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने का निर्देश दिया है।

Corona-Mumbai-300x167 कफनचोर बीएमसी – 300 रुपए के बॉडी बैग का टेंडर 6719 रुपए में दे दिया

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पाक के बाद नेपाल सीमा पर भी नागरिक असुरक्षित, नेपाल पुलिस ने भारतीय की गोली मार कर की हत्या

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अभी तक सीमावर्ती क्षेत्रो में भारतीयों नागरिकों के लिए केवल पाकिस्तान और चीन ख़तरा थे, लेकिन अब अक नया फ्रंट खुल गया है। वह है भारत नेपाल सीमा। यहां भी भारतीय नागरिक सुरक्षित नहीं हैं। भारत-नेपाल की सीमा सुरक्षा की निगरानी करने वाले नेपाल आर्म्ड पुलिस फोर्स ने शुक्रवार सुबह बिहार के सीतामढ़ी के पास एक सीमा चौकी गोलीबारी की जिससे सीतामढ़ी के सोनबरसा के 25 वर्षीय विकेश राय नाम के एक भारतीय नागरिक की मौत हो गई और सोनबरसा के ही उमेश राम और उदय शर्मा नामके दो अन्य नागरिक घायल हो गए। उन्हें सीतामढ़ी के ही एक अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

बिहार पुलिस ने एक भारतीय नागरिक की हत्या की पुष्टि करते हुए कहा कि गोलाबारी सुबह 8.15 बजे सोनबरसा पुलिस थाने के जानकी नगर, लालबंदी दरबार के पास पिलर नंबर 319/24 के नेपाल में हुई। हालांकि नेपाल और बिहार के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और नेपाल आर्म्ड पुलिस फोर्स ने इसे स्थानीय घटना बताया और कहा कि इसका भारत-नेपाल सीमा विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। सीतामढ़ी पुलिस के अनुसार, नेपाल आर्म्ड पुलिस फोर्स ने स्थानीय महिलाओं के एक समूह को सीमा चौकी से दूर जाने के लिए कहा। सोनबरसा में शांति नगर के रामलगन राय को नेपाल के जवानों ने हिरासत में ले लिया था। इससे भीड़ की उनके साथ झड़प हुई और नेपाली जवानों ने गोलियां चला दीं।

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गोलीबारी में मारे गए विकेश राय के पिता नागेश राय ने कहा कि नेपाल के नारायणपुर क्षेत्र में उकी कृषि भूमि है। उनका बेटा विकेश खेतों में काम कर रहा था, तभी जब नेपाली जवानों ने गोलियां चला दी। सोनबरसा के लोगों की नेपाल सीमा में जमीन है। इन दिनों कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते उन्हें अपने खेतों में जाने की अनुमति नहीं दी जा रही है।

उधर काठमांडू में नेपाल के गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि लगभग 60 लोग सोनबरसा से सरलाही जिले की सीमा में दाखिल हुए और चेक के लिए रोके जाने पर जवानों पर पथराव शुरू कर दिया। सरलाही के मुख्य जिला अधिकारी मोहन जी सी ने कहा कि भीड़ में से एक भारतीय नागरिक ने भी नेपाल के जवानों की राइफल छीन ली और उसके बाद हुई गोलीबारी में एक भारतीय नागरिक की मौके पर ही मौत हो गई और तीन सुरक्षाकर्मियों सहित छह अन्य लोगों को चोटें आईं। अधिकारी ने कहा, “आमतौर पर सीमा पर पुलिस संयम बरतती है, लेकिन लॉकडाउन के समय सीमा पार से भीड़ के हिंसक व्यवहार के कारण गोलीबारी हुई।” सीतामढ़ी के अधिकारियों ने सीमा पार अपने समकक्ष अधिकारियों से बातचीत की है।

पिछली बार जब भारत पर नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी लागू की गई थी, उसके पांच हफ्ते पहले सीमा पर गोलीबारी की ऐसी घटना हुई थी। 3 नवंबर, 2015 को नेपाल पुलिस ने देश के नए संविधान के विरोध में लोगों द्वारा कब्जा किए गए सीमा पुल को साफ करने के लिए गोली चलाई थी, जिसमें बिहार में रक्सौल के 20 वर्षीय निवासी आशीष कुमार राम की मौत हो गई थी।

सीतामढ़ी के पुलिस अधीक्षक अनिल कुमार ने कहा, “यह पूरी तरह से स्थानीय घटना है, जिसे नेपाल आर्म्ड पुलिस फोर्स की ओर से मामूली कानून-व्यवस्था प्रबंधन मुद्दे से उकसाया गया है। इसका भारत-नेपाल सीमा पर किसी भी तनाव से कोई लेना-देना नहीं है। कोरोना वायरस संक्रमण की रोकथाम के उपायों के मद्देनजर दोनों ओर से नागरिकों की आवाजाही प्रतिबंधित है।” बिहार के पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे ने भी इसे ‘स्थानीय मुद्दा’ मुद्दा बताया है।

सशस्त्र सीमा बल 51 बटालियन कमांडेंट नवीन कुमार ने कहा, “हमारा मानना ​​है कि नेपाल आर्म्ड पुलिस फोर्स स्थिति को बेहतर तरीके से संभाल सकता था। हम उनसे बात कर रहे हैं। यह सच है कि कोविड-19 के कारण सीमा पर आवागमन प्रतिबंधित है और दोनों ओर के लोग न तो अपनी जमीन तक जा सकते हैं न ही अपने रिश्तेदारों से स्वतंत्र रूप से मिल सकते हैं।”

एसएसबी के महानिदेशक कुमार राजेश चंद्र ने कहा, “यह पूरी तरह से स्थानीय मुद्दा है जिसमें कोई देश-से-देश या सेना-से-सेना का कोई लेना-देना नहीं हैं। मामले को सुलझाने के लिए दोनों ओर से स्थानीय पुलिस एक दूसरे से बातचीत कर रही है। हमारा डीआईजी नेपाल अधिकारी के संपर्क में है। सीमा पर कोई तनाव नहीं है।”

नेपाल में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अपने नए नक्शे के लिए संसदीय स्वीकृति प्राप्त करने के लिए नेपाल संसंद में विधेयक पेश किया है जिसमें उत्तराखंड के कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा के क्षेत्र को नेपाल का हिस्सा बताया गया हैं। शनिवार को विधेयक को प्रतिनिधि सभा में मतदान करने के लिए रखा जाएगा जहां सरकार के फैसले के समर्थन में पार्टी लाइनों के सदस्य सामने आए हैं। एक बार जब यह निचले सदन को मंजूरी दे देता है, तो विधेयक उच्च सदन यानी राष्ट्रीय सभा में चला जाएगा।

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मुंबई में कई समाज का नेतृत्व वायरसग्रस्त

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मोहित भारतीय

प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक जॉन कैल्विन मैक्सवेल ने लीडरशिप के पांच लेवल की व्याख्या करते हुए बताया है कि पद यानी पोजिशन से लीडरशिप स्थापित करना तो बहुत आसान है लेकिन असली लीडर वह होता है जिसे लोग उसके पद के कारण नहीं, बल्कि उसके व्यक्तित्व के कारण जानें और स्वेच्छा से उसे फॉलो करें। जनता उसी को फॉलो करती है जो जनता के जीवन में कुछ बदलाव लाता है, जो जनता को संरक्षण का अहसास कराता है और जो सदैव जनता की बेहतरी के लिए कार्य करता रहता है। डिजिटल और सोशल मीडिया के चलते लीडर्स का अपनी जनता के साथ उठना, बैठना, उनके दर्द, तकलीफ़ समझना उनके साथ व्यक्तिगत तौर पर कनेक्ट बनाने की प्रकिया घटती जा रही है। यही कारण है कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में उत्तर भारतीय नेताओं का अपने मतदाताओं पर प्रभुत्व घटता जा रहा है जो बहुत ही चिंताजनक विषय है, क्योंकि कहीं न कहीं मतदाताओं का विश्वास और मज़बूत वोट बैंक,  विधान सभा और लोकसभा सीट के टिकट वितरण के दौरान एक अहम् भूमिका निभाते हैं।

Migrant-Labour-300x225 मुंबई में कई समाज का नेतृत्व वायरसग्रस्त

कोरोना के संक्रमण काल में मुंबई को अपने ख़ून-पसीने से सींचने वाले उत्तर भारतीय समाज को धाकड़ नेतृत्व के अचानक पड़े अकाल की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। इस वैश्विक महामारी के चलते अभी कुछ दिन पहले रोज़गार खोने वाले उत्तर भारतीय समाज के लोग ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में बदहवाश से जब अपने मुलुक भाग रहे थे, तब मुंबई में उनकी खोज-ख़बर लेने वाला लीडरशिप उनके साथ था ही नहीं। प्रवासी मज़दूरों का अपने आप टैंकर, ट्रक, ऑटो और यहां तक कि पैदल ही अपने घरों की तरफ निकल जाने का निर्भीक कदम, यही बताता है कि उत्तर भारतीय लोगों का न तो यहां की सरकार पर विश्वास था और न ही यहां पर उन्हें अपना ऐसा कोई लीडर या नेता नज़र आया जिससे लोग मदद की गुहार लगा सकते थे या जो उन्हें उनकी सुरक्षा का विश्वास दिला सकता था।

Migrant-Labour-2-300x178 मुंबई में कई समाज का नेतृत्व वायरसग्रस्त

इसकी सबसे बड़ी वजह 2009 से 2019 के बीच मुंबई के राजनीतिक दृश्य से उत्तर भारतीय समाज के नेताओं का धीरे-धीरे ग़ायब हो जाना और मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ जाना है। उत्तर भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले नेताओं की सार्वजनिक जीवन में मौजूदगी का आकलन करें, तो स्थिति एकदम से साफ़ हो जाती है। फिलहाल, मुंबई में उत्तर भारतीय समाज की आवाज़ बुलंद करने वाली आवाज़ ही नहीं है। इसी वजह से शहर में एक बड़ी जनसंख्या के बावजूद राजनीतिक पटल पर उत्तर भारतीयों की उपस्थिति नहीं के बराबर हो गई है।

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मुंबई की पिछले दस साल की चुनावी राजनीति पर नज़र दौड़ाएं तो सबसे अधिक घाटा केवल और केवल उत्तर भारतीय समाज का हुआ है। इस दौरान बड़े से बड़े उत्तर भारतीय नेता एक-एक करके अप्रासंगिकऔर महत्वहीन होते गए और अब उनका अकाल साफ़ नज़र आता है। 2009 में जहां मुंबई के 36 विधायकों में से 19 गैर-मराठी थे। उनमें छह मुसलमान, चार दक्षिण भारतीय, तीन उत्तर भारतीय, तीन गुजराती/मारवाड़ी, दो पंजाबी और एक ईसाई विधायक थे। इसी तरह मुंबई के छह सांसदों में संजय निरुपम के रूप में एक हिंदीभाषी, प्रिया दत्त के रूप में एक पंजाबी, मिलिंद देवड़ा के रूप में एक मारवाड़ी, गुरदास कामत के रूप में एक दक्षिण भारतीय और एकनाथ गायकवाड़ और संजय पाटिल के रूप में दो मराठी थे।

Corona-Mumbai-300x167 मुंबई में कई समाज का नेतृत्व वायरसग्रस्त

2019 के आते-आते राजनीतिक परिदृश्य एकदम ही बदल गया। मुंबई के गैर-मराठी विधायकों की संख्या 19 से घटकर 11 रह गई। इस दौरान गुजराती/मारवाड़ी का प्रतिनिधित्व बढ़ा और उनके विधायक तीन से बढ़कर चार हो गए। इसी तरह मुसलमानों के छह विधायकों में से पांच अब भी अपनी जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। मुसलमानों के छठे विधायक नसीम खान केवल कुछ सौ वोट से चांदिवली सीट हार गए। वहीं, उत्तर भारतीय विधायकों की संख्या तीन से घटकर केवल एक रह गई। 2009 में कृपाशंकर सिंह, राजहंस सिंह और रमेश सिंह ठाकुर के रूप में धाकड़ उत्तर भारतीय नेता विधायक थे, वहीं आज विधान सभा में विद्या ठाकुर के रूप में एक मात्र उत्तर भारतीय प्रतिनिधित्व है। इसी तरह शहर में दक्षिण भारतीय विधायकों की संख्या चार से गिरकर केवल एक रह गई, जबकि पंजाबी और ईसाई नेतृत्व क्रमशः दो विधायकों (सरदार तारा सिंह और बलदेव खोसा) और एक विधायक (एनी शेखर) से अब शून्य हो गया।

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यही वजह है कि कोरोना के संक्रमण काल में जब उत्तर भारतीय समाज के नेतृत्व की सबसे अधिक ज़रूरत थी, तब उनके नेता कहीं परिदृश्य में ही थे ही नहीं। मुंबई में उत्तर भारतीय समाज को नेतृत्व का अकाल इस हद तक झेलना पड़ा कि सोनू सूद जैसे बॉलीवुड अभिनेता को उत्तर भारतीयों की मदद करने और उनको घर पहुंचाने के लिए पहल करनी पड़ा और मैदान में उतरना पड़ा। उत्तर भारतीय समाज के भूखे-प्यासे लोग जब अपने गांव जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब उनका साथ देने के लिए कोई नहीं आया। यही वजह है कि मदद का हाथ बढ़ाने वाले सोनू सूद रातोंरात उत्तर भारतीयों के आंखों के तारे बन गए।

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बहरहाल, इस मुद्दे में उत्तर भारतीय नेताओं को आत्म मंथन की ज़रूरत है। क्या उत्तर भारतीय नेताओं का हिंदी भाषी जनता से जुड़ाव घट रहा है? मुंबई में हिंदी और मराठी के संबंध सगी बहनों का सा रहा है। इसीलिए हिंदीभाषी लोग हिंदी को मां और मराठी को मौसी कहते रहे हैं। इसलिए आज उत्तर भारतीय समाज को ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है, जो इस समाज के लोगों के अधिकारों की बात तो करे ही, उन अधिकारों की रक्षा के लिए ज़रूरत पड़ने पर सरकार से लड़ने का माद्दा रखता हो। ताकि समाज को नई दिशा दी जा सके। इसके लिए ख़ुद उत्तर भारतीय समाज को पहल करनी पड़ेगी।

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विधानसभा में प्रतिनिधित्व

 क्रम संख्या  समाज 2009 2019
1  मुसलमान 6 5
2  गुजराती/मारवाड़ी 3 4
3  दक्षिण भारतीय 4 1
4  उत्तर भारतीय 3 1
5  पंजाबी 2 0
6  ईसाई 1 0
7  मराठी 17 25

Loksabha मुंबई में कई समाज का नेतृत्व वायरसग्रस्त

लोकसभा में प्रतिनिधित्व

 क्रम संख्या  समाज 2009 2019
1  उत्तर भारतीय 1 0
2  पंजाबी 1 0
3  मारवाड़ी 1 0
4  दक्षिण भारतीय 1 1
5  मराठी 2 4
6  गुजराती 0 1

 

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देवेंद्र फड़णवीस कोरोना से निपटने में उद्धव ठाकरे से बेहतर सीएम होते

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कोरोना वाइरस संपूर्ण विश्व के साथ-साथ भारत पर बुरी तरह कहर बरपा रहा है। भारत जल्दी ही दुनिया में कोरोना का दूसरा सबसे बड़ा हब बन गया है। हमारे भारत में इस वैश्विक महामारी का प्रकोप महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है। आर्थिक राजधानी मुंबई में हालात और भयावह है। लेकिन उद्धव ठाकरे सरकार और बृहन्मुंबई महानगर पालिका कोरोना से लड़ने की बजाय नीरो की तरह बंसी बजा रही रही है। पूरे देश में सबसे ज़्यादा कोरोना संक्रमित इसी शहर में हैं और मौते भी सबसे अधिक यहीं हो रही हैं। मुंबई भारत का न्यूयॉर्क बन गई है। बीएमसी अपने नागरिकों लोगों को कोरोना से मरते असहाय देखने के अलावा कुछ भी नहीं कर रही है।

ऐसे समय जब महाराष्ट्र अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है, तब इस राज्य को युवा और तेज तर्रार मुख्यमंत्री की ज़रूरत थी, जो हर जगह पहुंच कर मुस्तैदी से राज्य के प्रशासन तंत्र का संचालन करता। हर जगह इन दिनों यही चर्चा है कि यह सरकार कोरोना से लड़ने में बिल्कुल नकारा साबित हुई हैं। संकट के इस समय मुंबई ही नहीं बल्कि पूरे राज्य को लोग पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस को शिद्दत से याद कर रहे हैं।

Devendra-Fad-300x225 देवेंद्र फड़णवीस कोरोना से निपटने में उद्धव ठाकरे से बेहतर सीएम होते

इसी बीच कोरोना से लड़ने के लिए सबसे सक्षम मुख्यमंत्री के बारे में एक ट्विटर सर्वेक्षण किया गया। जिसमें बहुत बड़ी तादाद में लोगों ने शिरकत की। सर्वे में शामिल केवल 5 फ़ीसदी लोगों ने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री के रूप में पसंद किया है। इस सर्वे में शामिल 91 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि कोरोना जैसी भयावह बीमारी से लड़ने के लिए इस समय राज्य को देवेंद्र फडणवीस जैसा 24 घंटे काम करने वाला युवा, अनुभवी और तेज़तर्रार मुख्यमंत्री चाहिए था। सर्वे में शामिल 1 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि इस समय मुख्यमंत्री आदित्य ठाकरे को होना चाहिए, जबकि 3 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि कोरोना को कांग्रेस के पृथ्वीराज चव्हाण बेहतर ढंग से हैंडल कर सकते थे।

सर्वे में शामिल लोगों का कहना था कि कोरोना के चलते राज्य अपने साठ साल के इतिहास में सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा है। लिहाज़ा, राज्य को युवा, अनुभवी और ऊर्जावान मुख्यमंत्री की ज़रूरत थी। लेकिन राज्य के पास इस समय वैश्विक महामारी से लड़ने के लिए वैसा मुख्यमंत्री ही नहीं है। राज्य को 24 घंटे काम करने वाले सीएम की कमी बुरी तरह खल रही है। सीएम आवास होने के नाते जिस वर्षा बंगले को कोरोना से निपटने का मुख्य नियंत्रण केंद्र होना चाहिए था। जिस बंगले से राज्य के सभी 36 ज़िलों, 27 महानगर पालिकाओं, 3 महानगर परिषदों और 34 जिला परिषदों के साथ प्रशासन का संचालन होना चाहिए था, उस वर्षा बंगले को अनुभवहीन, असुरक्षित, अदूरदर्शी और अपरिपक्व नेतृत्व ने पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया है और कोरोना वायरस राज्य में शिव तांडव कर रहा है।

फिलहाल, चीफ़ मिनिस्टर उद्धव ठाकरे कोरोना संक्रमण काल में जिस तरह से काम कर रहे हैं, उससे कुछ लोग कहने लगे हैं कि सीएम साहब ख़ुद सोशल डिस्टेंसिंग और वर्क फ्रॉम होम की पॉलिसी का बड़ी शिद्दत से पालन कर रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र की जनता से अपनी सोशल डिस्टेंसिंग शुरू से बरक़रार रखी है। राज्य का प्रशासन भी वह वर्क फ्रॉम होम चीफ़ मिनिस्टर के रूप में चला रहे हैं। इसीलिए उन्हें वर्क फ्रॉम होम चीफ़ मिनिस्टर कहा जा रहा है। वर्क फ्रॉम होम का नतीजा ‘नो वर्क’ के रूप में सामने आ रहा है। मज़ेदार बात यह है कि कोरोना संक्रमण को रोकने का उनका सारा कामकाज सोशल मीडिया से ही हैंडल हो रहा है। इसका नतीजा यह हो रहा है, कि कोरोना संक्रमण और उससे होने वाली मौतों का डेटा राज्य में बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है।

Uddhav-300x204 देवेंद्र फड़णवीस कोरोना से निपटने में उद्धव ठाकरे से बेहतर सीएम होते

मुख्यमंत्री अमूमन पूरे राज्य का होता है, लेकिन उद्धव ठाकरे ने बड़ी ईमानदारी से बता दिया कि वह राज्य में सभी लोगों के चीफ़ मिनिस्टर नहीं हैं। उनको पता है, उन्हें केवल शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने चीफ़ मिनिस्टर बनाया है। इसलिए वह केवल शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए काम कर रहे हैं। वह जानते हैं, उन्हें कौन-कौन लोग वोट देते हैं, इसलिए वोट देने वालों के लिए ही काम कर रहे हैं। उद्धव सोशल मीडिया पर सबको जवाब नहीं देते, भाजपा नोताओं को तो कतई नहीं। इसीलिए भाजपा नेताओं ने सीएम रिलीफ फंड में जो योगदान किया, उसका उद्धव ठाकरे ने नोटिस ही नहीं लिया। जबकि उनके अपने लोगों ने कहीं कुछ भी योगदान दिया तो सोशल मीडिया पर उन्होंने आभार व्यक्त किया।

पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस बराबर कोरोना संक्रमण से लड़ने में सरकार को मदद करने का आश्वासन देते रहे हैं, लेकिन उद्धव ठाकरे ने उनके किसी पहल का जवाब देना भी उचित नहीं समझा। कोई राज्य सरकार के ख़िलाफ़ एक शब्द बोल दे तो फौरन कार्रवाई हो जाती है। उद्धव की कार्यशैली में जातिवाद, भाषावाद और धर्मवाद का मिश्रण है। जिन प्रवासी मज़दूरों ने राज्य के विकास के लिए अपना ख़ून-पसीना बहाया। उन प्रवासी मज़दूरों को भोजन तक इस सरकार ने नहीं दिया। उनके बारे में किसी मुद्दे पर बातचीत भी केवल मराठी में बोलते रहे। हिंदी बोलने की जहमत नहीं उठाई। यहां तक कि सरकार जो भी प्रेस रिलीज जारी करती है, वह भी मराठी में ही होता है। इसीलिए, कोरोना का मारा रोता-बिलखता मजदूर निराश होकर अपने गांव-घर लौट रहा है। प्रवासी मज़दूरों को रोकना और उन्हें राशन या दूसरी आर्थिक मदद देना सरकार के एजेंडे में ही नहीं है। राशन या दूसरी आर्थिक मदद तो दूर राज्य सरकार प्रवासी मज़दूरों को अपनापन तक नहीं दे पाई। उनकी तकलीफ़ को समझने का प्रयास ही नहीं किया। लिहाज़ा, यहां अपना ख़ून बहाने वाला मज़दूर गांव चला जा रहा है। मज़दूर को लगता है कि यह राज्य न तो कोई राशन देगी और न ही कोई आर्थिक मदद। ऐसे में जान बचाकर भागना ही बेहतर होगा। इसीलिए जिसे जो भी साधन मिल रहा है, उसी से भाग रहा है। जिन्हें कोई साधन नहीं मिल रहा है, वे पैदल ही अपने गांव जा रहे हैं।

प्रवासी मज़दूरों की बात छोड़िए, उद्धव सरकार राज्य के किसानों को भी किसी तरह की सहायता करने में पूरी तरह विफल रही है। राज्य की जनता को खाद्यान्न और अन्य कृषि उपज देने वाले इन धरती पुत्रों की कोरोना संक्रमण काल में बहुत अधिक उपेक्षा हो रही है। जहां दूसरे राज्यों की सरकारें अपने राज्य के किसानों को आर्थिक मदद पहुंचाने के लिए घोषणाएं कर रही हैं। वहीं महाराष्ट्र सरकार राज्य के किसानों का भी कल्याण केवल सोशल नेटवर्किंग पर कर रही है।

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सरकारी तंत्र और राज्य मंत्रिमंडल में कोऑर्डिनेशन या आपसी तालमेल नहीं दिख रहा है। संपूर्ण मंत्रिमंडल कोरोना से डरा है। दो मंत्री कोरोना संक्रमित पाए गए हैं। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ख़ुद वर्षा की बजाय मातोश्री में रहते हैं और वह बाहर ही नहीं निकल रहे हैं। यही हाल महाराष्ट्र के सारे मंत्रियों का है। पालकमंत्री तक अपने जिले में नहीं जा रहे हैं। जब से मातोश्री के पास पहले चायवाला और बाद में सीएम सुरक्षा में तैनात कई पुलिस वाले संक्रमित मिले, तब से उद्धव बमुश्किल ही घर से बाहर निकलते हैं। वह कोरोना से इतने भयभीत हैं कि अपनी कार ख़ुद ड्राइव करते हैं। तालमेल के अभाव में राज्य में अफरा-तफरी का माहौल है। इससे कोरोना से निपटने भारी मुश्किलात आ रही हैं। बांद्रा के एमएआरडीए ग्राउंड और गोरेगांव के एग्ज़िबिशन सेंटर में भारी-भरकम अस्थाई अस्पताल बनाए गए हैं, लेकिन वहां कोरोना मरीज़ों का इलाज करने के लिए डॉक्टर और अन्य मेडिकल स्टॉफ़ ही नहीं है।

राजनीतिक टीकाकारों का भी मानना है कि कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए वर्षा बंगले को इस समय हर तरह की प्रशासनिक गतिविधि का केंद्र होना चाहिए था। दक्षिण मुंबई में राजभवन ही नहीं, मंत्रालय भवन और बीएमसी मुख्यालय, मुंबई एवं महाराष्ट्र पुलिस मुख्यालय और भारतीय नौसेना मुख्यालय और दूसरे अन्य प्रमुख संस्थान वर्षा के आसपास चार से पांच किलोमीटर के ही दायरे में हैं। वहां से प्रशासनिक संचालन और दिशा-निर्देश जारी करने में आसानी होती लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए अनुभवहीन उद्धव ठाकरे यहीं ग़लती कर बैठे। वह अपने निजी आवास मातोश्री में बैठकर टेलिफोन और विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए कोरोना के संक्रमण को रोकने की कोशिश कर रहे हैं और कामयाब नहीं हो रहे हैं। उनके निर्णयों के चलते राज्य में कोई कोरोना से जान गंवा रहा है, तो कोई जान बचाने के लिए राज्य से बाहर भाग रहा है।

यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा, कि राज्य का लचर प्रशासन कोरोना को यहां फलने-फूलने का अवसर ही नहीं दे रही है, बल्कि राजनीति करके उसे खाद पानी भी दे रही है। मार्च के दूसरे पखवारे से जहां देश में कोरोना के खिलाफ मोर्चा प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ख़ुद संभाले हुए थे और हर राज्य का मुख्यमंत्री व्यक्तिगत रूप से अपने राज्य में कोरोना की मॉनिटरिंग कर रहा था, वहीं महाराष्ट्र इकलौता राज्य में जहां कोरोना से जंग की कमान मुख्यमंत्री ने अपने हाथ में रखने की बजाय हेल्थ मिनिस्टर को दे रखा था। ज़ाहिर है, हेल्थ मिनिस्टर की अपनी सीमा होती है। वह हर विभाग को दिशा-निर्देश जारी नहीं कर सकता। यही वजह है कि राज्य के प्रशासन में तालमेल का अभाव है। सब लोग अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं और कोरोना फैलता जा रहा है।

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अगर प्रवासी मज़दूरों के महाराष्ट्र से पलायन की बात करें, तो इस मोर्चे पर भी उद्धव ठाकरे सरकार बुरी तरह से असफल रही। प्रवासी मज़दूरों को महाराष्ट्र की सरकार रोक नहीं पाई। उन्हें राशन या दूसरी आर्थिक मदद तो दूर अपनापन तक नहीं दे पाई। उनकी तकलीफ़ को समझने का प्रयास ही नहीं किया। उद्धव ठाकरे ने ख़ास मकसद से जानबूझकर वोट की राजनीति की और लोगों को बांटने का काम किया। यही वजह है कि राज्य के विकास के लिए अपना ख़ून-पसीना बहाने वाला मज़दूर यहां से गांव चला गया। मज़दूर को लगा कि यह राज्य न तो कोई राशन देगी और न ही कोई आर्थिक मदद। ऐसे में जान बचाकर भागना ही बेहतर था। इसीलिए जिसे जो भी साधन मिला, उसी से भागा। जिन्हें कोई साधन नहीं मिल रहा है, वे पैदल ही अपने गांव चले गए।

मुंबई में संक्रमित मरीज़ों के संपर्क में आए लोगों की तादाद इतनी अधिक है कि सबको अलग-अलग क्वारंटीन सेंटर में रखना संभव नहीं है। इसीलिए बीएमसी ने दिशा निर्देश जारी किया कि जिन इमारत में कोरोना पॉज़िटव मरीज़ मिलेगा, वहां अब पूरी बिल्डिंग को नहीं बल्कि उस मंज़िल विशेष को ही सील किया जाएगा। मुंबई में संक्रमित मरीज़ों की बढ़ती संख्या से अस्पतालों में बेड कम पड़ रहे हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कोरोना संक्रमण काल में लावारिश लाशों के अंतिम संस्कार के लिए आगे आए मोहित भारतीय

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मुंबई। भारतीय जनता पार्टी, मुंबई के महासचिव और सामाजिक सरोकारों से जुड़े ट्रस्ट मोहित भारतीय फाउंडेशन के चेयरमैन मोहित भारतीय मुंबई में कोरोना वाइरस के संक्रमण या दूसरी बीमारियों से मरने वाले उन लोगों के पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार करने के लिए आगे आए हैं, जिन लाशों को लेने के लिए लॉकडाउन या दूसरे कारणों से उनके परिजन आगे नहीं आ रहे हैं। इस कार्य के लिए उन्होंने बीएमसी कमिश्नर से औपचारिक अनुमति देने का अनुरोध किया है।

बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) आयुक्त इकबाल सिंह चहल को लिखे एक पत्र में श्री भारतीय ने कहा कि कोरोना संक्रमण के कारण जान गंवाने वाले ढेर सारे लोगों के पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ले जाने के लिए उनके परिजन आगे नहीं आ रहे हैं। इससे मुंबई के मुर्दाघरों में शव कई-कई दिन पड़े रहते हैं। ऐसे में उनके ट्रस्ट मोहित भारतीय फाउंडेशन ने लावारिश लाशों के अंतिम संस्कार में बीएमसी और मुंबई पुलिस का हाथ बंटाने का फैसला किया है।

KEM-dead-bodies-300x175 कोरोना संक्रमण काल में लावारिश लाशों के अंतिम संस्कार के लिए आगे आए मोहित भारतीय

बीएमसी कमिश्नर को लिखे पत्र में श्री भारतीय ने कहा, “वैश्विक महामारी कोविड-19 के संक्रमण काल में कोरोना या दूसरी बीमारियों से जान गंवाने वाले लोगों के अंतिम संस्कार का अतिरिक्त दायित्व बीएमसी और मुंबई पुलिस को निभाना पड़ रहा है। ऐसे में भारत और महाराष्ट्र के नागरिक के रूप में हर किसी की जिम्मेदारी है कि संकट के इस समय में बीएमसी का हाथ बंटाए। इसीलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि जिन लाशों को लेने के लिए उनके परिजन कुछ निजी कारणों से आगे नहीं आ पा रहे हैं, उन लाशों के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी मेरे फाउंडेशन को सौंप दी जाए। हम हर शव का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार करने के लिए तैयार हैं।”

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श्री भारतीय ने आगे कहा, “आपकी अनुमति मिलने के बाद हमारा फाउंडेशन उन लाशों को मुर्दाघरों से उठाने के लिए एंबुलेंस का प्रबंध करेगा और उन्हें अस्पताल के मुर्दाघर से श्मशान घर ले जाया जाएगा और वहां पूरे सम्मान के साथ हर शव का अंतिम संस्कार किया जाएगा।”

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